भारत, पाकिस्तान ने किया शांति की तरफ़ रुख
अवसर चूक जाते हैं और अवसरों को हथिया भी लिया जाता है आधुनिक इतिहास में अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के कालक्रम में ऐसे अवसरों के दो बेहतरीन उदाहरण मिलते हैं।
पिछली शताब्दियों में दो विनाशकारी विश्व युद्धों द्वारा पैदा हुई दुश्मनी और भारी विनाश के बाद, फ्रांस और जर्मनी ने आपसी संबंधों में एक नया अध्याय जोड़ने के अवसर को हथिया लिया, जो अंततः यूरोपीयन यूनियन में जा कर खिल गया और आज यूरोप में शांति और स्थिरता का एक प्रमुख कारक बन गया है।
जाबकी इसके विपरीत, रूस को शीत युद्ध के अंत के बाद शांति का लाभ उठाने के लिए उसे "आम यूरोपीय कुटुंब" में आमंत्रित न करके (मिखाइल गोर्बाचेव के यादगार शब्दों पर अगर नज़र डालें तो) उसे पश्चिम की भयावह विफलता बताया जो एक नए शीत युद्ध का कारण बन सकता है या आपसी शत्रुता को बढ़ा सकता है।
आज, भारत और पाकिस्तान भी उसी तरह के इतिहास को दोहराने की तैयारे में हैं। इस क्षेत्र में उभरते अवसरों को हथियाने से हालात में काफी अंतर आ सकता हैं। दोनों देश इस वास्तविकता को समझने के मामले में प्रचुर कूटनीतिक प्रतिभा से ओत-प्रोत हैं जो अभी भी रडार से नीचे है।
महामारी की मानसिकता के बाद विकास की अनिवार्यता को दोनों देशों ने महसूस किया है, जो एक नई चेतना को भी पैदा कर रही है कि राष्ट्रों के जीवन में पूर्ण सुरक्षा जैसा कुछ नहीं होता है।
इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है कि रविवार को विदेश मंत्री एस॰ जयशंकर के साथ अफ़गानिस्तान के अमेरिकी विशेष प्रतिनिधि ज़ल्माय ख़लीलज़ाद के फोन करने से "रोज़ गार्डन" का मार्ग खुल सकता है। खलीलज़ाद के फोन के समय को ठीक से समझने की जरूरत है। वे एक क्षेत्रीय दौरे पर हैं जिसके तहत वे पहले ही काबुल और दोहा जा चुके हैं और आज वे इस्लामाबाद जा रहे हैं। काबुल में, उन्होंने राष्ट्रपति अशरफ गनी और अन्य अफगान राजनेताओं के साथ मुलाकात की और दोहा में उन्होंने तालिबान के वरिष्ठ नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के साथ बातचीत की थी।
खलीलज़ाद ने काबुल में एक "सहभागिता वाली सरकार" बनाने के बारे में अमेरिकी योजना का खुलासा किया जो अफगानिस्तान में एक आंतरिक सरकार की नई व्यवस्था होगी और नए संविधान के बनने के 6 महीने तक काम करेगी। इसका तेज़ी से अनुसरण करते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने गनी से बात की क्योंकि उन्होने गनी (और अब्दुल्ला अब्दुल्ला को) भी एक पत्र भी लिखा था।
ब्लिंकन का वह पत्र सार्वजनिक डोमेन में मौजूद है और इसमें अन्य चीजों के अलावा, अमेरिका का वह प्रस्ताव भी शामिल है जिसमें संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में रूस, चीन, पाकिस्तान, ईरान, भारत और अमेरिका के विदेश मंत्रियों और राजदूतों की बैठक बुलाकर अफगानिस्तान में शांति समर्थन के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण पर चर्चा करने की बात कही गई है।
इस बैठक के पीछे का इरादा 2001 के बॉन सम्मेलन की तर्ज पर काबुल में एक अंतरिम सरकार को सत्ता हस्तांतरण करने को वैध बनाना है जिसके तहत अफगानिस्तान में तालिबानी निज़ाम को हटा कर सत्ता के हस्तांतरण का रास्ता साफ हुआ था।
इसका सबसे बेहतरीन हिस्सा यह है कि वर्तमान में अमेरिका, रूस, चीन और अमेरिका-ईरानी परमाणु रुख में आए चिड़चिड़ेपन या समीकरणों के बावजूद, एक व्यापक अंतरराष्ट्रीय राय यह है कि मौजूदा परिस्थितियों में काबुल में किसी भी समावेशी सरकार का तालिबान को हिस्सा बनना चाहिए। क्योंकि वे आज भी अफगानिस्तान के आधे हिस्से को नियंत्रित करते हैं।
2001-2002 में जब तालिबान को सत्ता से हटाने के बाद तथाकथित नॉर्थन अलायंस ने काबुल पर कब्जा किया था तथा हामिद करजई के तहत अंतरिम सरकार को शांतिपूर्ण तरीके से रास्ता देने के लिए कुछ मजबूत दबाव बनाने की जरूरत थी, आज एक वैसी ही समान स्थिति पैदा हो गई है जब गनी और उनका गुट सत्ता में पूरी तरह से धसा हुआ है इसलिए उन्हें ज़मीन पर लाने की जरूरत है ताकि शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सके।
यहीं से भारत के लिए एक बड़ा अवसर पैदा होता है। व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो केवल चंद ऐसी विश्व की राजधानियाँ हैं जो नई दिल्ली की तरह गनी (और उनके सुरक्षा घेरों की महामाया) पर प्रभाव रखती हैं। यह कहना सही होगा कि भारत आज 19 साल पहले की स्थिति में है, जब भारत को बॉन में वाशिंगटन द्वारा स्थापित नॉर्थन अलायंस को आगे बढ़ाने और करज़ई के अंतरिम नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए मनाने के लिए बुलाया गया था।
2001 में वाजपेयी सरकार बॉन में मददगार बनने के लिए काफी उत्सुक थी क्योंकि वह समझती थी कि जॉर्ज डब्ल्यू बुश निज़ाम के लिए 9/11 हमलों का आघात कितने मायने रखता है। लेकिन, भारत नॉर्थन अलायंस सरकार (बुरहानुद्दीन रब्बानी के नेतृत्व में) का संरक्षक नहीं बन सका, क्योंकि भारत आज भी गनी को समर्थन करता है। इसके अलावा देखा जाए तो भारतीय दृष्टिकोण में करज़ई और तालिबान दो विरोधाभासी गुट हैं।
सचमुच, भारत की अफगान नीति एक खास मोड पर है। आने वाले समय में अफगान में सत्ता के संक्रमण के मौके को हथियाने के अवसर के महत्व को कम करके नहीं देखा जा सकता है। यह मौका न केवल भारत की अफगान के प्रति बनी नीतियों को दोबारा परिभाषित करने का है बल्कि समय की भावना के साथ तालमेल के साथ ऐतिहासिक अवसर को कब्जा ने का है, साथ ही यह भारत-पाकिस्तान संबंधों में बेहतर सुधार लाने का भी मौका है।
काबुल में एक अंतरिम सरकार के गठन के रास्ते में भारत की रचनात्मक भूमिका, जिसमें तालिबान भी शामिल रहे, उसे पाकिस्तान में भारत के प्रति मजबूत विश्वास पैदा करने के उपाय के रूप में देखा जा सकता है। सीधे शब्दों में कहें तो इस तरह की भारतीय भूमिका भारत-पाकिस्तान युद्धविराम समझौते को पूरक बना सकती है और सीमा पार गतिविधियों पर रोक लगाने में मददगार बन सकती है, जिसने पिछले कई वर्षों से एक-दूसरे पर अनगिनत चोटें पहुंचाई है और दोनों को कोई ठोस लाभ नहीं मिला है।
मुद्दा यह है कि यदि भारत-पाकिस्तान संबंधों की एक कठिन और जटिल समस्या के समाधान की शुरुआत की जानी है, तो इसके लिए सबसे पहला कदम अफ़गान समस्या और उसके विवादास्पद मुद्दों को सुलझाना होगा। काबुल में एक अनुकूल या सहायक सरकार बनने में पाकिस्तान के महत्वपूर्ण सुरक्षा हित शामिल हैं, जैसे कि नेपाल में एक अनुकूल और सहयोगी सरकार का होना भारत की चिंता के मामले में कोई कम आकर्षक बात नहीं है, जिसकी हमारे देश के साथ खुली सीमा है।
बेशक, अफगानिस्तान के मामले में सामंजस्य स्थापित करने का पहला कदम भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय वार्ता का विकल्प नहीं हो सकता है, लेकिन यह आगे जाकर मामलों में मदद करेगा। यह कोई संयोग की बात नहीं है कि पाकिस्तान के एक पूर्व विदेश सचिव, राजदूत रियाज मोहम्मद खान ने कल कश्मीर वार्ता: वास्तविकता और मिथक नामक एक ऑप-एड लिखा था, जिसमें उनका निष्कर्ष था कि “यदि किसी भी समय एक (कश्मीर) शांति योजना के लिए कूटनीति पुनर्जीवित होती है, तो यह 2005-06 के उल्लिखित प्रयास के विपरीत नहीं होगा, क्योंकि राजनैतिक वास्तविकता और जनसांख्यिकी की सीमित हदों के विपरीत कूटनीति बहुत कुछ हासिल कर सकती है।"
निर्विवादित रूप से, राजदूत रियाज़ खान एक उच्च सम्मानित व्यक्ति हैं जिन्होंने 1989 में अफगानिस्तान में सोवियत सैना की वापसी के लिए तथाकथित जिनेवा समझौते पर बातचीत करने और क्षेत्रीय राजनीति को परिभाषित करने में कुछ हद तक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
पहले के मुक़ाबले संभावनाएं बहुत अधिक हैं कि आने वाले हफ्तों या महीनों में एक व्यवस्थित अफगान संक्रमण को अंजाम दिया जा सकता है। इस प्रक्रिया में भारत की रचनात्मक भूमिका न केवल उसके सुरक्षा हितों की रक्षा करेगी, बल्कि आपसी विश्वास और आपसी सम्मान के आधार पर एक दूरंदेशी रिश्ते को तैयार करने में तालिबान के साथ जुड़ने का अवसर भी प्रदान कर सकती है। पाकिस्तान पर भरोसा करना होगा कि वह इस तरह के सकारात्मक हालात से ध्यान नहीं हटाएगा।
आगे का रास्ता लंबा और घुमावदार होगा और आसमान में ऊंची उड़ान भरने वाले "बाजों" से प्रतिरोध की ख़ासी उम्मीद की जा सकती है। लेकिन नीति निर्माताओं को "बड़ी तस्वीर" को ध्यान में रखते हुए रोड मैप बनाने में इस तरह की रुकावटों से पीछे नहीं हटना चाहिए। तार्किक रूप से अब वह समय आ गया है कि भारत को सार्क वार्ता को फिर से शुरू करने के बारे में सोचना चाहिए ताकि वह भारत-पाकिस्तान की द्विपक्षीय प्रक्रियाओं में क्षेत्रीय सहयोग में भी तालमेल बिठा सके।
लब्बोलुआब यह है कि भारत को इसे जल्दी अंजाम देने की भावना को समझने की जरूरत है, और एक नया तरीका या नई सोच अपनाने की जरूरत है जो समाधान की बात करता हो न केवल टकराव की स्थितियों के प्रबंधन की, आपदा से बचने के लिए न कि इसके परिणामों से निपटने की, ताकि विकास के राष्ट्रीय एजेंडा को प्राथमिकता दी जा सके, जो हमारे देश के वर्तमान इतिहास में अन्य सभी मुद्दों पर हावी हो.
सौजन्य: Indian Punchline
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