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साम्राज्यवाद और कृषि संकट

कृषि संकट से उबरने और खाद्य आत्मनिर्भरता की हिफ़ाज़त करने, दोनों का ही तक़ाज़ा है कि साम्राज्यवाद की मांगों के ख़िलाफ़, किसान जनता की हिफ़ाज़त की जाए।  
Agriculture
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : PTI

साम्राज्यवाद का वर्चस्व अपरिहार्य रूप से वैश्विक दक्षिण कहलाने वाले देशों में कृषि संकट के साथ जुड़ा रहा है। वास्तव में कृषि संकट को, साम्राज्यवाद के बोलबाले के सिक्के का दूसरा पहलू ही समझना चाहिए। भारतीय खेती के मामले में यह स्वतः स्पष्ट ही है।

औपनिवेशिक राज और अकाल

औपनिवेशिक दौर में कमोबेश हमेशा ही कृषि संकट बना रहा था, जिसकी सबसे भयानक अभिव्यक्ति बार-बार पडऩे वाले अकालों के रूप में हुआ करती थी। भारत में औपनिवेशिक राज की शुरूआत तब हुई थी, जब 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुगल बादशाह, शाह आलम से बंगाल में राजस्व वसूल करने का अधिकार हासिल कर लिया था। इसके पांच साल के अंदर-अंदर ही, 1770 में बंगाल को अकाल की तबाही झेलनी पड़ी थी। यह संभवत: विश्व इतिहास का सबसे भयानक अकाल था, जिसमें ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों के अनुसार, बंगाल की उस समय की कुल 3 करोड़ की आबादी में से, 1 करोड़ लोगों की मौत हो गयी थी। भारत में ब्रिटिश हुकूमत का अंत भी 1943-44 में एक और भयानक अकाल के साथ हुआ। इस अकाल में बंगाल के कम से कम 30 लाख लोगों के मारे जाने का अनुमान है।

ब्रिटिश राज के आरंभ में जो अकाल पड़ा था, वह अनाप-शनाप लगान थोपे जाने का ही नतीजा था। भारत में ब्रिटिश राज के आखिरी वर्षों में पड़ा अकाल भी, बंगाल की जनता से अनाप-शनाप वसूलियों का ही नतीजा था। दक्षिण एशिया में द्वितीय  विश्व युद्ध पर मित्र राष्ट्रों द्वारा किए जा रहे खर्चों के वित्त पोषण के लिए की जा रहीं ये अनाप-शनाप वसूलियां, अतिरिक्त कर वसूलियों के ऊपर से, मुद्रास्फीति के जरिए की जा रही थीं, जो असामान्य रूप से ज्यादा घाटे की वित्त व्यवस्था की वजह से पैदा हुई थी। इन दुर्भिक्षों की शिकार हमेशा मुख्यत: ग्रामीण आबादी होती थी, जिसमें किसान तथा खेत मजदूर शामिल थे। लेकिन, इन दुर्भिक्षों के अलावा भी औपनिवेशिक राज में किसानों का कर्ज के बोझ के नीचे दबना, उनका कंगाल हो जाना और अपनी जमीनों से बेदखल हो जाना, आए दिन की बात थी।

पूंजीवाद का विकास और हाशियावर्ती देंशों पर निर्भरता

औपनिवेशिक शासकों का इस तरह का लुटेरापन, सिर्फ उनकी ऐसा करने की इच्छा का मामला नहीं था। यह अनिवार्य रूप से खासतौर पर ब्रिटेन में और आम तौर पर औद्योगिक दुनिया में, पूंजीवाद के विकास के साथ जुड़ी हुई परिघटना का मामला था। औद्योगिक दुनिया में पूंजीवाद को ऐसे अनेक कच्चे मालों की जरूरत थी, जिनमें कच्चे माल तथा खाद्यान्न शामिल थे, जिनके बिना उसका काम नहीं चल सकता है और दूसरी ओर जिन्हें उसकी राष्ट्रीय सीमाओं में या तो उगाया ही नहीं जा सकता था या पर्याप्त मात्रा में या फिर पूरे साल भर नहीं उगाया जा सकता था। इस पहलू पर तेल के मामले में तो काफी चर्चा हुई है, जिसके दुनिया के ज्ञात स्रोतों में से सिर्फ 11 फीसद ही उन ठंडे इलाकों में पड़ते हैं, जिन्हें पूंजी का अपना घर कहा जा सकता है। लेकिन, विभिन्न कृषि उत्पादों के मामले में शेष दुनिया पर और खासतौर पर गर्म तथा सम-शीतोष्ण इलाकों पर, पूंजीवादी महानगरों की ऐसी ही निर्भरता को, अक्सर नजरंदाज ही कर दिया जाता है।

मिसाल के तौर पर पूंजीवाद ने अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध तथा उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में औद्योगिक क्रांति के जरिए अपना पाया था। और इस प्रक्रिया के केंद्र में जो उद्योग था, वह था सूती कपड़ा उद्योग। लेकिन, जिस ब्रिटेन में यह औद्योगिक क्रांति हुई, वहां तो कपास पैदा ही नहीं हो सकता था। वह इसके लिए गर्म तथा सम-शीतोष्ण इलाकों से आयातों के जरिए कच्चे कपास की आपूर्तियों पर निर्भर था। इन सभी कच्चे मालों की पूंजी के महानगरीय देशों की मांगें पूरी करने के लिए, सबसे पहले तो इन कच्चे मालों को पैदा कर सकने वाले देशों में माल उत्पादन व्यवस्था के यानी सही मानों में माल उत्पादन की व्यवस्था ऐसी लाए जाने की जरूरत थी, जिसमें उत्पादन के संबंध में फैसले सिर्फ और सिर्फ मांग के बाजार के संकेतों के आधार पर लिए जाएं और परिवार या स्थानीय समुदाय या देश के स्तर पर खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता की चिंता का, इसमें कोई दखल नहीं हो। और दूसरी बात यह कि अगर पूंजीवादी महानगरों के लिए ऐसे मालों की पर्याप्त आपूर्तियां सुनिश्चित की जानी थीं, तो इन मालों का उत्पादन करने में समर्थ इलाकों में उपलब्ध खेती की जमीन चूंकि सीमित ही थी, संबंधित इलाकों में इन मालों की या इन जमीनों पर पैदा होने वाले अन्य उत्पादों की मांग का सिकोड़ा जाना भी जरूरी था।

औपनिवेशिक कराधान की दुहरी भूमिका और उसका अंत

औपनिवेशिक कराधान व्यवस्था, महानगरीय पूंजी के इन दोनों ही लक्ष्यों को पूरा करती थी। जहां मुगल शासन में भारत में लगान की वसूली पैदावार के एक हिस्से के रूप में होती थी, औपनिवेशिक राज में लगान की नकद उगाही की व्यवस्था लागू कर दी गयी और इसके साथ ही साथ, उसकी वसूली की कठोर समय सीमाएं भी लागू कर दी गयीं। इसका नतीजा यह हुआ कि किसानों को लगान भरने के लिए, व्यापारियों से कर्ज लेना पड़ता था और ये व्यापारी, इस तरह के ऋण देने के लिए इसकी शर्त लगाते थे कि किसानों को उनकी मांग के मुताबिक फसलें पैदा करनी होंगी और उन्हें अपनी पैदावार, पहले ये तय कर दिए गए दाम पर उन्हें ही बेचनी होगी। इस तरह, किसानी खेती में माल उत्पादन सीधे नहीं आकर, परावर्तित तरीके से आया, क्योंकि संबंधित व्यापारी खुद, बाजार के संकेतों के हिसाब से निर्णय लेते थे। इसके साथ ही साथ, किसानों पर करों का भारी बोझ लाद दिए जाने से और दूसरी ओर, महानगरीय पूंजीवादी केंद्रों से मशीन से निर्मित मालों के आयातों के चलते भारत में हो रहे निरौद्योगीकरण के चलते, मेहनतकश जनता की आमदनियां घट गयीं और इस तरह उन पर मांग का संकुचन थोप दिया गया, जिसने पूंजी के महानगरों में जिन मालों की जरूरत थी, उनके लिए जगह खाली करा दी। इस तरह, औपनिवेशिक कर प्रणाली ने साम्राज्यवाद के उक्त दोनों लक्ष्यों को पूरा किया। साम्राज्यवाद के लिए इसके अलावा इस व्यवस्था का एक अतिरिक्त फायदा और था -  महानगरों के लिए इन मालों को वह काफी हद तक मुफ्त में ही हासिल कर सकता था।

उपनिवेशवाद के अंत के साथ, यह व्यवस्था खत्म हो गयी। इसके ऊपर से, स्वतंत्र भारत में अर्थव्यवस्था के स्तर पर जो नियंत्रणात्मक निजाम कायम किया गया, उसने उस सदा-सर्वदा के कृषि संकट को खत्म कर दिया, जो भारत में उपनिवेशवाद की पहचान बना रहा था। बेशक, अब भी भूमि का केंद्रीयकरण बना रहा। अब भी सामंतशाही बनी रही, बहुत से जमींदारों ने तो खुद को प्रशियन जुंकरों की तरह, पूंजीवादी जमींदारों में तब्दील कर लिया। इस तरह, किसान जनता का शोषण बना रहा। फिर भी अब कृषि संकट, चाहे सत्यानाशी अकालों की बात हो या कर्ज के कमरतोड़ बोझ की बात हो या शहरों की ओर बहुत बड़े पैमाने पर पलायन की या बड़ी संख्या में आत्महत्याओं की बात हो, उस तरह किसानी खेती की पहचान नहीं रह गया, जैसे औपनिवेशिक दौर में हुआ करता था।

नवउदारवादी दौर में लौट आया कृषि संकट

बहरहाल, नवउदारवादी नीतियां अपनाए जाने के साथ, चीजें बदल गयीं। आखिरकार, इन नीतियों का मकसद, भारतीय अर्थव्यवस्था को उस वैश्विक वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के अधीन करना ही तो था, जिसके साथ बड़ा भारतीय पूंजीपति वर्ग घनिष्ठ रूप से जुड़ गया था। इस तरह, अर्थव्यवस्था में पूंजी के महानगरों के वर्चस्व की वापसी हो गयी, हालांकि अब इस बोलबाले को घरेलू बड़े पूंजीपतियों की मिलीभगत से चलाया जा रहा है। और इसके साथ ही कृषि संकट भी लौट आया है, हालांकि इस बार उसका रूप पहले जैसे अकालों का नहीं है। इस बार उसका रूप है किसानों की बढ़ती कंगाली का, कर्ज के  असह्य बोझ के चलते किसानों के थोक में आत्महत्याएं करने का और रोजगार की तलाश में, जो बहुत थोड़े ही तथा जब-तब ही हासिल होते हैं, गांवों से शहरों की ओर बढ़ते पलायन का। और यह सब नतीजा है, भारतीय कृषि लाभ में गिरावट का। यह गिरावट इतनी ज्यादा है कि इसने किसानी खेती को कमोबेश अवहनीय ही बना दिया है। इसके ऊपर से, किसान जनता की आमदनियों को और भी निचोड़ा जा रहा है, शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी अत्यावश्यक सेवाओं के निजीकरण के जरिए, इन सेवाओं तक उनकी पहुंच को और महंगा बनाने के जरिए।

किसानी खेती के प्रति नीति में नवउदारवाद के तहत आए बदलाव की एक वजह, बड़ी पूंजी की यह आम आकांक्षा तो है ही कि लघु-उत्पादन तथा किसानी खेती को भी हड़प कर ले और उसकी यह इच्छा अब पूरी हो भी रही है, इसके साथ ही इसके पीछे साम्राज्यवाद के उन दोनों लक्ष्यों को साधने की इच्छा भी है, जिनका हमने पीछे जिक्र किया था। उक्त दो लक्ष्य हैं: किसानों को प्रामाणिक माल उत्पादन के दायरे में खींचना और हमारी अर्थव्यवस्था पर मांग संकुचन थोपना ताकि पूंजी के महानगरीय केंद्रों के लिए पर्याप्त आपूर्तियां उपलब्ध हो सकें। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के कार्यक्रमों के जरिए थोपे जा रहे राजकोषीय कमखर्ची तथा कठोर मुद्रानीति कदमों के जरिए, अब यही मांग संकुचन लागू कराया जा रहा है। बेशक, अब औपनिवेशिक दौर की तरह महानगरीय पूंजी को अपनी जरूरत के गर्म तथा सम-शीतोष्ण इलाकों के उत्पाद, मुफ्त तो नहीं मिल पा रहे हैं (हालांकि एक सीमित पैमाने पर इस तरह की मुफ्त वसूली का एक तत्व तो निरुपनिवेशीकरण के बाद भी बना ही हुआ है जो अब असमान विनिमय, पेटेंटों के लिए भुगतान तथा इसी प्रकार के अन्य औजारों से वसूली के रूप में काम करता है), फिर भी यह व्यवस्था इतना तो पक्का करती ही है कि पूंजी के महानगरों के लिए पर्याप्त मात्रा में ये आपूर्तियां उपलब्ध भी हों और इस तरह से उपलब्ध हों कि इसके चलते न तो विकसित पूंजीवादी दुनिया में कोई मुद्रास्फीति पैदा हो और न ही हाशियावर्ती देशों में।

खाद्य आत्मनिर्भरता पर सामराजी निशाना

हाशियावर्ती देशों पर माल उत्पादन थोपने के पीछे, विकसित पूंजीवादी दुनिया का एक और लक्ष्य यह है कि उसे इस क्षेत्र में, बाजार के फरमानों के हिसाब से ही उत्पादन होना सुनिश्चित करना है। निहितार्थत: यह इसका तकाजा करता है कि खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता जैसे सभी आग्रहों को त्याग दिया जाए, भले ही यह आत्मनिर्भरता भी जनता की आय व क्रय शक्ति के बहुत ही निचले स्तर के संदर्भ में ही हासिल की गयी हो। औपनिवेशिक दौर के बाद एक महत्वपूर्ण बदलाव यह हुआ है कि विकसित देश, खाद्यान्न के मामले में अपनी जरूरत से फालतू उत्पादन करने वाले देश बन गए हैं। और उनकी नजर से इसी वजह ये यह और भी जरूरी हो गया है कि भारत जैसे हाशियावर्ती देश, खाद्यान्न के मामले में अपनी आत्मनिर्भरता का आग्रह छोड़ दें। याद रहे कि नकदी फसलों के मामलों में तो भारत पहले ही, सरकारी मूल्य समर्थन की व्यवस्था को त्याग भी चुका है। फिर भी खाद्यान्न के मामले में, विश्व व्यापार संगठन के सारे दबाव के बावजूद, समर्थन व खरीदी मूल्य की व्यवस्था और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की जरूरत पूरी करने के लिए, सरकारी खरीद का तंत्र, अब भी बरकरार है क्योंकि किसी भी सरकार की हिम्मत नहीं पड़ी है कि इस तरह के दबाव के आगे झुककर इन्हें खत्म कर दे।

बहरहाल, मोदी सरकार ने यह सोचा था कि हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता अपने ध्यान भटकाने वाले विमर्श के पर्दे में और महामारी का फायदा उठाकर, वह विकसित पूंजीवादी दुनिया के उक्त एजेंडे को पूरा कर सकती है। उसके तीन कुख्यात कृषि कानूनों का ठीक यही मकसद था। इन कानूनों का मकसद था, खाद्यान्नों के मामले में भी समर्थन मूल्य की व्यवस्था को खत्म करना तथा खेती के कारपोरेटीकरण का रास्ता तैयार करना। और यह सब किसानों की दशा बेहतर करने के नाम पर किया जाना था! बहरहाल, किसान जनता के दृढ़संकल्प संघर्ष ने इस योजना को विफल कर दिया।

किसान जनता को बचाना जरूरी

बहरहाल, इस मामले में सरकार का पांव पीछे खींचना भी, फौरी तौर पर पीछे हटना ही है। मोदी सरकार चूंकि नवउदारवाद के लिए खाद्यान्नों के बाजार समेत, तमाम बाजारों में हर प्रकार के सरकारी हस्तक्षेप को खत्म करने के एजेंडा के लिए कटिबद्घ है, जब भी अनुकूल मौका दिखाई देगा, वह फिर से उन्हीं कदमों को आगे बढ़ाने की कोशिश करेगी।

“राष्ट्रवाद”  की अपनी सारी बड़ी-बड़ी बातों की आड़ में यह, साम्राज्यवाद की मांगों के सामने सबसे मुकम्मल समर्पण और साम्राज्यवादी फरमानों की सबसे गुलामाना तामील का मामला होगा। लेकिन, इस तरह के कदमों को अगर लागू किया जाता है तो यह सिर्फ इस देश में खाद्यान्न उत्पादन को घटाएगा ही नहीं बल्कि इसका अर्थ सार्वजनिक वितरण प्रणाली का समेटा जाना भी होगा क्योंकि कोई भी सार्थक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था, आयातित खाद्यान्न के भरोसे नहीं चलायी जा सकती है। भारत के लिए इस सब का क्या अर्थ होगा, इसे अफ्रीका के उदाहरण से समझा जा सकता है। अफ्रीका में खाद्यान्न आत्मनिर्भरता का त्याग किए जाने का नतीजा यह हुआ है कि यहां के अनेक देश खाद्यान्न के आयात पर निर्भर होकर रह गए हैं और अकालों के खतरे की जद में आ गए हैं। यहां तक कि अब यूक्रेन युद्ध से भी अफ्रीकी देशों में अकाल का खतरा पैदा हो गया है क्योंकि इस युद्घ ने वैश्विक खाद्यान्न आपूर्तियों में खलल डाल दिया है।

इसलिए, कृषि संकट से उबरने और खाद्य आत्मनिर्भरता की हिफाजत करने, दोनों का ही तकाजा है कि साम्राज्यवाद की मांगों के खिलाफ, किसान जनता की हिफाजत की जाए। 

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