"राजनीतिक पार्टियों के पास दलितों के सशक्तिकरण का कोई मसौदा नहीं"
गोरखपुर में गत 10 अक्टूबर को दलितों के "भूमि-अधिकार" के लिए हुए एक आंदोलन में शामिल होने के बाद पूर्व आईपीएस एसआर दारापुरी (79) को उत्तर प्रदेश पुलिस ने जेल भेज दिया था। दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए मुखर रहने वाले मानवाधिकार और दलित अधिकार कार्यकर्ता दारापुरी क़रीब तीन सप्ताह गोरखपुर जेल में रहने के बाद ज़मानत पर रिहा हुए।
उन्होंने कहा कि चुनावों से पहले सभी दल स्वयं को "दलित" हितैषी बता रहे हैं, लेकिन किसी राजनीतिक पार्टी के पास दलितों के सशक्तिकरण के लिये कोई मसौदा (ड्राफ़्ट) नहीं है।
नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) विरोधी आंदोलन के दौरान 2019 में भी 1972 बैच के पूर्व आईपीएस दारापुरी नागरिकता क़ानून का विरोध करते हुए जेल गये थे। दारापुरी कहते हैं सरकारी दमन से दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की लड़ाई कमज़ोर नहीं बल्कि और व्यापक और संगठित हो गई है। दलित चिंतक दारापुरी ने अपनी गिरफ़्तारी और दलित अधिकारों के आंदोलनों और मुद्दों के बारे में न्यूज़क्लिक के लिए असद रिज़वी से बात की।
असद : हिरासत में आप के साथ उत्तर प्रदेश पुलिस का रवैया कैसा था?
दारापुरी : पुलिस का रवैया मेरे साथ क्रूर नहीं था। लेकिन मेरे बार-बार पूछने के बावजूद, पुलिस अधिकारी मेरी गिरफ़्तारी का कारण नहीं बता रहे थे।
असद : आप से हिरासत में पुलिस ने क्या सवाल किये थे?
दारापुरी : मुझे सुबह क़रीब 8:15 पर थाने ले जाया गया था। पुलिस ने पहले मुझको रामगढ़ताल थाने पर रखा फिर वहां से कैंट थाने ले गई। लेकिन इस बीच पुलिस अधिकारीयों ने न मुझसे कोई सवाल किया और न मेरे किसी सवाल का जवाब दिया।
जबकि गिरफ़्तारी का आधार बताना ज़रूरी होता है। मुझको पुलिस सुबह क़रीब 8:15 पर होटल से ले गई लेकिन मेरी गिरफ़्तारी शाम क़रीब 04 बजे बस स्टेशन से दिखाई है जिसका अर्थ है मैं क़रीब 8 ग़ैर क़ानूनी हिरासत में था।
असद : जेल में आपके कितने और साथी थे?
दारापुरी : कुल 9 लोगों को 'डेरा डालो, घेरा डालो आंदोलन' के बाद जेल भेजा गया था, जिसमें 5 दिल्ली के पत्रकार थे।
असद : आप क्या मानते हैं पत्रकारों को क्यों जेल भेजा गया?
दारापुरी : इसके कई कारण है, पहला, पुलिस शायद यह संदेश देना चाहती थी कि असहमति और विरोध की आवाज़ उठाने वालों के खिलाफ़ बहुत कठोर कार्रवाई की जा रही है। दूसरा कारण यह है कि पुलिस आंदोलन करने वालों के मन में “भय” पैदा करना चाहती है। इसके अलावा पुलिस ने पत्रकारों को, दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़ों, के “भूमि-अधिकार” के लिए हुए आंदोलन का “प्रतिभागी” मान लिया था।
असद : एक फ्रांस के नागरिक की भी गिरफ़्तारी हुई थी, क्या आपकी उन से बातचीत हुई?
दारापुरी : हां, मेरी उस फ्रांस के नागरिक से बात हुई थी, वे एक “शोधकर्ता” हैं जो भारत में “Stuggle of Indian Women For Their Rights” पर शोध के लिए आये हैं। वह आंदोलन के दौरान मौजूद थे और उनको वीज़ा नियमों के उल्लंघन में जेल भेजा गया है। फ्रांसीसी “शोधकर्ता”, हेनोल्ड वेलेंटाइन जीन रोज़र के पास केवल धनबाद में काम करने की अनुमति थी।
असद: उत्तर प्रदेश में लोकतांत्रिक आंदोलन का भविष्य क्या है?
दारापुरी : सरकार हर प्रकार की “असहमति और विरोध” की आवाज़, चाहे वह लिखित, मौखिक, धरना प्रदर्शन, रैली या कोई आंदोलन हो उसको दबाना चाहती है। यह लोकतंत्र नहीं तानाशाही है। असहमति और विरोध दर्ज कराने वालों के साथ ऐसा दंडनीय व्यवहार किया जा रहा है, जिससे दूसरों विशेषकर दलितों में भी भय और दहशत पैदा किया जा सके।
असद : लोकसभा चुनावों से पहले सभी पार्टियां दलितों को अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रही हैं, आप इन पार्टियों को दलित मुद्दों पर कितना गंभीर देखते हैं?
दारापुरी : इसमें सबसे आगे सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी है जो ज़िला स्तर पर दलितों के सम्मलेन कर रही है। बीजेपी दलितों को ज़मीन देने की बात करती है, जबकि उसकी सरकार में 2017 अवैध क़ब्ज़े हटाने के नाम पर, बड़ी संख्या में ग्राम समाज की ज़मीनों पर बनी दलितों की झोपड़िया तोड़ी गई। आदालत से स्टे के बाद इस बेदखली को रोका जा सका था।
अगर बीजेपी की कथनी और करनी में अंतर है तो विपक्ष ने भी दलितों के “सशक्तिकरण” के लिये कोई ठोस वादा नहीं किया है। दलितों का वोट सब को चाहिए है, लेकिन उनके विकास के लिए कुछ करने की नियत किसी की नहीं दिखती है।
असद : प्रदेश में दलित मुस्लिम और पिछड़ों का "भूमि अधिकार आंदोलन" कैसे आगे बढ़ेगा?
दारापुरी : हम (अंबेडकर जन मोर्चा) उन सभी संगठनों, जो भूमि के अधिकार के लिए सक्रिय हैं उनके साथ समन्वय बनाकर राज्य स्तरीय आंदोलन करेंगे। जो पिछले आंदोलनों से व्यापक होगा और सरकार को चुनौती देगा। हमारा प्रयास होगा कि सरकार पर दबाव बनाएंगे कि जिन 13 जिलों में “वन अधिकार कानून” लागू होता है, जहां अरक्षित वन है, वहां दलितों, आदिवासियों और वनवासियों को ज़मीन आवंटित किए जायें। इसके अलावा मांग की जायेगी की “ग्राम समाज” की ज़मीन भी बांटी जाये।
असद : क्या हाल में आप और आप के साथियों के साथ हुए दमन से प्रदेश में दलित अधिकारों के आंदोलन पर फर्क़ पड़ेगा?
दारापुरी : हमारे साथ जो हुआ उससे दलित समाज में आक्रोश है। मुझे उम्मीद है इस आक्रोश से दलित आंदोलन को और गति मिलेगी। इस आंदोलन के बाद से दलितों विशेषकर महिलाओं में जेल जाने का भय ख़त्म हुआ है।
असद : सामाजिक न्याय की राजनीति में दलित समाज की क्या भूमिका होगी?
दारापुरी : दलित की भूमिका बहुत मतवपूर्ण थी और आगे भी रहनी चाहिए। लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति सही दिशा में नहीं गई और उसके नेता सत्ता के चक्कर में उलझ गये।
असद : बहुजन समाज पार्टी के कमज़ोर होने से क्या “बहुजन आंदोलन” भी कमज़ोर होगा?
दारापुरी : नहीं, बल्कि अब बहुजन आंदोलन नए रूप में और सशक्त होकर उभरेगा। "बहुजन समाज" पुरानी ग़लतियों से सीखेंगे और नया रास्ता बनायेंगे। अब नए प्रयोग और समीकरण सामने आयेंगे। नए समीकरण सामाजिक और राजनीतिक दोनों होंगे, जातियों के नाम पर नहीं मुद्दों पर बात होगी।
असद : ऐसा कहा जा रहा है कि आरक्षण ख़तरे में है। इसको बचाने की क्या रणनीति होनी चाहिए?
दारापुरी : आरक्षण बहुत कमज़ोर हो गया है या यूं कहिये आरक्षण बचा कहा हैं। जब तक निजीकरण को नहीं रोका जायेगा तब तक आरक्षण नहीं बचाया जा सकता है।
असद : आप पूर्व आईपीएस हैं आप की राय में मौजूदा पुलिसिंग कैसी है?
दारापुरी : पुलिस सत्ता का डंडा बन चुकी है, कहा जा रहा है पुलिस सरकार की “पॉवर आर्म” है, जो सत्ता में होता है वह उसका इस्तेमाल करता है।
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