साम्राज्यवादियों की मांग और भारतीय खाद्य अर्थव्यवस्था
जहां महानगरीय पूंजीवाद स्थित है, उस कम तापमान वाले क्षेत्र में वैसी फ़सलें साल भर नहीं ऊगाई जा सकतीं, जैसी ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पैदा की जा सकती हैं। बल्कि इनमें से कई तो ऊगाई ही नहीं जा सकतीं। ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रो में उगने वाली इन फ़सलों में पेय पदार्थ, रेशे, सब्जियां, फल, अलग-अलग अनाज और तेल की फसलें ऊगाई जा सकती हैं।
लेकिन ऊष्णकटिबंधीय इलाके में एक तय क्षेत्रफल है, जिसमें से ज़्यादातर का उपयोग किया जा रहा है। इस इलाके की उत्पादकता बढ़ाने के लिए राज्य के निवेश की जरूरत है। मार्क्स ने इस बारे में महीन परीक्षण किया है। लेकिन इसके लिए ''राजकोषीय निष्कपटता'' की जरूरत होती है। लेकिन महानगरीय पूंजीवाद, चाहे वह गोल्ड स्टैंडर्ड (जब बजट संतुलन हो) की स्थिति में हो या नवउदारवादी पूंजीवादी ढांचे में, इस तरह के निवेश की अनुमति नहीं देता।
इसलिए महानगरीय पूंजीवाद के सामने ऊष्णकटिबंधीय भू-क्षेत्र पर नियंत्रण और इसके उत्पाद को हासिल करने की समस्या खड़ी हो जाती है। लेकिन महानगरीय पूंजीवाद के इस तरह के नियंत्रण के लिए जरूरी है कि ऊष्णकटिबंधीय भू-क्षेत्र में देश अपने ''घरेलू खाद्यान्न उत्पादन'' में कटौती करें। इसलिए महानगरीय पूंजीवाद को तीसरे देशों की सरकारों को शहरी मांग के मुताबिक़ भू क्षेत्र को विभाजित करने के लिए राजी करना होता है। तभी ऊष्णकटिबंधीय कृषि क्षेत्र को वैश्विक व्यापार के लिए खोले जाने का तरीका अपनाया जाता है, जहां महानगरीय पूंजीवाद अपनी मजबूत क्रय शक्ति के आधार पर फायदे में रहता है।
उपनिवेशवाद के तहत चीजें आसान थीं। तब कर व्यवस्था को न केवल घरेलू मांग को नियंत्रित करने के लिए उपयोग किया जाता था, बल्कि शहरी मांग के मुताबिक ही उत्पादन की अनुमति दी जाती थी। इतना ही नहीं, उसी कर व्यवस्था का इस्तेमाल कर महानगर क्षेत्रों में मांग वाली चीजों में छूट दी जाती थी।
स्वतंत्रता के बाद तीसरे देश की सरकारों के लिए खाद्यान्न उत्पादन करना प्राथमिकता बन गया। लेकिन नवउदारवाद ने ''घरेलू खाद्यान्न मांग में कमी'' लाने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए। ताकि ऊष्णकटिबंधीय देशों की ज़मीनों को महानगरों की मांग के हिसाब से उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा सके।
लेकिन इसके बावजूद भारत में खाद्यान्न उत्पादन पर जोर को पलटा नहीं जा सका। साम्राज्यवादी देशों ने भारत पर विश्व व्यापार संगठन के ज़रिए पूर्व निर्धारित मूल्यों पर खरीद को रोकने के लिए बहुत दबाव डाला। पूर्व निर्धारित मूल्यों पर खरीद वह तरीका है, जिससे घरेलू खाद्यान्न उत्पादन को सहारा मिलता है। लेकिन कोई भी सरकार इस तरह के दबाव में झुकने का जोख़िम नहीं उठा सकी।
तो खाद्यान्न उत्पादन को हतोत्साहित नहीं किया जा सका (हालांकि प्रतिव्यक्ति उत्पादन 1991 से 2015-16 के बीच गिर गया)। लेकिन कामग़ार लोगों की खाद्यान्न मांग कई तरीकों से कम की जाती रही। जैसे जरूरी सेवाओं का निजीकरण कर दिया गया, सरकारी ग्रामीण खर्च में कटौती होती रही, APL/BPL (गरीब़ी रेखा से ऊपर और नीचे) का वर्गीकरण कर दिया गया, इससे बड़े स्तर पर खाद्यान्न को इकट्ठा करने में कामयाबी मिली। यहां तक कि एक बड़ी मात्रा को निर्यात भी किया जाने लगा। यही वह भंडार है, जो कोरोना वायरस संकट के बीच में देश की मदद के लिए काम आया है। सरकार के पास 77 मिलियन टन खाद्यान्न सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत जरूरतमंदों को मुफ़्त में पहुंचाने के लिए मौजूद था।
यह सही बात है कि सामान्य स्थितियों में किसी देश को इतनी बड़ी मात्रा में अनाज भंडार की जरूरत नहीं होती। लेकिन बड़े भंडारों की समस्या का समाधान कामग़ार लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ाने में है। जबकि यह लोग आज भी भुखमरी का शिकार हैं। 112 देशों के हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति 100 वीं है। बड़े भंडारण का समाधान खाद्यान्न उत्पादन को कम करने में नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से फ़सल खराब होने जैसी स्थिति में देश में अकाल आ जाएगा।
साम्राज्यवादियों का तर्क है कि भारत को अपने भूक्षेत्र को महानगरों की मांग के हिसाब से इस्तेमाल करने देना चाहिए। खाद्यान्न उत्पादन की जगह अनाज का आयात करना चाहिए। ताकि कभी खाद्यान्न की कमी न हो। लेकिन यह तर्क कम से कम तीन वजहों से तो निश्चित ही ख़ारिज हो जाता है।
पहला- आर्थिक हिसाब से खाद्यान्न आयात फायदे का सौदा दिख सकता है। मतलब खाद्यान्न को आयात किया जाए और दूसरे निर्यात करने वाली फ़सलों को तैयार किया जाए। लेकिन गौर से देखने पर यह बुद्धिमानी भरा कदम नज़र नहीं आता। क्योंकि जब कभी भारत के आकार का देश वैश्विक बाज़ार में खरीददारी करने जाता है, तो अनाज की कीमत तुरंत बढ़ जाती है।
दूसरा, निर्यात करने वाली फ़सलों के उत्पादन में ''प्रति यूनिट क्षेत्रफल'' में कम मज़दूरों की जरूरत पड़ती है। इसलिए इस तरह की फ़सलों से रोज़गार की कमी होगी। साथ में मज़दूरों और किसानों की क्रय शक्ति भी घटेगी। इसलिए यह लोग पहले जितनी मात्रा में खाद्यान्न की मांग नहीं कर सकेंगे। भले ही उतनी मात्रा का खाद्यान्न विदेशों से आयात के चलते बाज़ार में उपलब्ध भी हो जाए।
तीसरी वजह- साम्राज्यवादी देश पहले तीसरी दुनिया के देशों को घरेलू खाद्यान्न उत्पादन को छोड़ने के लिए राजी कर लेते हैं। ताकि अपनी मांग की फ़सलें ऊगवाई जा सकें। लेकिन बाद में यह खाद्यान्न आपूर्ति पर राजनीति करते हैं। साम्राज्यवादी हथियारों में खाद्यान्न की आपूर्ति रोक देना काफ़ी मारक हथियार होता है, वह लोग इसका भयावह उपयोग भी करते हैं। यह सामान्य अंतरराष्ट्रीय व्यापार का मामला नहीं है।
अफ्रीका के मामले में यह सारी चीजें साबित भी हो चुकी हैं। वहां खाद्यान्न फ़सलों की जगह गैर-खाद्यान्न फ़सलों को उगाया जा रहा है, यही वहां उप-सहारा इलाके में आने वाले अकालों की वजह है।
अमेरिका ने 1960 के दशक के मध्य में भारत को इतना तड़पाया कि हमें हरित क्रांति के ज़रिए घरेलू खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने पर मज़बूर होना पड़ा। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि तब से भारत सरकार ने कभी खाद्यान्न आयात पर निर्भर होने के बारे में सोचा भी नहीं। किसी साल जब फ़सल खराब हो गई हो, तब भी ऐसा नहीं सोचा गया।
लेकिन केंद्र में मौजूद भारतीय जनता पार्टी की सरकार एक अपवाद है। जब मध्यकालीन विचारों वाले, जिनकी कोई समझ नहीं है, जिन्हें बौद्धिक सलाह की कोई कद्र नहीं है, उन्हें आधुनिक अर्थव्यवस्था की कमान दी जाती है, तो यही होता है। उनकी लापरवाही उन्हें साम्राज्यवादी विचारों पर परपोषी बना देती है। धीरे-धीरे वे साम्राज्यावादियों की कठपुतली बन जाते हैं। भारत सरकार द्वारा हाल में घोषित कृषि नीति, जो हमारी पारंपरिक नीति से बिलकुल उलट है, इसी बात की तस्द़ीक करती है।
सरकार ने तीन अध्यादेश जारी किए हैं। पहले के तहत कृषि व्यापारियों के ऊपर से ''अनाज भंडारण की तय सीमा'' को हटाया गया। दूसरे से कृषि उत्पादों को एक निश्चित जगह बेचे जा सकने वाले प्रावधानों को हटाया गया है। पहले कृषि उत्पाद सिर्फ ''एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (APMC)'' में ही बेचे जा सकते थे। तीसरे अध्यादेश से कांट्रेक्ट फार्मिंग को अनुमति दी गई है।
इन सभी अध्यादेशों से कृषि क्षेत्र को वैश्विक बाज़ार के लिए पूरी तरह खोल दिया गया है। इनसे अंतरराष्ट्रीय व्यापारियों समेत निजी व्यापारियों का कृषि उत्पाद बाज़ार में अनियंत्रित प्रवेश होगा। इसी बात की मांग तो साम्राज्यावादी अब तक कर रहे थे, लेकिन हमने उनका लगातार विरोध जारी रखा था। इस प्रतिरोध और घरेलू खाद्यान्न उत्पादन को समर्थन के लिए सांस्थानिक तंत्र बनाया गया था, इन अध्यादेशों से इस तंत्र के ज़्यादातर हिस्से को हटा दिया गया है।
जैसे खाद्यान्न उत्पादन को पूर्व निर्धारित खरीद मूल्यों की घोषणा के ज़रिए सहायता दी जाती थी। इनकी घोषणा सरकार द्वारा संचालित ''फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया'' करती थी। संस्था कुछ विशेष बाज़ारों में उत्पादकों से अनाज खरीदती थी। अब जब इन बाज़ारों की अहमियत कम कर दी गई है, तब समर्थन मूल्यों से भी कुछ बड़ी मदद करना मुश्किल हो जाता है। जैसा औपनिवेशिक शासन में होता था, अगर उत्पादकों को निर्यात की फ़सलों के लिए कांट्रेक्ट मिलेंगे, तो ज़ाहिर तौर पर खाद्यान्न फ़सलों की जगह निर्यातक फ़सलें ही उत्पादित होंगी।
फिर कोई यह भी कह सकता है कि क्या यह किसानों के हित में फ़ैसला नहीं है? जवाब है- पहले जो व्यवस्था थी, वह किसानों और ग्राहकों दोनों के पक्ष में थी। यह तालमेल बहुत जरूरी था। लेकिन अब यह ख़त्म हो चुका है।
दूसरा, किसी एक साल में यह लग सकता है कि किसानों को फायदा हो रहा है, लेकिन उन्हें अंतरराष्ट्रीय व्यापारियों के चंगुल में हमेशा के लिए फंसा देना उनके हितों के खिलाफ़ है। इन अध्यादेशों में यही किया गया है।
इन अध्यादेशों की हैरान करने वाली बात है कि इनकी घोषणा करने के पहले किसी भी प्रदेश सरकार से सलाह नहीं ली गई। जबकि कृषि भारत में राज्य का विषय है। केंद्र इसमें कहीं तस्वीर में ही नहीं है।
केंद्र सरकार का तर्क है कि कृषि व्यापार केंद्र के क्षेत्राधिकार में आता है, इसलिए उसने संविधान के दायरे का हनन नहीं किया है। लेकिन यहां जो बदलाव किए गए हैं, उनके परिणाम बहुत बड़े दायरे में हैं। यह उस विषय को प्रभावित करते हैं, जिस पर राज्य सरकारों का अधिकार है। इसलिए यह केंद्र द्वारा संवैधानिक दायरे के पार जाकर राज्य के क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण है। लेकिन बीजेपी सरकार के दौर में अब यह आम प्रवृत्ति बन चुकी है। यह सरकार भारत को एक केंद्रीय राज्य में तब्दील कर रही है।
कृषि को वैश्विक व्यापार के लिए खोलने की दिशा में उठने वाले हर कदम से हम घरेलू खाद्यान्न उपलब्धता की कमी की तरफ बढ़ेंगे। बीजेपी सरकार ने अब यह तय कर दिया है कि आने वाले वक़्त में खाद्यान्न उत्पादन कम होगा और अनाज की गंभीर कमी वाली स्थितियां भी बन सकती हैं। इसके चलते मुनाफ़ाखोरी और कालाबाज़ारी को रोकने निजी खिलाड़ियों की ज़माखोरी पर सीमा तय करने वाले प्रावधान वापस लाए जाएँगे। इन्हें हाल ही मे अध्यादेश से खत्म किया गया है।
लेकिन दिक्क़त यह है कि बिना खाद्यान्न कीमत में बढ़ोतरी हुए भी भूख अपने आप को व्यक्त कर सकती है। कामग़ार लोगों की कम मांग के चलते भी भूख की समस्या बढ़ सकती है। ऐसा औपनिवेशिक शासन में होता था। 1897-2002 और 1933-38 के बीच प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में बड़ी कमी आई थी। यह कमी करीब़ 20 फ़ीसदी की थी। इस दौर में कामग़ारों की रहने के पैमाने में 23 फ़ीसदी का उछाल (यह पैमाना- लिविंग इंडेक्ट- खाद्यान्न कीमतों से बहुत प्रभावित होता है) आया था।
साम्राज्यवादियों के सामने झुकने के लिए मशहूर बीजेपी सरकार ने भारतीय लोगों को बढ़ती भूख और संभवत: अकाल के रास्ते पर ढकेल दिया है।
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