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झारखंड : अर्थशास्त्री प्रो. रमेश शरण जनता और वंचितों के आर्थिक पहरेदार!

“क्या आपको पता है कि आपके यहां के उम्दा स्वाद वाले 65 प्रकार के उत्तम किस्म के देसी धान-चावल के बीजों की चोरी कर अमेरिकन बीज कंपनियों ने चुपके से पेटेंट करा लिया है...।"
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“क्या आपको पता है कि आपके यहां के उम्दा स्वाद वाले 65 प्रकार के उत्तम किस्म के देसी धान-चावल के बीजों की चोरी कर अमेरिकन बीज कंपनियों ने चुपके से पेटेंट करा लिया है। देश के कई राज्यों में भी यह कांड किया जा चुका है और अभी भी जारी है। इसका पता न आम किसानों को है, न ही बाकी लोगों को। इस पूरे कृत्य में मदद पहुंचाने का काम किया है आपके ही वोट से चुनी गयी सरकार और उसके माननीय मंत्री-नेताओं ने। अब आप ही बताइये कि इतने बड़े नुकसान पर आप क्या करेंगे?”- ये शब्द थे प्रो. शरण के। सभागार के मंच पर पूरी बेबाकी और तल्ख़ लहजे में बोल रहे वक्ता की बातों को हर कोई पूरे मन से सुन रहा था।

प्रो. शरण एक सामाजिक संगठन द्वारा आयोजित कार्यशाला में आये आदिवासी-सोशल एक्टिविस्टों को संबोधित करते हुए बता रहे थे कि कैसे उनके ही घर का अनाज चुराकर उन्हें ही याचक बनने पर मजबूर किया जा रहा है।

कार्यक्रम के समापन के बाद मैंने संकोच करते हुए पूछा था कि सर, आप तो केंद्र (तत्कालीन कांग्रेस) और झारखंड राज्य (एनडीए-भाजपा) की सरकार दोनों को एक साथ “कठघरे में खड़ा कर रहें हैं”! हंसते हुए उन्होंने कहा, क्या कीजिएगा, “सत्ता-कुर्सी राजनीति” को कमाई का धंधा बनाने में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता है।

लेकिन बात जब हमारे किसानों-आदिवासियों और आम जनता के हितों-अधिकार की होगी तो उनका अर्थशास्त्री होने के नाते भला मैं कैसे चुप रह सकता हूं। असली सच तो उजागर करुंगा ही।

मैंने जानना चाहा कि हमारे देश के ‘धान-चावल की उम्दा किस्मों की जानकारी अमेरिकन बीज कम्पनियों को कैसे मिल जा रही है कि वे हमारी अन्न-सम्पदा का धड़ल्ले से पेटेंट करा ले रही हैं? उन्होंने कहा कि, “मारिये, ई सब नेता-मंत्री और इनकी पार्टी का असली मालिक तो पूंजीपति-अमेरिका ही है न! सबके सब उसी के कारिंदे बने हुए हैं और इन सबों के लिए जनता तो सिर्फ “राज भोगने की सीढ़ी है”। सबको दिन-रात पैसा बनाने के अलावे कुछ और बुझाता है क्या? हमाम में सब एक हैं! तो ऐसे बेबाक प्रो. रमेश शरण जो अर्थशास्त्र के आला दर्जे के शिक्षाविद और साथ ही आर्थिक मामलों के विषद जानकार हैं। जिन्हें सुनने-जानने और पढ़ने वालों का एक विशाल-व्यापक दायरा आज भी मौजूद है।

जिन्होंने दशकों से झारखंड ही नहीं अपितु देश के विभिन्न इलाकों में आयोजित होने वाले सरकारी व गैर सरकारी शिक्षण एवं आर्थिक शोध संस्थानों के व्याख्यानों में जनता के आर्थिक हितों से जुड़े मसलों को पूरे तथ्य-प्रस्तुति के साथ उठाया। सरकार व तंत्र के नौकरशाहों को जनता के लिए सही आर्थिक नीतियां बनाने की सलाह-सुझाव देते रहे। तो दूसरी ओर, जन अभियानों में शामिल होकर शासन-सत्ता की हर जन विरोधी आर्थिक नीतियों की ज़ोरदार विरोध करने में भी हमेशा ही सक्रिय रहे।

यही वजह है कि इसी 9 जुलाई को कोलकाता के एक अस्पताल में इलाजरत अवस्था में उनका निधन हुआ तो असीम पीड़ा के साथ विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों के विभागीय छात्र-प्राध्यापकों के अलावा सबसे अधिक व्यापक सामाजिक दायरे में उन्हें ‘शोक-श्रद्धांजलि’ दिये जाने का सिलसिला लगातार जारी है।

इतना ही नहीं, हाल के समय में यह एक अपवाद घटना ही है कि एक अर्थशास्त्री-शिक्षाविद के निधन पर “सत्ता पक्ष और विपक्ष” के सभी राजनीतिक दलों व नेताओं तक को लगभग एक सी शब्दवाली में शोक प्रकट करना पड़ रहा है।

झारखंड प्रदेश के राज्यपाल ने शोक प्रकट करते हुए कहा कि, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. रमेश शरण का निधन शिक्षा जगत के लिए अपूर्णीय क्षति है।

मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने भी अपने ‘एक्स-पोस्ट’ में कहा है कि, प्रो. रमेश शरण जी का निधन, झारखंड प्रदेश के लिए अपूर्णीय क्षति है और व्यक्तिगत रूप से मैं काफी मर्माहत हूं।

झारखंड की INDIA गठबंधन सरकार व उसके सभी घटक दलों से लेकर विपक्ष भाजपा तक के नेता-प्रवक्ताओं ने प्रो. रमेश शरण को जनहित का अर्थशास्त्री और शिक्षाविद बताते हुए शोक प्रकट किया है।

वाम दलों कि ओर से सीपीआइएम राज्य सचिव ने कहा है कि वे झारखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और उसमें आदिवासियों की परम्परागत भूमिका पर विशेष अध्यययन से कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखकर सरकारों का ध्यान आकृष्ट किया। वे जन विज्ञान आन्दोलन के भी एक सक्रिय नेतृत्वकर्त्ता और झारखंड साइंस फोरम के अध्यक्ष रहे। उनके निधन से जन विज्ञान आन्दोलन को भारी क्षति हुई है।

भाकपा माले के प्रदेश सचिव ने प्रो. रमेश शरण को सामाजिक जन आन्दोलनों का सक्रिय एक्टिविस्ट बताते हुए कहा है कि, आदिवासी एवं दलित-उत्पीड़ित तबकों की बराबरी की भागीदारी का प्रबल पक्षधर बताया।

जाने माने व चर्चित अर्थशास्त्री व सोशल एक्टिविस्ट ज्यां द्रेड ने कहा है कि, हम उन्हें एक महान शिक्षक,विद्वान और मित्र के रूप में प्रेमपूर्वक याद रखेंगे। वे हमेशा हाशिये पर मौजूद समुदायों के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध रहे। उन्हें जनवादी अर्थशास्त्री बताया, जो सदैव जनहित के लिए काम करते थे।

सनद रहे कि ज्यां द्रेज इन दिनों रांची विश्वविद्यालय के पीजी विभाग में गेस्ट फैकल्टी के रूप में पढ़ाने की व्यवस्था कराने में विभागध्यक्ष होने के नाते प्रो. रमेश शरण की अहम भूमिका बतायी जाती है।

जनमुद्दों पर सक्रिय रहनेवाले संगठनों के साझा मोर्चा ऑल इंडिया पीपल्स फोरम के झारखंड चैप्टर के सलाहकार सदस्य रहे । फोरम ने उनके निधन को जनता का भरोसेमंद आर्थिक पहरेदार के चले जाने और गहरी सामाजिक क्षति बताई है।

विगत दो दशक से भी अधिक समय से मेरा भी प्रो. रमेश शरण जी के साथ विभिन्न जन अभियानों में काम करने का गहन अनुभव रहा है।

आज उनके निधन पर यदि ये कहा जा रहा है कि, प्रो. रमेश शरण जी अर्थशात्र के विद्वान शिक्षाविद से भी बढ़कर जनता के आर्थिक हितों के सक्रिय पहरेदार रहे, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। क्योंकि उन्होंने जनता और विशेषकर किसानों, आदिवासी-दलित और वंचितों की पक्षधरता को जीवनपर्यंत सर्वोच्च प्राथमिकता दी। किसी भी रंग और झंडे की सरकार हो, उससे जनहित में आर्थिक नीतियां बनाने व उसे लागू कराने की हरचंद कोशिश की।

69 वर्षीय प्रो. रमेशा शरण जी की अधिकतर शिक्षा रांची से ही हुई। रांची विवि से ही उन्होंने अर्थशात्र में एमए किया। अपने बैच के वे टॉपर छात्र रहे। बाद में वे इसी विवि के अर्थशात्र के प्राध्यापक और फिर पीजी के विभगाध्यक्ष बने। 2017 में विनोबा भावे विवि के कुलपति का दायित्व निभाया और अवकाशप्राप्त होने के बाद वे इंस्टिच्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट संस्था के डायरेक्टर तथा विनोबा भावे विवि के लोकपाल बने।

सामाजिक जन अभियानों में ही सक्रियता के कारण कई सालों तक ‘भोजन के अधिकार’ मसले पर सुप्रीम कोर्ट की सलाहकार समिति के सदस्य रहे। झारखंड राज्य में बनने वाली सरकारों के भी आर्थिक सलाहकार की सक्रिय भूमिका निभायी।

प्रो. रमेश शरण की स्मृति में जगह जगह आयोजित किये जा रहे ‘शोक श्रद्धांजलि’ कार्यक्रमों से यही बातें उभर कर आ रही हैं कि वे एक अर्थशास्त्री ही नहीं बल्कि सदा सक्रिय रहनेवाले समाजशास्त्री भी रहे। झारखंड प्रदेश और यहां बसने वाले आदिवासी-दलित और उपेक्षित समुदायों की ज़मीनी सामाजिक स्थितियों की गहरी समझ थी। देश स्तर पर जब से देश में “उदारीकरण और नयी आर्थिक नीतियां’ लागू करने की घोषणा हुई तो उन्होंने इसे जनविरोधी करार देते हुए मुखर विरोध किया था। साम्प्रदायिकता की राजनीति का भी खुलकर विरोध किया।

सबसे बढ़कर जीवनपर्यंत अपने लोकतान्त्रिक और जनपक्षीय उसूलों पर सदैव क़ायम रहते हुए आम जनता के साथ साथ आदिवासी-दलित-किसानों और हाशिये पर धकेल दिए गए लोगों के पक्ष में हर सम्भव अपनी भूमिका निभाई।

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