किसान आंदोलन का जीवंत दस्तावेज़ : ग्राउंड ज़ीरो 2020-21
किसानों की स्वायत्ता (मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा कानून) कृषि उत्पादों के विपणन या मार्केटिंग (कृषि उपज वाणिज्य एवं व्यापार (संवर्द्धन एवं सुविधा कानून ) और उपभोक्ताओं की जेब पर सीधे तौर पर नकारात्मक और गंभीर असर डालने वाले (आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून) को फिलहाल केंद्र सरकार ने अंतत: रद्दी की टोकरी में डालने का फैसला लिया।
हालांकि इन तीनों क़ानूनों को समग्र रूप से व्यापक कृषि सुधारों की दिशा में उठाए गए अभूतपूर्व कदम के रूप में प्रचारित किया गया था। मौजूदा सरकार ने इन क़ानूनों को ठीक ढंग से देश के चंद किसानों को समझा नहीं पाने का अफसोस जताते हुए इन्हें निरस्त किया।
सरकार जिन्हें चंद किसान कह रही है उन किसानों ने एक साल और 15 दिनों तक देश की राजधानी को चारों तरफ से घेर कर रखा। इस अहिंसक और शांतिमय आंदोलन ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा।
देश के लोकतांत्रिक इतिहास में अपनी अमिट मौजूदगी बनाने वाले इस आंदोलन की कुछ ख़ासियतें ऐसी रहीं जिन्हें देश के अवाम ने महसूस किया। जन आंदोलनों पर लिखने-पढ़ने वाले लोगों ने अलग अलग मौकों पर इन खासियतों की एक मुख़तसर सी फेहरिस्त बनाई है जो इस प्रकार रही-
यह स्वाधीन भारत का पहला बड़ा और लंबा आंदोलन है जिसने बिना न्यायपालिका की शरण में जाए विधायिका और कार्यपालिका को सीधी राजनैतिक चुनौती दी है और उसका विस्तार लगभग 22 राज्यों में किया।
इस आंदोलन ने नव उदारवादी अर्थव्यवस्था की तेज़ रफ़्तार पर ब्रेक लगाया है। 2014 तक देश में विभिन्न जन आंदोलनों और संगठित जन प्रतिरोधों के कारण ही पूरी तौर पर इस नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के सम्पूर्ण एजेंडे को लागू होने से रोक रखा था।
प्रचंड बहुमत से सत्ता में दोबारा वापसी करके भाजपा सरकार ने इस गति को तेज़ी देने की खुलेआम कोशिश जारी रखी जिसे कोरोना महामारी की आड़ में जब सरकार को लगा कि इस समय कोई जन प्रतिरोध सामने नहीं आयेगा, बड़े बड़े कॉर्पोरेट्स के हितों में कृषि सुधारों के नाम पर इन क़ानूनों को अध्यादेशों के रूप में लाया गया।
इसके बाद बाज़ाब्ता संसद के दोनों सदनों में संसदीय मर्यादाओं का पालन किए बगैर इन क़ानूनों को जबरन पारित करवा लिया गया। इन क़ानूनों के अलावा श्रम सुधारों के लिए पूँजीपतियों के हितों में इसी समय अमल में लाया गया।
इस सरकार से पहले जैव विविधता, बीज संरक्षण, एंटी-जीनोम अभियान, जन प्रतिरोधों के रूप में सामने आए और इस एजेंडे को लागू होने में रुकावटें खड़ी करते रहे। थोड़ा और पीछे जाएँ तो स्वामीनाथन आयोग भी इन्हीं रुकावटों को लेकर ‘सहमति बनाने’ की ही एक प्रक्रिया थी।
करीब 13 महीने से दिल्ली की सरहदों पर अहिंसक आंदोलन के और सत्याग्रह के जरिये इस किसान आंदोलन ने खेत, खेती और किसानों से जुड़े तमाम मुद्दों को लोगों की चेतना में लाने में सफलता पायी।
कृषि उत्पाद मंडी; कॉट्रैक्ट फार्मिंग;और एसेंशियल कमोडिटी एक्ट संशोधनों के मुद्दे को एक साथ उठाने से जन आधार के विस्तार में काफी मदद मिली।
आंदोलन का अपना सपोर्ट स्ट्रक्चर खड़ा करना और उसके लिए संसाधन जुटाने का अद्भुत उदाहरण पेश किया है इस आंदोलन ने।
देश के सबसे बड़े कोरपोरेट्स अंबानी और अडानी के बहिष्कार की अपील से भी आंदोलन के पक्ष में माहौल बनाने में मदद मिली। यह पहला आंदोलन है जिसने ‘अवज्ञा’ और ‘बहिष्कार’जैसे आज़ादी की लड़ाई के टूल्स का बखूबी इस्तेमाल किया।
हालांकि किसी बड़े आंदोलन में मौजूद या निहित इन खासियतों का संकलन बहुत औपचारिक और सतही भी हो सकता है अगर हम उस यान्त्रिकी को ठीक से नहीं समझते जो इस व्यापक आंदोलन के भीतर आकार ले रही थी। इस अंदरूनी मामले को ठीक से समझने और रेखांकित करना उन विशेषज्ञों के दायरे से बाहर है जो इस आंदोलन के भीतर अपनी पैठ नहीं बना सके या जिनका वास्ता किसान आंदोलन के रोज़मर्रा की अंदरूनी घटनाओं से नहीं रहा।
ऐसे में मनदीप पुनिया की हालिया प्रकाशित किताब इन तमाम हलचलों को पूरी प्रामाणिकता के साथ हमारे सामने लाती है। मनदीप पुनिया पहले दिन से ही इस व्यापक आंदोलन के साथ अंदरूनी तौर पर जुड़े रहे हैं और छोटी से छोटी घटना की सजीव रिपोर्टिंग करते रहे हैं। उनकी किताब ‘किसान आंदोलन : ग्राउंड ज़ीरो 2020-21’ एक ऐसा रिपोर्ताज है जो बाहर से इस आंदोलन को देखने वालों को एक नयी नज़र देता है।
दिलचस्प है कि मनदीप एक साथ पत्रकार और खुद किसान होने के नाते इस आंदोलन के साथ पूरे दौर में जुड़े रहे। एक साथ ‘इनसाइडर और आउट-साइडर’ होने की दोहरी भूमिका को निभाते रहे और कई बार खुद से जूझते रहे। हालांकि ‘निष्पक्षता’ जैसे वजनी शब्द का भार मनदीप ने न तो रिपोर्टिंग के दौरान ही लिया और न ही आंदोलन बीत जाने के 1 साल बाद आयी किताब में उसका असर दिखलाई देता है। मनदीप इस मामले में थोड़ा खाँटी हैं और पक्ष चुनते समय ओढ़ी हुई पेशेवर नैतिकता या गैर-ज़रूरी ‘पोलिटिकली करेक्टनेस’ के दबाव में नहीं आते हैं। इस मामले में वो अपनी राय बहुत स्पष्ट ढंग से बताते हैं – “देखिये भाईसाब, निष्पक्षता जैसा कुछ नहीं होता है, यह एक ढकोसला ही है जो आपको यह सहूलियत देता है कि आप पीड़ित का पक्ष न भी लें तो चलेगा”। ऐसे समय में जब किसानों को क्या क्या नहीं कहा जा रहा है और आप बात निष्पक्षता की करते हैं। मैं किसान आंदोलन के दौरान निष्पक्ष नहीं रहा, मैंने किसानों का पक्ष चुना। हाँ रिपोर्टिंग में तटस्थता से समझौता भी नहीं किया।“मेरे लिए निष्पक्ष होना और तटस्थ होना दो अलग अलग बातें हैं”। मनदीप इन दो शब्दों के बीच से अपनी बात कहने और पक्ष चुनने का रास्ता इस किताब के मार्फत निकालते हैं।
मनदीप ने यह किताब एक साक्षी के तौर पर लिखी है। बेहद सतर्कता से उन्होंने अपनी राय देने से खुद को बचाया है लेकिन कहीं कहीं ऐसा लगता है कि वह इस सतर्कता से चूके भी हैं। विशेष रूप से संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं के बारे में लिखते वक़्त जो इस आंदोलन के मुख्य चरित्र रहे हैं।
परिस्थितियों और संदर्भों में किसी व्यक्ति विशेष द्वारा किया गया कोई हस्तक्षेप कैसे उसकी पृष्ठभूमि से हमें अवगत करता है इस हुनर का मुजाहिरा मनदीप ने इस रिपोर्ताज़ में बखूबी किया है और यहीं मनदीप की बतौर लेखक विश्वसनीयता को थोड़ा झटका भी लगता है। कहीं कहीं ऐसा भी लगता है कि कुछ नेताओं को जैसे अपनी पसंद, ना-पसंद से आंक लिया गया है। कई बार यह भी लगता है कि मनदीप इतना ज़्यादा अंदरूनी राजनीति को बताना चाहते हैं जिसके बाद यह भरोसा करना मुश्किल हो जाता है कि अगर आंतरिक तौर पर तमाम संगठनों और जत्थेबंदियों में इतनी आपसी कटुता या भरोसे का अभाव था तो आखिर ये आंदोलन एकजुट कैसे हो पाया? इसका तफसील से जवाब इस किताब में नहीं मिलता सिवा इसके कि युवाओं ने ऐसी परिस्थितियों में ज़रूरी भूमिका अदा की।
हालांकि इस तथ्य के आलोक में कि यह मनदीप की किताब है। उनके अनुभव, उनके तजुर्बे और उनकी समझ इस किताब की विषय वस्तु है और उन्हें जो ठीक लगा या उन्होंने जो दर्ज करना चाहा वो किया और यह दावा नहीं किया कि जो भी इस किताब में लिखा गया है वही एकमात्र सत्य है तो ऐसे में किसान आंदोलन के नेताओं को अपना मन खराब करने की ज़रूरत नहीं है बशर्ते मनदीप अपने लिखे की आलोचनाओं को सुनने के लिए सहज तैयार हों।
दृश्यात्मक भाषा में लिखी गयी यह किताब पाठकों के उन सवालों का मुकम्मल जबाव देती है जो आंदोलन के दौरान उनके दिमाग में ज़रूर आए होंगे। जैसे छब्बीस जनवरी की घटना का जितना जीवंत, रोमांचक और बारीक वर्णन इस किताब में किया गया है वह न केवल मीडिया द्वारा गढ़े और फैलाये गए झूठ का पर्दाफाश करता है बल्कि उन लोगों के सामने भी इसका सटीक चित्रण करता है जिनकी सहानुभूति किसान आंदोलन के साथ तो रही लेकिन इस घटना ने उनके सामने भी आंदोलन के भटक जाने जैसी स्थिति का संकट पैदा किया। इस मामले में हालांकि उस दौरान भी मनदीप यही बता रहे थे लेकिन तब कोर्पोरेटी मीडिया का छद्म इतना आक्रामक और तीव्र था कि उनकी बात को उस समय अनसुना ही रह जाना था।
पीढ़ियों के बीच आंदोलन की रणनीति को लेकर जो द्वंद मौजूद रहा इस आंदोलन के दौरान उसका बहुत सूक्ष्म विवरण मनदीप ने इस किताब में दिया है। युवा किसान जो अपने बुजुर्गों की इज़्ज़त तो करते हैं लेकिन जैसे उनकी रग-रग से वाकिफ भी हैं और जैसे वो जानते हैं कि ये बुजुर्ग कहाँ कहाँ, कैसे कैसे भटक सकते हैं और इसलिए इन्हें भटकने से या किसी भी प्रकार के विचलन से कैसे बचाना है इसके लिए एक समानान्तर रणनीति इनके बीच हर रोज़ तैयार होती थी। दो पीढ़ियों का यह द्वैध भी कैसे इतने बड़े आंदोलन की ताकत बना इसका विश्लेषण कई मायनों में बेहद ज़रूरी था।
एक प्रसंग में युवाओं की तरफ से कहा गया है कि –“हमें इनका नेतृत्व तो स्वीकार करना है लेकिन इन्हें पीछे नहीं जाने देना है। इसका भरपूर दबाव बनाकर इन पर रखना है। दो पीढ़ियों के बीच का यह तनाव और युवाओं द्वारा सतत दबाव कैसे आंदोलन की आंतरिक ताक़त बनकर उभरा इसे इस किताब के जरिये बहुत गहराई से समझा जा सकता है। मनदीप, चूंकि खुद भी उन युवा किसानों के साथ खुद को जोड़ते हैं और बुजुर्ग नेताओं के बारे में भी लंबे समय से जानते हैं इसलिए निस्संदेह वह खुद भी इन ब्यौरों के दौरान युवाओं के साथ गलबहियाँ करते दिखलाई देते हैं। बुजुर्गों का युवाओं पर क्या अंकुश रहा और उन्होंने कैसे जोश में भी होश संभाले रखने की ज़रूरी सीख दी। इसका उल्लेख भी किताब में होता तो बेहतर होता।
यह किताब, इस मायने में संकलनीय है कि यह जून 2020 से लेकर दिसंबर 2021 तक का क्रमबद्ध ब्यौरा हमें उपलब्ध कराती है। इस महत्वपूर्ण अवधि में किसान आंदोलन से जुड़े कई कई संगठनों ने अन्य किसानों को इन क़ानूनों के बारे में राजनैतिक शिक्षण और लामबंदी के लिए क्या क्या तरीके अपनाए, कैसे इस आंदोलन के लिए संसाधन जुटाये और अंतत: एक बेमियादी आंदोलन के लिए उन्हें तैयार किया, ये कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिन्हें लेकर कायदे से अकादमिक जगत में भी अच्छे शोध की ज़रूरत है।
भारत में जन आंदोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है जो 1991 के बाद से लगभग हर राज्य में ऐसे कितने ही आंदोलन उभर रहे हैं जो संसाधनों की बेतहाशा लूट के खिलाफ खड़े हैं और भारत के लोकतन्त्र को समृद्ध कर रहे हैं लेकिन यह कभी भी गंभीर अकादमिक अध्ययन का विषय नहीं बनते हैं।
इस दिशा में यह किताब एक संदर्भ ग्रंथ की तरह है। हालांकि किताब के तेवर अकादमिक बिलकुल नहीं हैं बल्कि यह एक रिपोर्टज़ है जो प्रामाणिक ब्यौरे मुहैया कराता है। जो इस किताब की ताक़त भी है और बड़ी कमजोरी भी। यह आंदोलन की प्रविधि या उसकी संरचना से ज़्यादा इसके किरदारों पर बहुत फोकस करती है और बाकी काम फिर अकादमिक काम करने वालों पर छोड़ देती है कि अब इन ब्यौरों से जो फ्रेमवर्क बनाना है वो बना लें।
मनदीप इस पूरे रिपोर्टज़ में उन सभी किसान नेताओं के बारे में तफसील से लिखते हैं जो इस आंदोलन के अहम चेहरे रहे हैं। हर एक किसान नेता की पॉलिटिक्स और उसकी पृष्ठभूमि स्वत: इन ब्यौरों में मौजूद है। संयुक्त किसान मोर्चा जिस रूप में हमें एकजुट दिखलाई दे रहा था वह महज़ सहमतियों के आधार पर नहीं था बल्कि तमाम असहमतियों के बावजूद इसमें अपने मुद्दे के प्रति ईमानदारी थी और यह ईमानदारी या प्रतिबद्धता ही इन असहमतियों को जज़्ब कर पा रही थी।
मुद्दे पर सहमति के आधार पर बनी इस एकजुटता ने नए तरह के जन आंदोलन का स्वरूप हमारे सामने रखा। नव-उदारवादी दौर में मुद्दा कैसे महत्वपूर्ण हुआ है इसका भी नायाब उदाहरण किसान आंदोलन ने पेश किया है। अब ज़रूरी नहीं है कि तमाम संगठन आपस केवल राजनैतिक विचारधारा के आधार पर ही साथ आयें बल्कि मुद्दे को केन्द्रीयता देते हुए अपनी अपनी राजनैतिक विचारधारा को साथ लेते हुए भी परे रखा जा सकता है। मुद्दे को आधार बनाकर आपस में जुड़े इन संगठनों में आपसी मतभेद और असहमतियाँ कैसे अपने आप में एक रणनीति बन सकती है इस असंभव से लगने वाले काम को आसान सा कर दिया।
इस किसान आंदोलन पर यह आरोप लगते रहे कि यह आंदोलन केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों का है जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसान भी शामिल हैं। इसे आरोप की तरह न भी देखें तो यह बात सही है कि इस आंदोलन की अगुवाई पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान संगठन करते दिखलाई दिये। लेकिन इस एक वजह से ही की बड़े आंदोलन के महत्व को कम नहीं आँका जा सकता। इस तथ्य पर मनदीप ने अपनी किताब में एक सम्पन्न अंतर्दृष्टि दी है। वो आज़ादी के बाद देश में हुए भूमि-सुधारों तक जाकर इसकी गहन पड़ताल करते हैं कि क्यों पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अपनी खेती और खेतों को लेकर इतने संजीदा हैं कि उस पर आने वाले किसी भी खतरे को लेकर उठ खड़े होते हैं। हालांकि वो इसे स्थापित तथ्य नहीं मानते कि इस आंदोलन में केवल बड़े किसान ही थे। वो तमाम ऐसे साक्ष्य मुहैया कराते हैं जिसमें खेती-बाड़ी से जुड़े तमाम हल्के भी इस आंदोलन में बराबर से शरीक हुए।
मनदीप ने अपने इस रिपोर्टज़ में किसान आंदोलन का गैर ज़रूरी महिमा मंडन नहीं किया बल्कि उसके तमाम पहलुओं को पत्रकार और साक्षी की नज़र से ही देखा है। यहाँ मनदीप ने संयम और विवेक से काम लिया है। लेकिन कई जगहों पर इस महत्वपूर्ण आंदोलन को कई महत्वपूर्ण उपलब्धियों का श्रेय देने से भी चूके हैं। उनके धैर्य और निरंतरता को एक ताक़त की तरह देखने के बजाय कई बार नाटकीय घटनाओं से पैदा हुई परिस्थितियों के रूप में भी दर्ज किया है जिससे बचा जा सकता था। नाटकीय परिस्थितियाँ हालांकि रिपोतार्ज में रोमांच पैदा करती हैं लेकिन सब कुछ इतना नाटकीय भी था क्या? हो सकता है हो भी। लेकिन इन्हें दर्ज करते वक़्त थोड़ी और परिपक्वता दरकार थी।
इस रिपोर्ताज़ की जो बड़ी मौलिक खासियत है वो है मनदीप की भाषा। इसे हरियाणवी हिन्दी कहें या खेती बाड़ी से जुड़े लोगों की भाषा। लेकिन एक अलग ठाठ तो है इस भाषा में। हालांकि शुरूआती पन्नों में भाषा का जो खाँटीपन है अंत तक आते आते सहज सामान्य हिन्दी में पूरी तरह से तब्दील हो गया। यह खुद मनदीप ने किया या संपादन की कारामात है लेकिन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हलचल को शायद उसी भाषा में ठीक से दर्ज किया जा सकता था जो मनदीप ने शुरुआती तेवरों में बयान किया।
बहरहाल, मनदीप ने एक बेहद ज़रूरी काम किया है। अपनी फुटकर लेकिन निरंतर रिपोर्टिंग को जिल्दबद्ध किया जाना और तात्कालिकता से निकाल कर एक संदर्भ की तरह समाज को देना वाकई एक ज़रूरी पहल है जो मनदीप ने की है।
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(लेखक दो दशकों से जन आंदोलनों से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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