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ख़बरों के आगे पीछे: CAG द्वारा उजागर घोटालों पर मेनस्ट्रीम मीडिया में सन्नाटा!

CAG द्वारा उजागर घोटाले समेत, अधिकारियों के सेवा विस्तार, मंत्रियों के बेलगाम बोल, जयंत चौधरी पर भाजपा की नज़र और दिल्ली में सरकार की प्रासंगिकता पर अपने साप्ताहिक कॉलम में चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन।
CAG
फाइल फ़ोटो

अब कम ही लोगों को मालूम होगा कि देश में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) नाम की एक संस्था भी है। साल 2014 में भाजपा की जीत में उस समय के सीएजी विनोद राय द्बारा खोले गए कथित 2-G और कोयला घोटाले की भी अहम भूमिका थी। तब सबकी जुबान पर सीएजी का नाम था। पिछले नौ साल से सीएजी का नाम लोग भूल चुके हैं क्योंकि उसकी कोई रिपोर्ट नहीं आती है और आती भी है तो उसमें सरकार पर सवाल उठाने वाली कोई बात नहीं होती है। लेकिन अगले साल होने वाले आम चुनाव से पहले अचानक सीएजी की सक्रियता दिखने लगी है और संसद के मानसून सत्र में एक के बाद एक उसकी दो रिपोर्ट आई हैं, जिनसे दो विभागों के घोटालों का खुलासा हुआ है। सीएजी की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में घोटाला हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक साढ़े सात लाख से ज़्यादा लाभार्थी एक ही मोबाइल नंबर पर रजिस्टर्ड हैं। यह सितंबर 2018 से मार्च 2021 की रिपोर्ट है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 43 हज़ार से ज़्यादा परिवार ऐसे दर्ज हैं, जिनके सदस्यों की संख्या 11 से 201 तक है। यानी एक परिवार में दो सौ से ज़्यादा सदस्यों के नाम दर्ज हैं। सीएजी की दूसरी रिपोर्ट में इससे भी बड़ा घोटाला उजागर हुआ है। इसमें बताया गया है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक योजना नेशनल सोशल असिस्टेंस प्रोग्राम है, जिसके तहत वृद्धावस्था पेंशन भी है, उसके फंड से पैसा निकाल कर विज्ञापन पर खर्च कर दिया गया। यह भी 2017-18 से 2020-21 की रिपोर्ट है। चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कह चुके हैं कि उनकी सरकार में घोटाले नहीं होते हैं, इसलिए मीडिया में इन रिपोर्टों की कोई चर्चा नहीं है। लेकिन हैरानी की बात है कि विपक्ष भी इन घोटालों की रिपोर्ट को तरजीह नहीं दे रहा है। भले ही इनमें कम पैसे का घोटाला हुआ है लेकिन चुनावी साल में सरकार के दो मंत्रालयों का घोटाला आधिकारिक रूप से सामने आना मामूली बात नहीं है। गौरतलब है कि देश के सीएजी गिरीश मुर्मू हैं, जो गुजरात काडर के अधिकारी हैं।

राहुल गांधी और कठेरिया का फर्क

कांग्रेस नेता राहुल गांधी और भाजपा के सांसद रामशंकर कठेरिया का फर्क बहुत दिलचस्प है। राहुल गांधी देश की सबसे पुरानी और इस समय मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं। चौथी बार के सांसद हैं और कांग्रेस के निर्विवाद सर्वोच्च नेता हैं। उन्हें सूरत की एक अदालत ने मानहानि के एक मुकदमे में दोषी ठहराया और दो साल की अधिकतम सज़ा सुना दी। इसके बाद वे जिला अदालत में गए, जिसने सज़ा पर रोक नहीं लगाई। फिर राहुल गुजरात हाई कोर्ट पहुंचे। हाई कोर्ट ने भी सज़ा पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। राहुल को अंत में सुप्रीम कोर्ट से राहत मिली। दूसरी ओर भाजपा के सांसद रामशंकर कठेरिया को एक निजी कंपनी के अधिकारी से मारपीट करके उसे गंभीर रुप से घायल करने और बलवा करने के मामले में इटावा की एक अदालत ने दो साल की सज़ा दी। उनके खिलाफ धारा-147 और धारा-323 के तहत मुकदमा हुआ था। धारा-147 में तीन साल तक की सज़ा का प्रावधान है लेकिन उन्हें दो साल की सज़ा मिली। इससे उनकी लोकसभा सदस्यता पर तलवार लटकी। राहुल गांधी को सज़ा सुनाते ही लोकसभा सचिवालय ने उनकी सदस्यता समाप्त कर दी थी, लेकिन कठेरिया की सदस्यता खत्म नहीं हुई। दो दिन बाद कठेरिया आगरा की जिला अदालत में गए, जिसने उनकी सज़ा पर रोक लगा दी। कितनी हैरान करने वाली बात है कि कानून व्यवस्था से जुड़े एक गंभीर मामले में दोषी पाए गए कठेरिया को जिला अदालत से ही राहत मिल गई लेकिन मानहानि के मामले में राहुल को सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा।

क्यों नहीं हो रहे हैं लोकसभा के उपचुनाव?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही तीसरी बार भी सत्ता में आने का दावा कर रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि उन्हें और उनके सिपहसालारों को इस बात का अंदाजा है कि इस समय राजनीतिक हवा का भाजपा के अनुकूल नहीं है। यही वजह है कि लोकसभा की चार सीटें पिछले कई महीनों से खाली पड़ी हैं लेकिन उन पर उपचुनाव नहीं कराया जा रहा है। अगर किसी सीट का कार्यकाल छह महीने से कम का बचा होता है तो आमतौर पर चुनाव आयोग उपचुनाव नहीं कराता है। अगले साल अप्रैल-मई में लोकसभा का आम चुनाव होना है। यानी चारों खाली सीटों का कार्यकाल अभी छह महीने से ज़्यादा बाकी है। चुनाव आयोग के पास यह बताने के लिए कोई वजह नहीं है कि वह लोकसभा में इन चार निर्वाचन क्षेत्रों को उनके प्रतिनिधित्व से वंचित क्यों रखे हुए हैं। ज़ाहिर है कि आयोग पर उपचुनाव नहीं कराने का दबाव है। जो चार सीटें खाली है उनमें महाराष्ट्र की दो और हरियाणा व उत्तर प्रदेश की एक-एक सीट है। महाराष्ट्र में चंद्रपुर से कांग्रेस सांसद सुरेश नारायण धनोरकर का इस साल 30 मई को और पुणे से भाजपा सांसद गिरीश बापट का 29 मार्च को निधन हो गया था। हरियाणा में अंबाला की सीट खाली है, जहां के भाजपा सांसद रतनलाल कटारिया का 18 मई को निधन हो गया था। उत्तर प्रदेश में गाजीपुर सीट से अफजाल अंसारी सांसद थे लेकिन उन्हें 29 अप्रैल चार साल की सज़ा होने के बाद उनकी सदस्यता समाप्त कर हो गई है।

असहमति को रोकने के नए उपाय?

केंद्र सरकार की तरह कुछ कथित स्वायत्त संस्थाओं को भी असहमति बर्दाश्त नहीं हो रही है और वे इसे रोकने के लिए नए-नए उपाय आजमा रही हैं। ताजा खबर है कि साउथ एशियन यूनिवर्सिटी ने अपने यहां दाखिला ले रहे नए छात्रों से एक अंडरटेकिंग देने को कहा है, जिसमें उन्हें यह घोषणा करनी है कि वे इस अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सिटी में पढ़ते हुए कोई विरोध प्रदर्शन नहीं करेंगे और किसी भी मामले में असहमति नहीं जताएंगे। उनसे यह भी अंडरटेकिंग देने को कहा गया है कि वे शपथ लेकर बताएं कि उन्हें कोई मानसिक समस्या नहीं है। एक तरफ सारी दुनिया मेटल हेल्थ को लेकर चर्चा कर रही है तो दूसरी ओर यह अंतरराष्ट्रीय शिक्षण संस्थान इस तरह की अंडरटेकिंग देने को कह रहा है। इससे पहले खबर आई थी कि संसद की एक समिति ने सिफारिश की है कि आगे से भारत सरकार कोई भी पुरस्कार या सम्मान किसी को देगी तो उससे अंडरटेकिंग लेगी कि भविष्य में वह इस सम्मान को लौटाएगा नहीं। असल में कुछ समय पहले केंद्र सरकार की नीतियों और कई घटनाओं के विरोध मे अवार्ड वापसी हुई थी। भाजपा के नेताओं और उसकी आईटी सेल ने पहले ही सम्मान लौटाने वालों को अवार्ड वापसी गैंग बता कर उनको खासा बदनाम किया है। लेकिन अब सरकार चाहती है कि पुरस्कार लेने से पहले ही वे शपथ लें कि वे इसे लौटाएंगे नहीं। अगर इस तरह का कोई कानून बन गया तो यह तय है कि कोई भी स्वाभिमानी और संवेदनशील लेखक, कलाकार, खिलाड़ी, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता किसी तरह का सरकारी सम्मान नहीं लेगा, क्योंकि ऐसी कोई भी अंडरटेकिंग देना स्वतंत्र और लोकतांत्रिक व्यक्ति की गरिमा को कम करने वाला होगा। हो सकता है कि सरकार भी ऐसा ही चाह रही हो ताकि सारे पुरस्कार और सम्मान सत्ता की चाटुकारिता करने वालों को दिया जा सके।

अधिकारियों का सेवा विस्तार

केंद्र सरकार ने एक के बाद एक अधिकारियों को सेवा विस्तार दिया है। प्रवर्तन निदेशक यानी ईडी के प्रमुख का मामला तो अलग है क्योंकि उसमें जो हो रहा है उस पर सुप्रीम कोर्ट की नज़र है। लेकिन उसके अलावा सरकार ने दो सबसे बड़े अधिकारियों-कैबिनेट सचिव और गृह सचिव को एक-एक साल का सेवा विस्तार दिया है। पहले कैबिनेट सचिव राजीव गौबा को तीसरा विस्तार दिया गया और उसके बाद गृह सचिव अजय कुमार भल्ला को एक साल का चौथा विस्तार दिया गया। बताया जा रहा है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले सरकार अधिकारियों के बीच बना तालमेल बिगाड़ना नहीं चाहती है। हालांकि इससे 1986 बैच के वे अधिकारी नाराज़ और निराश बताए जा रहे हैं, जो कैबिनेट सचिव या गृह सचिव बनने की उम्मीद कर रहे थे। बहरहाल, सरकार ने गौबा और भल्ला को एक-एक साल का सेवा विस्तार देकर यह सुनिश्चित कर दिया है कि अगला लोकसभा चुनाव 1984 बैच के अधिकारियों की देख-रेख में होगा। अगले साल जब कैबिनेट सचिव और गृह सचिव का विस्तारित कार्यकाल समाप्त होगा तब तक उनके आगे के दो या तीन बैच के लगभग सारे अधिकारी रिटायर हो चुके होंगे। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुंमार का कार्यकाल भी 2025 के शुरू में समाप्त होगा। ईडी के प्रमुख संजय मिश्रा का कार्यकाल ज़रूर अगले महीने सितंबर में समाप्त हो जाएगा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें केंद्र के आग्रह पर 15 सितंबर तक का कार्यकाल दिया है।

संसद में मंत्रियों के बेलगाम बोल

भाजपा के सांसद और मंत्री संसद से बाहर तो विपक्षी दलों और उनके नेताओं के बारे में अक्सर अनाप-शनाप बोलते ही रहते हैं, अब संसद में भी वे बेलगाम बयानबाजी करने लगे हैं। संसद के मानसून सत्र में कम से कम दो मंत्रियों ने ऐसे बयान दिए हैं, जो विपक्ष को अपमानित करने और संसद की गरिमा गिराने वाले हैं। अविश्वास प्रस्ताव पर भाजपा की ओर से बहस शुरू करने वाले निशिकांत दुबे के सोनिया गांधी को निशाना बनाते हुए 'बेटे को सेट करने और दामाद को भेंट करने’ वाले बयान को छोड़ भी दिया जाए, तब भी मीनाक्षी लेखी और नारायण राणे के बयान की कोई तार्किकता नहीं है। विदेश राज्य मंत्री मीनाक्षी लेखी ने दिल्ली के सेवा बिल पर चर्चा के दौरान विपक्षी सदस्यों को चुप कराते हुए कहा कि तुम्हारे यहां ईडी न आ जाए। उन्होंने एक तरह से खुली धमकी दी कि चुप हो जाओ नहीं तो ईडी तुम्हारे घर आ जाएगी। उनकी इस धमकी से सवाल उठ रहे हैं कि क्या सरकार ईडी का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है। इसी तरह केंद्रीय मंत्री नारायण राणे ने शिव सेना उद्धव ठाकरे गुट के नेता अरविंद सावंत से कहा कि अगर प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह के बारे में कुछ भी कहा तो 'तुम्हारी औकात बता' दूंगा। हैरानी की बात है कि ऐसे बयानों पर न तो भाजपा की ओर से और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से कुछ कहा जाता है, जिसके बारे में माना जाता है कि वह भाजपा के ऊपर नैतिक नियंत्रण रखता है।

दिल्ली में अब सरकार की क्या ज़रूरत?

दिल्ली में अब विधानसभा और चुनी हुई सरकार की कोई ज़रूरत बची है क्या? क्या यह अच्छा नहीं होता कि दिल्ली में 1993 से पहले की स्थिति बहाल कर दी जाए? केंद्र सरकार ने जीएनसीटीडी एक्ट यानी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम के जरिए पहले ही उप राज्यपाल को दिल्ली की असली सरकार घोषित कर रखा है और अब उस कानून में संशोधन के जरिए अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार भी उप राज्यपाल को दे दिया है। इस संशोधन के बाद दो अधिकारी मुख्यमंत्री पर भारी पड़ेंगे। ऐसे में सवाल है कि जब सारे फैसले अधिकारियों के जरिए उप राज्यपाल को करना है तो राज्य में चुनी हुई सरकार की क्या ज़रूरत है? ध्यान रहे राज्य सरकार के पास पहले से ही बहुत कम काम और अधिकार हैं। दिल्ली में कुछ काम नगर निगम के जिम्मे हैं तो कुछ नई दिल्ली नगरपालिका परिषद के पास है। कुछ हिस्सा सेना के हवाले है। ऊपर से डीडीए के पास ज़मीन का अधिकार है। कानून व्यवस्था का मामला सीधे केंद्र सरकार के पास है। कायदे से दिल्ली सरकार के पास कोई काम नहीं है। बिजली की आपूर्ति निजी कंपनियां करती हैं। परिवहन में लोग या तो निजी वाहन का इस्तेमाल करते हैं या मेट्रो का। दिल्ली सरकार डीटीसी की बसें चलवाती है और जल बोर्ड के जरिए पानी की व्यवस्था करती है लेकिन दोनों की व्यवस्था कामचलाऊ ही है। सो, इतने से काम के लिए 70 विधायकों का चुनाव कराने, विधानसभा चलाने, सरकार का पूरा बंदोबस्त करने की क्या ज़रूरत है? ऊपर से भाजपा 1998 से 2020 तक हुए छह विधानसभा चुनावों में लगातार हारी है।

भाजपा की नज़र अब पश्चिमी यूपी पर

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा उत्तर प्रदेश के हर इलाके में अपने को मजबूत करने में जुटी है ताकि प्रदर्शन और बेहतर किया जा सके। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी अपना दल को 64 सीटें मिली थीं, जो 2014 के मुकाबले नौ कम थीं। अगले चुनाव में भाजपा 2014 का प्रदर्शन दोहराना चाहती है। इसलिए वह पूर्व से लेकर पश्चिम तक संगठन को मजबूत कर रही है और सहयोगी पार्टियों को जोड़ रही है। भाजपा ने पहले चरण में पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। अपना दल के साथ-साथ सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के भाजपा से जुड़ जाने से वह मजबूत हुई है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के सामाजिक समीकरण में मजबूत स्थिति वाली निषाद पार्टी भी भाजपा की सहयोगी है। सो, पूर्वी उत्तर प्रदेश में उसका सामाजिक समीकरण काफी मजबूत दिख रहा है। अब भाजपा की नज़र पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर है। पार्टी ने इस इलाके के जाट नेता भूपेंद्र चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। लेकिन वह इतने भर से आश्वस्त नहीं है, क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी और दलित वोट की बहुलता की वजह से मायावती भी एक बड़ी ताकत है। अगर कांग्रेस, सपा और रालोद एक साथ आते हैं तो भाजपा के लिए पश्चिमी यूपी में लड़ाई मुश्किल होगी। इसीलिए कहा जा रहा है कि भाजपा किसी तरह से जयंत चौधरी को अपने साथ लाने का प्रयास कर रही है तो दूसरी ओर यह प्रयास भी कर रही है कि बसपा का कुछ वोट उसकी तरफ शिफ्ट हो या बंट जाए। यानी वह विपक्ष की ओर न जाए। इस राजनीति में कुछ दांव-पेंच अगले कुछ दिनों में देखने को मिलेंगे।

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