अर्थव्यवस्था के विकास में जीडीपी की गणना भ्रमित करती है
सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) की अवधारणा के साथ-साथ इसके मापने से जुड़ी समस्याएं भी काफी जानी-मानी हैं। सेवा क्षेत्र को जीडीपी के दायरे में लाने पर एडम स्मिथ ने इस वैचारिक आधार पर आपत्ति जताई होती कि इस क्षेत्र में कार्यरत लोग "अनुत्पादक श्रमिक" हैं यानि इनका उत्पादन से कोई लेना-देना नहीं है। निश्चित तौर पर, पूर्व सोवियत-संघ और पूर्वी-यूरोपीय समाजवादी देशों में, सकल घरेलू उत्पाद नहीं बल्कि सेवा क्षेत्र को छोड़कर सकल भौतिक उत्पाद को प्रासंगिक उपाय माना जाता था।
भले ही सेवा क्षेत्र को सकल घरेलू उत्पाद में शामिल कर लिया गया हो लेकिन इसके उत्पादन को मापने के तरीके में एक वैचारिक समस्या है। क्योंकि किसी भी सेवा का प्रतिपादन क्या होता है और केवल हस्तांतरण भुगतान क्या होता है, इसे अलग करना मुश्किल है। आख़िरकार, किसी को स्थानांतरण भुगतान करने से ठीक उसी तरह संतुष्टि मिल सकती है जैसे किसी संगीतकार को प्रदर्शन से मिलती है। फिर हम जीडीपी के दायरे में एक को कैसे शामिल कर सकते हैं और दूसरे को क्यों नहीं?
लेकिन इन वैचारिक समस्याओं के अलावा, जीडीपी की माप से जुड़ी समस्याएं भी हैं, अन्य समस्याओं के साथ-साथ विशाल लघु उत्पादन क्षेत्र के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याएं, जिनके लिए हमारे पास विश्वसनीय, नियमित और समय आधारित डेटा नहीं है। उदाहरण के लिए, भारत में, विभिन्न कारणों से, कई अर्थशास्त्रियों ने सुझाव दिया है कि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर का माप एक अति-अनुमान वाला है यानि इसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है।
यह बात भी स्पष्ट है कि जीडीपी राष्ट्रीय कल्याण का कोई सूचकांक नहीं है; इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि जीडीपी का वितरण बेहद असमान हो सकता है। लेकिन साम्राज्यवाद का काम करने का तरीका, तीसरी दुनिया के देशों के भीतर एक विशेष प्रकार का द्वंद्व पैदा करता है जो आर्थिक प्रगति को मापने के लिए जीडीपी को पूरी तरह से अनुपयुक्त बना देता है। दरअसल, जीडीपी इस द्वंद्व को छुपाने का काम करती है जिसमें समय के साथ बढ़ने की प्रवृत्ति भी होती है।
समकालीन तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर साम्राज्यवाद के दो अलग-अलग प्रभाव हैं। क्योंकि ऐसी अर्थव्यवस्था आम तौर पर उष्णकटिबंधीय में स्थित होती है, औद्योगिक देशों को इससे कई कृषि उत्पादों (खनिजों के अलावा) की जरूरत होती है जो केवल उष्णकटिबंधीय भूमि-समूह ही उत्पादन करने में सक्षम होते हैं या उस अवधि के दौरान उत्पादन करती है जब ठंडे समशीतोष्ण क्षेत्र होते हैं। दुनिया, जो पूंजीवाद का घरेलू आधार है, तब वह ठंड के कारण जमी हुई होती है।
इस प्रकार, गेहूं और मकई के अलावा, साम्राज्यवाद को तीसरी दुनिया से प्राथमिक वस्तुओं की एक पूरी श्रृंखला की जरूरत होती है जिसका या तो वह खुद किसी भी मौसम में उत्पादन नहीं कर सकते हैं या कि वे केवल अपने गर्म मौसम में ही उसका उत्पादन कर सकते हैं लेकिन सर्दियों में नहीं। इसलिए इन्हें आयात करना पड़ता है। लेकिन उष्णकटिबंधीय भूमि-भाग की सीमा सीमित है और चूंकि "भूमि-संवर्द्धन" प्रथाओं, जैसे कि सिंचाई और अन्य तकनीकी परिवर्तन जो भूमि उत्पादकता को बढ़ाते हैं, के लिए आमतौर पर एक सक्रिय हुकूमत की आवश्यकता होती है। पूंजीवाद किसी भी प्रकार की हुकूमत की सक्रियता का विरोध करता है। जो खुद को नहीं बल्कि किसान कृषि को समर्थन और बढ़ावा देता है, ऐसी "भूमि-वृद्धि" पर्याप्त मात्रा में नहीं हो रही है।
महानगरीय जरूरतों को पूरा करने के लिए उष्णकटिबंधीय उत्पादों की आवश्यक आपूर्ति को तीसरी दुनिया के भीतर उनके घरेलू अवशोषण को कम करके महानगरों में निर्यात करने पर मजबूर किया जाता है। इसलिए, साम्राज्यवाद आवश्यक रूप से तीसरी दुनिया पर आय संकुचन लागू करता है जिसके परिणामस्वरूप मांग में संकुचन आता है।
नवउदारवादी निज़ाम का एक मुख्य काम तीसरी दुनिया को ऐसी वस्तुओं के अप्रतिबंधित निर्यात के लिए खोलना है और इसे हासिल करने के लिए, नियमित रूप से मांग में कमी लाना है। इस तरह के खुलेपन के लिए आवश्यक है कि किसानों की फसल उगाने का चुनाव राष्ट्रीय खाद्य आत्मनिर्भरता या स्थानीय जरूरतों के विचारों से प्रभावित न हो बल्कि विशेष रूप से "बाज़ार" से प्रभावित हो जिसका अर्थ है महानगर की क्रय शक्ति का खिंचाव।
इसे सुनिश्चित करने के लिए, दक्षिणी देशों में, विशेष रूप से खाद्यान्नों के लिए सभी किस्म के सरकारी मूल्य समर्थन, और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बनाए रखने के लिए खाद्य फसलों का भंडारण समाप्त किया जाना चाहिए, और सभी मात्रात्मक व्यापार प्रतिबंधों को हटाकर घरेलू कीमतों को अंतरराष्ट्रीय कीमतों के अनुरूप बनाया जाना चाहिए जिसमें शून्य या न्यूनतम टैरिफ लगाना शामिल होना चाहिए। विश्व व्यापार संगठन बिल्कुल यही सुनिश्चित करना चाहता है। साथ ही, औद्योगिक देश खाद्यान्न और कपास के अपने कृषि उत्पादकों को बहुत अधिक प्रत्यक्ष नकद सब्सिडी देते हैं, जिसे 'गैर-व्यापार-विकृत' के रूप में लेबल किया जाता है।
यदि उन फसलों की अपर्याप्त आपूर्ति होती है जिन्हें महानगर आयात करना चाहता है, तो मुद्रास्फीति बढ़ती है, जिसका मुकाबला करने के लिए नियमित रूप से मांग संपीड़न उपाय लागू किए जाते हैं जो आवश्यक रूप से घरेलू मांग को प्रतिबंधित करते हैं और महानगर के लिए अधिक आपूर्ति की ओर ले जाते हैं। इन सभी तंत्रों के माध्यम से नवउदारवादी निज़ाम का पूरा प्रभाव तीसरी दुनिया में शुद्ध प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता को कम करता है, और भूमि पर महानगरों की मांग के मुताबिक फसलें उगाई जाती हैं। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा हम देखते हैं।
तीसरी दुनिया के देशों पर साम्राज्यवाद का दूसरा प्रभाव है। यह इस तथ्य से उत्पन्न होता है कि औपनिवेशिक विऔद्योगीकरण ने इन देशों को बड़े पैमाने पर श्रम भंडार के साथ छोड़ दिया था जिसने वास्तविक मजदूरी को न्यूनतम निर्वाह स्तर तक बांधे रखा, यहां तक कि महानगर के भीतर वास्तविक मजदूरी कमोबेश श्रम उत्पादकता के साथ बढ़ती रही।
दोनों क्षेत्रों के वेतन के बीच इस बढ़ते अंतर के कारण, महानगरों के बहुराष्ट्रीय निगम अब स्थानीय बाजार की नहीं बल्कि विश्व बाजार की जरूरतों को पूरा करने के लिए तीसरी दुनिया के भीतर संयंत्र लगाने के इच्छुक हैं। महानगरों से तीसरी दुनिया की गतिविधियों का यह स्थानांतरण, विशेष रूप से "निचले स्तर" या कम कौशल-गहन गतिविधियों का, श्रम भंडार को अवशोषित करने के लिए नहीं है, जिससे कम वास्तविक मजदूरी बनी रहती है, जो आय संपीड़न से बढ़ जाती है जिसका पहले उल्लेख किया जा चुका है। लेकिन यह शहरी विकास का एक स्रोत बन गया है जिसमें तीसरी दुनिया के संदर्भ में मध्यम आय वाला रोजगार भी शामिल है।
साम्राज्यवाद के ये दो प्रभाव तीसरी दुनिया के भीतर एक द्वैतवादी संरचना का निर्माण करते हैं। उपनिवेशवाद, जिसने तीसरी दुनिया के भीतर "परिक्षेत्रों" या एंक्लेव्स का निर्माण किया था, जहां विदेशी पूंजी संचालित होती थी, ने वैसे भी ऐसी द्वैतवादी संरचना को जन्म दिया था। उपनिवेशवाद-विरोधी तीसरी दुनिया, जो उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के आधार पर उभरी थी, इस द्वैतवाद पर काबू पाने के लिए प्रतिबद्ध थी। लेकिन, नवउदारवाद ने डिरिगिस्ट निज़ाम यानि आर्थिक विकास में हुकूमत के हस्तक्षेप की सकारात्मक भूमिका को बदल दिया और तीसरी दुनिया के भीतर द्वैतवाद की इस प्रवृत्ति को फिर से पैदा कर दिया है। समय के साथ दोनों पक्षों के बीच की खाई चौड़ी हो गई है।
यह सुनिश्चित करने के लिए, तीसरी दुनिया के बढ़ते "आधुनिक" खंड में श्रमिकों और कृषि किसान और छोटे उत्पादन जैसे स्थिर या घटते खंड में उनके समकक्षों के बीच अंतर नहीं बढ़ता है। श्रमिकों के दोनों समूह बड़े पैमाने पर और बढ़ते श्रम भंडार के शिकार होते हैं जो वास्तविक मजदूरी की दर को नीचे बनाए रखते हैं, साथ ही महत्वपूर्ण मुद्रास्फीति पैदा किए बिना उष्णकटिबंधीय भूमि-समूह से महानगर की मांगों को निचोड़ने के लिए लगाए गए मांग संपीड़न के भी शिकार होते हैं।
लेकिन एक ओर "आधुनिक" खंड में लगे स्थानीय बड़े पूंजीपति वर्ग और उच्च मध्यम आय वाले पेशेवरों और आधुनिक और पारंपरिक दोनों क्षेत्रों में लगे कामकाजी लोगों के बीच अंतर स्पष्ट रूप से बढ़ रहा है। और इसका एक स्थानिक आयाम भी है, जो ग्रामीण-शहरी द्वंद्व में खुद को सबसे स्पष्ट रूप से व्यक्त करता है।
यह बढ़ता हुआ ग्रामीण-शहरी द्वंद्व खुद भारतीय आधिकारिक आंकड़ों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यदि हम पोषण संबंधी गरीबी के परिमाण को लें जिसे शहरी भारत में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2,100 कैलोरी से कम और ग्रामीण भारत में 2,200 कैलोरी से कम तक पहुंच के रूप में परिभाषित किया गया है तो इस मानदंड से नीचे शहरी आबादी का अनुपात 1993-94 में 57 प्रतिशत से बढ़ गया था जो 2017-18 में लगभग 60 प्रतिशत हो गया है। इसके विपरीत, ग्रामीण भारत में, इसी अवधि में यह अनुपात 58 प्रतिशत से बढ़कर 80 प्रतिशत से अधिक हो गया है। (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण डेटा, जिससे ये गणनाएं उत्सा पटनायक द्वारा आगामी पुस्तक में की गई हैं और उनके द्वारा दर्शाए जाने के कारण भारत सरकार ने उन्हें वापस ले लिया है)। वास्तव में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के तहत, जिसने एक आक्रामक, निर्लज्ज नवउदारवादी नीति अपनाई है, यह द्वंद्व बहुत बढ़ गया है।
अर्थव्यवस्था के दो खंडों के बीच इस तरह के स्पष्ट और तीव्र द्वंद्व के चलते, जीडीपी जैसे एकमात्र उपाय का इस्तेमाल एक छद्म या भ्रमित उपकरण के रूप में काम करता है। ऐसा नहीं है कि बढ़ती आय असमानता जीडीपी को आर्थिक कल्याण के लिए एक अनुचित उपाय बनाती है, एक ऐसा प्रस्ताव जिसे आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है; लेकिन इस बढ़ती असमानता का एक स्थानिक आयाम है जो नवउदारवाद के प्रभुत्व के तहत एक द्वैतवादी आर्थिक संरचना का पुनर्निर्माण करता है साम्राज्यवाद के पुन: दावे का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए जीडीपी का इस्तेमाल साम्राज्यवाद द्वारा प्रस्तुत इस बढ़ते संरचनात्मक द्वंद्व को छिपाने का काम करता है। संक्षेप में, यह साम्राज्यवाद के संचालन को छिपाने का काम करता है।
लेकिन यही सब कुछ नहीं है। भारत में सकल घरेलू उत्पाद के सभी प्रारंभिक अनुमान बड़े पैमाने के क्षेत्र के आंकड़ों के आधार पर बनाए जाते हैं और कई मामलों में बड़े पैमाने के क्षेत्र की वृद्धि दर को "अनंतिम" कदम के रूप में छोटे पैमाने के क्षेत्र के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन इसका मतलब यह मान लेना है कि धराशायी होता छोटा क्षेत्र अपने समकक्ष के बराबर तेजी से बढ़ रहा है यह कुछ और नहीं बल्कि सच्चाई का मजाक उड़ाना है।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
मूल अंग्रेजी लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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