'मैं देश नहीं बिकने दूंगा' से 'मैं शेष नहीं बचने दूंगा' तक का सफर
दुनिया भर में लोगों को कोविड के टीके एक भी पैसा खर्च किए बिना लग रहे हैं, लेकिन भारत में नहीं। दुनिया भर में ऐतिहासिक स्मारक, जो किसी राष्ट्र को परिभाषित करते हैं, जो किसी राष्ट्र की चेतना का ताना-बाना होते हैं, उन्हें पवित्र माना जाता है और उन्हें अनछुआ रखकर अपने मूल रूपाकार में ही बनाए रखा जाता है, लेकिन भारत में नहीं। दुनिया भर में ऐसी सार्वजनिक परिसंपत्तियों को, जो जनता के लिए बुनियादी सेवाएं या सांस्कृतिक व शैक्षणिक सेवाएं मुहैया कराती हैं, करीब-करीब मुफ्त ही रखा जाता है, लेकिन भारत में नहीं। भारत के इस अजीबो-गरीब अनहोतेपन के पीछे मोदी सरकार का अपना ही विचित्र एजेंडा है। हरेक चीज को एक माल में तब्दील कर देने का एजेंडा। कुछ भी पवित्र नहीं हैं, कुछ भी पूजनीय नहीं है, कुछ भी बाजार से ऊपर नहीं है, सब कुछ बिकाऊ है।
ऊपर उल्लेखित तीन उदाहरणों पर नजर डाल लेते हैं। पहले, जब निजी अस्पतालों में लोगों को टीके लग रहे थे, ये अस्पताल इस सेवा के लिए 250 रुपये वसूल कर रहे थे। बेशक, यह रकम वसूल किए जाने से भी बचा जाना चाहिए था, फिर भी कम से कम यह राशि बहुत ज्यादा नहीं थी और इसका बोझ फिर भी उठाया जा सकता था। लेकिन, अब निजी अस्पतालों को उसी टीके के लिए अत्यधिक रकम वसूल करने की इजाजत दे दी गयी है। वे कोवीशील्ड के लिए 780 रुपये, कोवैक्सीन के लिए 1410 रुपये और स्पूतनिक-वी के लिए 1145 रुपये वसूल कर रहे हैं क्योंकि अब उन्हें सरकार से मुफ्त टीके मिलना बंद हो गया है।
अस्पतालों को ये टीके मुफ्त न देने के जरिए सरकार साफ तौर पर, इस टीके को एक माल के रूप में ही तब्दील कर देना चाहती है। इसी प्रकार, जलियांवाला बाग के ‘सुंदरीकरण’ की परियोजना को लिया जा सकता है। जलियांवाला बाग की त्रासद घटना, भारत के उपनिवेशविरोधी आंदोलन को परिभाषित करने वाली घटना थी और इसलिए, नये भारत के बनने में उसकी बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जिस स्थल पर जनरल डायर ने अपने सिपाहियों को शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर तब तक गोलियां बरसाते रहने का आदेश दिया था, जब तक उनकी गोलियां खत्म नहीं हो जाएं, हरेक भारतीय के लिए एक पवित्र स्थल है और उसे पूरी तरह से जस का तस रखा जाना चाहिए था।
मिसाल के तौर पर, सेनेगल में डकार के तट से दूर सागर में स्थित गोरी द्वीप पर, जहां अमरीका से दसियों लाख गुलामों को मौत के घाट उतारा गया था और जिसे देखकर बरसों बाद वहां की यात्रा पर आए नेल्सन मंडेला की आंखों में आंसू आ गए थे, इमारतों, बैरकों, बाड़ों, सब को पूरी तरह से जस का तस रखा गया है, जैसे वे तब थे जब जहाजों में भरकर गुलामों को वहां उतारा गया था। लेकिन, भारत में हमारी नौसिखिया सरकार ने जलियांवाला बाग का सुंदरीकरण कर दिया है। जाहिर है कि उसने यह सुंदरीकरण इस ख्याल से, जो कि पूरी तरह से काल्पनिक तथा गलत है, किया है इससे और ज्यादा विदेशी पर्यटक आकर्षित होंगे।
संक्षेप में यह कि जलियांवाला बाग को भी एक माल में तब्दील किया जा रहा है और उसे एक माल में तब्दील किए जाने के इस पहलू को, राष्ट्र के लिए उसकी पवित्रता के ऊपर रखा गया है। ठीक ऐसी ही मनोवृत्ति वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर के मूल प्रवेश मार्ग के सुंदरीकरण में भी देखने का मिली थी। मंदिर के मूल प्रवेश मार्ग का, जो एक ऐतिहासिक तंग रास्ता था, उससे सटे बहुत पुराने घरों तथा अनेक छोटे-छोटे मंदिरों को तोडक़र, सुंदरीकरण किया गया है। इसके पीछे भी विचार यही था कि विश्वनाथ मंदिर और उसके इर्द-गिर्द तक पर्यटकों की और खासतौर पर विदेशी पर्यटकों की पहुंच को आसान बनाया जाए।
संक्षेप में विचार यही था कि मंदिर को एक माल में तब्दील कर दिया जाए। और अब रेलवे स्टेशनों, बंदरगाहों, हवाई अड्डों से लेकर स्टेडियमों तक, बेशुमार सार्वजनिक परिसंपत्तियों का ‘मुद्रीकरण’ किया जा रहा है यानी उन्हें निजी ऑपरेटरों के हाथों में पकड़ाकर, माल में तब्दील किया जाना है। वित्त मंत्री बड़े जोर-शोर से इसकी दलीलें देती रही हैं कि ‘मुद्रीकरण’, निजीकरण से अलग है। लेकिन, यह शुद्ध शब्दक्रीणा है। मुद्रीकरण का अर्थ है, किसी खास अवधि के लिए किसी परिसंपत्ति का निजी ऑपरेटर के हवाले किया जाना। अगर तय अवधि के बाद, संबंधित परिसंपत्ति सरकार के हाथों में वापस भी आ जाती है तब भी, अव्वल तो उस सूरत में निपटारे के लिए अनेकानेक मुद्दे खड़े जाएंगे, जैसे कि पट्टे की अवधि में पट्टा लेने वाली निजी कंपनी द्वारा उस परिसंपत्ति में किए गए निवेशों का कैसे मूल्यांकन किया जाएगा, आदि। ऐसा माना जा सकता है कि संबंधित अवधि के बाद उस परिसंपत्ति को फिर उसी पट्टाधारक को सोंप दिया जाएगा या कुछ लाभ के साथ किसी और पट्टाधारक को सोंप दिया जाएगा। उस स्थिति में मुद्रीकरण में और बिक्री में कोई फर्क नहीं रह जाएगा, सिवा इसके कि यह बिक्री समय की किस्तों में की जा रही होगी।
वृहदार्थिक नजरिए से, सार्वजनिक परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण और सरकार के अतिरिक्त खर्च के लिए वित्त जुटाने के लिए राजकोषीय घाटे का सहारा लेने में, कोई अंतर नहीं है। राजकोषीय घाटे का सहारा लेने की सूरत में सरकार अपनी परिसंपत्तियां (सरकारी प्रतिभूतियों के रूप में, जो सरकार पर देनदारी के दावे का ही मूर्त रूप होती हैं) निजी क्षेत्र के हाथों में देती है और इसके बदले में उसके हाथ में जो पैसा आता है, उससे खर्चों की भरपाई करती है। मुद्रीकरण के मामले में सरकार सडक़ों, रेलवे प्लेटफार्मों आदि के रूप में परिसंपत्तियां निजी क्षेत्र के हवाले करती है और इसके बदले में उसे जो पैसा मिलता है, उससे अपने खर्चों की भरपाई करती है।
वृहदार्थिक स्तर पर अगर दोनों में कोई अंतर है तो, उन परिसपंत्तियों की प्रकृति का ही अंतर है, जो सरकार निजी हाथों में सोंप रही होगी। वर्ना वित्त जुटाने के ये दोनों तरीके बिल्कुल एक जैसे ही हैं यानी राजकोषीय घाटे के जरिए वित्त जुटाया जाए या ‘मुद्रीकरण’ के जरिए, एक ही बात है। बहरहाल, इसके बावजूद वित्त जुटाने के इन दोनों तरीकों से बाद में जो कुछ होता है, वह दोनों मामलों में एक जैसा नहीं है। निजी क्षेत्र के सार्वजनिक परिसंपत्तियों को परिचालित करने के वृहदार्थिक नतीजे, राजकोषीय घाटे के नतीजों के मुकाबले कहीं बुरे होते हैं। इसकी वजह यह है कि निजी क्षेत्र जब ऐसी परिसंपत्तियों को पट्टे पर लेता है, तो उनसे मुनाफा कमाने के लिए ही इन परिसंपत्तियों को पट्टे पर लेता है। इसके लिए वह इन परिसंपत्तियों से मुहैया करायी जाने वाली सेवाओं उपयोक्ता शुल्क बढ़ाएगा, इन परिसंपत्तियों के संचालन पर आने वाले मजदूरी व्यय को कम करेगा, आदि।
इन कदमों का मतलब व्यावहारिक मायनों में अर्थव्यवस्था में औसत मुनाफा बढ़ना होगा यानी मजदूरी के हिस्से में से कटौती कर के, मुनाफों के हिस्से को बढ़ाया जा रहा होगा। अब चूंकि मजदूरी कमाने वालों के मामले में कुल आय में से उपभोग का अनुपात, मुनाफा कमाने वालों की कुल आय में से उपभोग के अनुपात से कहीं ज्यादा होता है, इसका अर्थ यह है कि समग्र निवेश के किसी खास स्तर पर, उपभोग का स्तर नीचे खिसक जाएगा और इसलिए सकल मांग का स्तर भी घट जाएगा। इसलिए, सरकारी खर्च के लिए वित्त जुटाने का यह तरीका, इसके लिए राजकोषीय घाटे का या मुनाफे पर कर लगाने या संपदा कर लगाने का रास्ता अपनाए जाने की तुलना में, कहीं कम आर्थिक विस्तारकारी होता है।
ऐसी अर्थव्यवस्था में, जिसमें उत्पादन क्षमता का खासा बड़ा हिस्सा खाली पड़ा हो और काफी बेरोजगारी हो, वित्त जुटाने का मुद्रीकरण का तरीका, निश्चित रूप से अन्य तरीकों के मुकाबले कमतर साबित होता है। यह इसके ऊपर से है कि इससे जो प्रतिगामी आय वितरण होता, वह अपने आप में भी निंदनीय है। इन सब प्रभावों के अलावा यह शासन की नीतिगत मुद्रा में एक ऐसे बदलाव का भी द्योतक है, जो महज आर्थिक क्षेत्र से आगे तक, एक बुनियादी अर्थ में जनतंत्रविरोधी बदलाव है। किसी भी आधुनिक समाज में, सरकार द्वारा अपने नागरिकों को अनेक माल व सेवाएं, कमोबेश मुफ्त और नागरिकों के रूप में उनके अधिकार के तौर पर मुहैया करायी जाती हैं। अनेक सार्वजनिक परिसंपत्तियां, ऐसे मालों तथा सेवाओं का उत्पादन करती हैं।
ऐसी परिसंपत्तियों द्वारा पैदा किए जाने वाले माल व सेवाओं का प्रयोग, नागरिकों की हैसियत से जनता द्वारा किया जाता है। बहुत समय से अर्थशास्त्रियों के बीच इसी विचार का बोलबाला रहा है कि इन मालों व सेवाओं को, जहां तक हो सके, नागरिकों को मुफ्त ही मुहैया कराया जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर किसी पार्क में सरकार अगर बैठने की बेंच बनवाती है, तो यह अपेक्षा की जाती है कि इसका उपयोग कोई भी कर सकेगा, बिना किसी भुगतान के। इसी प्रकार, रेलवे प्लेटफार्म सभी के उपयोग के लिए होता है, जिसके लिए ज्यादा से ज्यादा नाममात्र की रकम देनी होती है, प्लेटफार्म टिकट के रूप में। इसी प्रकार, सार्वजनिक संग्रहालय सभी के उपयोग के लिए होते हैं और उनमें सभी को मुफ्त या नाममात्र के भुगतान पर प्रवेश मिलता है। बेशक, हमारे देश में सरकारें कुछ समय से इस सिद्धांत के साथ समझौता करती आ रही थीं और ज्यादातर उपयोक्ता शुल्कों को बढ़ाती आ रही थीं। इसके बावजूद, अब तक इस सिद्धांत को कमोबेश मानकर चला जाता रहा था कि इस तरह के शुल्क नाम मात्र को ही लगाए जाने चाहिए। ऐसी सार्वजनिक परिसंपत्तियों द्वारा पैदा की जाने वाली सेवाओं तथा मालों के प्रयोग लिए फीस नहीं लिया जाना या नाम मात्र की फीस लिया जाना, इसी तथ्य को प्रतिबिंबित करता है कि उनके उपयोक्ता सब बराबर हैं और इसलिए, नागरिकों की हैसियत से इन परिसंपत्तियों के बराबर के स्वामी हैं और उनकी ओर से ही सरकार, नाम के लिए इन परिसंपत्तियों का स्वामित्व संभालती है।
इस तरह, बड़ी मात्रा में सार्वजनिक परिसंपत्तियां, सार्वजनिक दायरे में आती हैं, अधिकारों के दायरे में आती हैं और इसलिए, वो होती ही इसलिए हैं कि सभी नागरिकों को बराबरी की हैसियत से इनका लाभ हासिल हो। इसके विपरीत, बाजार अंतर्निहित रूप से असमानतापूर्ण होता है, जिसमें किसी व्यक्ति का महत्व उसकी क्रय शक्ति के आकार से तय होता है। इसलिए, सरकार द्वारा संचालित परिसंपत्तियों को किसी निजी ऑपरेटर द्वारा संचालित परिसंपत्ति में तब्दील किये जाने का निहितार्थ यह है कि इन परिसंपत्तियों द्वारा उत्पादित मालों को सार्वजनिक दायरे से हटाया जा रहा है, जहां नागरिक होने की हैसियत से हरेक व्यक्ति समान रूप से इनका लाभ ले सकता था और उन्हें ऐसे माल में तब्दील किया जा रहा है जहां कुछ लोग ही (जिनके पास इसके लिए पर्याप्त क्रय शक्ति होगी) इनका उपयोग कर सकेंगे।
यह इन्हें सार्वजनिक वस्तुओं के क्षेत्र से निकालकर, मालों के क्षेत्र में या नागरिकों के अधिकारों के क्षेत्र से निकालकर, क्रय शक्ति के क्षेत्र में पहुंचाया जाना है। यह जनतंत्र का सिकोड़ा जाना है, लोगों की विशाल संख्या को उन सार्वजनिक मालों के दायरे से बाहर करना है, जिनका वे अधिकारों के तौर पर उपयोग करते आए थे। इस तरह का मुद्रीकरण, प्रतिगामी आय वितरण पैदा करता है, यह एक जाना-माना तथ्य है और इसका हम पहले जिक्र कर आए हैं। लेकिन, आय के ऐसे प्रतिगामी वितरण के साथ ही साथ यह, नागरिकों के अधिकारों को सिकोड़ने का भी काम करता है।
मिसाल के तौर पर इसके चलते नागरिक उन सड़कों का उपयोग नहीं कर सकेंगे जिनका इससे पहले तक बेरोकटोक उपयोग करते आ रहे थे या रेलवे प्लेटफार्म पर नहीं जा सकेंगे, जहां पहले बेरोक-टोक जा सकते थे। चीजों को माल में तब्दील करने का ऐसा हरेक कदम, लोगों को इस तरह बाहर धकेले जाने का, नागरिकता के दायरे के इस तरह से सिकोड़े जाने का कदम है। इस तरह मौजूदा सरकार, हर चीज को माल में तब्दील करने की ऐसी मुहिम में जुट गयी है, जो नागरिकों के समान जनतांत्रिक अधिकारों की जगह पर, आर्थिक रंगभेद को कायम करने जा रही है।
लेख में निहित विचार निजी हैं
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