ग्राउंड रिपोर्टः सोनभद्र में अपनी ही ज़मीनों से बेदख़ल हो रहे हज़ारों आदिवासी परिवार अब भुखमरी के शिकार
तेंडूडांड़ी गांव में बैठक करते आदिवासी आजादी मोर्चा के प्रतिनिधि
उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के घमासान से पहले ही सोनभद्र के आदिवासी भीषण संकट में हैं। वन विभाग ने जंगलों पर निगरानी बढ़ा दी है और उसने अपनी लापता जमीनों को ढूंढने के नाम पर आदिवासियों की खेती की जमीन कब्जाना शुरू कर दिया है। सोनभद्र यूपी का ऐसा जिला है जिसकी सीमाएं बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ को भी छूती हैं। जिले के नगवा प्रखंड में वन विभाग ने बड़े पैमाने पर आदिवासियों को उनकी जमीनों से बेदखल करना शुरू कर दिया, जिसके चलते हजारों लोगों के सामने आजीविका का बड़ा संकट पैदा हो गया है। जिन जमीनों पर आदिवासी कई पीढ़ियों से खेती-किसानी करते आ रहे थे उस पर जेसीबी लगाकर खाईं खोदी जा रही है। वन विभाग की बेदखली की कार्रवाई से सोनभद्र के आदिवासियों की नींद उड़ गई है। राबर्ट्सगंज तहसील के करीब 5000 आदिवासी परिवारों के मन में यह खौफ समाता दिख रहा है कि अब उनके सारे वनाधिकार छीन लिए जाएंगे तो वो जिंदा कैसे रहेंगे?
विंध्य पर्वत श्रृंखला में कैमूर की पहाड़ियों पर आदिवासियों की बसावट मुख्य रूप से नगवां अंचल के 72 गांवों में है। खरवार, अगरिया चेरो, गोंड, बैगा, उरांव और कोरबा जनजाति समूह की क़रीब एक लाख की आबादी वाले इस अंचल में बड़ी तादाद में आदिवासियों के घर हैं, जहां वो खेती-मजूरी कर अपना जीवनयापन करते हैं। अपनी लापता जमीनों को ढूंढने के नाम पर वन विभाग ने अब आदिवासियों के खेतों को कब्जाना शुरू कर दिया है। बेदखली की कार्रवाई से आदिवासियों के मन में विद्रोह का जहर भर रहा है। 26 जनवरी 2023 को कजियारी गांव के तेंदूडाही स्थित बिरसा मुंड अध्ययन केंद्र में करीब 50 गांव के 67 आदिवासियों के प्रतिनिधियों का जुटान हुआ। आदिवासियों ने राष्ट्रीय ध्वज फहराने के बाद वन विभाग की बेदखली की एकतरफा कार्रवाई की सख्त आलोचना करते हुए अपने हक-हकूक के लिए आंदोलन तेज करने का अल्टीमेटम दिया।
राष्ट्रध्वज फहराने के बाद आदिवासियों ने बनाई आंदोलन की रणनीति
करीब तीन हजार की आबादी वाले सोनभद्र के राजस्व गांव कजियारी से बिहार के कैमूर वन्यजीव अभयारण्य की दूरी सिर्फ चार किमी है। इस इलाके को टाइगर रिजर्व क्षेत्र घोषित किया गया है। सोनभद्र का नगवा प्रखंड वह इलाका है जो करीब दो दशक पहले माओवादी उग्रवाद का सबसे बड़ा गढ़ हुआ करता था। इस इलाके में फिलहाल अमन है। आदिवासी आजादी मोर्चा के उपाध्यक्ष रामजतन खरवार कहते हैं, ''साल 2006 में नया वनाधिकार कानून लागू हुआ। इसके बाद से हमारे सिर पर आफत मंडराने लगी। मशीनें लगाकर हमारी जमीनों से हमें बेदखल किया जा रहा है। सरकार भी हमारी बात सुनने के लिए तैयार नहीं है। वन विभाग की मनमाना कार्रवाई का जो लोग विरोध करते हैं उनके खिलाफ राजद्रोह और देशद्रोह लगाकर एक्शन लिया जा रहा है, जिससे आदिवासियों में भय और खौफ का माहौल है।''
रामजनम बताते हैं, ''कजियारी गांव में आदिवासियों की खेती की ज्यादातर जमीनें वन विभाग ने घेर ली है। हमारी जमीनों पर जेसीबी लगाकर गहरी खांई खोद दी गर्ई हैं। हम अपने मवेशियों को उन जमीनों में नहीं ले जा सकते, जिस पर कई पीढ़ियों से खेती-किसानी करते आ रहे थे। वन विभाग की कार्रवाई से सर्वाधिक प्रभाव खरवार, चेरे और अगरिया जनजाति के आदिवासियों पर पड़ा है। जमीनों को बचाने के लिए आदिवासियों ने साल 2013 में तीन बार अपील दायर की और वो कई साल तक दौड़ लगाते रहे, लेकिन मिला सिर्फ झूठा आश्वासन।''
जबरिया छीनी जा रही जमीनें!
रामजतन खरवार के साथ मौजूद रंजीत खरवार, दिनेश खरवार, राजेंद्र खरवार, चंद्रमणि, राजकली खरवार, शिव नारायण, बबलू, गोरख खरवार ने एक स्वर से कहा, ''वन विभाग जोत की जमीनों से हमें लगातार बेदखल करता जा रहा है। कजियारी गांव के सिर्फ तेंदूडाही में हमारी तीन सौ बीघा जमीन जबरिया छीनी गई है। यह वह जमीन है जिसकी सिंचाई के लिए हमारे पुरखों ने अपनी मेहनत से एक ‘बंधी’ बनाई थी, जो मौके पर आज भी मौजूद है। बंधी से सटे खेतों में हमारी फसलें उगी हैं, लेकिन वन विभाग हमें अपने काश्त की रखवाली करने नहीं दे रहा है। वन विभाग वाले हमारी जमीनों को अपनी बता रहा है, जबकि उनकी तमाम जमीनें भूमाफियाओं ने हथिया रखी है, जिसे वो छुड़ा नहीं पा रहे हैं। ज्यादातर आदिवासी अनपढ़ हैं। हमें तो कोर्ट-कचहरी तक नहीं मालूम। आखिर हम अपनी जमीनें कैसे छुड़ा पाएंगे? वन विभाग हमारी जमीनों पर अपनी लापता जमीनों की मुहर ठोंकता जा रहा है।''
करीब तीन हजार की आबादी वाले कजियारी गांव में 1400 वोटर हैं। आदिवासियों के अलावा यहां यादव, कुशवाहा, कुम्हार, लोहार, तेली, बिंद आदि पिछड़ी जातियों के लोग भी खेती-किसानी करते हैं। साल 2008 में कजियारी गांव में 244 आदिवासियों ने खेती की जामीनों के पट्टों के लिए प्रशासन के समक्ष अर्जी दी, लेकिन कजियारी में 38 और इस गांव से जुड़े तेंदूडाही में सिर्फ 26 लोगों को पट्टे आवंटित किए गए। रामजनम कुशवाहा कहते हैं, ''नगवा अंचल के नौडीहा में 150, देवहार में 70, दरेंव में 50, चौरा में 95 और नक्सल प्रभावित माची इलाके में 100 वनवासियों ने अपनी जमीनों पर दावा पेश किया, लेकिन सिर्फ 156 लोगों को जमीनों के पट्टे आवंटित किए गए। जिन आदिवासियों को प्रशासन ने जमीनों का अधिकार पत्र सौंपा उन पर न तो उसका रकबा अंकित है और न ही गाटा संख्या। आदिवासियों को यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि वो किन जमीनों पर खेती करें और कहां अपना घर बनाएं? हमारा परिवार सालों से जंगलों के बीच खेती-किसानी करता आ रहा है। हमें पुलिसिया जुल्म-ज्यादती बर्दाश्त नहीं। नब्बे के दशक के आखिर में जब सोनभद्र और चंदौली इलाके में नक्सल समस्या तेज हुई तो पुलिस ने हमें भी अपने निशाने पर ले लिया। नक्सली बताकर हमें मारा-पीटा और जेल भेज दिया। खुद को निर्दोष साबित करने के लिए हमें नौ साल तक मुकदमा लड़ना पड़ा, तब हम बरी हो सके। अभी भी हमारे ऊपर आठ केस पुलिस ने जबरिया लाद रखा है।''
राबर्ट्सगंज कचहरी में जमीनों की बेदखली की कार्रवाई से दुखी आदिवासी एक अधिवक्ता की चौकी पर बैठे हुए
राबर्ट्सगंज सदर तहसील में करीब पांच हजार आदिवासी वन विभाग के निशाने पर हैं। इनकी जमीनों को वन विभाग अपनी बता रहा है। जिन आदिवासियों ने वन भूमि पर स्थायी पट्टे के लिए अर्जी दी है, उस पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। सुअरसोती के अयोध्या खरवार कहते हैं, ''योगी सरकार एक तरफ आदिवासियों के नाम पर मनलुभावनी घोषणाएं कर रही है और दूसरी तरफ हमारी खेती की जमीनें कब्जाती जा रही है। वन विभाग का कहना है कि उनकी हजारों एकड़ जमीनें लापता हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी जमीनें हमने लूटी है। वन विभाग की जमीनों पर कोई डिमार्केशन नहीं है और वो हमारी जमीनों को अपना बता रहा है। उनके पास फौज है, खाकी वर्दी है, गोली-बंदूक है और हमारे पास कुछ भी नहीं। हमें तो कायदा-कानून तक नहीं मालूम। कोई यह भी बताने के लिए तैयार नहीं है कि हम जिंदा कैसे रहें?''
103.54 वर्ग किमी जंगल लापता
सोनभद्र में वन विभाग के अधिकारी इसलिए आदिवासियों की जमीनों को घेर रहे हैं, क्योंकि उनका एक बड़ा वनक्षेत्र लापता हो गया है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 14 जनवरी 2022 को भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की एक चौकाने वाली रिपोर्ट पेश की, जिसमें इस बात का खुलासा हुआ है कि सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर में बड़े पैमाने पर जंगल साफ हो गए हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की द्विवार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2019 तक सोनभद्र का वन क्षेत्रफल 2540.29 वर्ग किमी था, जो साल 2021 में घटकर 2436.75 वर्ग किमी हो गया है। सिर्फ दो सालों में ही सोनभद्र के जंगली क्षेत्र का दायरा 103.54 वर्ग किमी घट गया। मौजूदा समय में यहां सघन वन क्षेत्र 138.32, कम सघन वन क्षेत्र 940.62 वर्ग किमी और खुला वन क्षेत्र 1357.81 वर्ग किमी है।
देश के 112 अति पिछड़े ज़िलों में शामिल उत्तर प्रदेश के आठ ज़िलों में सोनभद्र और चंदौली भी शामिल हैं। मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक सोनभद्र का जंगल 103.54 वर्ग किमी और चंदौली का 1.79 वर्ग किमी कम हुआ है। यूपी में सिर्फ सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर ही नहीं, आजमगढ़, खीरी, बिजनौर, महाराजगंज, मुजफ्फरनगर, पीलीभीत और सुल्तानपुर जिले का वन क्षेत्र भी घट गया है। यह स्थित तब है जब चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर जनपद के वनाधिकारी पौधरोपण के मामले में हर साल नया रिकार्ड बनाने का दावा करते रहे हैं। यूपी में सर्वाधिक जंगल सोनभद्र और चंदौली के चकिया व नौगढ़ प्रखंड में हैं। वन क्षेत्र घटने के मामले में मिर्जापुर दूसरे स्थान पर है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने साल 2019 से 2021 के बीच यूपी के जंगलों का सर्वे किया तो सरकार और उनके नुमाइंदों के पौधरोपण के तमाम दावे मटियामेट हो गए। चंदौली का नौगढ़ इलाका सोनभद्र से सटा है, जहां दो दशक पहले कुबराडीह और शाहपुर में भूख से कई आदिवासियों की मौत हो गई थी। भाजपा शासनकाल में जंगलों का चीरहरण होने से आदिवासियों के जीवन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
बाघ से नहीं, सरकार से है डर
करोनिया गांव के अनिल कुमार गोंड कहते हैं, "नगवा इलाके के जंगलों में पहले बाघ, चीते, लोमड़ी, भालू, सियार और न जाने कितने जीव-जंतु हमारे साथ जंगलों में रहा करते थे। आदिवासी तो बाघ और चीतों से भी डरते नहीं हैं, उनका सम्मान करते हैं। लेकिन हमें डर सरकार से है जो हमें हमारे वनाधिकारों से वंचित करना चाहती है। योजनाबद्ध ढंग से हमें बेदख़ल करने की साज़िश रची जा रही है। सोनभद्र में जब तक वन विभाग की जमीनों के लापता होने की रिपोर्ट नहीं आई थी तब तक तक हमारे सामने आर्थिक तंगी नहीं थी। पिछले साल से वनक्षेत्र में तमाम तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। हर प्रकार के वन्य उत्पाद के व्यवसाय पर रोक लगी हुई है। तेंदू पत्ता, महुआ, पियार आदि को चुनकर आदिवासी बेचते थे और यही उनकी आजीविका थी, जिस पर अब रोक लगा दी गई। आदिवासियों की जीविकोपार्जन के प्रमुख स्रोत जंगल ही हैं।''
आदिवासी अनिल गोंड यह भी कहते हैं, ''मौजूदा समय में आदिवासी परिवार जंगलों से तेंदू पत्ता (बीड़ी का पत्ता), महुआ, पियार, हरे-बहेरा, आवंला चुनकर और बेचकर एक 10 से 15 हज़ार रुपये महीने में आसानी से कमा सकता है। लघु वन्य उत्पादों को अब बाज़ार में बेचने पर रोक है। हमारे पास पैसा नहीं है कि अनाज ख़रीद सकें। वन विभाग ने जंगल की सभी चीज़ों के चुनने और बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया है। हम अगर जंगल से कुछ भी चुनकर लाते हैं तो पुलिस हमें रोकती है। मुक़दमा लगाकर हमें जेल भेज दिया जाता है। खेती भी नहीं कर सकते क्योंकि जंगल काटने पड़ेंगे। संसद में इस पर सहमति बन चुकी है कि वनों पर हमारे भी अधिकार हैं तो सरकार हमें देती क्यों नहीं है? मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खेती के लिए ज़मीन देने का वादा किया था, आज तक वह भी नहीं मिला। हमारे लिए भूख मिटाने का संकट पैदा हो गया है।"
भारत की संसद से पास अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2007 आदिवासियों एवं वनों के मूल निवासियों को न केवल वन भूमि पर स्वामित्व प्रदान करता है, बल्कि लघु वन्य उत्पादों के उपभोग करने की अनुमति भी देता है। सोनभद्र और चंदौली के जंगलों के वन्यजीव अभयारण्य बनने के बावजूद वहां रहने वाले आदिवासियों को यह अधिकार अभी तक नहीं मिल सका है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली के दौरों में वनाधिकार क़ानून को लागू करने की बात कई बार कह चुके हैं, लेकिन अब तक कुछ हुआ नहीं है।
सोनभद्र के जिलाधिकारी चंद्र विजय सिंह कहते हैं, ''जो वनाधिकार अधिनियम है उसको देखते हुए काफी दिनों से कार्रवाई चल रही है और इसमें साल 2011 में कार्रवाई हुई थी, फिर उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश के क्रम में जो फाइल रिजेक्ट हुई थी, उसका रिविजन और रिव्यू की कार्रवाई के लिए निर्देशित किया गया है। ये कार्रवाई पिछले एक डेढ़ साल से लगातार चल रही है। राज्यपाल आनंदी बेन पटेल के दौरे के समय भी आदिवासियों के जमीनों का रिव्यू किया गया था और निर्देश दिए गए थे कि जो पट्टे है होने लायक हैं, उनको स्वीकृति दे दी जाए। इस दिशा में हम अपना प्रयास लगातार आगे बढ़ाते जा रहे हैं।''
यूपी में 11 लाख आदिवासी
सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली समेत समूचे उत्तर प्रदेश में 11 लाख आदिवासी अदृश्य और सीमांत अल्पसंख्यक हैं। इनमें से ज्यादातर घने जंगलों, खनिज संपन्न इलाकों में एक दयनीय अस्तित्व बनाए हुए हैं। तीन पीढ़ियों से वन भूमि पर रहने वाले इन आदिवासियों को रहने और खेती करने का कानूनी अधिकार है, लेकिन सिर्फ कागजों पर। यूपी के जनजाति कल्याण निदेशालय का आंकड़ों को सच माना जाए तो साल 2019 तक अनुसूचित जनजाति और वनाश्रितों के 93 हजार 430 दावों में से 74 हजार 538 दावे निरस्त कर दिए गए। नतीजा, सोनभद्र, मिर्जापुर, चंदौली, ललितपुर, चित्रकूट, बहराइच, बलरामपुर, लखीमपुर खीरी, गोरखपुर, महाराजगंज, गोंडा, बिजनौर, सहानपुर के 80 फीसदी आदिवासी भीषण संकट के दौर से गुजर रहे हैं।
साल 2011 की जनगणना के अनुसार यूपी में 11 लाख, 34 हजार, 273 आदिवासी रहते हैं। जिसमेंभोतिया, बुक्सा, जन्नसारी, राजी, थारू, गोंड, धुरिया, नायक, ओझा, पाथरी,राजगोंड, खरवार, खैरवार, सहारिया, परहइया, बैगा, पंखा, अगारिया, पतारी,चेरो, भुइया जनजातियां हैं। नेपाल से सटे यूपी के तराई इलाकों में थारू जनजाति के लोग रहते हैं। इन आदिवासियों पर आफत तब से आई है जब से सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि जिन लोगों के दावे कारिज हो गए हैं, उन्हें वन भूमि के कब्जे छोड़ने होंगे। कोर्ट के आदेश के बाद वन विभाग आदिवासियों को उनकी जमीनों से धड़ल्ले से बेदखल करने में जुट गया है। अनुसूचित जनजाति के उन लोगों की जमीनों पर भी जबरिया कब्जा किया जा रहा है जिन पर उनकी कई पुश्तें खेती-किसानी करती आ रही थीं।
सोनभद्र के जाने-माने अधिवक्ता आशीष पाठक कहते हैं, "आजाद भारत में आदिवासियों का सबसे बड़ा सामूहिक और कानूनी रूप से स्वीकृत बेदखली डबल इंजन की सरकार के कार्यकाल में शुरू हुई है। सोनभद्र के सिर्फ राबर्ट्सगंज तहसील में वनाश्रित आदिवासियों के पांच हजार मामले लंबित हैं। काफी जद्दोजहद के बाद सिर्फ 156 आदिवासियों को जमीनों के पट्टे मिले। जिन लोगों को पट्टे बांटे भी गए, उस पर न तो रकबा दर्ज है और न ही गाटा संख्या। बड़ी संख्या में दावों को गलत तरीके से खारिज कर दिया गया। संविधान में जनजातियों या आदिवासियों की सुरक्षा, संरक्षण और उनके विकास के लिए अनुच्छेद 244, 244 ए, 275 (1), 342, 338 (ए) और 339 जैसे प्रावधान किए गए हैं। इन प्रावधानों के साथ ही आदिवासियों के लिए संविधान में 5वीं अनुसूची बनाई गई, क्योंकि आदिवासी क्षेत्र आजादी के पहले भी स्वायत्त थे। आदिवासियों की अपनी स्वच्छंद जीवनचर्या एवं उनके अपने विशिष्ट रीति रिवाजों के कारण ब्रिटिश हुकूमत ने इन क्षेत्रों को बहिष्कृत और आंशिक बहिष्कृत की श्रेणी में रखा था।''
''देश के आजाद होने के बाद साल 1950 में संविधान लागू हुआ तो इन जनजाति बाहुल्य क्षेत्रों को 5वीं और छठी अनुसूची में वर्गीकृत किया गया, ताकि उनकी सुरक्षा, संरक्षण और विकास हो सके। इस प्रावधान का उद्देश्य आदिवासियों को सुरक्षा देना तो था ही, उनकी क्षेत्रीय संस्कृति का संरक्षण और विकास भी किया जाना था, जिसमें उनकी बोली, भाषा, रीति-रिवाज और परंपराएं शामिल हैं। दरअसल, एक बड़ी साजिश के तहत आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से बेदख़ल किया जा रहा है, जिसके चलते वो दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में केंद्र सरकार ने कहा है कि दावों का खारिज होना आदिवासियों को बेदखल करने का आधार नहीं है। अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके आधार पर दावे के खारिज होने के बाद किसी को बेदखल किया जाए।"
अधिवक्ता आशीष यह भी कहते हैं, ''दुर्भाग्य की बात यह है कि सोनभद्र में एक तरफ वन विभाग गायब हुई अपनी जमीनें ढूंढ रहा है तो दूसरी ओर आदिवासियों की जमीनें भी लापता होती जा रही हैं। दोनों पक्षों की बातें सच हैं। भू-राजस्व संहिता के अनुसार किसी आदिवासी की ज़मीन को ग़ैर आदिवासी नहीं ख़रीद सकते हैं। इसके लिए कलेक्टर भी अनुमति नहीं दे सकते। इसके बावजूद सोनभद्र में गैर-आदिवासियों के नाम से जंगलों में हजारों हेक्टेयर जमीनें कैसे हस्तांतरित हो गईं। आदिवासियों की जमीनें ही नहीं, इनकी आबादी भी तेजी से क्यों घटती जा रही है? इन सवालों पर आखिर कोई बात क्यों नहीं करना चाहता है। जब तक सोनभद्र के जंगल वास्तविक रूप से आदिवासियों के हाथ में था तब तक वह सुरक्षित था। आजादी के बाद भूमाफिया और वन माफिया ने पैर पसारे तो वन विभाग के कुछ भ्रष्ट कर्मचारियों की मिलीभगत से वनों का खात्मा होता जा चला गया और जंगल व आदिवासियों की जमीनों पर गैर-आदिवासियों के कब्जे होते चले गए। आदिवासियों की जमानों पर कब्जा करने का खेल एक बड़ा स्कैंडल है, जिसकी एसआईटी जांच सरकार करा चुकी है, लेकिन उसकी रिपोर्ट आलमारियों से बाहर आखिर क्यों नहीं निकल पा रही है। यह तो ऐसा मामला है जिसकी सीबीआई जांच होनी चाहिए।''
क्या कहता है नया वन कानून
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, ''सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली के आदिवासियों ने देश भर के वनवासियों के साथ मिलकर कई दशकों तक अपने वनाधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, तब वन अधिकार क़ानून-2006 आया। अब नया वन संरक्षण नियम 2022, सालों के उस संघर्ष और वनाधिकारों को एक झटके में ख़त्म कर देगा। इससे देश में पहले से चल रहे आदिवासियों के विस्थापन और बचे-खुचे प्राकृतिक जंगलों के खात्मे की प्रक्रिया और तेज होगी। 28 जून 2022 को केंद्र सरकार ने वन संरक्षण कानून 1980 के तहत, वन संरक्षण नियम-2022 की अधिसूचना जारी की है। भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के इस फरमान के मुताबिक किसी भी तथाकथित विकास योजना के लिए स्थानीय आदिवासी और वनाश्रित समाज से मंजूरी लेने (या ना लेने) की जवाबदेही (अथवा औपचारिकता) अब राज्य सरकारों की है।''
सोनभद्र में रेवेन्यू के विशेषज्ञ एवं जाने-माने अधिवक्ता विजय प्रकाश मालवीय कहते हैं, ''वन संरक्षण नियम, 2022 ने केंद्र सरकार के हाथ में इस अधिकार को वापस देकर सत्ता के केंद्रीकरण को और मजबूत किया है। इसके परिणामस्वरूप न केवल आदिवासियों के वनाधिकार का हनन और जंगलों की अंधाधुंध कटाई होगी, बल्कि साथ-साथ सत्ता में बैठे लोगों के व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति और भ्रष्टाचार की संभावनाएं बढ़ सकती हैं। सोनभद्र के कई आदिवासी क्षेत्रों में वन अधिकार कानून, 2006 के तहत किए जाने वाली वन पट्टों के दावे लंबित है और उनको पाने की लड़ाई अभी भी चल रही है। कई जगह ऊपर से तय होकर आता है कि कितने लोगों के वन पट्टों के दावे मंजूर होंगे और यदि उससे ज्यादा लोग दावा करते है तो खारिज कर दिए जाते हैं। दावे पास करवाकर वन पट्टे लेने की लड़ाई अभी चल ही रही है। ऐसे में इस नियम के आ जाने से इन वन पट्टे के दावों का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है।''
''किसी आदिवासी बहुल वन क्षेत्र में वन अधिकार कानून, 2006 के अंतर्गत यदि आप देखेंगे तो पाएंगे कि कुछ वन पट्टे मिले होंगे या वन दावे लंबित होंगे (उन्हें मान्यता नहीं मिली होगी)। ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र के वन पट्टे और वन दावे दोनों ही खारिज हो जाएंगे। यह नियम सीधे-सीधे वन अधिकार कानून, 2006 को नकारता है। कई दशकों से आदिवासियों ने अपने वन अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी थी और यह स्थापित करने की कोशिश की थी कि जंगल पर अधिकार वहां रह रहे लोगों का है जिनकी जिंदगी और आजीविका जंगलों पर निर्भर है। उस सालों के संघर्ष और आदिवासियों के वनाधिकार को केंद्रीय सरकार का यह वन संरक्षण नियम मटियामेट करता जा रहा है।''
अधिवक्ता विजय प्रकाश कहते हैं, ''संसाधनों की लूट और आदिवासियों का विस्थापन और उनके जीवन की बर्बादी मौजूदा विकास मॉडल के साथ आई है। विस्थापित आदिवासियों का पुनर्स्थापन और पुनर्वास का रिकॉर्ड भी बहुत खराब रहा है। कुछ मूलभूत चीजें जैसे उनकी जीवन शैली, जंगल से उनका अटूट संबंध और जंगल पर आधारित आजीविका जो विस्थापन में खो जाती है उनकी भरपाई करना संभव भी नहीं है। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में हुए अध्ययनों में यह भी पता चलता है कि जंगल के पास या बीच में रहने वाले आदिवासियों को साथ लाकर लागू की गई योजनाएं जंगल का संरक्षण करने में सबसे ज्यादा सफल साबित हुई है।''
सोनभद्र सहायक शासकीय अधिवक्ता (राजस्व) नित्यानंद द्विवेदी के मुताबिक, ''आदिवासियों की जिंदगी, उनकी संस्कृति और उनके सामाजिक जीवन का ताना-बाना जंगलों के साथ इतनी गहराई से जुड़ा होता है कि वो आजीविका के साथ-साथ, शायद कभी-कभी आजीविका से ऊपर उठकर भी जंगलों को बचाने और उनके संरक्षण में सफल साबित हो सकते हैं। अब एक ओर हम पर जलवायु परिवर्तन और पूरे मानव समाज के खात्मे का साया मंडराया हुआ है और हम प्रकृति की संभावित अपरिवर्तनीय क्षति की स्थिति की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसे समय में हमें जंगल बचाने और नए जंगल लगाने का काम करना चाहिए, नहीं तो वन संरक्षण नियम, 2022 हमें एक उल्टी दिशा में ले जाएगा।''
क्यों मजबूर हैं आदिवासी?
सोनभद्र के नगवा अंचल में वन विभाग जिस तरह से आदिवासियों की जमीनों को अपना बताकर बेदखली की कार्रवाई कर रहा है उससे आदिवासियों में जबर्दस्त गुस्सा है। आदिवासी आजादी मोर्चा एक बार फिर आदिवासियों को लामबंद करने लगा है। मोर्चा की लगातार बैठकें हो रही हैं। जुल्म और ज्यादती से परेशान आदिवासी अब विद्रोह का बिगुल फूंकने के मूड में दिख रहे हैं। दरअसल, कैमूर की पहाड़ियों में रहने वाले आदिवासियों के मन में डर समाता दिख रहा कि अब उनके सारे वनाधिकार छीन लिए जाएंगे और उन्हें अपना बसेरा छोड़ना यानी विस्थापित होना पड़ेगा। इसके चलते ये लोग विरोध प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर उतरने की तैयारी कर रहे हैं।
सोनभद्र के नगवा अंचल से सटे बिहार के 1100 वर्ग किमी इलाके को सरकार पहले ही टाइगर रिजर्व क्षेत्र घोषित कर चुकी है। साल 1995 में आख़िरी बार यहां बाघ देखा गया था। 11 सितंबर 2020 को कैमूर मुक्ति मोर्चा के बैनर तले जब सैकड़ों आदिवासियों ने बिहार के अधौरा प्रखंड कार्यालय में तालाबंदी की थी तब पुलिस के साथ उनकी हिंसक झड़प हुई और गोलियां चलीं थीं। गोलीकांड में तीन प्रदर्शकारी गंभीर रूप से घायल हुए और कुछ पुलिसवालों को भी चोटें आईं। सौ से अधिक प्रदर्शनकारियों पर मुक़दमे दर्ज हुए थे। जिस तरह की स्थिति सोनभद्र के पड़ोसी राज्य बिहार के अधौरा इलाके में बनी थी, वैसी ही अब सोनभद्र के नगवा अंचल में बनती जा रही है। आदिवासियों में से कुछ लोगों का कहना है कि उनकी मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जिसके चलते उन्हें अब आंदोलन-प्रदर्शन करने के लिए विवश होना पड़ेगा।
बिहार से सटे सोनभद्र और चंदौली इलाके में कैमूर पहाड़ियों पर बसे आदिवासियों की हक़-हुकू़क़ की लड़ाई लड़ रहा आदिवासी आजादी मोर्चा कोई नया संगठन नहीं है। दरअसल, यह संगठन पिछले तीन दशक से वनवासियों के लिए वनाधिकार लागू करने की लड़ाई लड़ रहा है। संगठन के अध्यक्ष बद्री के निधन के बाद इसकी गतिविधियां ठप पड़ गई थी, लेकिन वन विभाग की मनमानी के चलते इलाके के आदिवासी इस संगठन के बैनरतले एक बार फिर लामबंद होने लगे हैं।
आदिवासी आजादी मोर्चा का काम देख रहे रामजतन खरवार कहते हैं, "इस मोर्चा के माध्यम से सबसे पहले वनों के अंदर वनाश्रित समुदाय के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकारों के लिए एक समग्र अधिनियम बनाने का मसौदा तैयार किया गया था। जिसके बाद वन क्षेत्र में काम कर रहे संगठनों को जोड़ने का काम किया गया व वामदलों के साथ मिल कर वनाधिकार क़ानून को पारित कराने का देशव्यापी संघर्ष किया गया। उनके ही प्रयासों से संसद में वनाधिकार क़ानून को मान्यता मिल सकी। बिहार के कैमूर और रोहतास के अलावा यूपी के सोनभद्र व चंदौली इलाक़ों से माओवाद और नक्सलवाद का ख़ात्मा करने के लिए आदिवासी आजादी मोर्चा ने स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर सहयोग किया था। हमारा संगठन जनवादी आधारों पर टिका है।"
उत्तर प्रदेश में पहली बार दो विधानसभा सीटें दुद्धी और ओबरा को आदिवासियों के लिए आरक्षित किया गया है। फिर भी आदिवासी किसी भी पार्टी के एजेंडे में नहीं हैं। प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले सोनभद्र के आदिवासी नेता एवं पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड ने कहते हैं, ''साग और महुआ, वन फल खाकर बहुत से आदिवासी किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं। हमारे पास वोट भी है, लेकिन एकुजटता की कमी वजह से हमारे समाज के लोग चुनाव में अपनी ताकत नहीं दिखा पाते। ऐसे में राजनीतिक पार्टियां हमारे मुद्दों पर ध्यान नहीं देती हैं। सरकार हमारे लिए क्या योजनाएं चला रही है उसकी आदिवासियों को कोई जानकारी नहीं होती है। किसी भी गांव के एक जगह हमारी बड़ी आबादी नहीं है। इधर-उधर लोग बिखरे पड़ हैं, इसलिए सियासी दलों के लिए हम बड़े वोटर नहीं है। यूपी में आदिवासियों की स्थिति बाकी राज्यों की तुलना में ज्यादा खराब है। नौकरियों में भी आदिवासियों की संख्या बहुत कम है।''
आदिवासियों के लिए काम करने वाले जगनारायण सिंह गोंड के मुताबिक '' सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली के आदिवासियों को भरपूर भोजन तक नसीब नहीं हो रहा है। बच्चे स्कूलों से दूर हैं। हमारे लिए योजनाएं सिर्फ कागजों पर ही चल रही है। प्रदेश सरकार ने समय-समय पर आदिवासियों के लिए योजनाओं की शुरूआत की, लेकिन कोई भी योजना परवान नहीं चढ़ी। वन विभाग की जुल्म-ज्यादती जारी रही तो आदिवासी सड़क पर उतरने के लिए बाध्य हो सकते हैं।''
(बनारस स्थित लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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