राजस्थान : बूंदी में सिलिकोसिस का खतरा बरक़रार; काम के अभाव में मज़दूर खदानों में काम करने को मजबूर
डूंगरपुर में पत्थर तोड़ने वाली एक फैक्ट्री स्थानीय लोगों के लिए परेशानी का सबब बन रही है। फोटो: ऋषि राज आनंद।
बूंदी: बूंदी जिले में लोग फेफड़ों की ऐसी बीमारी से ग्रसित है, जिसका कोई इलाज नहीं है, रोजगार के अवसरों की कमी के कारण, सिलिकोसिस से पीड़ित ये लोग मात्र 100 रुपये की मामूली दिहाड़ी के लिए खदानों में काम करने पर मजबूर हैं। ऐसे श्रमिकों के लिए बना कल्याण बोर्ड, हालांकि कागजों पर तो मौजूद है, पर कोई ठोस सहायता नहीं करता है और राहत कोष में विसंगति के कारण मजदूर अक्सर सहायता से वंचित रह जाते हैं।
रिपोर्टों के अनुसार, कोटा शहर से लगभग 100 किमी दूर छोटा बूंदी जिला पड़ता है, जहां बलुआ पत्थर की खदानें कई लोगों की जान ले चुकी हैं या ले रही हैं। बमुश्किल 40-45 साल की उम्र में वहाँ के नागरिक, छोटे-छोटे गाँवों में मौत का इंतज़ार कर रहे हैं, जबकि राहत देने के लिए बनाए गया बोर्ड सड़क, पानी की आपूर्ति और स्कूलों जैसी बुनियादी ज़रूरतों तक को पूरा करने में असफल रहा है। मज़दूर खुद बताते हैं कि कैसे इलाके में काम के अवसरों की कमी उनके बच्चों को उसी गड्ढे में धकेल देती है जिसमें वे खुद फंसे हुए हैं। जब इलाके में बेहतर स्कूल, कॉलेज और अन्य नौकरी के अवसर नहीं होते हैं, तो बच्चों के पास उन्हीं खदानों में काम करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है।
2019 में, राजस्थान सरकार न्यूमोकोनियोसिस (सिलिकोसिस) के बारे में 2018 के घोषणापत्र में किए गए वादे के अनुसार एक ऐतिहासिक नीति लेकर आई थी। यह नीति पूरे राजस्थान में लगभग 25 लाख से अधिक श्रमिकों को राहत देने के लिए लाई गई थी, ये वे लोग थे जिनके पास अपने इलाके में आजीविका कमाने के लिए अपने जीवन का बलिदान देने के अलावा कोई चारा नहीं था। पॉलिसी में सिलिकोसिस से पीड़ित हर मरीज को 3 लाख रुपये और उनकी मृत्यु पर 5 लाख रुपये की राहत राशि देने का वादा किया गया है। पॉलिसी पेंशन का भी वादा करती है, हालांकि दस्तावेज़ में इसकी राशि तय नहीं है, जबकि मरीज़ हर महीने 1,500 रुपये का दावा करते हैं।
2019 से पहले, सिलिकोसिस से पीड़ित लोगों के लिए मुआवजा 1 लाख रुपये और मृत्यु होने पर 3 लाख रुपये था। परिणामस्वरूप, 2019 से पहले सिलिकोसिस से पीड़ित हुए श्रमिकों को अब काफी कम मुआवजा मिलता है।
बलुआ पत्थर कारखाने में, मजदूरों का भविष्य निधि (पीएफ) या कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) नहीं कटता है, यहां तक कि आईडी कार्ड की भी कमी है, जिससे मालिकों के लिए उन्हें किसी भी समय काम से हटाना आसान हो जाता है, जिससे उनके शोषण का द्वार खुल जाता है।
पिछले साल, राज्य सरकार ने सिलिकोसिस के लिए एक कल्याण बोर्ड बनाया था जो मजदूरों की पहचान कर सके और उनकी सुरक्षा का इंतजाम कर सके, जिसे आमतौर पर खदान मालिकों द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता था।
इसके अलावा, जिला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट (डीएमएफटी), खनन इलाकों में काम करने वाला एक ऐसा निकाय है, जिसका काम प्रभावित इलाकों की भलाई के लिए खनन उद्योग से पैदा हुए मुनाफे के हिस्से का इस्तेमाल करन अहै और उसे जरूरी मुआवजे के रूप देना है। यह निकाय के समिति द्वारा चलाया अजाता है जिसके अध्यक्ष जिला कलेक्टर होते हैं।
अब तक, राज्य में लघु खनिजों के लिए 14,982 खनन पट्टे और 17,481 खदान लाइसेंस हैं। इसके अलावा, सूत्र बताते हैं कि सैकड़ों खदानें अवैध रूप से भी चल रही हैं।
भीलवाड़ा के एक ग्रामीण पर सिलिकोसिस का असर।
सिलिकोसिस एक दुर्बल यां कमजोर करने वाली बीमारी है। यह बीमारी श्रमिकों के साथ लगातार चलाने वाली और कठिन यात्रा का हिस्सा है। समय के साथ, सांस लेने कठिनाई होने लगती है ओपुर आखिर में शरीर हार मान लेता है। छोटी दूरी तक चलना भी एक संघर्ष बन जाता है, और बीमारी के वर्षों तक रहने से रोगी के हाथ और पैर सिकुड़ने लगते हैं और स्वास्थ्य में गिरावट स्पष्ट नज़र आने लगती है।
2015 में, मुरारी को पता चला कि वह सिलिकोसिस का शिकार हो गया है, और पॉलिसी के अनुसार उन्हें 1 लाख रुपये का एकमुश्त मुआवजा मिला। वे धनेश्वर गांव में रहते हैं, जहां खेती या मवेशियों को पालने के अवसरों का अभाव है। धनेश्वर, डाबी और बुधवारा गांवों सहित पूरे इलाके में खदानों का प्रभुत्व है, जिससे रोजगार का कोई अन्य विकल्प नहीं बचता है। जब मुवावजे की राशि खत्म हो गई तो, सिलिकोसिस के कई अन्य पीड़ितों की तरह, मुरारी को भी खदानों में लौटना पड़ा।
मुरारी को 2015 में सिलिकोसिस का पता चला था और उन्हें पॉलिसी के अनुसार 1 लाख रुपये का एकमुश्त मुआवजा मिला था।
इस बार, मालिक उसे न्यूनतम वेतन देने को बाध्य नहीं था। “जब मैं काम पर वापस गया, तो मुझसे कहा गया कि चाहे मेरी हालत कुछ भी हो, मुझे उतना ही वेतन मिलेगा जितना मैंने काम किया है। मुझे मालूम है कि मैं अब पत्थर काटने में उतना कुशल नहीं हूं, लेकिन मालकि मुझे एक दिन के काम के एवज़ में केवल 100-150 रुपये ही देते हैं। और मुरारी कहते हैं कि कभी-कभी, उतनी राशि भी नहीं मिलती है।'' धनेश्वर के लोगों के लिए पेंशन भी आय का विश्वसनीय स्रोत नहीं है। कई लोगों ने बताया कि उन्हें पिछले तीन महीने से पेंशन की राशि नहीं मिली है।
इसके अलावा, कई मज़दूर जिन्हें बैंक से कर्ज़ नहीं मिल पाता है, वे पारिवारिक कार्यक्रमों या आपात स्थितियों के लिए कंपनियों से अग्रिम राशि लेते हैं। यह राशि उन्हें तब तक बिना वेतन के काम करने के लिए मजबूर करती है जब तक कि वे मजदूरी के माध्यम से उस ली गई राशि चुका नहीं देते हैं।
इस इलाके में बुनियादी और जरूरी सुविधाओं की कमी है, और केंद्र सरकार की प्रमुख योजनाएं भी यहां स्पष्ट रूप से अनुपस्थित हैं। हाल के वर्षों में धनेश्वर गांव के आधे से अधिक लोगों ने पीएम आवास योजना के लिए आवेदन किया था, लेकिन उनके नामों को कभी मंजूरी नहीं दी गई। वे 200 रुपये का मासिक पानी बिल चुकाते हैं, हालांकि, डीएमएफटी मौजूद जो इलाके में पाइपलाइन की सुविधा दिला सकती थी। 5000 से अधिक की आबादी के लिए केवल एक स्कूल है, और जरूरी शिक्षकों की कमी है, और इसलिए खदान श्रमिकों के बच्चों को उसी व्यवसाय में धकेल दिया जा रहा है जो उनके माता-पिता की जान ले रहा है।
डीएमएफटी के होने और हर घर पानी का वादा करने वाली केंद्रीय योजनाओं के बावजूद, बूंदी के गांव अभी भी पीने के पानी के लिए 200 रुपये प्रति माह का भुगतान करना पड़ता है।
डीएमएफटी की भूमिका की शायद ही कभी जांच की जाती है, लेकिन संगठन की संरचना भी त्रुटिपूर्ण लगती है। ग्रामीणों के लाभ के लिए न तो ग्राम प्रधान और न ही ग्रामीण इसके निर्णयों में शामिल होते हैं। डाबी व बुढ़पुरा सहित इलाके के अन्य सभी गांवों में यही स्थिति बनी हुई है। हालाँकि इस संस्था की वेबसाइट विशेष रूप से सिलिकोसिस रोगियों और विधवाओं के लिए वैकल्पिक रोजगार के अवसर पैदा करने की जिम्मेदारी का दावा करती है, लेकिन ज़मीन पर कोई ठोस प्रयास नहीं देखा जा सकता है।
राज्य सरकार ने पिछले साल गर्व से सिलिकोसिस कल्याण बोर्ड की घोषणा की थी और ऐसा कदम उठाने वाला यह पहला राज्य बन गया था। हालाँकि, बोर्ड की भूमिका श्रमिकों और उनसे जुड़ी कंपनियों के नाम इकट्ठा करने तक ही सीमित है। कुछ इलाकों में तो यह काम भी पूरा नहीं हो सका है। श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा की जरूरी मान्यता बोर्ड के गठन के डेढ़ साल बाद भी गायब है। बोर्ड के उचित कामकाज के बिना हर बितते दिन के साथ, कई मज़दूर उत्पीड़न के बोझ तले दबे रहते हैं और मौत के खतरे का सामना करते हैं।
निकटवर्ती आदिवासी जिले डूंगरपुर में, पत्थर तोड़ने वाली फैक्टरियां हैं जो खुले में चलती हैं, जिससे राहगीरों और इन खदानों से एक किलोमीटर के दायरे में आने वाले गांव वालों की जान जोखिम में पड़ती है।
स्थानीय निवासी अशोक इन पत्थर तोड़ने वाली फैक्ट्रियों से कचरा ले जाने वाला डंपर चलाता है। हालाँकि, उन्हें अक्सर अपना गुजारा चलाने के लिए गुजरात भी जाना पड़ता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि, और उनका आरोप भी है कि, इलाके की खदानें स्थानीय लोगों को काम पर रखने से बचती हैं। इन खदानों में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर वही हैं जो बिहार, मध्य प्रदेश और दूसरे राज्यों से पलायन कर आये हैं।
भीलवाड़ा में कपड़ा उद्योग के समान, प्रवासियों को रोजगार देने से कारखाने कम वेतन और बढ़ाए गए काम के घंटों के कारण मजदूरों का शोषण करने में सक्षम होते हैं। इसके अलावा, यह मुआवज़े की बाध्यता से बचकर, उन्हें नौकरी से निकालने और वापस भेजने का एक आसान रास्ता प्रदान करता है। तथ्य यह है कि मज़दूर विभिन्न राज्यों से आते हैं, जिससे कारखानों को कानूनी नियमों की अवहेलना करने का मौका मिलता है।
खनिजों से समृद्ध इस राज्य में, उन मजदूरों की सुरक्षा के लिए बहुत कम प्रयास किया जा रहा है जो अपना जीवन दांव पर लगा देते हैं और बदले में राज्य की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में योगदान करते हैं।
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