वैक्सीन रणनीति को तबाह करता भारत का 'पश्चिमीवाद'
विदेश मंत्री एस. जयशंकर संयुक्त राज्य अमेरिका की चार दिवसीय यात्रा को पूरा किए एक हफ्ता बीत चुका है, लेकिन देश अभी भी अंधेरे में है क्योंकि कोविड-19 टीकों के अपने कुछ अतिरिक्त भंडार को भारत को देने के मामले में बाइडेन प्रशासन ने कुछ उदारता जरूर दिखाई है।
हम प्रसिद्ध सैमुअल बेकेट के नाटक वेटिंग फॉर गोडोट जैसा कुछ कर रहे हैं – जिसका मंचन कुछ इस तरह से किया गया है कि, दो घुमक्कड़ सड़क के किनारे गोडोट यानि किसी ऐसे के इंतज़ार में बैठे हैं जो उनके जीवन को किनारे लगा सके, लेकिन शाम ढल जाती है और अंतत उन्हे महसूस होता है वह नहीं आएगा। जैसे ही घुमक्कड़ निराश होकर मंच छोड़ते है, पर्दा गिर जाता हैं।
जयशंकर संभवत: अगले क्वाड शिखर सम्मेलन के कार्यक्रम को तय करने में व्यस्त हैं। लेकिन सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) निष्कर्ष निकालने में काफी तेज साबित हुआ। उसने भारत में रूसी वैक्सीन स्पुतनिकV का बड़े पैमाने उत्पादन शुरू कर वैक्सीन संकट से निपटने के लिए ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (DCGI) से मंजूरी मांगी है!
बेशक, एसआईआई के पास वैक्सीन बनाने और उसके उत्पादन का बड़ा आधार मौजूद है और जो पहले से ही तथाकथित एस्ट्राजेनेका वैक्सीन ("ऑक्सफोर्ड वैक्सीन") कोविशील्ड बेच रहा है, जो वर्तमान में भारतीयों के टीकाकरण का मुख्य आसरा है।
यह खबर उन खबरों के बीच आई है जब ब्रिटेन एक बार फिर एस्ट्राजेनेका से नई आपात स्थितियों से निपटने के लिए कह रहा है। प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन काफी सख्त मिज़ाज के नेता हैं और एक बार जब वे किसी चीज़ के पीछे पड़ जाते हैं, तो वे बड़ी बेताबी से उसका पीछा करते हैं, फिर भले ही इसके लिए यूरोप या भारतीयों का खून ही क्यों न चूसना पड़े। उन्होंने मार्च में टोरी सांसदों के साथ एक जूम बैठक के दौरान दो टूक जवाब दिया, "हमारे पास वैक्सीन की सफलता का कारण पूंजीवाद है, लालच है, मेरे दोस्तों।"
वे कभी भी पेटेंट अधिकारों की छूट पर सहमत नहीं होंगे। जिसने भी इस विचार को भारतीय जेहन में डाला है, उसने हमारे नेतृत्व के भोलेपन के साथ छल किया है। राष्ट्रपति बाइडेन की बुज़दिली और लालच और प्रधानमंत्री जॉनसन के आत्म-केंद्रित रवैये को देखते हुए, यह ठीक ही लगता है कि मोदी सरकार भारत की वैक्सीन रणनीति को एंग्लो-अमेरिकन टोकरी से बाहर निकाल रूस की ओर मुड़ने का संकेत दे रही है।
लेकिन यह सब इतने बेतरतीब ढंग से नहीं होना चाहिए था। आखिरकार, भारत वैक्सीन अनुसंधान और उसके विकास की सोवियत की महान विरासत से अच्छी तरह वाकिफ है। दिल्ली में बैठी एक सतर्क सरकार को मॉस्को में बैठी सरकार से चर्चा शुरू करनी चाहिए थी, उसी क्षण जिस क्षण यह पता चला था कि रूसी टीका विकसित कर रहे हैं। यानी सरकार ने लगभग एक साल का समय बर्बाद कर दिया।
राज्य सरकारों को जिस किस्म का संकट झेलना पड़ रहा है और वे केंद्र पर दबाव बना रही है कि केंद्र को विदेशों से वैक्सीन खरीदनी चाहिए, ताकि इसकी स्वतंत्र रूप से आपूर्ति हो सके, ब्ला, ब्लाह, इस स्थिति से बचा जा सकता था। रूसियों को भारतीय एंड-यूज़र यानि राज्य सरकारों के साथ सीधे काम करने में कोई समस्या नहीं है। एक कदम और आगे बढ़ते हुए, दिल्ली स्पुतनिक V के खुद के विनिर्माण के लिए बेस स्थापित करने के साहसपूर्वक कार्य करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती थी।
दिल्ली इस तरह की पहल का वित्तपोषण कर भी बढ़ावा दे सकती थी। दरअसल, यह अकेले आत्मनिर्भरता की बात नहीं है। बल्कि इसके जरिए भारत भी "विश्व की फार्मेसी" बनने के अपने सपने को साकार कर सकता था। लेकिन यह सब करने के लिए केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर प्रतिबद्धता और दूरदृष्टि की जरूरत होनी चाहिए थी।
इसके विपरीत, अमेरिका और ब्रिटेन से घिरे हमारे अभिजात वर्ग की निगाहें उन दोनों देशों में विकसित हो रहे टीकों पर टिकी थीं। यह तब है जब पश्चिमी दवा कंपनियों के खून चूसने और मानव रोगों से अंधे मुनाफे कमाने की प्रवृत्ति के बावजूद, सरकार ने अपने सभी अंडे एंग्लो-अमेरिकन टोकरी में डाल दिए हैं। यह दुर्घटना हमारे कुलीन वर्ग की पश्चिम-समर्थक मानसिकता की दयनीय स्थिति का सबूत है।
जरा सोचो, भले ही बाइडेन ने अपने बचे हुए टीके के स्टॉक से कुछ टीके भारत को दे दिए हों, इससे क्या कुछ फायदा होगा? बस कुछ 20 मिलियन खुराक या दो करोड़ टीके? हमारे विदेश मंत्री ने 1400 मिलियन की आबादी वाले अपने देश के लिए 10 मिलियन टीके की खुराक की व्यवस्था करने के मक़सद से ये ट्रान्साटलांटिक यात्रा की थी! लॉकडाउन के समय में शायद, अमेरिका की उपयोगिता शायद ढंग से बाल कटवाने के साथ शुरू और समाप्त हो जाती है - लेकिन वह टीकों की आपूर्ति के लिए नहीं होती। फिर भी, हमारे देश के नेता हमें यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि अमेरिका भारत को महामारी से बचाने वाला है!
भारत कम से कम 6 महीने पहले स्पुतनिकV का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू कर सकता था जब वैक्सीन के वित्तीय समर्थकों और डेवलपर्स ने मॉस्को में घोषणा की थी कि वे वैश्विक बाजार की हिस्सेदारी बढ़ाने के इच्छुक हैं और स्पुतनिकV वैसे भी अंतरराष्ट्रीय मूल्य में प्रतिस्पर्धी वैक्सीन थी।
रूस के आरडीआईएफ सॉवरेन वेल्थ फंड के प्रमुख किरिल दिमित्रीव ने नवंबर ब्रीफिंग में खुलासा किया था कि रूस (जिसका उत्पादन सीमित है) विदेशी भागीदारों के साथ सहयोग करने की इच्छुक है; क्योंकि 50 से अधिक देशों ने 1.2 बिलियन से अधिक खुराक का अनुरोध किया था; और, महत्वपूर्ण बात यह है कि वैश्विक बाजार में आपूर्ति करने के लिए उत्पादन विदेशी भागीदारों द्वारा किया जाना था। उन्होंने इस किस्म के संभावित भागीदारों में भारत का भी उल्लेख किया था।
कुछ साहसी भारतीय कंपनियों ने वास्तव में मास्को के लिए रास्ता बनाया और सहयोग समझौतों पर बातचीत की थी। स्पुतनिकV का प्रोडक्शन जल्द शुरू हो सकता है। जो एक अच्छी बात है। लेकिन कीमती समय खो गया है, जबकि भारत तीसरी लहर की तैयारी के लिए बढ़ते वक़्त के खिलाफ लड़ रहा है, जो लहर अब दरवाजे पर खड़ी है।
दरअसल, चूंकि स्पुतनिकV को रूस के प्रख्यात संस्थान गामालेया नेशनल सेंटर द्वारा विकसित किया गया था और आरडीआईएफ (जो सीधे क्रेमलिन की देखरेख में काम करता है) द्वारा विपणन किया जाना था, इस विषय पर प्रधानमंत्री मोदी को राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से फोन पर बात कर प्राथमिकता देनी चाहिए थी।
यह सब क्या दर्शाता है कि देश में एक सुविचारित समग्र रणनीति का अभाव है। संसाधन की कभी समस्या नहीं थी बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी थी। सुप्रीम कोर्ट ने बजट में टीकों के लिए निर्धारित किए गए 35000 करोड़ रुपये का क्या हुआ, जवाब मांगा है।
रणनीतिक दृष्टि से, कोई बड़ी समझ न होने के कारण सरकार बेहद मूर्ख बनी रही है। महामारी न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य का मामला है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए इसके अकल्पनीय परिणाम हो सकते हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था के नष्ट होने का भी खतरा है।
जब तक हम इस महामारी को नहीं रोकते हैं, भारत के एक महान शक्ति के रूप में उभरने की महत्वाकांक्षा बर्बाद हो सकती है। चार दशकों से अधिक समय के इतिहास में देश अपना सबसे खराब आर्थिक प्रदर्शन दर्ज कर रहा है। महामारी की दूसरी लहर ने आर्थिक स्थिति में सुधार की संभावनाओं को घातक रूप से लहू-लुहान कर दिया है।
रिकॉर्ड दैनिक संक्रमण और मृत्यु और लॉकडाउन औद्योगिक आपूर्ति श्रृंखला को बाधित कर रहा है और धीमा टीकाकरण अभियान देश के विनिर्माण शक्ति बनने के लक्ष्य को कमजोर कर रहा है।
इस वर्ष की शुरुआत तक, अर्थशास्त्री और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान अभी तक आम तौर पर यह मानते थे कि भारत महामारी के बाद दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन जाएगा। लेकिन ये अनुमान अब हवा में नज़र आते हैं जिनका कोई आधार नहीं है।
सौजन्य: Indian Punchline
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