ओपेक: सऊदी अरब अब अमेरिका से नहीं डरता
आश्चर्यजनक बात है कि ओपेक+ देशों ने तेल उत्पादन में कटौती करके तथा अपने उत्पादन स्तरों में मिलान करके सऊदी-रूसी ऊर्जा गठबंधन मजबूत कर दिया है और उन्हें समान स्तर पर ले आए हैं। यह अमेरिका के मुंह पर एक तमाचा है।
रविवार को ओपेक+ देशों द्वारा मई से तेल उत्पादन में अचानक कटौती का ज़ाहिर तौर पर मतलब यही है कि आठ प्रमुख ओपेक देशों ने तेल उत्पादन को कम करके रूस के साथ हाथ मिलाने का फैसला किया, इस बात की तरफ इशारा करते हुए कि ओपेक और ओपेक+ देश अब तेल बाजार को अपने नियंत्रण में ले रहे हैं।
कोई भी तेल उत्पादक देश यहां चालाक बनने की कोशिश नहीं कर रहा है। इस पूरे मसले की सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि सऊदी अरब और सात अन्य प्रमुख ओपेक देशों ने अप्रत्याशित रूप से रूस का समर्थन करते हुए उत्पादन को एकतरफा कम करने का फैसला किया है।
जबकि आठ ओपेक देश मई से वर्ष के अंत तक तेल उत्पादन में 10 लाख बी/डी तक की कमी लाने के बारे में बात कर रहे हैं, रूस इसी दौरान अपने स्वैच्छिक समायोजन का विस्तार करेगा जो मार्च में पहले ही 500,000 बैरल के कम उत्पादन से शुरू हो गया था।
अब, इसमें ओपेक+ देशों द्वारा पहले से किए गए उत्पादन के समायोजन को जोड़ें, तो इसने कुल अतिरिक्त स्वैच्छिक उत्पादन समायोजन का 16 लाख बी/डी पहले ही छू लिया है।
आखिर इसका क्या कारण है? बुनियादी तौर पर, जैसा कि कई विश्लेषकों ने पहले ही आगाह कर दिया था, रूसी तेल के खिलाफ लगाए गए पश्चिमी प्रतिबंधों ने तेल बाजार में विकृतियां और विसंगतियां पैदा कीं हैं और आपूर्ति और मांग के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को खराब कर दिया है, जो स्थिति अमेरिका की ट्रेजरी के इशारे पर जी-7 के देशों ने अविश्वसनीय रूप से जोखिम भरे निर्णय से और जटिल हो गई थी, जिसके तहत विदेशों में रूस की तेल बिक्री पर मूल्य सीमा लगा दी गई थी।
इसके ऊपर, बाइडेन प्रशासन द्वारा तेल की कीमतों को माइक्रोमैनेज करने से और उन्हें अमेरिकी उपभोक्ता के हितों में असामान्य रूप से कम रखने के प्रयासों के साथ-साथ मुद्रास्फीति के दबावों को नियंत्रण में लाने के प्रयासों के कारण अमेरिकी रणनीतिक पेट्रोलियम रिजर्व से नियमित रूप से तेल जारी करने की थी, इससे उन तेल उत्पादक देशों को भारी नुकसान हुआ जिनकी अर्थव्यवस्था गंभीर रूप से तेल निर्यात से होने वाली आय पर निर्भर करती है।
ओपेक+ देशों के उत्पादन में कटौती को "तेल बाजार को स्थिर बनाने का समर्थन करने के उद्देश्य से उठाया गया एक एहतियाती उपाय" बताया गया है। ओपेक+ देशों के निर्णय से पड़ने वाले असर के बारे में विश्लेषकों को उम्मीद है कि अल्पावधि में तेल की कीमतों में वृद्धि होगी और मुद्रास्फीति में संभावित वृद्धि के कारण पश्चिमी केंद्रीय बैंकों पर दबाव बढ़ेगा।
ओपेक+ देशों के निर्णय से जो मुख्य बात उभर कर सामने आती है वह यह है कि वर्ष के अंत तक तेल उत्पादन को कम करने के रूस के निर्णय को मुख्य अरब उत्पादकों द्वारा सर्वसम्मति से समर्थन दिया गया है। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, इराक, अल्जीरिया, ओमान और कजाकिस्तान द्वारा स्वतंत्र लेकिन समय-समन्वित बयान दिए गए हैं, जबकि रूस ने वर्ष के अंत तक अपने खुद के उत्पादन में 500,000 बैरल प्रति दिन की कमी करके अपनी मंशा की पुष्टि की है, जो मार्च महीने में शुरू हुई थी।
गौरतलब है कि ये बयान सटीक रूप से ओपेक के उन सबसे बड़े तेल उत्पादकों देशों द्वारा दिए गए हैं, जिनका अपने मौजूदा कोटा का पूरी तरह से इस्तेमाल करने का रिकॉर्ड रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो उत्पादन में कमी केवल कागजों पर नहीं, बल्कि वास्तविक होने जा रही है।
आंशिक रूप से ही सही, अमेरिका और यूरोप में बैंकिंग संकट ने ओपेक+ देशों को हस्तक्षेप करने पर मजबूर किया है। हालांकि वाशिंगटन इसके महत्व को कम करके आंकेगा, हक़ीक़त यह है मार्च में, ब्रेंट ऑयल की कीमतें 2021 के बाद पहली बार 70 डॉलर प्रति बैरल तक गिर गईं थी, जिससे अमेरिका में कई बैंकों के दिवालिया होने और स्विट्जरलैंड के सबसे बड़े बैंकों में से एक क्रेडिट सुइस मृत्युशय्या पर पहुंचने की स्थिति आ गई थी। घटनाओं ने पश्चिमी बैंकिंग प्रणाली की स्थिरता और मंदी के डर के बारे में चिंता जताई है जो तेल की मांग को प्रभावित करेगी।
इस बात की पूरी संभावना है कि अमेरिका और सऊदी अरब के बीच तनाव बढ़ सकता है क्योंकि तेल की ऊंची कीमतें मुद्रास्फीति को बढ़ावा देंगी और अमेरिकी फेडरल रिजर्व के लिए प्रमुख दर बढ़ाने और वित्तीय और आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के बीच संतुलन बनाना और भी मुश्किल हो जाएगा।
समान रूप से, बाइडेन प्रशासन इस बात से जरूर नाराज़ होगा कि रूस और ओपेक देशों, विशेष रूप से सऊदी अरब के बीच व्यावहारिक सहयोग अभी भी जारी है, रूसी तेल पर पश्चिम की मूल्य सीमा और मास्को का मार्च में उत्पादन में एकतरफा कटौती के फैसले के बावजूद सऊदी रूस के साथ खड़ा है।
हालांकि, ओपेक+ देशों के आश्चर्यजनक कदम का जवाब देने के लिए बाइडेन प्रशासन के पास विकल्पों की एक सीमित सीमा है: पहला, सामरिक पेट्रोलियम रिजर्व से और तेल जारी करे; दूसरा, घरेलू तेल उत्पादन बढ़ाने के लिए अमेरिकी उत्पादकों पर दबाव डाले; तीसरा, उस कानून को आगे बढ़ाए जो अमेरिका को ओपेक राष्ट्रों पर मुकदमा करने का नाटकीय कदम उठाने की अनुमति देता है; या, चौथा, अमेरिका के गैसोलीन और डीजल के निर्यात पर अंकुश लगाएं।
यह तय है कि ओपेक+ देशों की उत्पादन में कटौती तेल उत्पादन बढ़ाने की पश्चिमी मांग के खिलाफ जाती है, भले ही रूसी तेल और गैस निर्यात के खिलाफ प्रतिबंध लगाए गए हों। दूसरी ओर, रूस से तेल की आपूर्ति में व्यवधान ने यूरोपीयन यूनियन देशों में बढ़ती मुद्रास्फीति में योगदान दिया है।
अमेरिका चाहता था कि खाड़ी के अरब देश तेल उत्पादन बढ़ाएं। लेकिन खाड़ी देशों ने इसे नहीं माना क्योंकि उन्हें लगा कि पश्चिम में पर्याप्त आर्थिक गतिविधि नहीं है और उम्मीद के विपरीत मंदी के स्पष्ट संकेत मिल रहे थे।
इस प्रकार, रूस के खिलाफ प्रतिबंधों के परिणामस्वरूप, यूरोप मुद्रास्फीति की जटिल स्थिति और निकट-मंदी का सामना कर रहा है जिसे मंदी के रूप में जाना जाता है। हकीकत में, अनुकूली और चुस्त ओपेक+ देशों ने स्थिति को सही ढंग से समझ लिया और दिखा दिया है कि यह प्रक्रिया आगे काम करने को तैयार है। ऐसे समय में जब विश्व अर्थव्यवस्था स्वस्थ दर पर आगे बढ़ने का संघर्ष कर रही है, तेल की मांग अपेक्षाकृत कम होगी, और मूल्य संतुलन बनाए रखने के लिए तेल उत्पादन में कटौती करना समझदारी है।
पश्चिमी देशों के नेता केवल यही शिकायत कर सकते हैं कि ओपेक+ देशों द्वारा तेल उत्पादन में कटौती अनुचित समय पर की गई है। लेकिन पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं के संकट को ओपेक+ देशों के दरवाजे पर नहीं डाला जा सकता है क्योंकि इसमें अंतर्निहित समस्याएं हैं जो अब सतह पर आ रही हैं। उदाहरण के लिए, फ्रांस में पेंशन सुधार के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध या उच्च मजदूरी के लिए ब्रिटेन में व्यापक हड़तालें दर्शाती हैं कि इन अर्थव्यवस्थाओं में गहरी ढांचागत समस्याएं हैं, और सरकारें उनसे निपटने में असहाय दिखाई देती हैं।
भू-राजनीतिक दृष्टि से, ओपेक+ देशों का यह कदम 16 मार्च को रियाद में रूसी उप-प्रधानमंत्री अलेक्जेंडर नोवाक और सऊदी ऊर्जा मंत्री प्रिंस अब्दुल अज़ीज़ बिन सलमान के बीच एक बैठक के बाद उठाया गया, जिसमें तेल बाजार सहयोग पर ध्यान केंद्रित किया गया था। इसलिए, इसे व्यापक रूप से रूस और सऊदी अरब के बीच संबंधों को मजबूत करने के रूप में देखा जा रहा है।
वास्तव में, मई में, ओपेक देश के सबसे बड़े सदस्य, रूस द्वारा उत्पादन में की गई एकतरफा कमी की मुहिम में शामिल हो गए, कोटा का संतुलन और ओपेक+ सौदे में प्रतिभागियों के बीच बाजार हिस्सेदारी का अनुपात उस स्तर अप्रैल 2020 पर वापस आ जाएगा, जब यह संपन्न हुआ था।
बड़ा सवाल यह है कि ओपेक+ देशों के फैसले से मास्को को कैसे लाभ हो सकता है। कच्चे तेल की कीमतों में आई तेजी से रूस को खासा फायदा हुआ है। सीधे शब्दों में कहें तो उत्पादन में कटौती से तेल बाजार में मजबूती आएगी और इस तरह रूस को अपने द्वारा बेचे जाने वाले कच्चे तेल की बेहतर कीमतों को सुरक्षित करने में मदद मिलेगी। दूसरा, नई कटौती इस बात की भी पुष्टि करती है कि पश्चिमी देशों द्वारा इसे अलग-थलग करने के प्रयासों के बावजूद रूस अभी भी तेल उत्पादक देशों के समूह का एक अभिन्न और महत्वपूर्ण हिस्सा है।
तीसरा, रविवार के फैसले के परिणाम काफी बड़े हैं क्योंकि ओपेक+ समूह द्वारा महामारी के समय या पिछले अक्टूबर में की गई कटौती के विपरीत, आज, वैश्विक तेल मांग की गति ऊपर है, नीचे नहीं है – जो चीन के द्वारा एक मजबूत रिकवरी से अपेक्षित है।
कहने का मतलब यह है कि ओपेक+ देशों में अचानक कटौती, सऊदी-रूसी ऊर्जा गठजोड़ को उनके उत्पादन स्तरों का मिलान करने में मदद करेगा और इस प्रकार उन्हें समान स्तर पर रखकर और मजबूती आएगी। यह वाशिंगटन के मुंह पर एक बड़ा तमाचा है।
कोई गलती न हो, यह एक नए युग का एक संकेत है जहां सउदी अब अमेरिका से नहीं डरता है, क्योंकि ओपेक का "लाभ" रियाद की तरफ है। सउदी केवल वही कर रहे हैं जो उन्हें करने की जरूरत है, और व्हाइट हाउस का इस मामले में कोई नियंत्रण नहीं है। स्पष्ट रूप से, क्षेत्रीय और वैश्विक गतिशीलता का पुनर्निमाण जो हाल ही में गतिमान हुआ है, वह अब गति पकड़ रहा है। जिससे पेट्रोडॉलर का भविष्य लगातार अनिश्चित होता जा रहा है।
एम॰के॰ भद्रकुमार पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
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