अंधेरे में ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं आंचल को सितारों से झिलमिलाने वाले
मोरक्को में 2019 में आयोजित हुए 18वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में एक्ट्रेस प्रियंका चोपड़ा खास मेहमान थीं। उस शाम प्रियंका के देसी पहनावे ने महफ़िल लूट ली थी। फ़र्दी या कामदानी के काम से झिलमिलाती इस साड़ी की चर्चा भी मीडिया का हिस्सा बनी। प्रियंका की इस साड़ी को अबू जानी और संदीप खोसला ने डिजाइन किया था। इस कारीगरी को मुक़ैश के नाम से भी जाना जाता है। इसके कारीगर देश के कई शहरों और देहातों में हैं। इस हुनर को जगमाते शोरूम और ऊंचे मंचों पर पहुंचाने वाले इन कारीगरों की बदहाली का सूचकांक हर दिन नीचे गिरता जा रहा है। कइयों ने इस काम को अलविदा कहकर कोई और रोज़गार तलाश लिया है तो बहुतों के लिए ये आज भी दाल रोटी या ज़िंदगी की दूसरी ज़रूरतों का सहारा है।
कामदानी का बहुत बड़ा बाज़ार होने के बावजूद इन कारीगरों के पास इस रोज़गार से कोई सुरक्षा जैसी सुविधा नहीं है। थोक विक्रेता के पास से ये काम बिचवानियों के ज़रिए इन कारीगरों तक आता और जाता है। इसलिए खुद इन्हें भी नहीं पता कि इस काम की क्या क़दर और क़ीमत है। हां! इनसे बात की तो पता चला कि जी तोड़ मेहनत के बाद जो कारीगरी मिलती है उससे घर चलाना मुमकिन नहीं। हर किसी की ये ख़्वाहिश ज़रूर है कि मेहनताना बढ़ जाए मगर इस फ़रियाद की कोई सुनवाई नहीं।
आंचल में तारे टांक देना खुशहाली की दलील हो सकती है मगर आंचल में तारे टांकने वालों की ज़िंदगी पर एक नज़र डालें तो ये किसी नासूर से कम नज़र नहीं आती।
कामदानी के काम से झिलमिलाती साड़ी में फ़िल्म अदाकारा प्रियंका चोपड़ा
65 बरस की नूरी ने जिस समय दुनिया में आंख खोली थी, उस समय उनकी मां फ़र्दी बनाने का काम करती थीं। ये हुनर उन्हें भी विरासत में मिला। एक से एक बेल बूटों से छपे कपड़े पर उन्हें भी फ़र्दी बनाने में महारत हासिल थी। घुटनों पर आंचल फैलाया और उंगलिया रुपहले तारों से उलझती सुलझती इन छपे बेल बूटों को झिलमिल बनाती आगे बढ़ती जातीं। इस कारीगारी ने नूरी को भी एक सांचे में ढाल दिया था। गोल हो गई पीठ के साथ झुकी हुई गर्दन की मदद से इन सितारों को टांकने के लिए उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त निकालना होता था। लगातार घुटनों पर ही नज़रें जमाये वह जितना ज़्यादा काम कर सकेंगी उन्हें उतना ही मेहनताना मिलेगा। मगर साथ ये ध्यान भी रखना होगा कि कहीं कपड़ा कट या उलझ न जाए। उसपर कोई गंदगी न लग जाए। नहीं तो भरपाई की रक़म उनकी कमाई से ही कटनी है।
फ़र्दी यानी कामदानी या फिर मुक़ैश कपड़े पर की जाने वाली सुनहरी या फिर रुपहली कारीगरी है। ये फ़ारसी शब्द मुक़य्यशी से बना है। मुक़य्यशी का मतलब होता है सोने या चांदी के तारों की मदद से घुमावदार बनाया हुआ ज़ेवर। या फिर इसकी मिसाल गोखरू से भी दे सकते हैं। इस काम में इस्तेमाल होने वाले सुनहरे या रुपहले तार को मुक़य्यश कहते हैं। ये तार तोला के वज़न से मिलता है और इन कारीगरों का मेहनताना भी इसे तोला के आधार पर तय किया जाता है।
इसके अलावा मुक़य्यश मुग़ल काल के एक किस्म का रेशमी कपड़ा भी है। इसका ज़िक्र बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक अबुल फज़ल द्वारा सोलहवीं सदी में लिखित ग्रन्थ आईन-ए-अकबरी में भी मिलता है।
शाही पहनावे मुक़य्यश का प्रयोग मुग़ल साम्राज्य में किया जाता था। नूरजहाँ इन चांदी के तैयार कपड़ों का उपयोग किया करती थीं। मौजूदा वक़्त में इसे फ़र्दी, कामदानी या फिर मुक़ैश के नाम से जानते हैं। गुजरात में रेशमी कपड़े पर चांदी के बारीक तारों से की जाने वाली कढ़ाई एक प्राचीन शिल्प के रूप में जानी जाती है।
लखनऊ में कामदानी का काम खूब पनपा और इसने दुनिया में अपनी पहचान बनाई। ख़ासकर चिकनकारी के साथ कामदानी को शाही पहनावों का दर्जा दिया गया। फ़ैशन इंडस्ट्री ने इस काम को सर आँखों पर बैठाया और देखते ही देखते यह सेलिब्रेटी की अलमारियों तक पहुँच गई मगर नहीं बदला तो इसके कारीगरों का हाल।
बॉलीवुड और सेलिब्रिटीज़ की दुनिया में आज भी यह पहनावा शान ओ शौक़त से जुड़ा है। इन कपड़ों पर हज़ारों लाखों खर्च किये जाते हैं और महफ़िलों में दाद वसूली जाती है। लेकिन बात करें इसके कारीगरों की तो उनके हालात आज भी न बदल सके बल्कि हर दिन बद से बदतर होते चले गए।
यास्मीन पिछले 17 बरसों से कामदानी का काम बनाकर अपने परिवार की इनकम में सहारा दे रही हैं। गृहस्थी की ज़िम्मेदारी संभालते हुए इनकम में सहारे की ख़ातिर वह खुद दुकानदार के पास से काम लेने नहीं जाती और जो घर बैठे मिल जाता है उसे बनाने में जुट जाती हैं। यास्मीन का कहना है कि काम तो मिल जाता है मगर तार ख़ुद से खरीदना पड़ता है। एक तोला तार 25 रुपये का होता है दिनभर में मुश्किल से एक तोला तार का काम कर पाना मुमकिन होता है। काम का भुगतान प्रति तोला के हिसाब से होता है। यास्मीन बताती हैं कि दुकानदार एक तोला काम के एवज़ में 150 रुपये देता है, जिसमे 25 रुपये का तार आता है और 25 रुपया प्रति पीस बीचवानी को देना होता है जिसके ज़रिये ये काम उसे घर बैठे मिल जाता है।
अगर बात करें बाज़ार में उपलब्ध फ़र्दी के कपड़ों की तो औसत कामदानी वाला एक दुपट्टा 300 रुपये की क़ीमत से शुरू होता है। इसके अलावा चिकनकारी के साथ फ़र्दी के काम की भारी मांग है। जॉर्जेट के कपड़े पर तैयार इन साड़ियों की क़ीमत 4 हज़ार रुपये से शुरू होती है मगर प्योर का शौक़ रखने वाले ख़रीदारों के लिए ये क़ीमत काफी बढ़ जाती है। प्योर शिफ़ान पर तैयार फ़र्दी और चिकनकारी की साड़ियों की क़ीमत की शुरुआत ही 10 हज़ार से होती है और औसत ये 20 से 25 हज़ार तक जाती हैं। बल्कि उन शौक़ीनों के लिए इसकी कोई हद नहीं। क़दरदान बेमिसाल काम की एवज में नायाब पहनावे के की ख़ातिर दुकानदार को उसकी मर्ज़ी की रक़म तक देने को राज़ी रहते हैं।
थोक विक्रेताओं के स्टोर से गली मुहल्लों और देहातों तक इस काम को पहुंचने वाले मतीन का कहना है कि मार्केट में कामदानी के काम की बहुत डिमांड है। अभी तक ये काम शहरों तक ही सीमित था मगर अब आस पास के गांव की औरतें भी इस रोज़गार से जुड़कर घर की आमदनी में इज़ाफ़ा करना चाहती है। मतीन ख़ुद ही समझ लेते हैं कि कौन किस तरह का काम कर सकता है और इसी हिसाब से वह काम का वितरण भी करते हैं। चिकन और कामदानी के काम से जुड़े शमीम भाई का भी कहना है कि दलालों की मदद से इतना काम बनने जाता है कि उनके लिए उसका हिसाब किताब देखने का समय कम पड़ जाता है। ऐसे में कौन इन कामों के लिए कारख़ाना खोले और ज़िम्मेदारी बढ़ाए।
क़य्यूम मियां ने करीब तीन दशक से ज़्यादा समय तक पुराने लखनऊ के एक दुपट्टा स्टोर में काम किया। यहां उनकी और रंगरेज़ की एक ख़ास जगह थी। मगर कोविड के दिनों में जब सारे काम बंद हुए तो उन्हें भी इस हुनर को छोड़ना पड़ा। आज बाज़ार की रौनक फिर से वापस आ चुकी है, रंगरेज़ भी अपने काम पर लौट आये हैं मगर क़य्यूम मियां अब एक होटल पर काम कर रहे हैं।
उनका कहना है दिनभर कामदानी बनाने से उन्हें इतना मेहनताना नहीं मिल पाता था कि ज़रूरी खर्चे पूरे हो सकें। उसपर पीठ झुकाकर बैठने से रीढ़ की हड्डी में भी तकलीफ होने लगी थी और आंख भी कमज़ोर हो गई थी। आगे वह बताते हैं कि जब उनके जैसे कई लोगों ने इस काम को छोड़ा तो दलाल दुकानदारों से मोहल्ले में काम करने वाली औरतों तक ये काम करवाने पहुंचे। इस बीच बढ़ी बेरोज़गारी के चलते गली मोहल्ले की औरतों ने इस काम को हाथों हाथ लिया और उसका नतीजा ये हुआ कि महंगाई बढ़ने के बावजूद इस काम के लिए कारीगर का मेहनताना न बढ़ सका।
ऐसी ही एक कारीगर निम्मी बताती हैं कि हम औरतों को घर बैठे चालू मटीरियल बनाने को मिल जाता है और घर खर्च के लिए कुछ अतिरिक्त आय हो जाती है। इसमें सबसे ज़्यादा डिमांड चालू काम की है। इसके अलावा दाना, टीकी, रिंग, मुर्री और फन्दा के साथ घास पट्टी का भी काम होता है। जो लोग अच्छा काम जानते हैं उन्हें महंगे आइटम की भी ज़िम्मेदारी मिल जाती है। मगर यहाँ गली मोहल्ले की औरतें कीमती या भारी काम लेने से बचती हैं। कीमती काम लेने पर उसके रखरखाव की ज़िम्मेदारी निभाना आसान नहीं। कपड़े के ज़रा भी कट फट जाने या फिर गन्दा हो जाने पर उसकी भरपाई इन लोगों के बस की बात नहीं होती।
कामदानी के काम की इस समय मार्केट में भारी डिमांड है। सारा कारोबार बिचौलियों की मदद से कारीगरों तक आता है और तैयार माल थोक विक्रेता तक पहुँचता है। काम और बेरोज़गारी इतनी ज़्यादा है कि शहर की तंग गलियों से निकल कर अब ये काम आस पास के गावों में भी बनने लगा है।
इन कारीगरों को इस हुनर के अलावा न तो इससे जुड़े किसी यूनियन की जानकारी है और न ही इतना समय कि वह इसका पता कर सकें। ये कारीगर महिलाएं घर बैठे रोज़गार से मुत्मइन होने को मजबूर हैं। उनका मानना है कि कम ही सही मगर जितना घर बैठे मिल जाता है, वही काफी है। इनका कहना है कि न तो ये थोक विक्रेताओं के पास जाकर बात कर सकेंगी और न ही मोल भाव। एक डर ये भी है कि अगर ये बीचवानी से किसी तरह का मोल भाव या विरोध करती हैं तो इस काम से भी हाथ धोने का अंदेशा है। ऐसे में बिचौलिये अन्य कारीगरों को काम दे देंगे और ये इस रोज़गार से भी वंचित रह जाएंगी। इन हालात के बीच दूसरों के आंचल में सितारे टांकने वालों की बदहाली हर दिन इनके हालात में मुफलिसी का पैबंद बढ़ा रही है।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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