मुस्लिम पर्सनल लॉ मे सुधार से जुड़े मुद्दे और उम्मीदें
हाल ही में, हैदराबाद में अल-अंसार फाउंडेशन, जो एक साहित्यिक सोसाइटी है, ने मुझे 150 साल पुराने आवासीय धार्मिक मदरसा, मदरसा निज़ामिया के तीन-खंडों के इतिहास के विमोचन के मौके पर बोलने के लिए आमंत्रित किया था, जिसकी स्थापना 1872 में एक उच्च प्रतिष्ठा वाले मौलाना अनवरुल्लाह फ़ारुकी साहब ने की थी। विभिन्न कारणों से, मैंने सभा में दिए अपने संबोधन में भारतीय मुस्लिम समुदाय के भीतर सुधारों के मुद्दे को उठाने का फैसला किया, खासकर जिस सभा में कई प्रसिद्ध मौलाना भी शामिल थे।
मैं इस कार्यक्रम के ज़रिए से पूछना चाहता था: क्या आप, भारत के मुस्लिम बुद्धिजीवी और मौलाना, मुस्लिम पर्सनल लॉं में सुधार लाने के लिए तैयार हैं, खासकर जाति और लैंगिक न्याय से जुड़े मोर्चों पर? मैं इस बात पर भी जोर देना चाहता था कि बढ़ते बहुसंख्यकवाद के इस खास मोड़ पर यह क्यों महत्वपूर्ण हो जाता है। आखिरकार, इस तरह के संदर्भ मुसलमानों को आत्मनिरीक्षण करने के लिए एक रास्ता खोजने और अस्तित्व और विकास के लिए नई रणनीति तैयार करने के लिए आमंत्रित करते हैं।
जबकि हैदराबाद का कार्यक्रम समुदाय और मौलानाओं के भीतर सामाजिक और लैंगिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता को समझने का एक अवसर था, लेकिन फिर भी मैं स्थापित कुलीनों, यहां तक कि अन्य ऐतिहासिक रूप से लाभान्वित मुसलमानों के लिए भी, असहमति की बाधाओं को पहचानता हूं। समकालीन भारत में मुसलमानों के सामने आने वाली चुनौतियों में एक और सीमा पैदा होती है। 9/11 के बाद से हुकूमत-प्रायोजित मुस्लिम विरोधी नफ़रत, जोरदार मुस्लिम विरोधी रूढ़िवादिता के परिणाम के रूप में फल-फूल रही है। भारत के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच निरंतर टकराव की कहानी तैयार कर इतिहास (मुस्लिम शासक-हिंदू प्रजा) को नया रूप देने के ज़रिए बहुत सा सांप्रदायिक ज़हर उगला जाता है।
इन चिंताओं और चेतावनियों को ध्यान में रखते हुए, मैंने इस कार्यक्रम में हाल ही में केरल के एक मुस्लिम जोड़े के बारे में छपे एक समाचार को सुनाया, जिसकी तीन बेटियां हैं और उनका कोई पुरुष वारिस नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ, बेटियों को अपने मृत माता-पिता की पूरी संपत्ति का उत्तराधिकारी बनाने की अनुमति नहीं देता है। न ही बेटियों के माता-पिता- ऐसे जोड़े जिनके पास बेटा नहीं है- वसीयत दर्ज करा सकते हैं, क्योंकि यह मुस्लिम पर्सनल लॉ की अवहेलना होगी। ऐसे जोड़ों के पास दो ही विकल्प होते हैं। वे अपनी सारी संपत्ति अपनी बेटियों को हस्तांतरित कर सकते हैं, और प्रभावी रूप से अपने शेष जीवन में उन पर आश्रित रह सकते हैं। या वे स्पेशल मैरिज एक्ट वाले धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत अपनी शादी को पंजीकृत कर सकते हैं। केरल के इस जोड़े ने शादी के तीन दशक बाद दूसरे विकल्प को चुना।
भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ भी निःसंतान दंपतियों पर काफी प्रतिबंध लगाता है। अगर वे नहीं चाहते कि उनके बाद उनके करीबी रिश्तेदार उनकी संपत्ति का उत्तराधिकारी बनें, तो उनके पास स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत अपनी शादी को पंजीकृत कराने के अलावा कोई चारा नहीं है। वसीयत के माध्यम से भी, वे अपनी संपत्ति का सिर्फ एक तिहाई ही कवर कर सकते हैं और पर्सनल लॉं के तहत और कुछ नहीं कर सकते हैं। दुख की बात है कि स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत पंजीकरण का विकल्प भी निःसंतान के लिए बंद है, यदि पति-पत्नी में से किसी एक का पहले ही निधन हो चुका है।
इसलिए, मैंने वहां मौजूद श्रोताओं से कहा कि यदि मुस्लिम मौलाना और लॉं बोर्ड सुधारों के प्रति अड़े रहेंगे, तो प्रभावित मुस्लिम परिवार इसके खिलाफ जाकर धर्मनिरपेक्ष कानूनों का सहारा लेंगे। यह, परोक्ष रूप से, समान नागरिक संहिता को अपनाने के बराबर होगा। बुशरा अली, एक मुस्लिम बेटी, ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया ताकि उसे माता-पिता की संपत्ति में अपने भाईयों के बराबर हिस्सा मिल सके। उसकी दलील मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 की धारा 2 के संबंध में कानून पर सवाल उठाती है। क्या यह धारा, एक पुरुष की तुलना में किसी महिला को समान हिस्सा नहीं देने के लिए है, यदि ऐसा है तो यह संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है और इसलिए अनुच्छेद 13 के अनुसार गलत है?
आश्चर्य की बात यह है कि मेरी टिप्पणी सुनने के बाद, सभा में मौजूद मौलानाओं में से, विशेष रूप से तमिलनाडु में वेल्लोर के तीन सदियों पुराने सूफी खानकाह-सह-मदरसा के प्रतिनिधियों से एक ने मेरी बात को मंजूर करते हुए मुझे बातचीत के लिए आमंत्रित किया। और साथ ही इन्होने मुझे अन्य लंबित सुधारों पर चर्चा करने के लिए भी प्रोत्साहित किया।
कुछ साल पहले, मौजूदा दक्षिणपंथी निज़ाम ने भारत में तीन-तलाक़ देने को अपराध घोषित कर दिया था जो कि कुरान के खिलाफ भी है। ऐसा मुस्लिम नागरिकों को अपराधी बनाने और हिंदू बहुसंख्यक हुकूमत के राजनीतिक एजेंडे को बढ़ाने के लिए किया गया था। हालांकि, हक़ीक़त यह है की तुरंत तीन-तलाक़ को हिंदू दक्षिणपंथियों ने इसलिए अपराध करार दिया क्योंकि मुस्लिम मौलाना उस में सुधार करने में असफल रहे थे, जिस प्रथा को अधिकांश मुस्लिम-बहुल एशियाई देश पहले ही खत्म कर चुके थे। बहुसंख्यकवादी ताकतों ने 1986 से ही (यदि पहले नहीं तो) तलाक पर हठधर्मिता को हथियार बना लिया था। यह वह वर्ष था जब मुस्लिम प्रतिक्रियावादियों ने शाह बानो पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करने के लिए संसद की ओर कूच किया था। हम जल्द ही इतिहास को अन्य मुद्दों पर भी वापस आते हुए देख सकते हैं, जैसे कि बेटियों को समान विरासत, और साथ ही इसमें गोद लेने और बाल कस्टडी के मानदंडों से संबंधित मामले भी हो सकते हैं।
मैंने यह भी बताया कि पैगंबर मुहम्मद ने एक पुत्र जायद को गोद लिया था, जिसने अपनी इच्छा से, मृत्यु तक पैगंबर की कस्टडी में रहना चुना था। इस प्रकार, कस्टडी इस्लामी है। भले ही बच्चे को जैविक माता-पिता के बारे में पता चल गया हो, लेकिन फिर भी इस्लाम में गोद लेने की मनाही नहीं है। लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भारतीय न्यायपालिका की मदद के लिए क्यों सुधार नहीं कर रहा है।
सुधारों के इंतज़ार में जो एक अन्य डोमेन है वह उन वंचित बच्चों का है जो अपने दादा के जीवित रहने के दौरान अनाथ हुए हैं। ऐसे अनाथों को उनके दादा-दादी की संपत्ति का उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सकता है। महिलाओं पर कुरान के अध्याय (सूरत-उन-निसा) की आयतें 8, 9 और 10 शायद ही इस तरह की पैतृक धन की प्रप्ति का प्रावधान करती हैं।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के जोशीले समर्थकों के लिए कस्टडी और गोद लेने के बारे में ऐतिहासिक हक़ीक़त कुछ प्रथाओं में सुधार के लिए काफी होनी चाहिए थी। अफसोस की बात है कि ऐसा नहीं हुआ। चूंकि पर्सनल लॉ बोर्ड स्थापित इस्लामिक मिसाल के चलते बाल कस्टडी कानूनों में सुधार करने से इनकार करता है, इसलिए उदारवादी और दक्षिणपंथी ताकतों के लिए रास्ता खुल जाता है। यहां तक कि मुस्लिम माता-पिता भी कठोर और असंशोधित पर्सनल लॉं कानून की अवहेलना करते हुए धर्मनिरपेक्ष बाल न्याय अधिनियम की शरण में जाने को बाध्य हैं।
अफसोस की बात है कि कुछ मुस्लिम ओपिनियन कमेंटेटरों के प्रतिगामी और अवसरवाद ने पर्सनल लॉ बोर्ड की हठधर्मिता को बढ़ा दिया है। जिन लोगों ने मुस्लिम दक्षिणपंथी संगठनों के साथ गठबंधन किया, और जो खुद सहिष्णु भारतीय धर्मनिरपेक्षता से लाभान्वित हुए थे, वे हिंदू दक्षिणपंथ के बढ़ने के बाद उनकी गोद में बैठने को तैयार हो गए हैं। ये ताकतें मुसलमानों को हुकूमत के साथ निरंतर टकराव की ओर धकेलेंगी जबकि खुद की मदद के लिए उसी निज़ाम के साथ समझौता कर लेंगी। हाल की रिपोर्टों से पता चलता है कि मुखर मुसलमानों (अशरफ और पसमांदा) के एक महत्वपूर्ण हिस्से को भगवा तह में शामिल किया जा रहा है। भारत के मुसलमानों को कुलीन मुसलमानों के इस स्वार्थी सत्ता के खेल को देखना चाहिए।
इसके उलट, दक्षिण भारत में मुस्लिम समुदायों ने दक्षिणी भारत के भीतर, मुस्लिम एजुकेशनल एसोसिएशन (चेन्नई, 1902), अल अमीन (1966 बेंगलुरु), केरल मुस्लिम एजुकेशनल एसोसिएशन (1955), मुस्लिम एजुकेशनल सोसाइटी केरल (1964) जैसे और कई ओर गुणवत्तापूर्ण शिक्षण संस्थानों की श्रृंखला स्थापित की है। आज़ादी के दशकों बाद भी उत्तर प्रदेश, बिहार या पश्चिम बंगाल में इस तरह की कोई संस्था विकसित नहीं हो सकी है।
उत्तर भारत में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय है, जहाँ मैं आधुनिक भारतीय इतिहास पढ़ाता हूँ, लेकिन यह अजीब है। हाल ही की एक घटना लें। 16 मार्च को एएमयू के कुछ शिक्षकों ने अगले कुलपति के मनोनयन के संबंध में प्रस्ताव पारित किया। उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलपतियों की जाति, वर्ग, लिंग और क्षेत्रीय संरचना के बारे में छात्रों और प्रोफेसरों के एक वर्ग के बीच चल रही बहस का उल्लेख तक नहीं किया। इसकी कार्यकारी परिषद, जो वी-सी के लिए नामों का पैनल बनाती है, किसी भी अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालय की तुलना में यह काम कई अधिक अस्पष्टता के साथ करती है।
एएमयू ने अपने 103 साल के इतिहास में कभी भी (एक बार को छोड़कर) उत्तर प्रदेश या हैदराबाद के अशरफ मुस्लिम पुरुषों के अलावा अन्य किसी को वी-सी उम्मीदवार के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया है। इस संदर्भ पर विचार करते हुए, मैंने थोड़ी घबराहट के साथ सोचा, क्या हैदराबाद की सभा में मौलाना जाति और लैंगिक न्याय की मेरी चिंताओं को स्वीकार करेंगे। हैरानी की बात है, ज्यादातर ने इसे स्वीकार किया। क्या इसलिए कि अधिकांश प्रतिनिधि और दर्शक दक्षिण से थे? शायद हाँ। लेकिन इसके साथ बहुत कुछ है। एएमयू में विविधता पर हालिया टिप्पणियों (कुछ अनुवादित) में, मैंने नोट किया कि लेखकों ने गुमनाम रहना या छद्म नाम चुना। इतना ही नहीं, उनके विचारों पर एएमयू और उसके बाहर के ऐतिहासिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त मुस्लिम अभिजात वर्ग ने गुस्से वाली प्रतिक्रियाएँ दीं। [अनिवार्य रूप से, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम अभिजात वर्ग ने इस नेरेटिव की कवायद पर लगभग एकाधिकार जमा लिया है।]
एएमयू के संबंध में मेरी पहली चिंता एक आधुनिक उच्च शिक्षा और शोध संस्थान की भूमिका की होगी। कि यह जाति, लिंग और भाषा के आधार पर अपनी शासन संरचनाओं में विविधता लाने के लिए क्या कर रही है? क्या यह इन मुद्दों पर सुधारों का समर्थन करने वाले अनुसंधान और आवाजें पैदा करता है? यदि विविध प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए सचेत प्रयास की जरूरत है, तो क्या इस काम को शीर्ष निर्णय लेने वाले निकायों में विविधता लाने के ज़रिए शुरू नहीं किया जाना चाहिए? अगला, क्या एएमयू में दाखिला, भर्तियां और शासन संरचनाएं भारतीय और भारतीय मुस्लिम वास्तविकताओं के अधिक प्रतिनिधि बनने का प्रयास कर रही हैं? ये सभी मुद्दे हैदराबाद में उस सभा के लिए भी महत्वपूर्ण हैं जिसके सामने मैं अपनी आवाज़ बुलंद करने गया था।
यह कहने की बात नहीं है कि दक्षिण भारतीय राज्यों में मुस्लिम दक्षिणपंथी और रूढ़िवादी नहीं हैं। हालांकि, मुस्लिम बहुल आधुनिक उच्च शिक्षा संस्थानों (जैसे कि एएमयू) में छाई निराशा को देखते हुए, जाति और लैंगिक असमानताओं को दूर करने या औसमें सुधार लाने की सारी उम्मीदें संभवतः दक्षिण भारतीय मुसलमानों पर टिकी हो सकती हैं। भारत के कथा-निर्माता मुस्लिम वर्ग को दक्षिण से उभरना होगा। उत्तर भारत के मुसलमानों का एकाधिकार प्राप्त वर्ग बेहतर काम नहीं कर रहा है। यह सब शैक्षिक और आर्थिक मोर्चों पर समुदाय के उत्थान की पहल पर लागू होता है।
तार्किक रूप से, दक्षिण भारत, देश के मुसलमानों के लिए एक उभरती हुई संभावना पेश कर रहा है कि वे बहुसंख्यक हुकूमत को दरकिनार करते हुए खुद के संसाधनों का अधिक विवेकपूर्ण इस्तेमाल करें और शैक्षिक और आर्थिक रूप से खुद को सशक्त बनाएं।
(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आधुनिक और समकालीन भारतीय इतिहास पढ़ाते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
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