आशा कार्यकर्ताओं की मानसिक सेहत का सीधा असर देश की सेहत पर!
कोविड के संकट भरे दौर में आशा कार्यकर्ताओं ने देश के गांव-गांव और घर-घर तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचा रही हैं। गर्भवती महिला और नवजात शिशु की देखभाल से लेकर कुपोषण, बुजुर्गों की देखभाल जैसी कई सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को पूरा करने की ज़िम्मेदारी आशाओं के कंधे पर ही टिकी है। मानसिक सेहत से जुड़ी सेवाओं का ज़िम्मा भी आशाएं ही संभालेंगी। स्वास्थ्य महकमे की इस पैदल योद्धा पर कार्य का भार जितना अधिक है, उसके बदले मिलने वाले मेहनताने से वे संतुष्ट नहीं हैं। इस सबका असर आशा कार्यकर्ताओं की मानसिक सेहत पर पड़ रहा है।
मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता यानी आशा की डगर बेहद मुश्किल है। 18 फरवरी को ऋषिकेश के डोईवाला ब्लॉक के पंचायत भवन में करीब 50 आशा कार्यकर्ता एक प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए इकट्ठा हुईं। यहां बातचीत में सभी आशा कार्यकर्ताओं ने स्वास्थ्य महकमे के रवैये, कार्य का भार, कम मेहनताने, स्वास्थ्य कार्यकर्ता होने के बावजूद उन्हें स्वास्थ्य सुविधा न मिलने जैसी बातों को लेकर असंतुष्टि जतायी। क्या इस सबसे उनकी मानसिक सेहत भी प्रभावित होती है? सभी का जवाब ‘हां’ में था।
हमारी आशा की मुश्किलें
“सरकारी अस्पताल में डॉक्टर हमें ‘ए आशा’ कहकर बुलाते हैं। जैसे हमारी कोई इज्जत ही नहीं। सरकारी अस्पताल के सफाई कर्मचारी को जो सुविधाएं मिलती है, हमें नहीं मिलती। हम सरकार का इतना काम करते हैं, क्या हमें सरकारी अस्पताल में निशुल्क इलाज जैसी सुविधा नहीं मिलनी चाहिए?” ये कहते हुए आशा कर्यकर्ता बीना भट्ट गुस्से में आ जाती हैं।
आशा कार्यकर्ता अनीता पंत कहती हैं “कोविड के शुरुआती दौर में हमें कोई ट्रेनिंग नहीं दी गई। सेनिटाइज़र, दस्ताने पहनने के बारे में कुछ भी नहीं बताया गया। कोरोना की पहली लहर में ड्यूटी के दौरान मैं संक्रमित हुई। उसके बावजूद हमें कोविड किट बांटने के लिए कहा जा रहा था। मेरे पति इस काम में मेरी मदद कर रहे थे। मेरी हालत जब बहुत ज्यादा खराब होने लगी तो हमारी इंचार्ज ने दूसरी आशा से मदद लेने को कहा। वो भी संक्रमित थी लेकिन उसके लक्षण हलके-फुलके थे। उसने मेरे हिस्से का भी काम किया”।
आशा कार्यकर्ता कौशल्या बिष्ट को मलाल है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में होने के बावजूद वे अपनी कोरोना संक्रमित 15 साल की बेटी को अस्पताल में एक बेड नहीं दिला पाईं। वह कहती हैं “बेटी के इलाज के लिए हम पर कर्ज का बोझ चढ़ गया। क्या हमारे बच्चों के इलाज का जिम्मा सरकार नहीं ले सकती थी?”
यहां मौजूद सभी आशा कार्यकर्ताओं के पास कोविड काल की मुश्किलों की कई कहानियां थीं।
ललितेश आशा कार्यकर्ता की समस्याओं और स्वास्थ्य विभाग की अनदेखी के बारे में बताती हैं।
उत्तराखंड आशा स्वास्थ्य संगठन की महामंत्री ललितेश विश्वकर्मा के मुताबिक “कोरोना के दौर ने हम सबको मानसिक तौर पर विचलित कर दिया था। हमारी मुश्किल विभाग के नियमों के चलते अधिक बढ़ गई। लॉकडाउन में हमें कई-कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। जितनी बार कोविड पॉजिटिव व्यक्ति की सूचना मिलती हमें अस्पताल जाकर उसके लिए दवाइयों की किट लानी थी। हम कह रहे थे कि एक साथ कुछ किट दे दो तो वो भी नहीं दी गई। उल्टा हमसे कहा जाता था कि जिस घर में किट देने जा रही हो वहां मरीज के साथ सेल्फी खींचकर भेजो। वे हम पर इतना भी भरोसा नहीं करते”।
वह आगे बताती हैं “मई 2021 में, ऋषिकेश के राजकीय चिकित्सालय में कोविड किट लेने गई थी। मेरे ठीक बगल में दो कोरोना संक्रमित कोरोना किट लेने के लिए खड़े थे। अस्पताल के बरामदे में एक शव लिपटा हुआ रखा था। एक कमरे में कई शव पड़े थे। उसी समय एंबुलेंस से एक कोविड पॉजिटिव को अस्पताल लाया गया। वे मुझे दूर हटने का इशारा कर रहे थे लेकिन मैं समझ नहीं पा रही थी। घर-घर पहुंचते-पहुंचते मैं दिमागी तौर पर विचलित हो गई”।
ललितेश और उनका पूरा परिवार कोरोना संक्रमण की चपेट में आया
एक अन्य आशा कार्यकर्ता लक्ष्मी बिष्ट कहती हैं “हम 9 महीने तक गर्भवती महिला की देखरेख करते हैं। उसकी जांच कराने कई बार सरकारी अस्पताल जाते हैं। वहां बच्चे के जन्म पर हमें 400 रुपये इंसेंटिव मिलता है। इससे ज्यादा तो हमारा आने-जाने में खर्च हो जाता है। कई बार तो लोग खुद ही जन्म के समय प्राइवेट अस्पताल में चले जाते हैं। तो वो पैसा भी गया”।
“इसी तरह पल्स पोलियो अभियान के एक दिन में तकरीबन 150 घरों में जाना होता है और वर्ष 2006 से इसके लिए मात्र 100 रुपये मिलते हैं”।
ललितेश बताती हैं कि 14 फरवरी को उत्तराखंड में मतदान से ठीक एक दिन पहले आशा कार्यकर्ताओं को बताया गया कि उनकी चुनाव में ड्यूटी है। “हमसे मतदान के कमरे तक सेनेटाइज करवाए गए। क्या ये हमारा काम है? ये काम भी हमसे ही कराना था तो वे इसके बारे में हमें पहले नहीं बता सकते थे?”
काम के बोझ तले तनाव से तो नहीं जूझ रही आपकी ‘आशा’
“दीदी आप बताओ, क्या इस सबका असर हमारी दिमागी हालत पर नहीं पड़ेगा? हमसे हमारे घरवाले भी ख़ुश नहीं रहते। हमारे बच्चे तक पूछते हैं कि तुमको मिलता क्या है जो तुम इतनी मेहनत करती हो? सर्दी हो या गर्मी, हमें एक दिन में 5-6 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है। कई बार हम सुबह 8 बजे घर से निकलते हैं और ये पता नहीं होता कि घर कब लौटेंगे। कभी टिफिन लेकर जाते हैं तो कभी भूखे ही रह जाते हैं। इससे हमारा परिवार भी प्रभावित होता है। अगर हमको बेहतर मेहनताना और सुविधाएं मिलतीं तो हमारे काम में निखार आ जाता”।
आशा कार्यकर्ता के कॉन्ट्रैक्ट में लिखा जाता है कि उसे जागरुकता और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के अलावा सामान्य तौर पर हफ्ते में 4 दिन सिर्फ 2-3 घंटे के लिए काम करना होगा। जबकि ऋषिकेश की इन 50 आशा कार्यकर्ताओं ने कहा कि उनके काम के घंटे तय नहीं हैं। रोज औसतन 4-5 घंटे काम और कई बार 12-12 घंटे तक काम करना होता है। छुट्टी का कोई दिन नहीं है। कभी भी इमरजेंसी कॉल आ जाती है। प्रसव पीड़ा जैसे मामले अचानक होते हैं। वे कहती हैं कि हम तो दिन-रात अपने काम से जुड़े रहते हैं। कोविड के समय में 13-14 घंटे भी काम किया है।
मेहनत और मानदेय!
देशभर में फरवरी 2021 तक कुल 9,60,690 आशा कार्यकर्ता काम कर रही हैं। वे राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत सरकार के 60 से अधिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों और योजनाओं के लिए कार्य कर रही हैं। इन्हें मिलने वाला मानदेय राज्यवार अलग-अलग और इन्सेंटिव आधारित है।
मिसाल के तौर पर उत्तराखंड में आशा कार्यकर्ता को केंद्र सरकार से 2 हजार और राज्य सरकार से 2 हज़ार रुपये प्रति महीना मिलता है। कोविड के दौरान एक हज़ार रुपये प्रति माह अलग से दिए जा रहे हैं। उत्तराखंड सरकार ने नवंबर 2021 में चुनाव से पहले आशा कार्यकर्ताओं का मानदेय 1500 रुपये बढ़ाने की घोषणा की थी। लेकिन फरवरी 2022 तक इस पर अमल नहीं हो सका है। मानदेय भी हर महीने या किसी निश्चित समय नहीं आता।
उत्तराखंड में 11,899 आशा हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में तैनात आशा कार्यकर्ताओं की मुश्किलें और अधिक हैं। क्योंकि पहाड़ की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में पैदल चलना भी आसान नहीं होता। लोगों के घर आम तौर पर दूर-दूर होते हैं। 1,000 से 2,500 की आबादी पर आमतौर पर एक आशा कार्यकर्ता रखी जाती है। जिस पर तकरीबन 200-500 घरों की ज़िम्मेदारी होती है।
राज्यसभा की एक कमेटी ने भी वर्ष 2020 की अपनी रिपोर्ट में माना है कि कोविड के दौरान आशा, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अपने जीवन के खतरे के बीच में कार्य कर रही हैं। उचित प्रशिक्षण, प्रोत्साहन और सुविधाओं के बिना उनसे बड़े कार्यों को पूरा करने की अपेक्षा की जाती है।
दाव पर ‘तन-मन-धन’
आशाओं के ज़रिये ही आज देशभर में घर-घर स्वास्थ्य सेवाएं पहुंच रही हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन के “हेल्थ फॉर ऑल” के लक्ष्य तक पहुंचाना संभव हो पा रहा है। मनोचिकित्सक डॉ प्रियरंजन अविनाश कहते हैं “कोरोना और उससे पहले भी टीबी जैसी संक्रामक बीमारियों के लिए कार्य कर रही आशा की शारीरिक-मानसिक सेहत दांव पर होती है। कम मेहनताना और कमज़ोर आर्थिक पृष्ठभूमि के चलते उन्हें वो मान-सम्मान भी नहीं मिलता, जिसकी वे हक़दार हैं। ऐसे में व्यक्ति में नकरात्मक ख्याल आते हैं और वो असंतुष्टि का शिकार हो जाता है। जिसे हम बर्नआउट (कार्य के प्रति असंतुष्टि) कहते हैं। कई बार ये डिप्रेशन में बदल जाता है”।
आशा कार्यकर्ताओं को मानसिक सेहत से जुड़ी सेवाओं का ज़िम्मा देने पर इसका अलग से इनसेंटिव देना पड़ेगा, ये उत्तराखंड स्वास्थ्य विभाग की चिंता में शामिल है। लेकिन आशा कार्यकर्ताओं की मानसिक सेहत उनकी चिंता का हिस्सा नहीं है। राज्य की स्वास्थ्य महानिदेशक डॉ. तृप्ति बहुगुणा कहती हैं “आशाओं का मनोबल बढ़ाने के लिए हम सालाना कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिसमें बेहतरीन कार्य करने वाली कार्यकर्ताओं को सम्मानित करते हैं। कोविड के दौरान भी अच्छा कार्य करने वाली आशा कार्यकर्ताओं को पुरस्कार दिए”।
आशा कार्यकर्ता की नियमित शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य जांच भी की जानी चाहिए? इस सवाल पर डॉ बहुगुणा मान जाती हैं कि राज्य में इस दिशा में काम किया जा सकता है। आशाओं को योगाभ्यास और नियमित काउंसिलिंग से जोड़ा जा सकता है।
मनोचिकित्सक मानते हैं कि आशा कार्यकर्ताओं की मानसिक सेहत अच्छी होगी तो इसका असर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर भी पड़ेगा।
आशा कार्यकर्ताओं के लिए प्रोजेक्ट आनंद!
मानसिक सेहत की देखरेख के ज़रिये आशा कार्यकर्ताओं की कार्यक्षमता बढ़ाई जा सकती है। जिससे हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली भी बेहतर होगी। मानसिक सेहत पर शोध कार्य कर रही संस्था संगठन मध्य प्रदेश में आशा कार्यकर्ताओं के साथ ‘प्रोजेक्ट आनंद’ काम कर रही है। इसका उद्देश्य रोजमर्रा के काम के चलते होने वाली मानसिक चुनौतियों का सामना करने के लिए आशा कार्यकर्ताओं को तैयार करना है।
इस प्रोजेक्ट से जुड़े डॉक्टर अमेय बोन्द्रे कहते हैं कि अक्टूबर 2021 से शुरु हुआ ये प्रोजेक्ट सितंबर 2024 में पूरा होगा। आशा कार्यकर्ताओं के एक समूह की मानसिक सेहत की स्थिति, उनकी मुश्किलों और मज़बूतियों का पता लगाना, ये सिखाना कि वे अपने तनाव से कैसे निपट सकती हैं, इस सब पर बात की जाएगी।
डॉ. अमेय कहते हैं वर्कप्लेस वेलनेस (दफ्तर-कार्यालय में कर्मचारियों की शारीरिक-मानसिक सेहत) का विचार हमारे देश में अब भी नया है। ग्रामीण वर्कप्लेस तक ये विचार पहुंचा ही नहीं है। आशा कार्यकर्ताओं की मानसिक सेहत को बेहतर बनाने के लिए किया जा रहा ये शोध सफल होता है तो हम इसका इस्तेमाल आंगनबाड़ी, नर्स या अन्य कामगारों पर भी कर सकते हैं।
उत्तराखंड समेत देश के कई राज्यों में डॉक्टर और ख़ासतौर पर मनो-चिकित्सकों की भारी कमी है। ऐसे में सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों और सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में आशा कार्यकर्ताओं की भूमिका बेहद अहम है। अगर देश की सेहत की परवाह करनी है तो आशा कार्यकर्ताओं की शिकायतों और सेहत को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
(This reporting has done under the Essence media fellowship on mental health issues)
(वर्षा सिंह देहरादून स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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