मणिपुर में जारी हिंसा सिर्फ़ बातचीत और भरोसे से ही रुक सकती है
इंफाल स्थित ख्वायरमबंद इमा कीथेल, शांति पर बनी संयुक्त समन्वय समिति के सदस्यों ने सोमवार को नई दिल्ली के जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया।
हस्तशिल्प, आभूषणों, समृद्ध व्यंजनों और बेहतरीन संगीत के लिए प्रसिद्ध मणिपुर में हिंसा भड़कने के दो महीने बाद भी थमने का नाम नहीं ले रही है। हिंसा में अभी तक 150 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और 60,000 विस्थापित हो गए हैं तथा करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो गई है।
निवासियों के बीच शांति की अपील के बावजूद, केंद्र द्वारा गठित 51 सदस्यीय शांति समिति की कुकी और मैतेई दोनों के नेतृत्व ने निंदा की है। मणिपुर कमांडो और राज्य पुलिस सहित केंद्रीय सुरक्षा बलों की भारी मौजूदगी भी हिंसा पर पूरी तरह से अंकुश लगाने में विफल रही है।
युद्धरत दोनों समुदायों, कुकी और मैतेई के बीच मेल-मिलाप और शांति प्राथमिक जरूरत बन गई है। हालाँकि, कोई भी सुलह शुरू करने के लिए अपनी मूल मांगों से पीछे हटने से तैयार नहीं है।
न्यूज़क्लिक ने कुकी और मैतेई दोनों नेतृत्व के प्रतिनिधियों से कहा कि यदि शांति बहाल करनी है तो बीच का रास्ता निकालने की जरूरत है।
मैतेई के लिए, यह नार्को-आतंकवाद, ज़मीनों पर अवैध कब्ज़े के मसले के साथ पैतृक भूमि को वापस हासिल करना है
मणिपुर इंटीग्रिटी पर समन्वय समिति के प्रवक्ता ख अथौबा कहते हैं कि, "तत्काल उपाय के रूप में, हिंसा को रोकने के लिए दोनों समुदायों से हथियार जब्त किए जाने चाहिए।" मणिपुर इंटीग्रिटी पर समन्वय समिति में पांच नागरिक समाज समूह शामिल हैं, जो मुख्य रूप से इम्फाल घाटी से हैं, जिन पर मैतेई लोगों का वर्चस्व है।
“सुरक्षा कर्मियों को सामान्य स्थिति और शांति बहाल करने के मामले में निष्पक्ष होना चाहिए। जबकि, असम राइफल्स 'कुकी नार्को-आतंकवादियों' के प्रति पक्षपाती लग रही है,'' उन्होंने आरोप लगाया कि ''घाटी में स्कूल और बाजार फिर से खुलने'' से सामान्य स्थिति की उम्मीद पैदा हुई है।
अथौबा ने राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग का विरोध किया है। “यह मणिपुर में काम नहीं करेगा। पिछले 60 वर्षों में 10 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया; आखिरी बार 2001 में ऐसा हुआ था। नई दिल्ली को स्थानीय संदर्भों की बारीकियों को समझना मुश्किल लगता है। भारत के अन्य हिस्सों में इस तरह के संघर्षों के दौरान उठाए गए कदम मणिपुर और पूरे पूर्वोत्तर में मददगार नहीं हो सकते हैं।''
मणिपुर इंटीग्रिटी पर समन्वय समिति के प्रवक्ता, राज्य सरकार द्वारा नार्को-आतंकवाद और पोस्ता की खेती करने वालों के खिलाफ लड़े जा रहे तथाकथित युद्ध और म्यांमार से अवैध आप्रवासन से भी नाखुश नहीं हैं।
वे पुछते हैं कि “क्या आप ज़ोमी रिवोल्यूशनरी आर्मी के प्रमुख थांग्लियानपाउ गुइटे का मामला जानते हैं? वह 1990 के दशक में म्यांमार में सांसद था और 1995 से भारतीय मतदाता पहचान पत्र और पासपोर्ट के साथ मणिपुर में रह रहा है?
उन्होंने आगे कहा, ज़ेडआरए एक म्यांमार स्थित संगठन है जिसका नेटवर्क मणिपुर में है। "केंद्र सरकार ने इस मामले में मणिपुर सरकार को पत्र भी लिखा है।"
अथौबा का आरोप है कि “सशस्त्र कुकी समूह नशीली दवाओं के व्यापार में शामिल हैं और एक अलग मातृभूमि चाहते हैं। एक अलग प्रशासन, जैसा कि कुकियों ने मांग की है - जिसमें 10 विधायकों द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन भी शामिल है – यह गलियारा मणिपुर के साथ म्यांमार से वैश्विक मादक पदार्थों की तस्करी को बढ़ावा देगा।
थौबुरेल मैतेई लिपुन (मैतेई लिपुन के संरक्षक) प्रमोत सिंह का कहना है कि समुदाय “हालात के बारे में ज्यादा चिंतित नहीं है; यह हमारा ज़मीन वापस पाने का संघर्ष है।”
राज्य सरकार “इतिहास और स्थिति से अच्छी तरह से वाकिफ है और वह बेहतर करने की कोशिश कर रही है।” लोग अपनी उम्मीदों को पूरा करने के लिए सरकार चुनते हैं और यह काम सरकार खुद कर सकती है या हमें खुद करना होगा, यह तो समय ही तय करेगा।''
सिंह का दावा है कि अंग्रेजों ने चुराचांदपुर में कुछ कुकियों को बसाया था और म्यांमार से प्रवासी आते रहे और इस कारण उनकी संख्या बढ़ गई। “समय के साथ, उन्होंने चूरनचंदपुर और कांगपोकपी जैसी जगहों से मूल निवासियों को बाहर कर दिया। बाद में, एक अलग कुकी मातृभूमि की मांग की जाने लगी। वास्तव में, 90 के दशक के दौरान कुकी-नागा संघर्ष के बाद कुकी आबादी में वृद्धि हुई है।
सिंह, समूह को हिंसा के ज़रिए “हमारी जमीन छीनने की कोशिश करने वाले के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि हमें इसे भविष्य में बचाना की जरूरत है", वे 1961 को कट-ऑफ वर्ष मानते हुए नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर को अपडेट करने की वकालत करते हैं। “उसके बाद राज्य में प्रवेश करने वाले की पहचान की जानी चाहिए। केंद्र को इसे गंभीरता से लेना होगा।”
कुकी अलग प्रशासन की अपनी मांग पर कायम हैं
कुकी नेतृत्व ने मणिपुर के भीतर एक अलग प्रशासन की मांग करने में अपनी एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया है। “समुदायों के बीच सुलह संभव है अगर सरकार के पास कोई राजनीतिक समाधान हो, इसके लिए मणिपुर के भीतर कुकी-प्रभुत्व वाले इलाकों को एक अलग प्रशासन के तहत प्रशासित किया जा सकता है। यह असंवैधानिक नहीं है,'' कुकी इंपी (समुदाय की सर्वोच्च संस्था) के एक प्रतिनिधि ने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कहा।
उनका दावा है कि, “मैतेई भाइयों ने घाटी के सभी कुकियों को खदेड़ दिया है। सरकारी कर्मचारियों सहित आम कुकी वहां लौटकर अपनी जान जोखिम में नहीं डाल सकते हैं। घरों आदि सहित कुकी की संपत्ति जलकर खाक हो गई है। घाटी में हमारा कोई निशान नहीं बचा है। हमारे लोग आजीविका के लिए वहां वापस कैसे जा सकते हैं? केवल एक अलग प्रशासन का प्रावधान ही हमारी सुरक्षा कर सकता है।''
उनका कहना है कि केंद्र सरकार ही समुदाय की एकमात्र उम्मीद है। “यह सस्पेंस ऑफ ऑपरेशन उग्रवादी समूहों के साथ बातचीत कर रहा है और कुछ समाधान निकल सकता है। हम मैतेई-प्रभुत्व वाली राज्य सरकार से ज्यादा उम्मीद नहीं कर सकते हैं।
कुकी इंपी के अनुसार पहाड़ आदिवासियों की आजीविका का साधन है। वे कहते हैं, "मणिपुर की पहाड़ी भूमि संविधान के अनुच्छेद 371सी के तहत संरक्षित है और उन पर कुकी ज़ोमी समूहों, नागाओं और म्हारों का कब्जा है।"
पहाड़ियों पर राज्य सरकार के बेदखली अभियान के बारे में वे कहते हैं, “सर्वेक्षण मनमाना और जल्दबाजी वाला था। यदि अवैध अप्रवासी वहां हैं, तो इसका खामियाजा सबको क्यों भुगतना पद रहा है बजाय सरकार उनकी पहचान करती जो अवैध हैं?”
उनके अनुसार, मैतेई लोग पहाड़ियों में जमीन खरीदने के लिए ही एसटी का दर्जा चाहते हैं। "इसके अलावा, मैतेई सोचते हैं कि उन्हें इससे ऊंचे नौकरशाही वाले पद मिल भी सकते हैं, जिन पर कुकी काबिज हैं।"
सेपरेट एडमिनिस्ट्रेशन मूवमेंट (कोरसैम) की कोर कमेटी के प्रतिनिधि भी शांति बहाल करने के लिए हथियार जब्त करने के महत्व पर जोर देते हैं। उन्होंने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कहा कि, "शांति या सामान्य स्थिति तभी संभव है जब दोनों पक्षों के पास कोई हथियार न हों - लेकिन यह रातोरात संभव नहीं है।"
“एसओओ समूह कम से कम 2005 से स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं और इसे 3 मई से पहले भी दोहराया गया था, जब हिंसा शुरू हुई थी। मणिपुर के भीतर कुकी-ज़ोमी स्वायत्तता की मांग 3 मई के बाद जोर पकड़ गई,'' वह कहते हैं कि कुकियों ने ''यह महसूस किया है कि ऐसा नहीं होने वाला है और यहां तक कि एक स्वायत्त परिषद भी अब शायद नहीं मिलने वाली है।''
राज्य प्रायोजित जातीय सफाए का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि, “केंद्र सरकार अधिक सक्रिय दिख रही है। केंद्रीय गृह मंत्री तीन दिनों तक मणिपुर में रहे, जो अभूतपूर्व था। लेकिन साथ ही, न तो मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को हटाया गया और न ही राष्ट्रपति शासन लगाया गया है। यह स्पष्ट रूप से आशंकाएं पैदा करता है।”
क्या यह वन संरक्षण की आड़ में आदिवासियों की ज़मीन हड़पना है?
पहाड़ियों और आरक्षित वनों की रक्षा करना सिंह सरकार का एजेंडा रहा है, जिसके कारण फरवरी-मार्च में कुछ स्थानों से कुकियों को बेदखल होना पड़ा था।
लेकिन क्या यह केवल भूमि और वनों की रक्षा के बारे में है? पूर्वोत्तर में दशकों पुराना अनुभव रखने वाली अनुभवी पत्रकार रूपा चिनाई को इसमें कुछ आशंकाएं नज़र आती हैं।
चिनाई ने न्यूज़क्लिक को बताया कि, “यह 'भूमि हड़पना' हो सकता है, जो कॉर्पोरेट के लिए रास्ते खोल सकता है। वन (संरक्षण) अधिनियम, (एफसीए) 1980-वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023- में प्रस्तावित संशोधनों के माध्यम से आदिवासियों से भूमि हड़पने का प्रश्न प्रासंगिक है। इसके अलावा, पूर्वोत्तर में पारंपरिक फसलों की जगह मोनोक्रॉप्स की खेती जैसी परियोजनाएं जगह ले रही अहि, जिससे स्वाभाविक रूप से आशंका पैदा होती है।''
वे कहती हैं कि, “संविधान के अनुच्छेद 317 सी के तहत, आदिवासी भूमि संरक्षित है। सरकार इसे उनसे कैसे छीन सकती है? वे ड्रग माफियाओं और पोस्ता की खेती करने वालों की ओर मुड़ गए हैं। लोग, विशेषकर कुकी, वास्तविक कारणों से ऐसा कर रहे हैं।''
वे आगे कहती हैं कि, “जब राज्य के बजट का बड़ा हिस्सा घाटी को दिया जाता है तो सरकार ने उन्हें सशक्त बनाने के लिए क्या उपाय किए हैं? ड्रग माफिया हर समुदाय में हैं, यहां तक कि मेइती समुदाय में भी है। कोई केवल एक समुदाय को निशाना नहीं बना सकता है।''
प्रस्तावित संशोधन एफसीए के कड़े प्रावधानों से छूट प्रदान करते हैं जैसे अंतरराष्ट्रीय सीमा के साथ 100 किमी के भीतर की भूमि का इस्तेमाल राष्ट्रीय महत्व और सुरक्षा वाली रणनीतिक परियोजनाओं के निर्माण के लिए किया जाना प्रस्तावित है। चिनाई का आरोप है कि, "विधेयक इंगित करता है कि चिड़ियाघर या इको-पर्यटन जैसे निजी सेट-अप के लिए भूमि पट्टे पर दी जा सकती है।"
जारी हिंसा पर उनका कहना है कि, "मणिपुर में जो हो रहा है, वह म्यांमार जुंटा ने रोहिंग्याओं के साथ किया था, उससे कुछ सीखने जैसा है।"
क्या सामंजस्य बिठाने का कोई तरीका है? “मेरा मानना है कि मैतेई मुख्य रूप से घाटी तक ही सीमित हैं, जो पहाड़ी इलाकों की तुलना में छोटी और संपन्न आबादी है। लेकिन इससे निपटने के कई तरीके हैं जैसे अंतर-सामुदायिक बातचीत और सांप्रदायिक सद्भाव सुनिश्चित करना। चिनाई सवाल उठाती हैं, कि क्या भाजपा सरकार मणिपुर को एक परीक्षण के रूप में ले रही है जिसे वह अन्य आदिवासी इलाकों पर लागू कर सकती है?
क्या कोई बीच का रास्ता है?
क्या स्थिति की गंभीरता को देखते हुए शांति संभव है? मणिपुर स्थित शांति कार्यकर्ता देबन मयूम को लगता है कि सुरक्षा उपायों के आधार पर केंद्र सरकार की "लाग-लपेट" से स्थिति केवल क्षणिक रूप से संभल सकती है। “भविष्य में स्थिति और अधिक अस्थिर हो सकती है।”
उनके अनुसार मुख्य समस्या, “नस्लीय भेदभाव के आधार पर लगातार केंद्र सरकारों द्वारा मणिपुरियों के प्रति गहरा अविश्वास है।” यदि सरकार अंतरराष्ट्रीय सीमा की रक्षा के बारे में चिंतित है, तो अंतर-सामुदायिक बातचीत होनी चाहिए और लोगों को विश्वास में लिया जाना चाहिए।
देबान का तर्क है कि, “मणिपुर में मौजूदा तबाही का मुख्य कारण अंतरराष्ट्रीय सीमा है। अन्यथा, अवैध अप्रवासी और सीमा पार मादक पदार्थों की तस्करी का मुद्दा सामने नहीं आता। आपसी संवाद ही वह रास्ता है जो समुदायों को एक साथ रहने और अंतरराष्ट्रीय सीमा की अधिक कुशलता से रक्षा करने में सक्षम बनाएगा। लेकिन यह संवाद नैतिकता के साथ प्रशिक्षित पेशेवरों द्वारा किया जाना चाहिए। यह कार्य केवल राजनेताओं और नौकरशाहों को नहीं सौंपा जा सकता है।”
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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