मिज़ोरम चुनावः अहम राजनीतिक development पर बाक़ी भारत में ख़ामोशी क्यों
मिज़ोरम विधानसभा की 40 सीटों के लिए हो रहे चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी का न जाना और बाक़ी मीडिया से इसके बाहर होने में क्या कोई रिश्ता है।
उत्तर पूर्व के इस छोटे-बेहद ख़ूबसूरत राज्य की 40 विधानसभा सीटों पर कौन-सा दल बहुमत पाएगा, इसे लेकर शेष भारत में कोई ख़ास जिज्ञासा नहीं दिखाई देती। वह भी तब जबकि यह भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (NDA) में शामिल इकलौता राज्य है, जहां के मुख्यमंत्री ज़ोरम थंगा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने से मना कर दिया। बस इतना ही नहीं, दूसरे प्रमुख क्षेत्रीय दल- ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट (ZPM) ने भी बार-बार यह दोहराया कि भाजपा से उसका कोई लेना-देना नहीं है।
यहां कि दोनों क्षेत्रीय दलों सहित कांग्रेस व आम मतदताओं के लिए भाजपा एक अच्छा नाम नहीं है। 2014 से तकरीबन जितने भी राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं, उनमें से संभवतः मिज़ोरम ही ऐसा है, जहां प्रधानमंत्री एक दिन भी चुनाव प्रचार करने नहीं आए। ये तमाम ऐसी वजह हैं, जो मिज़ोरम को और यहां के चुनाव को बहुत खास बनाती हैं।
क्या ख़ास है मिज़ोरम में
मिज़ोरम यानी मिज़ो का रम, यानी मिज़ो की जमीन
मिज़ोरम ईसाई बहुल राज्य है। इसमें आठ जिले हैं जिनमें ईसाइयों की बहुलता है। कुल आबादी करीब 13-14 लाख होनी चाहिए, जिसमें से ईसाई 87.16 फीसदी, हिंदू आबादी 2.75 फीसदी, मुस्लिम करीब 1.35 फीसदी है।
आदिवासी बहुल इलाके में मिज़ो के अलावा पोई, लाखेर, चकमा, ब्रू व गोरखा आदि अल्पसंख्यक समाज भी आते हैं। यहां मिज़ो संघर्ष का बहुत लंबा इतिहास रहा है, जिसकी वजह से 1986 में मिज़ो समझौता हुआ, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मिज़ो नेशनल फ्रंट के मिलिटेंट नेता लाल डेंगा के बीच। इसके तहत मिज़ो को बहुत स्वायत्ता मिली-स्वायत्त काउंसिल का गठन हुआ। यहां के लोग म्यांमार में बसे चिन, और पड़ोसी राज्यों के आदिवासी समाज से सघन संबंध व एकता महसूस करते हैं-रिश्तेदारियां भी हैं। यहां बीफ यानी गाय का मांस रोजमर्रा के खाने का हिस्सा है। पोर्क यानी सूअर का मीट व मछली भी खूब खाया जाता है।
क्या ख़ास है मिज़ोरम की पॉलिटिक्स में
मिज़ोरम का यह चुनाव यानी 2023 का विधानसभा चुनाव इसलिए भी खास है क्योंकि इस बार यहां पर जिन दो राजनीतिक पार्टियों—मिज़ो नेशनल फ्रंट (MNF) व कांग्रेस के बीच सत्ता की कुर्सी घूमती रही है, इस बार उसमें तीसरा तगड़ा प्रतियोगी सामने आया है- ज़ोरम पीपुल्स फ्रंट ( ZPM)।
अभी तक यहां कि राजनीति मिज़ो नेशनल फंट व कांग्रेस के बीच घूमती रही है। इसमें ब्रेक लगाने के लिए ज़ोरम पीपुल्स पार्टी ने तगड़ी तैयारी कर कर ली है। करीब पांच साल पुरानी है ZPM और इसके प्रमुख हैं लालदुओमा जो 74 साल के हैं और रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी है।
मिज़ो नेशनल फ्रंट एक पुरानी मंझी हुई पार्टी है, जिसका कैडर बेस यानी प्रतिबद्ध कार्यकर्ता है।
कांग्रेस को सिर्फ राहुल गांधी का सहारा है। राहुल गांधी चुनाव प्रचार के लिए जब मिज़ोरम आए, तब एक बड़ी फैन फोलोविंग (fan following) पैदा हुई। जिस तरह से राहुल गांधी ने आम लोगों से बातचीत की, स्कूटी टैक्सी की सवारी की—उसने कांग्रेस के पक्ष में माहौल तो बनाया, लेकिन कितना वोट में तब्दील होगा इसे लेकर खुद कांग्रेस भी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं नज़र आ रही। मुख्य रूप से यहां चुनावी लड़ाई ZPM और MNF के बीच है।
MNF सत्ता में रही है, उस पर बड़े भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोप लगे हुए हैं। चुनावों की घोषणा से दो-तीन महीने पहले तक उसका हाल खराब बताया जा रहा था। लेकिन फिर मणिपुर में हुई एथनिक हिंसा में उसके स्टैंड ने उसकी स्थिति को ठीक किया। मणिपुर से आए कुकी व अन्य शरणार्थियों को मुख्यमंत्री ज़ोरम थंगा ने सम्मान सहित स्वीकारा-इंतजाम किये। इससे पहले भी राज्य सरकार ने म्यांमार से आए चिन शरणार्थियों को जगह दी और उन्हें पहचान पत्र भी मुहैया कराया था। इन दोनों ही सवालों पर मिज़ोरम सरकार ने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के दबाव को धता बताया और शरणार्थियों के बायोमेट्रिक कराने से इनकार किया। साथ ही साथ मुख्यमंत्री ज़ोरम थंगा ने ZO unification यानी जो आदिवासी समाज के सुदृढ़करने के लिए एक बड़ा प्लेटफार्म मुहैया कराने का भी वादा चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया। इसने MNF की जमीन को पूरी तरह से खिसकने में रोका। हालांकि MNF के भाजपा नेतृत्व वाले North East democratic alliance में बने रहने से भी उसकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठाया है। लेकिन खेती और कृषि व्यवसाय से जुड़े दवामपुइया ने कहा, जमीन पर एमएनएफ का काम है, कैडर वोट करेगा।
ZPM का सबसे बड़ा चुनावी मंत्र है कि अब तक सबको देखा, इस बार हमें देखो। हम नये हैं, भ्रष्टाचार से मुक्त शासन देंगे। शहरी क्षेत्रों में खासतौर से मध्यम वर्ग व नौजवानों में इसका खासा क्रेज है। इसके पक्ष में खड़े लोग यही कह रहे हैं कि अबकी बार हमें चांस मिलना चाहिए, तो हम राजनीति को साफ-सुथरा कर देंगे। जो यूनिफिकेशनल पर भी ZPM का खासा जोर है। इसने बड़ी संख्या में नौजवानों को मौका दिया है और प्रोफशनल को भी।
स्कूटी टैक्सी ड्राइवर पीटर ने बहुत मज़ेदार अंदाज में कहा, हम नया चेहरा, नया नाम देखना चाहते हैं। ये दो पार्टी (एमएनएफ-कांग्रेस) थक गई हैं, वे आराम करेंगी तो ठीक हो जाएंगी। भाजपा के बारे में पूछा तो बोले, जब मोदी को हमसे बात करने में मुश्किल है, तो हमें भी उनसे मुश्किल है।
वहीं कांग्रेस देश व लोकतंत्र के नाम पर वोट मांग रही है। उसका कहना है कि देश बहुत गंभीर संकट से गुजर रहा है। ऐसे में जरूरी है कि राष्ट्रीय राजनीति को धर्मनिरपेक्षता की ओर ले जाने वाली कांग्रेस पार्टी को चुना जाए। कांग्रेस ने ZPM और MNF दोनों क्षेत्रीय दलों को भाजपा के लिए पिछले दरवाजे से सत्ता में इंट्री देने वाला बताया और दावा ठोंका कि सिर्फ वही मिज़ोरम का समुचित विकास कर सकती है। पिछली विधानसभा में पांच के पांच विधायक जीते थे, जिसमें से एक टूट गया था। ऐसे में अकेले कांग्रेस का सत्ता के करीब आना दूर की कौड़ी है। लेकिन चर्चा में है, वोट व सीटें बढ़नी चाहिए। खासतौर से आदिवासियों जल-जंगल-जमीन पर वापस कब्जा दिलाने वाले बिलों को पास करने की गारंटी ने उसकी स्थिति को मजबूत किया है। इससे कांग्रेस कार्यकर्ताओं औऱ नेताओं में जोश जरूर देखने को मिला।
अब बात भाजपा BJP की। भाजपा ने पिछली विधानसभा में एक विधानसभा सीट हासिल की। भाजपा का सारा जोर गैर-ईसाई अल्पसंख्यक समाज जैसे ब्रू, गोरखा, चकमा आदि पर है। यह दक्षिण मिज़ोरम की कुछ विधानसभा सीटों—जैसे सिआह व लावनथंगाई पर जोर लगाए हुए है। इस बार भाजपा सिर्फ 23 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जबकि पिछली विधानसभा में 30 सीटों पर चुनाव लड़ा था। भाजपा को मणिपुर में जिस तरह से कुकी समाज पर हमले हुए और उन्हें वहां से जान बचाकर भागना पड़ा, इसका बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। एक बात नीचे तक पहुंच गई कि भाजपा ईसाई विरोधी पार्टी है और इसीलिए एनडीए के संस्थापक सदस्य होने का दावा करने वाले एमएनएफ के मुख्यमंत्री ज़ोरम थंगा को भाजपा से फासला करना पड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस जमीनी विरोध को भांपते हुए ही मिज़ोरम नहीं आए। उनके तय कार्यक्रम तक को रद्द करना पड़ा।
इस राज्य में यह एक बड़ा सवाल तो बना ही हुआ है कि आखिर 3 मई से पड़ोसी राज्य मणिपुर जल रहा है और प्रधानमंत्री इस पर खामोश बने हुए हैं। भाजपा के एक प्रचारक ने बताया कि हमारे लिए यहां भीड़ जुटानी मुश्किल हो जाती, क्योंकि लोग मणिपुर में हुई हिंसा से खुद को सीधे-सीधे जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। हालांकि भाजपा के आला नेताओं की माने तो उन्हें विश्वास है कि सरकार किसी की भी बने उसे आना उन्हीं की शरण में पड़ेगा। भाजपा के बंदरगाह, शिपिंग और वाटरवेज के केंद्रीय मंत्री एस. सोनोवाल ने खुलकर कह ही दिया— मिज़ोरम के लोग जानते हैं कि अगर आगे विकास करना है तो भाजपा नेतृत्व में सरकार बनानी होगी
महिलाओं को टिकट
मिज़ोरम महिलाओं को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के मामले में बहुत ही पिछड़ा हुआ है। 2018 की विधानसभा में एक भी महिला विधायक नहीं थी। इस बार भी तीनों प्रमुख दलों MNF, ZPM औऱ कांग्रेस ने बस दो सीटें महिला उम्मीदवारों को दी हैं। इस बारे में जब नौजवान महिलाओं से बात की तो उन्होंने इसके लिए पितृसत्ता को ही दोषी ठहराया। मिज़ोरम में पितृसत्ता का गहरा रिश्ता चर्च के राजनीतिक प्रभुत्व से भी है। मिज़ोरम की राजनीति में चर्चों का अच्छा-खासा प्रभुत्व है। यंग मिज़ो एसोसिएशन (YMA) भी एक प्रभावशाली संस्था है।
सामाजिक कार्यकर्ता रुथ ने बताया कि समाज ऊपर से जितना आधुनिक दिखता है, लेकिन भीतर से वैसा नही हैं। पितृसत्ता का बोलबाला है। राजनीति में महिलाएं स्वीकार्य नहीं हैं, जबकि हम पूरे मिज़ोरम की अर्थव्यवस्था को चलाती हैं। चुनावों में महिलाएं खड़ी होती हैं, तो उन्हें जानबूचकर हरा दिया जाता है। उन्होंने इन चुनावों का उदाहरण देते हुए बताया कि कांग्रेस की एक महिला उम्मीदवार का नाम घोषित होते ही, उनका चरित्र हनन करना लोगों ने शुरू कर दिया। लेकिन अच्छा रहा कि वह औऱ कांग्रेस पार्टी दोनों पीछे नहीं हटे।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।