युवा पाठकों की भरपूर उपस्थिति और बौद्धिक विमर्शों से सरगर्म रहा पटना पुस्तक मेला
बिहार की राजधानी पटना स्थित गाँधी मैदान में सेंटर फॉर रीडरशिप डेवलपमेंट (सीआरडी) द्वारा ‘मोबाइल छोड़िये, किताब पढ़िए’ के थीम पर आयोजित पुस्तक-मेला काफी उत्साहजनक रहा। पिछले “कोरोना माहामारी काल” की विभीषिका के चलते यह आयोजन बंद पड़ा हुआ था।
गत 2 से 13 दिसम्बर तक आयोजित हुए इस पुस्तक मेले में मीडिया सर्वेक्षणों के अनुसार छात्र-युवाओं की अच्छी व सक्रिय भागीदारी दिखी, जिसने साबित कर दिया कि “ऑनलाइन खरीद” के हावी होने के बावजूद लोगों में पुस्तक-स्टॉल से किताबें खरीदने का प्रचालन अभी भी बरकरार है। साथ ही “गूगल मास्टर” की बढ़ते प्रभाव के बावजूद ज्ञान-अध्ययन के लिए पुस्तकों के पढ़ने-पढ़ाने की आदत अभी भी बनी हुई है।
पुस्तक मेले में आये कई छात्र-युवाओं ने मीडियाकर्मियों द्वारा लिए गए साक्षात्कार में खुल कर कहा भी कि- पिछले दिनों मनोरंजन हो या ज्ञान बढ़ाने के लिए हम सब हद से ज़्यादा मोबाइल पर निर्भर हो गए थे, लेकिन पुस्तक मेला ने उन्हें किताबों और साहित्य से एक साथ रूबरू होने का जब मौका दिया तो वे प्रेमचन्द और टैगोर जैसे विख्यात लेखकों को पढ़ने के लिए किताबें खरीद रहें हैं।
हालाँकि आयोजकों के अनुसार उनके बुलावे के बावजूद पूर्व की अपेक्षा इस बार कई नामचीन प्रकाशक व उनके संस्थान नहीं आये। फिर भी साहित्य अकादमी, राजकमल, वाणी प्रकाशन, प्रकाशन संस्थान व प्रभात प्रकाशन से लेकर कई अन्य समेत 150 हिंदी, अंग्रेजी व उर्दू किताबों के प्रकाशन संस्थानों ने अपने स्टॉल लगाए थे, जिनमें 60 से अधिक स्थापित प्रकाशकों के अलावा कई अन्य की भी पुस्तकें उपलब्ध रहीं।
कई लोगों के अनुसार कोरोना काल के कारण लगातार तीन वर्षों की बंदी के बाद आयोजित 12 दिवसीय इस पुस्तक मेले का इंतज़ार हर किसी को था। यही वजह रही कि कुल मिलाकर पुस्तक प्रेमियों की उपस्थिति और पुस्तकों की ख़रीद-बिक्री औसत से काफी बेहतर रही। जो यह भी दर्शाता है कि एक “पिछड़े प्रदेश” के रूप में कुख्यात किये गए बिहार में किताबें पढ़ने-पढ़ाने का चलन विकसित माने जाने वाले कतिपय राज्यों से कमतर नहीं है, जो यहाँ के निवासियों की मजबूत बौद्धिक क्षमता का भी परिचायक कहा जा सकता है।
स्थानीय मीडिया ने भी पुस्तक मेला और यहाँ आयोजित होने वाले सभी कार्यक्रमों की ख़बरों को नियमित रूप से प्रकाशित किया, जिनके अनुसार इस बार के पुस्तक मेले में साहित्य में अभिरुचि रखने वाले युवाओं तथा अन्य पाठकों द्वारा प्रेमचन्द ,टैगोर, दिनकर व रेणु से लेकर समकालीन नए लेखकों तक की किताबें खूब खरीदीं गयीं। तो ग़ालिब-फैज़-निदा फ़ाज़ली जैसे कई पुराने नामचीन लेखक-रचनाकारों के साहित्य-उपन्यास-कहानियाँ और कविताओं की पुस्तकों का ख़रीदा जाना, उनके सदाबहार होने का प्रमाण दे गया। मेले में शैक्षिक परीक्षा प्रतियोगिताओं से जुड़ी किताबों के स्टॉल पर भी काफी किताबें बिकीं।
महापुरुषों की जीवनी में- जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गाँधी, भगत सिंह और डॉ. अंबेडकर इत्यादि की किताबें भी नयी पीढ़ी के पाठकों द्वारा ख़रीदा और काफी पसंद की गयीं।
पुस्तक मेले में आयोजित हुए विविध विमर्श कार्यक्रमों में जुटे साहित्य-संस्कृति व मीडिया के अलावा वरिष्ठ शिक्षाविद, बुद्धिजीवियों और वरिष्ठ सोशल ऐक्टिविस्टों के जुटान ने भी जहाँ लोगों की जानने-समझने कि अभिरुचि को तरो ताज़ा बनाया। वहीं इन कार्यक्रमों में भी छात्र-युवाओं की सक्रिय भागीदारी ने उनके मानस को सार्थक बौद्धिक खुराक दिया।
कई चर्चित एवं नयी किताबों के विमर्श-लोकार्पण कार्यक्रमों के साथ-साथ लेखकों के लाइव साक्षात्कार इत्यादि कार्यक्रमों के लिए- ‘बोध गया मंच’ व ‘नालंदा मंच’ सभागार बनाए गए थे।
जहाँ कई वरिष्ठ लेखकों के अलावा बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार पर लिखी गयी किताब विमोचन-चर्चा में उनके सरकार के मंत्री भी शामिल रहे तो पूर्व डीजीपी अभयानंद जी ने अपनी पुस्तक ‘अनबांडेड’ के माध्यम से सरकर व प्रशासन तंत्र को यह सलाह दे डाली कि- टेरर को हटाने के लिए टेरर का इस्तेमाल करने का नजरिया सही नहीं है। सरकार की शक्ति बल की बजाय कानून में है।
मेला के विशेष आकर्षण ‘जन संवाद’ कार्यक्रम के तहत दलित साहित्य लेखन एवं कविता पर हुआ विमर्श काफी विचारोत्तेजक रहा। जिसमें कई युवा रचनाकारों ने बढ़ चढ़कर कर हिस्सा लेते हुए कहा कि- दलित लेखन और साहित्य पर चर्चा तब होने लगी है, जब इस समाज से आने वाले लेखकों ने अपनी रचनाओं से प्रतिरोध शुरू किया है। कुछ वरिष्ठ दलित लेखकों ने बताया कि- दलित साहित्य नीग्रो आन्दोलन से काफी प्रभावित हुआ है।
स्त्री लेखन पर चर्चा कार्यक्रम में कई युवा लेखिकाओं की रचना कृति पर विमर्श के माध्यम से महिला प्रश्नों को भी मजबूती के साथ उठाया गया।
इसी कार्यक्रम के तहत ‘प्रिंट मीडिया की चुनौतियाँ’ विमर्श में ये बात प्रमुखता से सामने आई कि डिजिटल मीडिया से मिल रही गहन चुनौतियों के बावजूद प्रिंट मीडिया का कोई दूसरा स्वरूप सामने नहीं आ सकता है।
इसी क्रम में न्यूज़ पोर्टल ‘द आजादी’ द्वारा आयोजित ‘मीडिया बरक्स कॉर्पोरेट’ विमर्श कार्यक्रम से फेसबुक प्रबंधन को इतनी नाराज़गी हुई कि उसने इस कार्यक्रम से जुड़े सभी पोस्टों को प्रतिबंधित ही कर दिया। जिसका वहाँ उपस्थित सभी एक्टिविस्टों ने ज़ोरदार विरोध कर अपनी आपत्ति दर्ज़ की।
‘आजकल नाटक’ के तहत हुए विमर्श कार्यक्रम में वर्तमान रंगमंच और रंगकर्म पर तल्ख़ टिप्पणी आयी कि- मौजूदा रंगकर्म में “रंग बिरंगे कर्म” ही सबसे अधिक पल्लवित-पुष्पित हो रहा है। जिसके रूबरू प्रख्यात नाटककार ब्रेष्ट और भारतेंदु के सामाजिक सरोकार वाले रंगकर्म नजरिये को फिर से स्थापित करने पर बल दिया गया। इस बात को भी विशेष तौर से रेखांकित किया गया कि- ’80-90 के दशक में हुए नुक्कड़ नाट्य आन्दोलन को लेकर इस विधा पर काफी हो हल्ला करने वाले ही आज सबसे आगे बढ़कर बाज़ार और कॉर्पोरेटों के प्रोजेक्ट-नाटक कर रहें हैं। प्रोफेशनलिज्म की खेल में नए सिरे से ‘व्यावसायिक धंधेबाज़ी का महिमा मंडन किया जा रहा है। साथ ही इस पहलू पर काफी जोर दिया गया कि नाटक के सामाजिक ज़रूरत को फिर से स्थापित करना होगा। ख्यात कवि आलोकधन्वा ने इस परिचर्चा को संबोधित करते हुए कहा कि- मौजूदा राजनीतिक व सामाजिक जटिल चुनौतियों से मुकाबले के लिए फिर से ‘नाटक आन्दोलन’ परम आवश्यक बन गया है।
‘कलम सत्याग्रह’ अभियान द्वारा आयोजित ‘बिहार में शिक्षा पर संवाद’ कार्यक्रम के जरिये देश और प्रदेश के बिगड़ते शिक्षा के समाजशात्र को लेकर अहम चर्चा की गयी।
वहीं, बिहार में हर साल होने वाली बाढ़ की विभीषिका पर हुए विमर्श के तहत उत्तर बिहार स्थित कोशी बाढ़ क्षेत्र के पीड़ितों के साथ हो रहे नीतिगत व सरकारी अन्याय की चर्चा के बहाने बाढ़ पीड़ितों के प्रति हर स्तर पर हो रहे अमानवीय व्यवहारों को सामने लाकर बाढ़ पीड़ितों के इंसाफ की मांग उठायी गयी।
मेला परिसर में हर दिन विभिन्न नाट्य मंडलियों द्वारा प्रस्तुत नुक्कड़ नाट्य प्रस्तुतियों ने भी अपन अलग समां बांधा। तो कहानी पाठ और काव्य गोष्ठियों के कार्यक्रमों में युवा रचनाकारों की प्रभावपूर्ण भागीदारी ने काफी सार्थक रही।
पटना पुस्तक मेला की सफलता को लेकर सोशल मीडिया में कई उत्साहजनक पोस्टों की भरमार सी लगी रही। लम्बे समय से पटना पुस्तक मेले के प्रमुख आयोजकों में शामिल रहे तथा इस वर्ष के बेस्ट सेलिंग किताब ’32000 साल पहले’ के लेखक चर्चित साहित्यकार रत्नेश्वर जी के अनुसार, इस पुस्तक मेले में बिहार के पुस्तक प्रेमियों ने भारी तादाद में उमड़कर यही ऐलान किया कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, हम ज्ञानपीठ थे, हैं और रहेंगे, जय बिहार जय बिहार!
लेकिन इन तमाम सकारात्मक पहलुओं के बावजूद पुस्तक मेला आयोजकों को कुछ कसक भरे पहलुओं की ओर इशारा करते हुए वरिष्ठ एक्टिविस्ट बुद्धिजीवी जनाब ग़ालिब जी की टिप्पणी गौर तलब है, जिसमें वे उर्दू की उपेक्षा पर ध्यान खींचते हुए कहतें हैं कि- देखिये न कि इन दिनों गाँधी मैदान में एक अदबी जश्न चल रहा है। लेकिन अफ़सोस ‘बिचारी उर्दू’ किसी को याद नहीं आई। हालाँकि वे यह भी मानते हैं कि अपनी सामर्थ्य और सीमाओं के बावजूद कोरोना काल के बाद पटना में पुस्तकों का उत्सव एक अच्छी पहल है।
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