क्या महाराष्ट्र में हो गया है सबका इलाज मुफ़्त?
यदि सरकार 'सभी के लिए स्वास्थ्य' का लक्ष्य हासिल करना चाहती है तो उसे स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च बढ़ाना होगा। बिना खर्च बढ़ाए बड़ी योजनाओं की घोषणा करना मृगतृष्णा के पीछे भागने जैसा है। महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में यही हो रहा है।
महाराष्ट्र राज्य सरकार ने हाल ही में घोषणा की है कि 'आयुष्मान भारत' और 'महात्मा ज्योतिराव फुले जन आरोग्य योजना' अब एक साथ लागू की जाएगी। सभी राशन कार्ड धारकों को दोनों योजनाओं के संयुक्त कार्ड जारी किये जाएंगे। साथ ही, सर्जरी समेत पांच लाख रुपये तक का इलाज मुफ्त किया जाएगा। इस खबर को पढ़कर लगेगा कि इन सभी लाभार्थियों पर चिकित्सा खर्च का बोझ खत्म हो जाएगा। लेकिन, ऐसा नहीं है।
आइए संक्षेप में देखें कि वास्तविक स्थिति क्या है और स्वास्थ्य बीमा योजना को लेकर क्या सवाल हैं।
ज़्यादातर रोगी बाहर
ये योजनाएं केवल अस्पताल में भर्ती मरीजों के लिए हैं। इसका मतलब यह हुआ कि राज्य के कुल मरीजों का केवल तीन प्रतिशत हिस्सा ही इस योजना का लाभार्थी हो सकता है क्योंकि कुल रोगियों में से महज तीन प्रतिशत ही अस्पतालों में भर्ती कराए जाते हैं।
वहीं महापात्रा, खेत्रपाल और नागराज समिति द्वारा महाराष्ट्र में किए गए शोध के आधार पर स्वास्थ्य व्यय के संबंध में एक दूसरी तस्वीर उभरती है।
महाराष्ट्र में नागरिकों की जेब से प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष औसतन 3,500 रुपये खर्च होते हैं। यदि महाराष्ट्र राज्य सरकार 1,200 रुपये खर्च करने का दावा कर रही है तो यह अपने आप में विरोधाभास है कि वह मुफ्त इलाज मुहैया करा रही है। इस हिसाब से भी एक व्यक्ति 3,500 रुपये यदि स्वास्थ्य पर खर्च करता है और उसे 1,200 रुपये की सरकारी सहायता किसी तरह मिल भी जाती है तब भी वह लगभग 2,300 रुपये या उससे कहीं ज्यादा खर्च अपनी जेब से करेगा।
ज़्यादातर अस्पताल भी बाहर
महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य का एक विशाल तबका निजी अस्पतालों में निजी डॉक्टरों से इलाज कराता है। इसलिए स्वास्थ्य की योजनाओं को निजी अस्पतालों से भी जोड़ा गया है। जाहिर है कि राज्य सरकार खुद कहीं-न-कहीं यह मानती है कि योजनाओं को लागू करने के लिए राज्य सरकार की स्वास्थ्य सेवाएं दुरुस्त नहीं हैं। राज्य सरकार को चाहिए था कि इन योजनाओं का लाभ सुनिश्चित कराने के लिए वह साथ ही साथ स्वास्थ्य की सार्वजनिक सुविधाएं दुरुस्त कराती। लेकिन, उसने ऐसा नहीं किया और अपनी स्वास्थ्य प्रणाली सुधारने को प्राथमिकता में रखने की बजाय निजी क्षेत्र को साझेदार बना लिया है।
एक अनुमान के मुताबिक महाराष्ट्र के 12 करोड़ लोग प्रति वर्ष कुल 27 हजार करोड़ रुपये इलाज पर खर्च करते हैं। अब यदि यह पैसा निजी डॉक्टरों के क्लीनिक पर खर्च होता है तो इसका मतलब है कि स्वास्थ्य बीमा योजनाएं रोगियों के आर्थिक बोझ को बिल्कुल भी कम नहीं करेंगी। वजह, राज्य सरकार के पास सिर्फ इन स्वास्थ्य योजनाओं के लिए इतना बड़ा बजट ही नहीं है।
इसी तरह, महाराष्ट्र के करीब 3,000 छोटे-बड़े अस्पतालों में से करीब एक हजार अस्पताल ही इन योजनाओं में शामिल हैं। इसका अर्थ है कि बाकी दो हजार अस्पतालों में ये योजनाएं लागू नहीं हैं। जाहिर है दो हजार अस्पताल तक पहुंचने वाले रोगियों को राज्य सरकार की स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिलेगी।
शर्ते, विशेष रोगी होना अनिवार्य
यही नहीं, इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए कई शर्तों का पालन करना पड़ेगा और बहुत सारी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ेगा। वहीं, ये योजनाएं विशेष उपचारों पर ही लागू होंगी। उदाहरण के लिए ये योजनाएं सिजेरियन सेक्शन और सामान्य डेंगू रोगियों के लिए लागू नहीं हैं। ऐसी स्थिति में राज्य सरकार द्वारा राज्य के लोगों के लिए मुफ्त इलाज का दावा करना बढ़ा-चढ़ा कर अपनी बात करना और महज दिखावा सिद्ध हो जाता है।
देखा जाए तो मूल रूप से ये योजनाएं अस्पताल में सभी रोगियों को मुफ्त सेवाएं प्रदान करने के लिए नहीं आईं। विश्व बैंक ने स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में निजीकरण की नीति अपनाई है। जानकार बताते हैं कि राज्य सरकार की स्वास्थ्य-बीमा योजनाओं को कहीं-न-कहीं निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए लागू कराया गया है।
निजीकरण को ऐसे बढ़ावा
इस प्रकार की स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के राज्य-दर-राज्य अध्ययन से पता चलता है कि निजी अस्पताल जाने पर रोगी का पैसा बहुत अधिक खर्च हो जाता है। ऐसी स्थिति में यदि उसे सरकारी सहायता मिले भी तो यह अस्पताल के बिल के मुकाबले बहुत मामूली ही है। ऐसी स्थिति में कई निजी अस्पताल मरीज से अधिक भुगतान करने के लिए कहते हैं। चूंकि निजी स्वास्थ्य सेवा बहुत महंगी है, इसलिए इन योजनाओं के बावजूद महाराष्ट्र में अस्पताल में भर्ती होने वाले लगभग 20-25 प्रतिशत लोगों को मुफ्त का इलाज कराने के नाम पर महंगा इलाज कराना पड़ता है। ऐसे में सवाल है कि यदि इन स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के मूल उद्देश्य हासिल नहीं हो रहे हैं तो इनके बारे में पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
बजट न के बराबर
'प्रधानमंत्री जन स्वास्थ्य योजना' केंद्र सरकार की स्वास्थ्य बीमा योजना है जिसे केंद्रीय बजट 2018 के माध्यम से 'दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना' के रूप में घोषित किया गया। 'आयुष्मान भारत' इसी के तहत है। इसमें घोषणा की गई कि योजना के माध्यम से गरीबी रेखा से नीचे के 50 करोड़ लोगों को 5 लाख रुपये का स्वास्थ्य देखभाल कवर दिया जाएगा। इसके लिए न्यूनतम 30 हजार करोड़ रुपये आवश्यकता थी। लेकिन, इसके पहले साल मात्र 3,200 करोड़ रुपये दिए गए और फिर दूसरे साल 6,400 करोड़ रुपये दिए गए। बाद के वर्षों में राशि बढ़ाई जानी थी। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं।
इसी तरह, पीले और नारंगी राशन कार्ड धारकों के लिए प्रति परिवार प्रति वर्ष 1.5 लाख रुपये का स्वास्थ्य कवर योजना के माध्यम से किया जाता था। लेकिन, महाराष्ट्र सरकार के इस साल के बजट में इसे पांच लाख कर दिया गया। दिलचस्प तथ्य यह है कि इसके लिए बजट 881 करोड़ से घटकर 564 करोड़ रुपये हो गया।
स्वास्थ्य-बीमा योजनाएं हल नहीं
कुल मिलाकर, साफ है कि महाराष्ट्र सरकार का स्वास्थ्य पर खर्च मूलतः आवश्यकता के हिसाब से बहुत कम है। यह सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक है कि महाराष्ट्र में सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं खराब, कुपोषित और बीमार हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि 'सभी के लिए स्वास्थ्य' के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय सकल राष्ट्रीय उत्पाद का पांच प्रतिशत होना चाहिए। 2011 में बारहवीं पंचवर्षीय योजना के लिए रेड्डी समिति ने सुझाव दिया कि इसे कम से कम तीन प्रतिशत होना चाहिए। वहीं, मोदी सरकार के नीति आयोग ने कहा है कि 2025 तक यह 2.5 फीसदी होना चाहिए। लेकिन, भारत सरकार का यह खर्च अभी डेढ़ प्रतिशत भी नहीं है।
महाराष्ट्र में यह राज्य-उत्पाद का 0.8 प्रतिशत है। यदि हम महाराष्ट्र में सरकारी स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता में सुधार करना चाहते हैं और इसे सरकारी विशेषज्ञों द्वारा बनाए गए 'भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानक' के अनुसार बनाए रखना चाहते हैं तो एक सरकारी विशेषज्ञ रिपोर्ट के अनुसार, इस व्यय को राज्य के उत्पादन का 1.8 प्रतिशत तक किया जाना चाहिए।
बीमा ने बिगाड़ी सरकारी अस्पतालों की हालत
महाराष्ट्र में सरकारी स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए कुल मिलाकर धन की भारी कमी है। लेकिन, इसका एक बढ़ता हुआ हिस्सा स्वास्थ्य-बीमा योजनाओं पर खर्च किया जाता है। नतीजतन सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के काम में देरी हो रही है। चूंकि सरकारी स्वास्थ्य देखभाल के नाम पर धन की कमी है, इसलिए सरकारी स्वास्थ्य देखभाल की उपलब्धता और गुणवत्ता दोनों में गिरावट आई है। उनकी दुर्दशा का एहसास एक ही बात से होना चाहिए कि महाराष्ट्र में सरकारी स्वास्थ्य सेवा में डॉक्टरों के 62 प्रतिशत और विशेषज्ञों के 80 प्रतिशत पद खाली हैं।
यदि सरकार वास्तव में 'सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा' के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती है तो स्वास्थ्य देखभाल पर सरकारी खर्च के साथ लंबी छलांग लगाना अनिवार्य है। इसके बिना बड़ी घोषणाएं ज्यादातर शब्दों के बुलबुले हैं। दूसरा, मंत्रालय से लेकर तहसील स्तर तक स्वास्थ्य विभाग में लोकतंत्रीकरण, पारदर्शिता, जनभागीदारी के सिद्धांतों को शामिल किया जाना चाहिए। यदि निजीकरण की नीति जारी रही तो सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा एक सपना बनकर रह जाएगा!
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।