दलितों के प्रति जातिवादी सोच में बदलाव की ज़रूरत
मेरे पड़ोस में रहने वाली पैंतीस वर्षीय गृहणी शीला वाल्मीकि अक्सर टीवी पर न्यूज़ सुनती हैं। उनसे जब हाथरस की पीड़िता और उसके परिवार के बारे में बात की जाती है तो वे भड़क उठती हैं- “इन दबंग जाति के लोगों ने हमारी बहन-बेटियों को समझ क्या रखा है। एक खिलौना बनाकर रख दिया है। क्या हमारी कोई इज्जत नहीं है? कोई मान-सम्मान नहीं है? क्या हम इंसान नहीं हैं? तुम हमारी बेटी की इज्जत तार-तार करो। उसके साथ दरिंदगी करो और दोषी भी उसी के परिवार को बता दो! खुद दूध के धुले बन जाओ!... ऐसे दुष्ट और धूर्त लोगों कड़ी से कड़ी सजा देनी चाहिए!!”
अक्सर देखा गया है खैरलांजी से लेकर हाथरस तक दलितों से किसी भी रंजिश का बदला लेने के लिए दबंग जाति के लोग इनकी महिलाओं के साथ बर्बर यौन हिंसा करते हैं। कभी-कभी तो ईर्ष्यावश वे ऐसी वारदातों को अंजाम देते हैं।
आल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच की अबिरामी कहती हैं कि 'हमें हमारा सविधान मानवीय गरिमा के साथ जीने का हक़ देता है। पर हकीकत यह है कि हमारे देश में प्रति दिन 6 दलित महिलाओं का रेप होता है।’
वे राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का हवाला देते हुए कहती हैं कि '2014 से 2018 के आंकड़े देखें तो उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा दलितों पर अत्याचार हुए हैं। उत्तर प्रदेश में बलात्कारों का सिलसिला लगातार जारी है। चाहे वह हाथरस हो, बलरामपुर हो, लखीमपुर खीरी हो या नोएडा। इसके लिए सबसे बड़ा दोषी प्रशासन है। ऐसे में हम उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बर्खास्तगी की मांग करते हैं।'
उन्होंने बाबा साहेब को उद्धरित करते हुए कहा कि 'हमारी लड़ाई धन या शक्ति के लिए नहीं है बल्कि यह लड़ाई मानवीय गरिमा के दावे की है।'
उच्च जाति के अधिकांश लोगों में दलित विरोधी और महिला विरोधी सोच की प्रधानता होती है। जब कई सेलिब्रिटी भी जब ये कहते हैं कि ऐसे कपड़ों में मैं भंगी लगूंगा या भंगिन लगूंगी तो इनकी सोच का स्तर पता लग जाता है।
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के भाजपा नेता रंजीत श्रीवास्तव का बयान और भी चौंकाने वाला है। हाथरस के मामले में वह कहते हैं – 'लड़की ने लड़के को बाजरे के खेत में बुलाया होगा क्योंकि प्रेम-प्रसंग था।...लड़के निर्दोष हैं। जेल में उनकी जवानी बर्बाद नहीं होनी चाहिए।'
यह सीधे-सीधे महिलाओं पर ख़ासकर दलित महिलाओं का चरित्र हनन है कि महिलाएं ऐसी ही होती हैं। पुरुषों को बाजरे के खेत में मिलने के लिए बुलाती हैं और खुद हादसे का शिकार हो जाती हैं। इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं। ऐसी ही घटिया मानसिकता एक भाजपा नेता ने भी दिखाई है। वह माता-पिता को उपदेश देते हैं कि मां-बाप को चाहिए कि वे लड़कियों को संस्कारी बनाएं।
'जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।' दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों का हवाला देते हुआ हाथरस प्रकरण और बलरामपुर की घटनाओं पर एक साहित्यिक मित्र कहते हैं कि वहशी दरिंदों ने पहले हमारी बेटियों की यौन हिंसा कर बर्बरतापूर्वक जान ले ली। अब दबंग महापंचायत कर उनके मां-बाप-भाई को ही उसकी हत्या का दोषी बता रहे हैं। इसे ऑनर किलिंग का मामला बता रहे हैं। हाथरस पीड़िता के आरोपी जेल से चिट्ठी लिखकर स्वयं को निर्दोष बता रहे हैं।
पीड़िता का ही चरित्र हनन कर रहे हैं। वर्चस्वशाली दबंग जातियां कुछ भी कर सकती हैं। मीडिया भी उन्हीं का है। किसी शायर ने ठीक कहा है कि –
लश्कर भी तुम्हारा है सरदार तुम्हारा है
तुम झूठ को सच लिख दो अखबार तुम्हारा है
इस दौर के फरियादी जाएं तो कहाँ जाएं
कानून तुम्हारा है दरबार तुम्हारा है
हाथरस में जिस तरह आरोपियों को बचाने का प्रयास चल रहा है उसे देखते हुए मुझे भी मरहूम शायर राहत इन्दौरी साहब की पंक्तियाँ याद आती हैं-
'अब कहां ढूंढ़ने जाओगे हमारे कातिल, तुम तो कत्ल का इल्ज़ाम हमीं पर रख दो।'
चैनल न्यूज़ 24 के संदीप चौधरी योगी सरकार पर उचित टिपण्णी करते हुए कहते हैं–“ रेप को फर्जी बताएं आप, बिटिया का सही से इलाज न कराएं आप, परिवार को लाश तक न देखने दें आप, बिटिया की लाश जबरन जलाएं आप, विपक्ष पर लाठी चलवायें आप, परिवार नजरबंद करें आप, और जब आम नागरिकों का गुस्सा भड़क जाए तो उसे इंटरनेशनल साज़िश बता के मुद्दा ही गायब कर दें आप।” इसलिए लोग योगी के अविलम्ब बर्खास्तगी की मांग कर रहे हैं।
शहर में जिन लोगों को जातिवाद और जातिगत भेदभाव व अत्याचार नजर नहीं आता वे गांव में जाकर देखें। हाथरस के बूलगढ़ी गांव के राजपूत लोग कहते हैं हम तो इन वाल्मीकियों के हाथ का छुआ पानी तक नहीं पीते। हाथरस के निकट चंदपा का दुकानदार कहता है कि अगर ये दलित बिस्कुट का पैकेट भी अपने हाथ से छू दें तो फिर इन्हें लेना ही पड़ता है। क्योंकि इनके हाथ का छुआ बिस्कुट हम अपनी दुकान में नहीं रख सकते।
अगर उच्च जाति का कोई व्यक्ति इंसानियत के नाते अपने सम-जाति के किसी व्यक्ति से किसी दलित से इज्जत से पेश आने को कहे तो जातिवादी व पारंपरिक सोच वाले व्यक्ति से उन्हें सुनने को मिलता है- 'भाई साहब आप इन नीच लोगों का स्वभाव नहीं जानते। पाँव की जूती पाँव में ही अच्छी लगती है। इन्हें जरा भी इज्जत दे दी तो ये हमारे सिर पर बैठ जाएंगे। इन्हें इनकी औकात में रखो।'
बहुत गांवों में आज भी उच्च जाति के लोग जब दलित जाति के लोगों के पास से गुजरते हैं तो अपनी चारपाई पर बैठे लोगों को उठना पड़ता है। दलित जाति के बड़े बुजुर्ग लोगों को भी उच्च जाति के कम उम्र के लोगों को अभिवादन करना पड़ता है।
कई उच्च जाति के लोग तो दलितों के खिलाफ षड्यंत्र करते नजर आते हैं – 'आजकल ये भंगी-चमार पढ़-लिख कर अच्छी नौकरियां करने लगे हैं। हमारी सेवा-सफाई नहीं करते। इन्हें शिक्षा से वंचित रखो और इन्हें नशे की लत लगवाओ। नहीं तो ये हमारी बंधुआ मजदूरी नहीं करेंगे।' कहना न होगा कि ऐसे ही लोग खैरलांजी, गोहाना, मिर्चपुर जैसे कांडों के जन्मदाता होते हैं।
हाथरस कांड में भी एक ठाकुर युवक पीड़िता के घर के बाहर बैठ कर उस के भाई को क्रोधित होकर चुनौती दे रहा है कि ‘इसे कानून, सीबीआई पर भरोसा नहीं है। आ तू घर से बाहर आ हम तुझे भरोसा दिलवाएँगे।' जाहिर है कि राजपूतों में जो गुस्सा है वह पुलिस संरक्षण हटते ही फूट पड़ सकता है जिससे पीडिता के परिवार की जान को भी ख़तरा है। क्योंकि यहाँ दबंग जातियो का राज चलता है। प्रशासन से इन्हें संरक्षण प्राप्त है।
दबंग जातियों के वर्चस्व वाले गांव में दलितों के बच्चे इसलिए भी अधिक पढ़ लिख नहीं पाते क्योंकि उनके साथ जातिगत भेदभाव किया जाता है। अक्सर देखने को मिलता है कि स्कूल की सफाई वाल्मीकि जाति के लड़के-लड़कियों से कराई जाती है। उनसे कहा जाता है कि ये तो तुम्हारा पुश्तैनी काम है। साथ ही स्कूल शिक्षक और स्कूल एडमिन गाली-गलौज के साथ बात करते हैं। यहाँ ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन के दृश्य आज भी साकार होते दिखते हैं।
ठाकुर जाति का युवक जिस तरह से पीडिता के भाई को उसके घर के सामने ही ललकार रहा है। ऐसी सोच के लोग दलित महिलाओं से बलात्कार के जिम्मेदार होते हैं। अपनी कोई रंजिश निकालने के लिए दलित महिलाओं को गांव में नग्न घुमाते हैं। डायन बताकर उनकी बेरहमी से हत्या करवाते हैं। दलितों को पेशाब पीने तक को मजबूर करते हैं। उनकी बुरी तरह पिटाई कर प्रताड़ित करते हैं। गुजरात के ऊना कांड को आप भूले नहीं होंगे।
आज के समय में सवर्णों को अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है। पर दुखद है कि सवर्णों की शिक्षित पीढी भी परम्परावादी विचारधारा और दलितों के प्रति नफरत का भाव रखती है। इसका एक नमूना हाल ही में फेसबुक पर दिखा।
एक सवर्ण युवती का पोस्ट चौंकाने वाला है। अब ये फेक एकाउंट है या असली कहना मुश्किल है, लेकिन कोई न कोई तो है जिसकी सोच कहती है कि 'जिस तरह चाइनीज एप्प को हम लोगों ने मिलकर पूरी तरह से खत्म कर दिया। उसी तरह भंगी और चमारों का बहिष्कार शुरू किया जाए...।'
इसी प्रकार इन कथित उच्च जाति के युवाओं में आरक्षण को लेकर बहुत बड़ा भ्रम होता है। उन्हें लगता है कि आरक्षण की वजह से हमें सरकारी नौकरियां नहीं मिल रही हैं। जबकि सच्चाई इसके विपरीत होती है। अघोषित आरक्षण के तहत सत्तर-अस्सी प्रतिशत सरकारी नौकरियों में उच्च जातियों का ही कब्ज़ा रहता है। आरक्षण की वजह से जो थोड़ी-सी नौकरियां दलितों को मिल जाती हैं। वो भी इन्हें सहन नहीं होतीं।
निष्कर्ष में कहें तो दलितों के मान-सम्मान को, उनके आत्म-सम्मान को जिस तरह उच्च जाति के दबंग कुचलते हैं वह नाकाबिले-बर्दाश्त है। आज हमारी लड़ाई अपने आत्म-सम्मान, स्वाभिमान और मानवीय गरिमा के लिए है। मानव अधिकारों के लिए है।
इसके लिए दलित समुदाय को, उनके मानव अधिकार संगठनों को एकजुट होने की आवश्यकता है। गैर दलित, प्रगतिशील, जनपक्ष को मजबूत करने वाले संगठनों को उनका साथ देने की जरूरत है। साथ ही आज के सन्दर्भ में गैर दलितों को दलितों के प्रति जातिवादी पारंपरिक सोच को बदलने की भी जरूरत है।
लेखक सफाई कर्मचारी आन्दोलन से जुड़े हैं। विचार निजी हैं।
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