भयमुक्त होकर किस प्रकार नई मुस्लिम राजनीति को गढ़ें
आज भारत के मुसलमान, 1955 के संशोधित नागरिकता अधिनियम और भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरआईसी) के प्रस्ताव को लागू करने के संयुक्त प्रभावों को लेकर खौफ के शिकार हैं।
वे भयभीत हैं कि जब ये नीतियाँ लागू होने लगेंगी तो उन्हें और अधिक अलगाव का सामना करना पड़ेगा। ईमानदारी से कहें तो यह डर सिर्फ मुस्लिमों के अंदर ही नहीं है, बल्कि एक विस्तृत मिश्रण है ऐसे कई लोगों का जो एनआरआईसी और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का विरोध कर रहे हैं, जैसा कि हम विरोध प्रदर्शनों के इस बहाव में देख रहे हैं।
सबसे जबर्दस्त प्रतिरोध हमें उत्तर-पूर्व राज्यों से देखने को मिला है, और साथ ही देश के कई विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं ने भी इसका पुरजोर विरोध किया है।
समूचे देश भर में इन दोनों नीतियों के विरोध में भारी संख्या में लोग एकजुट हो रहे हैं, लेकिन सत्तारूढ़ दल अभी भी प्रदर्शनकारियों, और खासतौर पर मुसलमानों को इस बात के लिए आश्वस्त नहीं कर सका है कि सीएए को लेकर उनकी जो आशंकाएं हैं, वे निर्मूल हैं।
हाल ही में एक कनिष्ठ बीजेपी नेतृत्व ने कहा है कि, "इस कानून में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है, जिससे कि हमारे मुस्लिम भाइयों और बहनों के किसी एक भी अधिकार को छीना जा सके।" लेकिन मुसलमानों के मन में इस बात भय गहराता जा रहा है कि सीएए और एनआरआईसी को जब लागू किया जाएगा तब उनकी नागरिकता को लेकर सवाल उठाये जायेंगे और उन्हें ललकारा जायेगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारत के मुस्लिमों के बीच के विरोधाभासी संबंधों को देखते हुए, उनकी ये आशंकाएं यूँ ही नहीं हैं। सौ साल पहले अपनी नींव रखे जाने के बाद से ही आरएसएस ने मुस्लिम समुदाय के हितों के खिलाफ लगातार अपनी बात रखी है और खिलाफ काम किया है।
यहाँ पर इस बात को इंगित कराना ठीक रहेगा कि एक बेहद संक्षिप्त दौर ऐसा भी आया, जब मुस्लिमों के कुछ गुटों ने आरएसएस के साथ मिलकर इंदिरा गाँधी के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए एकसाथ मिलकर काम किया, और यहाँ तक कि जेल यात्रा भी साझा की। लेकिन यह भी सच है कि सत्तर का वह भारतीय राजनीति का कोई सामान्य दौर नहीं था।
इसके पीछे एक वजह यह भी थी कि आरएसएस तब सत्ताशीन नहीं था और इसलिये कानून या नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन कर उनकी जिंदगियों को प्रभावित कर सकने लायक अपनी हैसियत में भी नहीं था। लेकिन पूर्वाभास का भाव मुस्लिमों में तबसे काफी तेजी से बढ़ा है, जबसे आरएसएस की राजनैतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अभूतपूर्व बहुमत के साथ लगातार दूसरी बार 2019 के आम चुनावों में सत्ता पर कब्ज़ा किया है।
इस बात को समझने की जरूरत है कि भाजपा-आरएसएस और मुसलमानों के बीच विश्वास के संकट की अपनी वजहें हैं। इसकी जड़ें मुख्यतया उन घृणा फैलाने वाले भाषणों में निहित हैं जो हिंदुत्व के तमाम संगठनों के लोगों द्वारा लगातार उनके खिलाफ की जाती रही हैं। यह काम भाजपा के वरिष्ठ नेताओं द्वारा भी किया जाता रहा है, और इसने मुस्लिम समुदायों के भीतर अलगाव के भाव को बढ़ाने का काम किया है।
भारतीय मुसलमान पहले से ही राजनीतिक तौर पर हाशिए पर धकेल दिए जाने की चुनौतियों को झेल रहे हैं। साथ ही साथ उन्हें आये दिन भीड़ की हिंसा का शिकार होना पड़ता है, जो अक्सर उन्हें अपना निशाना बनाते हैं। और यह सब एक ऐसे शासन के तहत हो रहा है जो इन हिंसा फ़ैलाने वालों के हित साधन को सक्रिय तौर पर बढ़ावा देता है, न कि इनके हमलों से शिकार पीड़ितों के समर्थन में।
इस सरकार ने खासतौर पर ध्रुवीकृत हिंदू बहुमत को संतुष्ट करने के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ नियम में बदलाव को अंजाम दिया है। यहां तक कि बाबरी मस्जिद विवाद में भी मुस्लिम पक्षकारों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने अल्पसंख्यकों की भावनाओं को आहत किया है, जिसने अदालत पर अपना पूरा विश्वास न्यायालय पर लगाया हुआ था।
हाल के वर्षों में उनके खान-पान की आदतों को लेकर और उनके सांस्कृतिक रीति-रिवाजों पर हो रहे हमलों के चलते वे महसूस करते हैं कि उन्हें अलग-थलग किया जा रहा है। ये वे कारक हैं जो पर्याप्त रूप से इस बात को व्य्ख्यायित करते हैं कि भारत में मुसलमानों (और अन्य अल्पसंख्यकों) के बीच बैचेनी और गुस्से की वजहें क्यों है।
इसलिए यह कम समझदारी वाली बात होती और पर्याप्त नहीं होगा यदि हम उत्तर-पूर्व और उत्तर भारत में चल रहे इन विरोध प्रदर्शनों को महज सीएए और एनआरआईसी के खिलाफ आंदोलन के रूप में देखते हैं।
हाल ही में दिल्ली का जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ का एएमयू इन नीतियों के विरोध में भड़क उठे, लेकिन ये आन्दोलन उसके सिर्फ ट्रिगर के रूप में थे। भारतीय मुसलमानों के भीतर आरएसएस समर्थित सरकार के प्रति चिंता और गुस्सा काफी लम्बे समय से है। यह उनकी बेचैनी और तकलीफ ही है जिसने उनके शक्तिशाली लेकिन शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन को प्रज्वलित कर दिया है।
वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है जैसे राज्य ने प्रदर्शनकारियों को और विशेषकर मुस्लिमों को एक ऐसे नैरेटिव में फँसा दिया है जिससे उसके खुद के राजनीतिक हितों के लिए फायदेमंद हैं। सरकार ने इस मौके को ‘’समुदाय को सबक सिखाने’ के रूप में इस्तेमाल किया, जो दमनकारी था। यह बयां करता है कि क्यों पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स के जवान जामिया के हॉस्टल, लाइब्रेरी, शौचालय, मेस और ऑफिस में घुस गए और यहां तक कि आंदोलनकारी छात्रों, जिनमें महिलाएं तक शामिल थीं, के खिलाफ लाठी, गोली और आंसू गैस तक का इस्तेमाल करने से नहीं चूके।
यह प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार से थी जैसे कि राज्य कुछ इस प्रकार के संकेत देने की कोशिश में थी कि जैसे वह किसी आम नौजवान छात्रों से नहीं, भले ही वे गुस्से में हों, बल्कि किन्हीं आतंकवादियों से निपट रही थी। इस कार्यवाही ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि राज्य मशीनरी और संस्थाएं किस कदर सांप्रदायिक बना दी गई हैं कि वे हिंदू राष्ट्र के नाम पर आने वाली भीड़ के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को बेरहमी से कुचल कर रख देंगे।
अब सवाल यह उठता है कि राजनीतिक और सामाजिक तौर पर अलग-थलग पड़े मुसलमानों के लिए अब आगे क्या रास्ता है?
सबसे पहले और जरूरी बात यह है कि मुसलमानों को यह समझना होगा कि उनके हाशिए पर धकेल दिए जाने की दास्ताँ भारतीय लोकतंत्र और उसके संविधान की किस्मत से जुड़ी हुई है। समानता, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार और अपने धर्म पर विश्वास करने का अधिकार, बिना किसी-भेदभाव के, न्याय, धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता, और अन्य सिद्धांत आखिर वे बुनियादी मूल्य हैं जो भारत के लोकतंत्र को जिन्दा रखते हैं, और उसकी शांतिपूर्ण प्रगति को सुनिश्चित करते हैं। इन अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष को सिर्फ "मुस्लिमों" का ही मुद्दा है कहकर सीमित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ये अधिकार सभी नागरिकों के लिए गारन्टीशुदा हैं। ये राष्ट्रीय सवाल हैं, भारत के सवाल हैं, और हिंदुस्तान के सवाल हैं।
"हम लोग" में जो “हम” है, उसमें मुसलमान भी शामिल हैं। हालाँकि अभी तक मुस्लिम नेतृत्व ने, वो चाहे धार्मिक नेता हों या राजनैतिक, किसी ने भी अभी तक अपने अंदर सार्वभौमिक राजनीतिक भाषा को विकसित कर पाने में सफलता प्राप्त नहीं की है। मुसलमानों को अब ऐसे रहनुमाओं का बहिष्कार कर देना चाहिए जो सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों के सवाल के आधार पर नेतृत्व प्रदान करने की बात करते हैं।
वे गैर-मुस्लिम नागरिकों के साथ व्यापक वैचारिक फलक पर या उनके साथ राजनीतिक संबंध विकसित करने की पहल नहीं करते हैं और व्यापक दक्षिणपंथ-विरोधी राजनीतिक चेतना निर्मित करने का काम नहीं करते हैं। ऐसे नेता ऐसी हालत में ही नहीं हैं कि वे अपने समुदाय की मदद कर सकें। यह सच है कि आज मुस्लिमों के पास नेतृत्व की कमी है, लेकिन भविष्य में वे पूरी तरह से नेतृत्व से वंचित नहीं रहने जा रहे।
आख़िरकार जामिया और एएमयू के छात्रों ने सारी सीमाओं को धता बताकर खुद-ब-खुद राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी पहचान स्थापित कर ली है। इसके लिए उन्हें किसी धार्मिक दृष्टिकोण या पहचान से खुद को सीमित नहीं करना पड़ा और वे बिना नेताओं के सहयोग के जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन कर सकने में सक्षम साबित हुए हैं। आज इस बात की सख्त आवश्यकता है कि एक युवा नेत्रत्व केंद्र में स्थान ग्रहण करे जो प्रगतिशील और सार्वभौमिक दृष्टिकोण से लैस हो। यह तर्क कि वे काफी कम संख्या में हैं, का कोई अर्थ नहीं है।
एक दूसरा सवाल उठता है कि मुसलमानों को इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक ताकतों का क्या करना चाहिए? हाल के वर्षों में दक्षिणपंथी वर्चस्वादी ताकतों के उदय ने कई राजनीतिक दलों के अन्दर चल रहे कठोर या मुलायम हिंदुत्व के आवरण का पर्दाफाश कर दिया है। ऐसी पार्टियों के प्रतिनिधियों ने संसद के दोनों सदनों में सीएए के पक्ष में मतदान किया है, भले ही वे इसके कुछ प्रावधानों पर गले से गों गों की आवाज निकाल रहे थे या बुदबुदा रहे थे। इस मुद्दे पर तात्कालिक तौर पर तीन चीजें की जा सकती हैं:
सबसे पहले मुसलमानों को उन मुस्लिम नेताओं की हार को सुनिश्चित करना चाहिए जो कि जनता दल (यूनाइटेड), तेलुगु देशम पार्टी, बीजू जनता दल, बहुजन समाज पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस और सभी अन्य क्षेत्रीय राजनीतिक दलों से जुड़े हैं, जिन्होंने अपनी पार्टी के व्हिप के आधार पर उस कानून के लिए मतदान किया जो बुनियादी तौर पर भारत के स्वरुप को ही बदतरीन रूप से बदल कर रख देगा। इसके बजाय, मुस्लिमों को उन नेताओं और उन पार्टियों को मदद पहुँचानी चाहिए जिन्होंने सीएए और एनआरआईसी का लगातार खुलकर विरोध किया है।
स्वभाविक परिणाम के रूप में, मुसलमानों को ऐसे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के प्रति अपनी निष्ठां से भी छुटकारा पा लेना चाहिए जो वैसे तो सामाजिक न्याय के फलक पर मौजूद हैं लेकिन जिनका मतदाता आधार उस विविधता के दावे को दर्शा पाने में असफल साबित होता है। इसमें वे संगठन शामिल हैं जिन्होंने आम मुसलमानों या अन्य वंचित समूहों के जीवन, स्वतंत्रता या संपत्ति की रक्षा करने में कोई रूचि नहीं दिखाई है।
विधानसभा चुनावों के लिए मुस्लिमों को वैकल्पिक क्षेत्रीय दलों को अपना सहयोगी बनाने की ओर रुख करना चाहिए, लेकिन राष्ट्रीय चुनावों में अपना सारा जोर एक ही राष्ट्रीय पार्टी के ऊपर देना चाहिए। यह एक समेकन करने और रणनीतिक सोच का आह्वान करता है – जो भारत में इससे पहले कभी देखने को नहीं मिली है, लेकिन भारत के मुसलमानों ने मुख्यधारा के राजनीतिक संगठनों के विकल्प के लिए वोट करने में कभी संकोच नहीं किया है। उदाहरण के लिए, उन्होंने उत्तर प्रदेश और बिहार में 'मंडल' की शक्तियों को अपना समर्थन दिया था।
अब वह समय आ गया है कि वे अपनी मौजूदा समर्थन को जारी रखने या नकार देने के फायदे और नुकसान का आकलन करें। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि मुसलमानों को चाहिए कि वे किसी भी राजनीतिक संगठन के प्रति गलत अर्थ में ’वफादारी’ के अपने नजरिये को झटक दें। बिना किसी शर्तों के अपना समर्थन देना किसी भी पार्टी को अब बंद कर देना होगा। उन्हें पूछना चाहिए कि संविधान प्रदत्त उनके सभी अधिकारों को बिना किसी समझौते के सम्मान सहित लागू किया जाये।
बदलाव की मांग करते समय मुस्लिमों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि क्या वे मुद्दे समुदाय को आगे ले जाने में मदद करेंगे, या जिन चीजों की रक्षा नहीं की जा सकती उस पर अपने सदस्यों की सारी ताकत को खत्म करने पर बर्बाद की जा रही है। उदाहरण के लिए, आंतरिक तौर तरीके और आपस में बहस-मुबाहिसे के जरिये तत्काल तीन तालक की प्रथा को समाप्त नहीं करने की वजह से, हिंदुत्व की सरकार को उनमें और हिंदुओं के बीच विवाद के बीज बोने का मौका मिल गया। इसलिए मुस्लिमों को चाहिए कि वे कुरान की पितृसत्तात्मक व्याख्या को बंद करायें।
कट्टरपंथी विवाद की एक मूल वजह ईश-निंदा की वह धारणा है जो अभी भी बड़ी संख्या में आम मुस्लिमों के जीवन में एक भूमिका अदा कर रही है। कुछ मुस्लिमों को उनके विचारों या रीति-रिवाजों के आधार पर काफिर या नास्तिक के रूप में घोषित करने वाली प्रथा को पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए। इस प्रकार के विभाजन को विचारधारा के साथ धर्म के मुलम्मे का समर्थन हो सकता है, लेकिन यह सरासर राजनीति के कारण ही फलता-फूलता है।
एक दूसरा सामाजिक विभाजन जो मुसलमानों के बीच मौजूद है, हालांकि इससे इन्कार किया जाता है, वह है जाति व्यवस्था का प्रचलन। तौहीद या ईश्वर के साथ एकीकरण, और जातिवाद एक साथ नहीं चल सकते। अगर ऐसा होता रहा तो यह मुसलमानों को अपमानित होने के लिए मजबूर करेगा। यह मुश्किल लग सकता है, लेकिन हमें ज्ञान वही देना चाहिए जिसे हम अपने जीवन में लागू कर सकें, और आज के समय में ऐसा करना बहुत बड़ी बात भी नहीं है।
ऐसी स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है जिसमें सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ अपने-अपने धर्मनिरपेक्षता के लबादे को उतार फेंकें, और हिंदुत्व के खाँचे के भीतर खेलना शुरू कर दें। इस प्रश्न का उत्तर आश्चर्यजनक रूप से मुसलमानों के लिए भाजपा की रणनीति में निहित है। अगर एक पूर्वानुमान लगायें कि वे भारत के 20 करोड़ मुसलमानों को साफ़ करना चाहते हैं, तो यह एक क्रूर और बेहद लंबी प्रक्रिया होगी। यहां तक कि आरएसएस की विश्वदृष्टि के सबसे अधिक अंधभक्तों के लिए भी इस प्रकार के भयावह दृष्टि को साकार करने के लिए सरकारी अमले या सरकारी मशीनरी पर निर्भर होना पड़ेगा। या यदि वे मुस्लिमों को हिंदू बनाने की मुहिम शुरू करते हैं, तो भी वह एक लंबी प्रक्रिया होगी, जिसमें एक सदी या शायद उससे भी अधिक का समय लग जाये। अगर ऐसे में लोकतंत्र बचा रहता है तो किसी भी पार्टी के लिए इतने लम्बे समय तक शासन में बने रहना सम्भव नहीं है।
इसलिए राजनीतिक परिवर्तन अपरिहार्य है। समय की माँग है कि समुदाय उठ खड़ा हो, और जो बदलाव वे देखना चाहते हैं उसमें शामिल हों और हिन्दुत्ववादियों के किसी भी अन्याय का पुरजोर विरोध करें। इन परिवर्तनों को लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम यह होगा कि सबसे अलग-थलग न बने रहें।
किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को जीवित रहने की कला भी अवश्य सीखनी चाहिए, और उसका सबसे बेहतरीन तरीका है कि आप अपरिहार्य बन जाएँ, ज्ञान अर्जित करें, दौलतमंद बनें अपनी बिरादरी को सशक्त बनाएं और अन्य कमजोर वर्गों के साथ एकजुटता निर्मित करें। आत्मनिर्भर और सशक्त मुस्लिम लोग शेष राष्ट्र के साथ और गहरे से मुसलमानों को जोड़ने के लिए एक गोंद का काम करेंगे।
(लेखक लखनऊ के गिरि इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज में सहायक प्रोफेसर पद पर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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