IMF की SDR की नयी खेप, तीसरी दुनिया के लिए कितनी फायदेमंद है?
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अगस्त के महीने से 650 अरब डालर के स्पेशल ड्राइंग राइट्स या एसडीआर की ताजा खेप जारी करने का एलान किया है। इस राशि का आइएमएफ के सदस्य देशों के बीच, आइएमएफ के उनके कोटा के अनुपात में वितरण किया जाएगा। यह राशि वैसे तो बहुत से लोगों द्वारा जितने की मांग की जा रही थी उससे कम है। मांग 10 खरब डॉलर की थी। फिर भी इससे कर्ज के भारी बोझ के तले दबे तीसरी दुनिया के देशों को, कुछ फौरी राहत तो मिल ही जाएगी।
बेशक, यह करीब सारी की सारी राशि उन निजी वित्तीय संस्थाओं की जेबों में चली जाने वाली है, जिन्होंने भारी कर्जे में डूबे तीसरी दुनिया के देशों को ऋण दे रखे हैं। फिर भी, मौजूदा व्यवस्था के दायरे में यह कदम, इन देशों को राहत देने जा रहा है। अलबत्ता इस राहत का बहुत मामूली होना इस तथ्य में निहित है कि जारी किए जाने वाले एसडीआर का वितरण, सदस्य देशों के कोटा के अनुपात में होने जा रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि इसका सबसे बड़ा हिस्सा तो विकसित देशों को ही मिल रहा होगा और इसमें से बहुत मामूली सी राशि ही तीसरी दुनिया के देशों के हिस्से में आने जा रही है।
आइएमएफ के 190 सदस्य देशों में से, 55 धनी देशों के हिस्से में इसमें से 375 अरब डॉलर आने वाले हैं, जबकि 135 अपेक्षाकृत गरीब देशों के हिस्से में सिर्फ 275 अरब डॉलर। और अपेक्षाकृत गरीब देशों में से भी 29, ‘कम आय वाले’ देशों के हिस्से में सिर्फ 27 अरब डालर आने जा रहे हैं जबकि खुद आइएमएफ की अपनी गणनाओं के अनुसार, इन देशों को अगले पांच साल में पूरे 450 अरब डालर के विदेशी संसाधनों की जरूरत होगी।
इस तरह के सुझाव आए हैं कि अमीर देशों को एसडीआर का अपना हिस्सा, अपेक्षाकृत गरीब देशों को दे देना चाहिए। आखिरकार, अमीर देशों को इन संसाधनों की जरूरत ही क्या है और जरूरत होने पर वे आसानी से कर्जे उठा सकते हैं। इसके अलावा, उनकी मुद्राओं में इतना दम है कि उनके विदेशी ऋण के किसी फंदे में फंसने का तो सवाल ही नहीं उठता है। बहरहाल, धनी देशों का आग्रह है कि उन्हें अगर ऐसा करना है तो, उन्हें इसके बदले में ब्याज मिलना चाहिए। उनकी यह मांग इसके बावजूद है कि एसडीआर को अपने आप में चूंकि ऋण नहीं माना जाता है बल्कि वे सीधे संबंधित देशों के विदेशी मुद्रा संचित कोष में जुड़ भर जाते हैं, उन पर कोई ब्याज या ब्याज दर नहीं बनता है। इसलिए, एसडीआर जारी किए जाने की व्यवस्था का पहला बेतुकापन तो, आइएमएफ के अपने ढांचे में ही निहित है।
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एसडीआर कोई जरूरत के हिसाब से नहीं वितरित किए जाते हैं बल्कि आर्थिक शक्ति का जिस तरह का वितरण बना हुआ है, जिसको आइएमएफ में देशों का कोटा प्रतिबिंबित करता है, उसके हिसाब से इनका वितरण किया जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि जिन्हें इस तरह की राहत की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, उनके हिस्से में सबसे कम आता है जबकि सबसे ज्यादा उनके हिस्से में आता है, जिन्हें इसकी सबसे कम जरूरत होती है।
दूसरा बेतुकापन ताजा एसडीआर जारी किए जाने का इस तथ्य से निकलता है कि, तीसरी दुनिया के देशों के कर्ज के बोझ में दबने के बुनियादी कारण पर इससे कोई असर ही नहीं पड़ने वाला है। एसडीआर जारी किए जाने का मकसद तो सिर्फ मौजूदा व्यवस्था को चलाते रहना ही है। इसलिए, मौजूदा व्यवस्था के ही दायरे में इससे कर्ज के बोझ तले दबेे देशों को, सांस लेने की कुछ फुर्सत तो मिल जाती है, लेकिन इससे उनकी बुनियादी समस्या को हल करने में कोई मदद नहीं मिलती है।
कर्ज के बोझ के तले दबे देशों को दो चीजों की खास जरूरत होती है। पहली और सबसे स्वत: स्पष्ट जरूरत तो जाहिर है कि ऋण मंसूख किए जाने की ही है। जब तक ऐसा नहीं किया जाता है, नये एसडीआर जारी किया जाना, ऋणों से संबंधित भुगतानों में ही लग जाने वाला है और इससे गरीब देशों के हाथों में स्वास्थ्य या शिक्षा या अन्य आवश्यक सामाजिक सेवाओं पर खर्च करने के लिए तो कोई संसाधन आने वाले ही नहीं हैं। और ताजा एसडीआर जारी किए जाने की समस्या यह है कि इससे इन देशों को एक हद तक फौरी राहत तो मिलेगी, लेकिन यह ऋण मंसूख किए जाने पर चर्चा को एक सिरे से बुहार कर किनारे ही कर देता है।
बहरहाल, ऋण मंसूख किया जाना भी, एक आवश्यक कदम होने के बावजूद, तीसरी दुनिया की ऋण की समस्या पर काबू पाने के लिए काफी नहीं है। जैसा कि भारतीय किसानों के साथ होता है, जिनके मामले में एक के बाद एक ऋण माफी की जरूरत पड़ती है, तीसरी दुनिया के देशों के मामले में भी अगर बुनियादी नवउदारवादी व्यवस्थाओं को ही नहीं खत्म किया जाता है, जिनके फंदे में ऋणग्रस्त देश फंसे रहते हैं, बार-बार उनके सिर पर ऋण का बोझ जमा होता रहेगा।
गरीब देशों की बुनियादी समस्या यह है कि उनके भुगतान संतुलन में साल दर साल घाटा बना रहता है, यह पहले लिए गए ऋणों पर ब्याज संबंधी भुगतानों से बिल्कुल अलग है, और इस घाटे की भरपाई बाहरी ऋणों के जरिए करनी होती है। जब तक चालू खाते के इस घाटे को खत्म नहीं किया जाता है, ऋण मंसूख करने के किसी भी कदम के बाद, फिर से कर्ज चढ़ जाएगा और फिर से ऋण मंसूख करने की जरूरत होगी। यही सिलसिला चलता रहेगा।
इन देशों के चालू खाते में घाटा बना रहने की वजह यह है कि नवउदारवादी व्यवस्था में इन देशों को, कम प्राथमिकता वाले आयातों से खुद को बचाने की इजाजत नहीं होती है।
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इस तरह के संरक्षण के न होने के चलते, अपने चालू खाते की स्थिति सुधारने की उनकी कोशिश, उनकी मुद्रा की विनिमय दर को घटाने का ही रूप ले सकती है। लेकिन, यह एक हर चीज पर असर डालने वाला कदम है, जिसके नतीजे मुद्रास्फीतिकारी होते हैं। एक उदाहरण से हम एक संरक्षणवादी निजाम और एक नवउदारवादी निजाम के बीच के अंतर को समझ सकते हैं, जिसके तहत चालू खाता घाटे में सुधार करने के लिए, विनियम दर में फेर-बदल करने का ही सहारा लेना पड़ता है।
जो ऐशो-आराम के माल घरेलू तौर पर आसानी से नहीं बनाए जा सकते हों, उनके आयातों पर तटकर की दरें बढ़ाई जाती हैं तो, घरेलू बाजार में इन मालों की कीमत बढ़ जाती है। इससे घरेलू बाजार में इन मालों की मांग घट जाती है और इससे उनके आयात में कमी हो जाती है। जाहिर है कि अगर ऐसे आयातों पर परिमाणात्मक सीमाएं लगा दी जाएं, तब तो सीधे ही आयातों में कमी हो जाएगी। इस तरह, इस प्रकार के आयातों पर खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा की बचत होगी। दूसरी ओर, चूंकि इस कदम से कीमतों में बढ़ोतरी सिर्फ ऐशो-आराम की चीजों तक सीमित होगी, इससे न तो मेहनतकशों के जीवन स्तर पर मार पड़ रही होगी और न विनिमय दर विशेष पर निर्यातों की कीमतें बढ़ रही होंगी, क्योंकि उनके साथ तो कोई छेड़-छाड़ होगी ही नहीं। इस तरह, चालू खाता घाटे में कमी भी हो रही होगी और इसके लिए न तो रोजगार के स्तर में कोई गिरावट होगी और न ही वास्तविक मजदूरी की दर में कोई कमी की जाएगी।
इसके विपरीत, अगर चालू खाता घाटा कम करने के लिए, विनिमय दर में अवमूल्यन करने का सहारा लिया जाता है, तो घरेलू बाजार में सभी आयातित मालों की कीमतें बढ़ जाएंगी और इसमें तेल जैसे आवश्यक आयात भी शामिल हैं, जो करीब-करीब सभी मालों के उत्पादन में लागत के रूप में शामिल होते हैं। इसलिए, विनिमय दर का अवमूल्यन, आम तौर पर संबंधित अर्थव्यवस्था में कीमतों का स्तर ऊपर उठा देता है और इसका नतीजा यह होता है कि अगर रुपयों में इसी अनुपात में मजदूरी नहीं बढ़ रही हो तो, वास्तविक मजदूरी घट ही रही होती है।
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वास्तव में, अगर इस मामले में वास्तविक मजदूरी में कमी नहीं होने दी जाती है, तो चालू खाता घाटा कम करने के लिए विनिमय दर में कमी से, कीमतें बढ़ती ही जाएंगी और विनिमय दर में अनंत काल तक अवमूल्यन करते रहना होगा। मिसाल के तौर पर, अगर विनिमय दर में 10 फीसद की कमी की जाती है तो, वास्तविक मजदूरी तथा मुनाफे की दर के जस का तस रहने की सूरत में (जो कि पूंजीपतियों द्वारा लागू कराए जाने के चलते जस के तस रहेंगे ही), घरेलू कीमतों में 10 फीसद की बढ़ोतरी होगी। लेकिन, इसका अर्थ तो प्रभावी विनिमय दर में कोई वास्तविक अवमूल्यन ही नहीं होना हुआ, क्योंकि रुपया मूल्य में जो अवमूल्यन हो भी रहा होगा, उसकी भरपाई कीमतों में उसी अनुपात में बढ़ोतरी कर रही होगी। उस सूरत में, चालू खाता घाटा कम करने के लिए रुपया विनिमय दर में और अवमूल्यन की जरूरत होगी, लेकिन एक बार फिर उसी अनुपात में कीमतों में बढ़ोतरी हो रही होगी और यह चक्र चलता ही रहेगा।
इस तरह विनिमय दर में अवमूल्यन, वास्तविक मजदूरी में कमी के जरिए और अनिवार्यत: उसके माध्यम से ही काम करता है। और चालू खाता घाटे में कोई ध्यान खींचने लायक कमी लाने के लिए, वास्तविक मजदूरी में इतनी भारी कमी की जरूरत हो सकती है, जिसका बोझ उठाना मुश्किल हो।
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इसलिए, एक समान आधार विनिमय दर रखना और आयात पर परिमाणात्मक पाबंदियां लगाना या अलग-अलग मालों के लिए अलग-अलग तटकर दरें रखना (जिस व्यवस्था को ‘बहुल विनिमय दर’ कहा जाता है), ऐसी व्यवस्था से कहीं बेहतर होता है जिसमें बस एक समान विनिमय दर से काम चलाया जाए, जिसके तहत अलग-अलग मालों पर तटकर की दरों में कोई खास भिन्नता हो ही नहीं। लेकिन, ऐसी बाद वाली व्यवस्था कायम कराने का ही तो ब्रेटन वुड्स संस्थाओं का आग्रह रहता है। विनिमय दर का ‘एकीकरण’, जो कि नवउदारवादी व्यवस्था का एक लक्षण भी है, उन ‘शर्तों’ में से एक है, जो इन संस्थाओं द्वारा तीसरी दुनिया के देशों पर थोपी जाती हैं।
कोई भी देश कर्ज के असह्य बोझ से बचे रहते हुए, अपने चालू खाता घाटे को काबू में रखने का काम, एक और तरीके से भी कर सकता है। यह तरीका है, दूसरे देशों के साथ उस प्रकार के व्यापार समझौते करना, जैसे व्यापार समझौते साठ और सत्तर के दशकों में भारत ने सोवियत संघ तथा पूर्वी योरपीय समाजवादी देशों से किए हुए थे। इस तरह की व्यवस्था में कोई देश अपने व्यापार सहयोगी को अपने माल बेचता है और बदले में उसके माल खरीदता है, लेकिन दोनों के बीच के लेन-देन का निपटान फौरन, नगदी में नहीं किया जाता है बल्कि यह अंतर खाते में ही चढ़ता रहता है और एक-दूसरे के मालों की आगे होने वाली खरीदों के जरिए, लेन-देन के अंतर का निपटारा होता है।
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लेकिन, नवउदारवादी निजाम में तो ऐसे द्विपक्षीय व्यापार समझौतों की भी इजाजत नहीं है। ऐसा लगता है कि यह व्यवस्था तो जैसे तीसरी दुनिया के देशों के कर्ज के फंदे में फंसाने के लिए ही तैयार की गयी है। चूंकि विकसित दुनिया और अधिकांश तीसरी दुनिया (कुछ ऐसे एशियाई देशों को छोडक़र जहां हाल के वर्षों में विकसित दुनिया से कुछ आर्थिक गतिविधियों के पुनर्स्थापन का लाभ मिला है) के बीच व्यापार अब भी यही बना हुआ है कि विकसित देश, तीसरी दुनिया के देशों को विनिर्मित माल बेचते हैं और तीसरी दुनिया के देश अब भी मुख्यत: प्राथमिक उत्पाद ही बेचते हैं, जिनकी सापेेक्ष कीमतें हमेशा ही तीसरी दुनिया के देशों के खिलाफ झुकी रहती हैं, एक नवउदारवादी निजाम में इन दो अलग-अलग दुनियाओं का एक साथ बुना जाना, तीसरी दुनिया के देशों के कर्ज के जाल में फंसने का शर्तिया नुस्खा है।
इसलिए, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा ताजा एसडीआर जारी किया जाना, एक लिहाज से कर्ज के बोझ के तले दबे तीसरी दुनिया के देशों को कुछ राहत तो देता है, फिर भी वास्तव में इसका अर्थ वर्तमान बुनियादी तरीके से असमानतापूर्ण व्यवस्था को चलाते रहना ही है। पुराने जमाने में भारतीय किसानों के संबंध में कहा जाता था कि , ‘कर्जा किसान को उसी तरह से सहारा देता है, जैसे फांसी का फंदा फांसी पर लटकने वाले को सहारा देता है।’ नवउदारवादी व्यवस्था में तीसरी दुनिया के देशों के संबंध में भी वही बात कही जा सकती है।
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The Absurdity of IMF’s Fresh Issue of $650 Billion SDRs
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