समान नागरिक संहिता पर मुस्लिम महिलाओं की दुविधा
आश्चर्यजनक रूप से समान नागरिक संहिता पर सार्वजनिक बहस वापस लौट आई है, क्योंकि दशकों से यह मुद्दा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एजेंडे में रहा है। और इसने मुस्लिम समुदायों के एक बड़े वर्ग जो महिलाओं के साथ दशकों से काम कर रहे है उन सभी समूहों को एक एक दुविधा में डाल दिया है। मांग यह है कि हम यूसीसी का समर्थन 'हां' या 'न' में करें, जबकि हम नहीं जानते कि यूसीसी का मतलब क्या है। इसलिए, जैसा कि यह लेखक इस प्रश्न का जवाब देने का प्रयास कर रही है, जो एक बहुत जरूरी अभ्यास है, आइए हम परिवारों और अंतरंगता से संबंधित कानूनों पर अपनी स्थिति को सामने रखकर शुरुआत इसकी करें।
हमने अपने परिवारों से संबंधित लैंगिक न्याय कानूनों के बारे में लंबे समय से संघर्ष किया है और लगातार इसकी मांग की है। परिवार विभिन्न प्रकार के होते हैं और उन सभी को कानून के दायरे में शामिल किया जाना चाहिए। परिवार की पितृसत्तात्मक, पितृसत्तात्मक अवधारणा पर आधारित एक कानून सभी पर लागू नहीं हो सकता है। ज़िंदा वास्तविकताओं की विविधता को बनाए रखा जाना चाहिए, इसलिए एकरूपता न्याय का कोई पैमाना नहीं है। आज हमारी स्थिति ऐसे कानूनों की मांग करने की है जो हमारी वर्तमान वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करें और संवैधानिक ढांचे के भीतर सभी नागरिकों को अधिकार और न्याय प्रदान करें।
अब मुस्लिम महिलाओं की दुविधा पर आते हैं। यूसीसी के लिए 'हां' का मतलब सत्तारूढ़ दल पर भरोसा करना है, जिसने इस देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को लगातार नष्ट किया है और लैंगिक न्याय और सभी पारिवारिक कानूनों में सुधार पर उसका ट्रैक रिकॉर्ड खराब रहा है। लेकिन यूसीसी के लिए 'न' का मतलब सभी प्रकार के धार्मिक समुदायों के प्रमुखों से सहमत होना है - विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं के लिए; इसका मतलब मुस्लिम समुदाय के नेताओं से सहमत होना है - जो व्यक्तिगत कानूनों में कभी कोई सुधार नहीं चाहते हैं।
हमें यह समझने की जरूरत है कि ये दोनों ही 'विकल्प' उचित क्यों नहीं हैं, और इसके कारण निम्न हैं:
सत्तारूढ़ दल और उसके नियंत्रण वाले राज्य
विशेष रूप से पिछले नौ वर्षों में, हमने देखा है कि भाजपा और उसकी सरकार क्या कर रही है। क्या मुस्लिम महिलाएं उस सरकार से न्याय की उम्मीद कर सकती हैं जिसके लोगों ने गिरी हुई बाबरी मस्जिद की ईंटें इकट्ठी कीं और उसके स्थान पर मंदिर बनाने के लिए दशकों तक धन इकट्ठा किया? क्या हम ऐसी सरकार पर भरोसा कर सकते हैं जिसने नफरत फैलाने वाले भाषण को बढ़ावा दिया है और जब सरकार समर्थक तत्वों ने हमारे घरों, समुदायों और लोगों को निशाना बनाया और हमला किया तो उन्होंने आंखें मूंद लीं? और, हमारे नाम पर किए गए सभी किस्म के ध्रुवीकरण के बाद, मुस्लिम महिलाओं को क्या हासिल हुआ? उनके पास न तो पैसा है, न शिक्षा और न ही कोई सामाजिक सुरक्षा। हमें अपने नाम पर केवल प्रधानमंत्री से भाषण ही मिले हैं!
भाजपा ने नौ साल तक मुस्लिम महिलाओं के लिए बड़ी मुखरता से चिंता व्यक्त की है, लेकिन हमने इससे कौन से अधिकार जीते हैं? हमारे लिए कितना बजट आवंटित किया गया है, हमारी स्थिति को ध्यान में रखते हुए क्या नीतियां बनाई गई हैं और मुस्लिम महिलाओं के लिए क्या योजनाएं शुरू की गई हैं? मैं यह इसलिए पूछ रही हूं क्योंकि मुस्लिम महिलाएं कई सामाजिक-आर्थिक मोर्चों पर भारत की आबादी में सबसे अधिक हाशिए पर हैं। हमें उनकी तरफ से कोई सक्रिय कार्रवाई नहीं दिख रही है.'
हम जो देख रहे हैं वह मुस्लिम महिला होने के नाते हम पर एक विशेष हमला है। वास्तव में, सरकार ने मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय फ़ेलोशिप योजना को रद्द कर दिया और स्कूल यूनिफॉर्म के नाम पर अनावश्यक उपद्रव पैदा किया, जिससे मुस्लिम महिलाओं के लिए शिक्षा तक पहुंच और अधिक कठिन हो गई है। इसने पूरे देश में शाहीन बाग आंदोलन पर हमला किया - एक आंदोलन जिसका नेतृत्व मुस्लिम महिलाओं ने किया था, जिसने संवैधानिक ढांचे के भीतर नागरिकता के अधिकार की मांग की गई थी। क्या यह सिर्फ मुस्लिम महिलाओं के नाम पर किया जाने वाला प्रचार है?
लैंगिक न्याय का ट्रैक रिकॉर्ड
सरकार और प्रधानमंत्री मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बात करते हैं, लेकिन लैंगिक न्याय पर उनका ट्रैक रिकॉर्ड क्या है?
सोशल मीडिया पर अपनी बात रखने वाली युवा मुस्लिम लड़कियों को 'सुल्ली-बुल्ली' ऐप्स पर नीलाम कर दिया जाता है, हाथरस बलात्कार पीड़िता को उचित दाह संस्कार से भी वंचित कर दिया गया, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त महिला पहलवानों को उनके उत्पीड़क के खिलाफ कार्रवाई की वैध मांग उठाने के लिए बदनाम किया गया, कुकी महिलाएं लगभग तीन महीने से इंतजार कर रही हैं कि आप मणिपुर में हिंसा में हस्तक्षेप करें और लोगों की जान और संपत्ति बचाएं। आपकी सरकार की प्रतिक्रिया बार-बार निष्क्रियता और उल्लंघनकर्ताओं और उत्पीड़कों का पक्ष लेने की रही है।
हम उस सरकार से किस तरह के लैंगिक न्याय की उम्मीद कर सकते हैं जो झूठी कहानियों का प्रचार करके अंतर-धार्मिक विवाहों पर हमला कर रही है और समलैंगिक और ट्रांस लोगों का विरोध कर रही है क्योंकि वे परिवार बनाने का अधिकार मांग रहे हैं?
आपने दावा किया कि हम जैसी मुस्लिम महिलाओं द्वारा सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई जीतने के बाद आपने महिलाओं को तत्काल तीन तलाक के अन्याय से मुक्ति दिलाई। आपने प्रत्यक्ष रूप से एक बार में तीन तलाक को अपराध घोषित करके हमारा समर्थन किया, जिसमें एकतरफा तलाक को पहले ही अवैध करार दिए जाने के बाद महिलाओं के पतियों को जेल भेज दिया जाता था। हम अभी भी यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि इस तरह के कदम से गलत तलाक से लड़ने वाली महिलाओं को कैसे मदद मिलेगी।
ऐसा लगता है कि लैंगिक न्याय के बारे में आपकी समझ केवल अधिक मुस्लिम पुरुषों को गिरफ्तार करने के तरीके ढूंढ रही है। जॉर्ज बुश की तरह, जिन्होंने लोकतंत्र के नाम पर इराक पर हमला किया था जब वह वास्तव में पश्चिम एशियाई तेल के पीछे पड़े थे, भाजपा का कहना है कि यह मुस्लिम महिलाओं के लिए है जबकि वह समुदाय को पीड़ित करना चाहती है।
हम किसी भी तरह से इस सरकार पर भरोसा नहीं कर सकते या कभी नहीं मान सकते कि वह किसी की भलाई के लिए यूसीसी चाहती है। क्योंकि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की उस रूढ़िवादी राजनीति से आता है, जिसने हिंदू महिलाओं के तलाक और संपत्ति के उत्तराधिकार के अधिकार के खिलाफ पूरी ताकत से लड़ाई लड़ी है। वास्तव में, सभी न्याय चाहने वाले लोगों को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि समान नागरिक संहिता के नाम पर यह व्यवस्था क्या लाएगी।
पिछले नौ सालों से, भारतीय हुकूमत ने अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के नागरिकों के प्रति अपना सबसे खराब रिकॉर्ड प्रदर्शित किया है। केवल वही सरकार जो नागरिकों के प्रति बहुसंख्यकवादी गैर-संवैधानिक दृष्टिकोण में विश्वास करती है, कैसे इस माहौल में यूसीसी लागू करने की बात कर सकती है। और इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि ऐसी कोई संहिता कभी लाई जाती है, तो यह कई समुदायों की संरक्षित प्रथाओं के खिलाफ होगा, हमारे देश की विविध और जो बहुलवादी वास्तविकताओं को नष्ट कर देगी।
इस मानसिकता वाली सरकार द्वारा कल्पना की गई यूसीसी को 'हां' कहने का कोई तरीका नहीं है!
वास्तविक विकल्प मौजूद हैं
तो फिर, क्या इस पर 'न' है? यह कहानी इतनी सरल नहीं है क्योंकि यह समझ भी हमें हमारे समुदायों के धार्मिक प्रमुखों और अन्य लोगों के साथ खड़ा करती है जो सभी प्रकार के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं लेकिन कभी भी मुस्लिम महिलाओं की मांगों पर ध्यान नहीं देते हैं।
हमने मुस्लिम धार्मिक दृष्टिकोण को देखा है और सीखा है कि, दुर्भाग्य से, हमारे तकलीफ़ों को सुनने के लिए उनके पास भी कान नहीं हैं।
1985 में शाह बानो मामले के बाद, उलेमाओं ने इस्लाम खतरे में है के बारे में शोर मचा दिया था और एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को अदालत द्वारा आदेश में न्यूनतम गुजारा भत्ता का विरोध किया और लाखों लोगों को सड़कों पर ला दिया था। उस फैसले को पलटने से उलेमाओं का प्रभाव बढ़ गया। महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले मुस्लिम रूढ़िवादी लोगों को केवल इसलिए अपने पक्ष में कर सके क्योंकि ऐसा लगता था कि उन्हें धार्मिक सत्ता का समर्थन हासिल है।
हमारे व्यक्तिगत कानूनों का बोझ उठाने पर मजबूर मुस्लिम महिलाओं के प्रतिनिधियों के रूप में, हमने सबसे पहले ऑल-इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) जैसे धार्मिक संगठनों के हस्तक्षेप की मांग की थी, जिसे सभी सरकारें व्यक्तिगत कानूनों से संबंधित मामलों में विचार वाली संस्था मानती हैं और मुस्लिम समुदायों की प्रतिनिधि है। हमने इस निकाय को नियमित रूप से लिखा, लेकिन इसने हमें केवल एक बार 2001 में जवाब देने की कोशिश की, जब यह दो दिवसीय बैठक करने पर सहमत हुई थी। वह चर्चा हमारे संघर्ष में एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गई, क्योंकि जब हमने उनसे हस्तक्षेप की मांग की, तो उसके सदस्यों ने हमें बताया कि वे एक वैधानिक निकाय नहीं हैं। उन्होंने कहा कि वे "हमारे जैसे" हैं - बस एक स्वैच्छिक संगठन! इसका मतलब यह था कि हम उनसे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं कर सकते थे।
फिर भी, हमने उनसे और मुस्लिम समुदाय की चिंताओं का प्रतिनिधित्व करने की भूमिका निभाने वाले अन्य लोगों से बातचीत जारी रखी। हालाँकि, उदाहरण के लिए, तत्काल तीन तलाक मुद्दे पर वे कभी भी हमें कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सके। तभी हमने उन्हें याद दिलाया कि खुदा तलाक की सराहना नहीं करते हैं।
लेकिन यह समुदाय के भीतर उनकी ताक़त के खिलाफ हमारी आवाज थी। इस ताक़त का इस्तेमाल करते हुए, उन्होने 2005 में, एक मॉडल निकाहनामा [विवाह का अनुबंध] तैयार किया, जो महिलाओं के लिए इतना अन्यायपूर्ण था कि हमें एक संवाददाता सम्मेलन में इसकी धज्जियां उडानी पड़ी। उनके मॉडल निकाहनामे में कहा गया है कि एक पत्नी की नाजायज़ हरकत - 'गलत कार्य' - तलाक का आधार है। लेकिन 'गलत कार्य' को कौन परिभाषित करेगा? उस पर उनका मॉडल चुप है।
लेकिन हम जानते थे – क्योंकि बड़ी संख्या में महिलाएं हमारे पास 'गलतियों' पर दिए गए तलाक के मामले में मदद मांगने आती थी, जैसे कि यौन संबंध बनाने या खाना पकाने से इनकार करना, या पति के आदेश की अवज्ञा करना। हम जानते थे कि महिलाओं को दिए जाने वाले तलाक के प्रमाण पत्र मूलतः "चरित्रहीन" होने के प्रमाण पत्र थे, जिसमें उन पर "कुछ गलत करने" का आरोप लगाया गया था।
समुदाय के भीतर बदलाव की अपारदर्शिता को देखते हुए, हमने अपनी रणनीति बदल दी। महिलाओं की समस्याओं को केवल धार्मिक संगठनों को बताने के बजाय, हमने अदालतों का दरवाजा खटखटाने का भी फैसला किया। लेकिन कई मुस्लिम महिलाएं लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने में असमर्थ थीं, और इसने हमें फिर से रणनीति बनाने पर मजबूर कर दिया। इसलिए, 2001 के बाद, हमने उन मुद्दों के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया जो केवल व्यक्तियों के लिए नहीं बल्कि सभी महिलाओं से संबंधित हैं। उदाहरण के लिए, हमने मुस्लिम पर्सनल लॉ में भेदभावपूर्ण प्रथाओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने के लिए अहमदाबाद स्थित आवाज़ के साथ काम किया। कोर्ट ने पहली ही सुनवाई में हमारी दलीलें खारिज कर दीं थीं।
फिर भी, हम कायम रहे, और इस तरह हमने अदालत में जाकर एकतरफा तीन तलाक की प्रथा की संवैधानिक समीक्षा की मांग की, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने हमारे पक्ष में सही फैसला सुनाया और इसे अवैध ठहराया।
पहचान और घेराबंदी
पिछले कुछ वर्षों में, चूंकि मुस्लिम पहचान और अस्तित्व हिंसक मुस्लिम विरोधी घटनाओं के कारण खतरे में है, इसलिए पूरे समुदाय के एक साथ खड़े होने की जरूरत बढ़ी है। 1990 के दशक के दंगों के बाद 2002 का नरसंहार आया, जिसने मुस्लिम महिलाओं को और भी अधिक पीछे धकेल दिया। हिंसक हमलों और गंभीर नुकसान के ऐसे समय में, ये धार्मिक संगठन समुदाय के साथ खड़े रहे, हुकूमत के साथ नहीं! और समुदाय के इन प्रवक्ताओं ने लोगों को सुधार की मांग करने से हतोत्साहित किया और महिलाओं से अपेक्षा की कि वे कभी भी अपने मुद्दों को सार्वजनिक रूप से उजागर न करें।
परिणामस्वरूप, इन निकायों ने अब हम मुस्लिम महिलाओं पर दोहरी ताक़त हासिल कर ली है। वे हमारे हितों को नुकसान पहुँचा सकते हैं, और इसके बावजूद, वे हम पर नैतिक दबाव डाल सकते हैं। आज स्थिति ऐसी है कि पर्सनल लॉ सुधार की बात करना भी मुस्लिम पहचान के लिए खतरा माना जाने लगा है। याद रखें कि एआईएमपीएलबी जैसे संगठन ही यूसीसी को 'न' कह रहे हैं। हम उनके साथ अपनी आवाज मिलाने में असमर्थ हैं क्योंकि हम निश्चित नहीं हैं कि वे मुस्लिम समुदायों पर हुकूमत के इस हमले के खिलाफ हैं या लैंगिक न्याय की मांग के खिलाफ हैं।
आज हमारा दृढ़ विश्वास है कि यदि धार्मिक संगठनों, सरकारों और कानून की अदालतों के माध्यम से आंतरिक सुधारों का हमारा प्रयास सफल होता, तो भाजपा की यूसीसी विफल हो जाती। यह तलवार जिसे भाजपा और संघ परिवार हमारे सिर पर लटकाते रहते हैं, व्यर्थ हो जाती, बशर्ते समुदाय ने अपने समुदाय के सदस्यों की आवाज़ पर ध्यान दिया होता। धार्मिक संगठन महिलाओं की चिंताओं को प्राथमिकता दे सकते थे, जिन्हें बार-बार उनके सामने लाया गया था। लेकिन वे नहीं माने, उन्होंने वह जगह खाली कर दी जिस पर हिंदुत्व सरकार ने कब्जा करना शुरू कर दिया था।
इसीलिए, पिछले चार दशकों में, हमने सीखा है कि हमारे मौजूदा कानूनों में निहित पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचनाओं द्वारा हाशिए पर रखी गई महिलाओं और अन्य लोगों के लिए कभी भी सही समय नहीं आएगा। हम इस मामले में काफी समझदार हैं कि हम कभी भी किसी भी सरकार की पहली प्राथमिकता नहीं रहे। और हम यह भी जानते हैं कि धार्मिक कट्टरपंथी और रूढ़िवादी जो हमारी मदद करने का दावा करते हैं, उन्हें कभी भी हमारे लिए सही समय नहीं मिला।
इसीलिए हमने अपनी मांगों को व्यापक बनाने और हमारे जैसे सोचने वाले अन्य लोगों के साथ जुड़ने के लिए कड़ी मेहनत की है। हम सभी समुदायों और सभी लोगों के लिए लिंग-न्यायपूर्ण कानून की मांग करते हैं। मुस्लिम महिलाओं के रूप में, हम समान अधिकारों की मांग करने वाले कई अन्य लोगों के साथ अपनी आवाज मिलाना चाहते हैं। हम लोग आपस में खूब चर्चा करते रहे हैं। ऐसी कई और बातचीत की जरूरत है क्योंकि व्यवस्था को बदलने के लिए सिर्फ कानून बदलना कभी भी पर्याप्त नहीं होगा। लेकिन हमें उस बातचीत की अभी और तत्काल जरूरत है।
हम सभी, जो इस सरकार और संघ परिवार की खतरनाक बयानबाजी को देखते हैं, इन चर्चाओं के लिए स्व-नियुक्त व्यक्तियों और संगठनों (जो विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं) द्वारा गलत बयानी की भी आलोचना करते हैं। हमें अपनी प्रथाओं पर कायम रहना चाहिए और साथ ही उन्हें सभी के लिए उचित और समान बनाने के लिए उनकी व्याख्या करने के कई अन्य तरीकों पर भी गौर करना चाहिए।
हमें उम्मीद है कि 22वां विधि आयोग अपने द्वारा प्राप्त कई सुविचारित प्रस्तुतियों पर वास्तविक ध्यान दे रहा है और हमें विभाजित करने में लगे लोगों द्वारा प्रचारित अनावश्यक, निरर्थक और धोखेबाज जनमत संग्रह से प्रभावित नहीं होगा - उन विचारों का तो जिक्र ही नहीं किया जा रहा है जो पूर्ण अज्ञान से आते हैं!
विधि आयोग को 21वें विधि आयोग की 2018 की रिपोर्ट को आगे बढ़ाने के लिए हितधारकों के साथ एक मजबूत सार्वजनिक बातचीत शुरू करने की जरूरत है, जिसमें कहा गया है कि व्यक्तिगत कानूनों में सुधार की जरूरत है, लेकिन यूसीसी की जरूरत अभी नहीं है! हम आशा करते हैं कि व्यक्तिगत कानूनों के अन्याय से प्रभावित वास्तविक लोगों को उस चर्चा की तालिका में शीर्ष पर स्थान मिलेगा।
लेखिका बेबाक कलेक्टिव के साथ काम करती हैं। इस लेख को लिखने में चयनिका शाह का योगदान है। विचार निजी हैं।
अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।