स्वतंत्रता दिवस: महिलाएं अपनी ‘असल आज़ादी’ का जश्न कब मनाएंगी?
“देश में औरत अगर बेआबरू नाशाद है,
दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है?”
अदम गोंडवी की ये पंक्तियां मणिपुर समेत पूरे देश के हर उस कोने की कहानी बयां करती हैं, जहां आज़ादी के 75 साल बाद भी महिलाओं के साथ हिंसा, शोषण और अत्याचार की कोई न कोई घटना आए दिन घटित होती रहती है। रोज़ अख़बार हाथ में लेते ही अलग-अलग राज्यों में हो रहे बलात्कारों की ख़बरें महिलाओं की आज़ादी को लेकर कई सवालिया निशान लगा देते हैं। यूं तो भारत को आज़ाद हुए सात दशक से अधिक का समय हो गया है, लेकिन आज़ादी के इस अमृतमहोत्सव में एक सवाल बार-बार ज़ेहन में आता है कि आख़िर इस युवा आज़ाद देश में महिलाएं कितनी आज़ाद हैं?
जंतर-मंतर पर महिला पलवानों का प्रदर्शन हो या उनके समर्थन में आवाज़ उठाती महिला संगठनों की पंचायत, हर जगह महिलाओं के संघर्ष आपको आसानी से देखने को मिल जाएंगे। स्कूल, कॉलेज और कार्यस्थल पर यौन शोषण के मामलों से लेकर संसद और अदालतों में बैठी महिलाओं की संख्या तक आपको बहुत कुछ बयां करते हैं।
यूं तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 'आधी आबादी' का आह्वान 'भारत की अप्रयुक्त शक्ति' के तौर पर किया था। बाबा साहब अंबेडकर ने समाज और कई बार अपनी ही संविधान सभा के सदस्यों से लड़कर भारत के संविधान में हम औरतों के लिए आज़ाद और स्वावलंबी भविष्य के बीज बोये थे। समय-समय पर इस देश में स्त्री सशक्तिकरण के लिए क़ानून बनाए गए, उसे कठोर भी किया गया, लेकिन आज भी आधी आबादी को अपनी क्षमताओं के पूरे दोहन का अवसर नहीं मिला। कभी इज़्ज़त के नाम पर तो कभी समाज के डर के साए में उसे घर की चार दिवारी लांघने से रोका जाता रहा है।
पितृसत्ता ने लैंगिक भेद को नहीं होने दिया खत्म
पढ़ने के लिए स्कूलों तक पहुंच से लेकर शारीरिक पोषण और मानसिक विकास के समान अवसर तक लड़कियां अभी भी पीछे नज़र आती हैं। काम में उन्हें एक पद के लिए एक समान वेतन नहीं मिलता तो वहीं वो देर रात बेखौफ सड़कों पर नहीं निकल सकतीं। पितृसत्ता उस पर बुर्क़ा पहनने से लेकर सिंदूर, बिंदी और लाल लिपस्टिक लगाने तक तमाम नैतिक निर्णय थोप देती है। यहां तक कि शादी करने न करने के साथ-साथ बच्चे पैदा करने और मां न बनने में भी वे अपने लिए ख़ुद फैसला नहीं कर पाती। और तो और घरेलू हिंसा और कन्या भ्रूण हत्या जैसे मामलों के ख़िलाफ़ भी वो उठ खड़े होने की हिम्मत परिवार की लाज के आगे खो देती है। हालांकि ऐसा नहीं कि इतने सालों में कुछ बदला नहीं है, लेकिन सच्चाई ये भी है कि आज भी हमारे यहां 'स्त्री की गरिमा' के नाम पर महिलाओं पर अक्सर समाज अत्याचार ही करता रहा है।
संविधान ने भले ही अधिकारों के मामले में मर्द और औरत में कभी भेद नहीं किया है लेकिन पितृसत्ता ने आज भी इस लैंगिक भेद को खत्म नहीं होने दिया। मौजूदा मानसून सत्र में केंद्र सरकार ने लोकसभा में बताया कि साल 2020 में यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम पॉक्सो के तहत 47,221 केस दर्ज किए गए हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के के अनुसार भारत में हर रोज़ करीब 77 महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं। इस 77 में कम से कम 40 प्रतिशत पीड़ित नाबालिग लड़कियां हैं। आंकड़ों की यह स्थिति तब है जब ज़्यादातर यौन हिंसा के मामले दर्ज होने के लिए थाने तक पहुंच ही नहीं पाते हैं।
घरों से ही हो जाती है महिलाओं की ग़ुलामी की शुरूआत
महिला सशक्तिकरण के तमाम वादों और दावों के बीच लोकसभा में महिला आरक्षण बिल दशकों से अधर में लटका हुआ है। राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने को लेकर जहां महिलाएं आज भी जंतर-मंतर पर संघर्षरत हैं तो वहीं दूसरी ओर कोरोना काल के बाद आए आर्थिक सर्वेक्षण में पाया गया कि महिलाएं लेबर फोर्स से भी लगातार बाहर हो रही हैं। देश की कुल जनसंख्या का 49 प्रतिशत बनाने वाली भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व, संसद और अन्य ज़रूरी सरकारी पदों पर पहले से ही बहुत कम है। लेकिन अब वो धीरे-धीरे महामंदी के दौर में प्राइवेट नौकरियों से भी बाहर हो रही हैं। भारतीय रोज़गार के बाज़ार में औरतों की सिर्फ 18 प्रतिशत हिस्सेदारी है। सीएमआईई के कंज़्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 10 में से चार महिलाओं ने नौकरी गंवाई और मार्च और अप्रैल 2020 के देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान एक करोड़ 70 लाख महिलाओं की नौकरी छूट गई।
शिक्षा की बात करें तो आज जहां देश के लगभग 85 प्रतिशत पुरुष शिक्षित हैं, वहीं 65 प्रतिशत लड़कियां ही साक्षर हो पाई हैं। यह बात और है कि एक अदद मौका मिलने पर लड़कियां हर तरह की राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार अपना परचम लहरा कर ख़ुद को साबित कर रही हैं। पर शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकता से ही वंचित देश की हज़ारों लड़कियों के लिए रेस की शुरूआती लकीर औरों से पीछे खिंच जाती है। खैर, गुलामी की शुरुआत तो हमारे घरों से ही हो जाती है, जहां हमारे समाज में आज भी लड़की को अपने ही घर में पराये घर की अमानत समझकर पाला जाता है। तो वहीं जिस घर को उसे अपना मानने को कहा जाता है वहां उसे दूसरे घर से आई लड़की मानकर जीवन भर ताने दिए जाते हैं।
रूढ़िवाद की बेड़ियां तोड़तीं महिलाएं
हालांकि आज़ादी की लड़ाई से लेकर चिपको आंदोलन तक देश में महिलाओं के संघर्ष की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। 2012 निर्भया मामले से लेकर किसान मोर्चे तक महिलाओं में ये सजगता और साहस पहले भी कई मौकों पर दिखा है। रूढ़िवादी परंपरा को तोड़ती हुई औरतें, सबरीमाला मंदिर हो या हाजी अली दरगाह, हिंसक प्रदर्शनकारियों के सामने अपनी जान जोख़िम में डालकर भी धार्मिक स्थल पर पहुंची। महाराष्ट्र में मार्च 2018 में महिला किसानों के ज़ख़्मी पैरों की तस्वीरें आज भी इंटरनेट पर मिल जाती हैं। महिलाओं की इस ताक़त में उम्र की कोई सीमा नहीं है। युवा, उम्रदराज़ और बुज़ुर्ग, हर उम्र की महिला के हौसले बुलंद नज़र आते हैं।
यूं तो महिलाओं के संघर्ष ने एक लंबा सफ़र तय किया है लेकिन साल 2020 में जिस तरह नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ महिलाएं बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरीं और जिस तरह साल 2021 की सर्द रातों में महिलाओं ने किसान आंदोलन में अपनी आवाज़ बुलंद की, उसने आने वाले दिनों में महिला आंदोलनों की एक नई इबारत लिख दी है। अब महिलाएं पितृशाही और मनुवादी सोच को चुनौती देकर तमाम आंदोलनों में न सिर्फ़ अपनी हिस्सेदारी दिखा रही हैं बल्कि उन आंदोलनों की अगुवाई भी कर रही हैं, जो आज के दौर में लोकतंत्र के लिए बेहद ज़रूरी हैं। आज महिलाएं न सिर्फ़ अपने समुदाय के लिए बल्कि सभी के अधिकारों के लिए सड़क पर लड़ाई लड़ रही हैं। ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि आगे आने वाले दिनों में महिलाएं बराबरी और संपूर्ण आज़ादी का अपना सपना ज़रूर साकार करेंगी।
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