उस सांप्रदायिक राजनीति से कैसे लड़ें जो रामनवमी जुलूसों का इस्तेमाल करती है
पिछले हफ्ते, भारत के विभिन्न हिस्सों में, रामनवमी मौके पर जुलूस में भागीदारों की तरफ से तनाव और हिंसा फैलाए जानी की खबरें आईं हैं। भड़काऊ नारों और हथियारों को लहराते हूए मुस्लिम आबादी वाली बस्तियों से जुलूस निकाले गए। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही, भारतीय उपमहाद्वीप में भिन्न-भिन्न तीव्रता के साथ इन घटनाओं को देखा गया है। इतिहासकार दशकों से इसका अध्ययन कर रहे हैं, और औपनिवेशिक प्रशासकों ने धार्मिक जुलूसों के मार्गों को निर्धारित करने के लिए बड़ी जुगत लगाई थी ताकि ऐसे टकरावों को टाला या कम किया जा सके।
चंदर उदय सिंह की एक नई रिपोर्ट, "रुट्स ऑफ रैथ: वेपनाइजिंग रिलीजस प्रोसेसन्स" में बताया गया है कि पिछले अप्रैल में भी रामनवमी के जुलूसों के दौरान भी कैसे हिंसा की घटनाएँ हुई थीं। “रामनवमी के दंगे विजिलान्ट संगठनों और हिंदू राष्ट्रवादी समूहों की स्थानीय शाखाओं द्वारा धर्म आधारित राष्ट्र के निर्माण में निभाई जाने वाली महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाते हैं। रिपोर्ट कहती है कि, हाल के वर्षों में देश भर में इस किस्म के समूहों/संगठनों के तेजी से पनपने के बाद, यह स्पष्ट है कि कई स्थानीय हिंदुत्व समूह, हिंदूत्व की प्रथाओं को समरूप बनाने की कोशिश पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।”
हालांकि, इस वर्ष यात्राओं का एक अलग स्वरूप था। पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड जैसे उन प्रांतों में जहां भारतीय जनता पार्टी कभी भी एकमात्र आधिपत्य वाली सत्ताधारी पार्टी नहीं रही है, वहां हिंसा की तीव्रता पिछले वर्षों की तुलना में अधिक उग्र थी।
इमरत-ए-शरिया, फुलवारी शरीफ, पटना के मौलाना सज्जाद (1880-1940), जिन्ना के दो-राष्ट्र सिद्धांत के घोर आलोचक थे, उन्होंने 20 फरवरी 1940 को अपने निबंध में लिखा कि, "फिरकावाराना मुआमलात का फैसला किन उसूलों पर होना चाहिए? – यानि साम्प्रदायिक मामलों को किस सिद्धांत पर तय किया जाना चाहिए?' कि भारत जैसे बहुधार्मिक समाज के नेताओं को धार्मिक स्वतंत्रता की सीमा निर्धारित करनी चाहिए, जो सभी संप्रदायों के उचित व्यवहार पर आधारित होनी चाहिए। वे लिखते हैं कि, आस्था/विश्वास को सार्वजनिक रूप से इस तरह से प्रदर्शित नहीं किया जाना चाहिए जो अन्य धर्मों के लिए खतरनाक साबित हो – इसलिए यह उत्तेजक नहीं होनी चाहिए।
उन्होंने सलाह दी कि सार्वजनिक स्थानों पर किसी भी संप्रदाय या समुदाय के किसी भी धार्मिक जुलूस की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। जबकि आजकल इस सुझाव की सराहना करने वाले अधिक नहीं हैं, उनका यह तर्क था कि ऐसा करना जरूरी और न्यायपूर्ण होगा। इसके अलावा, उन्होंने कहा कि, यह लगातार होने वाले भी सांप्रदायिक दंगों को खत्म कर देगा।
दुर्भाग्य से, लगभग डेढ़ शताब्दी के दौरान हुए इन जुलूसों के दौरान बार-बार होने वाली परेशानियों के बावजूद, इसका कोई प्रभावी समाधान निकालने के बजाय प्रतिस्पर्धी पहचानवादी राजनीति का विस्फोट हुआ है। औपनिवेशिक और आजादी के बाद के युग में, जब भी राजसत्ता अवसरवादी (और कभी-कभी सांप्रदायिक) पार्टियों और पक्षपातपूर्ण प्रशासन के हाथों में आती थी, दोनों ही पक्षों ने इस किस्म के खेल खेले हैं। हाल के वर्षों में, चीजें काफी बदल गई हैं। आज, एक बहुसंख्यकवादी पार्टी न केवल केंद्र की सत्ता में है बल्कि वह कई प्रांतों में सत्ता पर काबिज है, और साथ देश के एक बड़े हिस्से में लगभग पूर्ण राजनीतिक मजबूती है। साम्प्रदायिकता राज्य तंत्र में जड़ जमा चुकी है, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जनता का एक बड़ा हिस्सा साम्प्रदायिक हो गया है। आपराधिक न्याय प्रणाली हमेशा कमजोर, नाजुक और पक्षपातपूर्ण रही है और सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में न्याय देने में विफल रही है। हाल के वर्षों में, मीडिया के एक बड़े वर्ग, विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक-विजुअल मीडिया ने भी मुस्लिम विरोधी नफरत फैलाने में खतरनाक योगदान दिया है।
दुनिया भर में, प्रतिस्पर्धी कट्टरता का अभूतपूर्व विकास और विस्तार हुआ है। "लोकतांत्रिक अधिनायकवाद" एक नई विश्वव्यापी घटना है। यह "सत्ता के अधिनायकवादी रूपों के विस्तार के लिए लोकतांत्रिक दिखने वाली संस्थाओं के इस्तेमाल" को दर्शाता है। यह, रोचना बाजपेयी और यासर कुरैशी का तर्क है कि, यह "संस्थागत और वैचारिक कब्जे के तंत्र से जुड़ी एक व्यापक प्रक्रिया है, जिसे अधिकारियों, विधायिकाओं, न्यायपालिकाओं के साथ-साथ गैर-राज्य संगठनों द्वारा शुरू और कार्यान्वित किया जा सकता है, जो अक्सर आपस में मिलकर काम करते हैं"। इतिहासकार इयान करशॉ के अनुसार, यह "संचयी कट्टरवाद" है। जैसा कि असीम अली ने द टेलीग्राफ में केरशॉ को समझाते हुए लिखा, बढ़ती कट्टरता और "सभ्य मूल्यों में गिरावट" आने से और "भेदभाव और उत्पीड़न में कट्टरपंथ" में तेजी आने से, न केवल वैचारिक अतिवाद बल्कि पार्टी और राज्य मशीनरी के भीतर "शक्ति, प्रतिष्ठा और संवर्धन" को लेकर आपसी प्रतिस्पर्धा बढ़ी है।
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड में अभी तक भाजपा अपने दम पर सत्ता में नहीं आई है। हिंदुत्व की विजय इन इलाकों में एक अधूरा कार्य है, जहां मुसलमानों को अधीन बनाना, वंचित करना और समाज से अदृश्य बनाना अभी दूर की कौड़ी है। साम्प्रदायिक घृणा और ध्रुवीकरण के अलावा अन्य किसी रास्ते से बहुसंख्यकों का इतना जुटान नहीं होता - और यह रामनवमी के जुलूसों के दौरान हुई गड़बड़ी से पता चलता है, कुछ जुलूसों में तो भीड़ के हाथों में हथियार भी थे।
हालाँकि, हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि आज जो कट्टरता है वह अचानक या हाल के वर्षों में प्रकट नहीं हुई है। आजादी के बाद से साम्प्रदायिकता से लड़ने की हमारी समझ में थोड़ी खामी रही है। नेहरूवादी समझ यह थी कि औपनिवेशिक युग के आखिर में मुस्लिम सांप्रदायिकता एक अधिक शक्तिशाली तथ्य था, क्योंकि इसे औपनिवेशिक राष्ट्र से सक्रिय प्रोत्साहन मिला था। लेकिन आजादी के बाद बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता ही एक बड़ा खतरा है। इस समझ में, साम्प्रदायिकता से लड़ने के व्यावहारिक स्तर पर, यह भुला दिया गया कि कैसे बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता ने अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता से चारा लिया है। दूसरे शब्दों में, दोनों साम्प्रदायिकताओं के अलग-अलग निहितार्थों के बावजूद, इसके दोनों रूपों से लड़ने के मोर्चे पर ढील नहीं दी जानी चाहिए थी। धर्मनिरपेक्ष राजनीति की इस विफलता में रूढ़िवादी और आधुनिक मुस्लिम नेताओं ने अपना योगदान दिया है। यदि आज नागरिक समाज के वर्गों को संविधान में बहुसंख्यकवादी आवेग मिलते हैं, तो दक्षिणपंथी हिंदू कहते हैं कि संविधान अभी हिंदू पर्याप्त नहीं हुआ है! इस तरह की तीखी नौंक-झौंक उस बिंदु पर पहुंच गई है जहां सीमित संवैधानिक स्पेस अल्पसंख्यकों के लिए भी गंभीर खतरा है।
2014 के बाद से, भारत ने 1980 के दशक में की गई गंभीर गलतियों के परिणामों को भी देखा है। 1985 में शाह-बानो मामले ने राष्ट्रीय मुद्दों में पहले की स्थानीय चिंताओं को सामने लाकर खड़ा कर दिया - मुस्लिम पर्सनल लॉ से लेकर लिंग संबंधित न्याय को रौंदने से लेकर बाबरी मस्जिद के दरवाज़े खोलना और रामनवमी के जुलूस जैसे स्थानीय धार्मिक आयोजनों को अर्ध-राष्ट्रीय आयोजनों में बदलना।
नब्बे के दशक में, संपन्न सबाल्टर्न मुसलमान, विशेष रूप से कारीगर समुदाय, जो पश्चिम एशिया से कमाई जाने वाली मुद्रा और आर्थिक उदारीकरण से लाभान्वित हुए हैं, दक्षिणपंथी हिंदू लामबंदी का निशाना बन गए हैं। कई दशकों से ईर्ष्या और तनाव की राजनीति चल रही है - कहते हैं कि, ऊंची मीनार वाली बनी मस्जिदें या भड़कीले और शोर-शराबे वाले धार्मिक जुलूस दशकों से चल रहे थे। इसकी जड़ें जमीनी आर्थिक संघर्षों और मुसलमानों और संबंधित हिंदू जातियों और वर्गों के बीच प्रतिद्वंद्विता में निहित हैं। ये संघर्ष बार-बार हुए हैं क्योंकि मुसलमानों के बीच एक नव-समृद्ध वर्ग के उदय के साथ-साथ सबाल्टर्न हिंदुओं का भगवाकरण हुआ है। यह बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल (विशेष रूप से इसके उत्तरी जिले) में विशेष रूप से सच रहा है, जहां यह प्रमुख मुस्लिम हास्तियों की एक नई फसल के स्थानीय निकायों में बढ़ते प्रतिनिधित्व में परिलक्षित हुआ है।
तीसरा, पश्चिम एशियाई देशों में काम करने वाले हिंदू अभिजात वर्ग, विशेष रूप से कॉर्पोरेट एक्जिक्यूटिव, बड़ी तेजी से विश्व मंच पर एक हिंदू पहचान का दवा कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर, अक्सर सुनने और देखने को मिलता है कि छठी या सातवीं शताब्दी ईस्वी के आस-पास अरब में पिछड़ापन था जबकि उसी दौरान हिंदू राज्य या उनके शासन के मनाक कई बेहतर थे।
भारत के मुसलमानों और प्रगतिशील लोगों को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और पहचानवादी दावों और संघर्षों की भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक जड़ों का जायजा लेना चाहिए। मीडिया मेज मौजूद धर्मनिरपेक्ष तबकों को यह महसूस करना चाहिए कि केवल एमएस गोलवलकर या वीडी सावरकर जैसे संघ परिवार के उल्लेखनीय लोगों, उनके लेखन और भाषणों या रूढ़िवादी या प्रतिगामी मुसलमानों की आलोचना करने से नव हिंदुत्व से लड़ने में मदद नहीं मिलेगी।
जरूरत इस बात की है कि भगवाकरण के इस नए माहौल में हिंदुओं के एक बड़े वर्ग को बहुलतावादियों के पक्ष में लाया जाए। यह तब तक नहीं होगा जब तक कि संभ्रांत मुसलमान भगवा खेमे में जाते रहेंगे, भले ही आम मुसलमानों को इसकी कितनी भी कीमत चुकानी पड़े। यह तब तक नहीं होगा जब तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और वक्फ बोर्ड जैसे मुस्लिम-नियंत्रित संस्थानों के लोकतंत्रीकरण पर चल रही बहस को, या मुस्लिम समुदायों के भीतर लिंग, जाति और क्षेत्र के आधार पर न्याय की मांगों को मुख्यधारा के राजनीतिक दलों और धर्मनिरपेक्ष नागरिक समाज द्वारा नजरअंदाज किया जाता रहेगा। व्यापक और अधिक विश्वसनीय बहुसंख्यक विरोधी प्रतिरोध और लामबंदी तब तक संभव नहीं है जब तक यह महुसूस नहीं किया जाता कि जितना दूसरों की तरफ देखना जरूरी उतना ही अपने भीतर भी झांकने की जरूरत है। वैश्विक स्तर पर बढ़ती कट्टरता की तीव्र गति को देखते हुए, अब समय बर्बाद करने का वक़्त नहीं बचा है।
लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आधुनिक और समकालीन भारतीय इतिहास पढ़ाते हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
How to Fight Communal Politics That Uses Ram Navami Processions
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