रूसी क्रांति और भारत की आज़ादी की लड़ाई
आज रूसी समाजवादी क्रांति की 103वीं सालगिरह है, जब पहली बार दुनिया के एक हिस्से में मजदूर वर्ग ने अपनी सत्ता कायम की और शोषणविहीन समाज की स्थापना की। रूसी कैलेंडर के अनुसार यह क्रांति 25 अक्टूबर को हुई इसीलिए 'अक्टूबर क्रांति' कहलाई जबकि बाकी दुनिया में मान्य ग्रिगोरियन कैलेंडर के हिसाब से ये क्रांति आज यानी 7 नवंबर के दिन हुई। बहरहाल, अक्सर यह पूछा जाता है कि रूस की क्रांति को याद करने से हम भारतीयों को क्या लाभ? क्यों भारत के वामपंथी मार्क्स और लेनिन का गुणगान करते रहते हैं? इसका उत्तर दो हिस्सों में दिया जा सकता है - 1) रूसी क्रांति का उस समय के भारत पर प्रभाव और 2) एक शताब्दी पहले हुई इस क्रांति की आज के भारत में प्रासंगिकता।
सबसे पहले इतिहास में झांक के देखते हैं-
रूसी क्रांति और भारत का क्रांतिकारी आंदोलन
प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के समय भारत अंग्रेजों का गुलाम था। भारत के क्रांतिकारियों को यह युद्ध सुनहरा मौका लगा जब वे अंग्रेजो के दुश्मनों (जैसे जर्मनी) से हाथ मिलाकर भारत को स्वतंत्र करा सकते थे। इसी उद्देश्य से वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय और भूपेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद के अनुज) ने बर्लिन में ‘इंडो-जर्मन कोआर्डिनेशन कमिटी’ की स्थापना की। उन्होंने जर्मन सरकार से मांग की कि वे भारतीय क्रांतिकारियों को धन और शस्त्रों की सहायता प्रदान करे जिसका पाई-पाई भारत की स्वतंत्रता के बाद लौटा दिया जायेगा। आयरलैंड और रूस के क्रांतिकारियों ने भी इसी प्रकार के समझौते जर्मनी की सरकार से किए। अंत में जर्मनी का सम्राट इसके लिए तैयार हो गया और 21 फ़रवरी 1915 का दिन भारत में विद्रोह के लिए तय किया गया। लेकिन 19 तारीख को ही एक मुखबिर की मदद से ब्रिटिश सरकार ने कई महत्वपूर्ण क्रांतिकारियों को पकड़ लिया और विद्रोह को शुरू होने से पहले ही दबा दिया गया। विद्रोह के इस असफल प्रयास में कई क्रांतिकारियों को फांसी की सजायें हुईं और कईओं को गोली से उड़ा दिया गया। इसके बावजूद सिंगापुर में ग़दर पार्टी के नेतृत्व में विद्रोह हुआ और यह द्वीप एक हफ्ते तक अंग्रेजों से स्वतन्त्र रहा। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक स्वर्णिम अध्याय है जिसे किसी इतिहासकार ने अपनी पुस्तक में जगह नहीं दी।
वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय। फोटो साभार: विकिपीडिया
इन्हीं दिनों बंगाल के युगांतर दल के मुखिया बाघा जतिन ने एम. एन. राय (जो उस समय नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य के नाम से जाने जाते थे) को बटाविया भेजकर जर्मन अधिकारियो से संपर्क साधने को कहा। हथियारों से लदे तीन जहाज भारत की ओर रवाना हुए लेकिन रास्ते में ही पकड़े गए। जतिन बाबू भी ब्रिटिश पुलिस के साथ एक मुठभेड़ में शह़ीद हो गये। फिर भी क्रांतिकारियों ने हार नहीं मानी और 1915 के दिसंबर माह में राजा महेंद्र प्रताप और मौलवी बरकतुल्ला ने काबुल में आज़ाद भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा कर दी जिसे जर्मनी समेत कई देशों ने मान्यता दी।
जब भारत के क्रांतिकारी बड़ी बहादुरी से अंग्रेज़ो से लोहा ले रहे थे ठीक उसी समय रूस में दो सफल क्रांतियां हो गयीं- पहली फरवरी क्रांति जिसमें रूस का पूंजीपति वर्ग सत्ता में आया और दूसरी अक्टूबर क्रांति जिससे रूस का मजदूर वर्ग सत्ता में आ गया। भारत के सभी राष्ट्रीय नेताओं और राष्ट्रवादी समाचार पत्रों ने रूस की समाजवादी क्रान्ति का हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया। अमेरिका स्थित गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं ने भी रूस से संपर्क स्थापित किया। महेंद्र प्रताप और बरकतुल्लाह मास्को पधारे और बोल्शेविक नेताओं से मिले। रूस की कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता में आते ही पूरे विश्व में समाजवादी क्रांति का प्रचार–प्रसार करना शुरू कर दिया। जब यूरोप में उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली तब उन्होंने एशिया की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया। सन् 1919 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की स्थापना की गई और इसकी दूसरी कांग्रेस तथा अन्य कई अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलनों में दुनिया भर के क्रांतिकारियों को आमंत्रित किया गया।
कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस, लेनिन (दाएं), एम. एन. राय (मध्य में)। फोटो साभार: विकिपीडिया
भारतीय क्रांति के तीन मार्ग
भारत की ओर से इन सम्मेलनों में वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, अवनी मुखर्जी, एम. एन. राय और भूपेंद्रनाथ दत्त शामिल हुए। लेकिन तीनों की भारत में क्रांति को लेकर अलग-अलग अवधारणाएं थी। अक्सर कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की कांग्रेस में राय और लेनिन के बीच हुए वाद-विवाद के बारे में सुनने को तो मिलता है लेकिन उन्हीं दिनों चट्टोपाध्याय और दत्त द्वारा प्रस्तुत की गयीं थीसिसों का अधिक उल्लेख नहीं मिलता है जबकि ये तीनों ही थीसिस भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के लिए निर्णायक साबित हुयीं।
चट्टोपाध्याय की समझ विशुद्ध राष्ट्रवादी थी। उनके अनुसार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सभी वर्गो को मिलकर लड़ना है और इसका वर्ग- संघर्ष और समाजवाद से कुछ लेना देना नहीं होना चाहिए। इसके ठीक विपरीत राय का मानना था कि भारत जैसे उपनिवेशों का पूरा का पूरा पूंजीपति वर्ग क्रांति-विरोधी है और यहां पर मजदूरों के नेतृत्व में समाजवादी क्रांति होनी चाहिए। दत्त के विचार इन दोनों से भिन्न थे। उनका मानना था कि अंग्रेज़ो के खिलाफ लड़ाई तो सभी वर्ग संयुक्त मोर्चा बनाकर लड़ेंगे लेकिन साथ-साथ समाजवाद का प्रचार–प्रसार भी ज़रूरी है। विचारों की इन भिन्नता के कारण भारतीय क्रांतिकारियों में एकता स्थापित नहीं हो पाई। रूसी क्रांतिकारी नेता लेनिन के विचार कुछ-कुछ दत्त से मिलते जुलते थे। उन्होंने कहा “उपनिवेशों में अभी राष्ट्रीय जनवादी क्रांति का दौर हैं जिसमें किसान वर्ग, जो कि निम्न पूंजीपति है, सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और बुर्जुआ राष्ट्रवाद मुख्य विचारधारा होगी।” बाद में राष्ट्रीय बुर्जुआ शब्द की जगह उन्होंने राष्ट्रीय क्रांतिकारी शब्द का प्रयोग किया ताकि उन्हें सुधारवादियों से अलग किया जा सके। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस में लेनिन कि थीसिस कुछ संशोधनों के बाद पास हो गई लेकिन राय की थीसिस को भी कुछ सुधार करके सप्लीमेंटरी थीसिस का दर्जा दिया गया क्योंकि तब तक वे अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के एक बड़े नेता बन चुके थे। वे मेक्सिको में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से थे। चीन और भारत पर उनकी राय महत्वपूर्ण मानी गयी।
इस कांग्रेस के बाद चट्टोपाध्याय वापस बर्लिन चले गए और भारतीय क्रांतिकारी कमेटी बनाकर अपनी लाइन पर काम करते रहे। राय ने ताशकंद जाकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की जिसकी इस साल सौंवी वर्षगांठ है। वहीं दत्त कुछ समय बाद भारत वापस चले गए और वर्षों तक मजदूर आंदोलन में सक्रिय रहे।
राय का भारत में दूत भेजना
पार्टी स्थापित करने के बाद राय ने भारत में अपने दूत भेजने शुरू कर दिए लेकिन उनमें से अधिकतर गिरफ्तार हो गए। केवल शौकत उस्मानी और नलिनी गुप्ता किसी तरह बच पाए। उन्होंने सशस्त्र क्रांतिकारियों, एस. ए. डांगे और मुजफ्फर अहमद जैसे मजदूर नेताओ और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं से संपर्क स्थापित किया और उन्हें राय का मुखपत्र “वेनगार्ड” प्रदान किया। कुछ समय बाद उस्मानी भी गिरफ्तार हो गए। अंग्रेजों ने भारत में कम्युनिस्टों की बढती हुई ताकत को कुचलने के लिए पेशावार षड़यंत्र केस, कानपुर बोल्शेविक केस, मेरठ षड़यंत्र केस जैसे कई मुकदमें चलाये। फिर भी इस समय तक भारत में अनेक छोटे-छोटे कम्युनिस्ट ग्रुप सक्रिय थे और दिसंबर 1925 में एक सम्मेलन द्वारा ये सभी ग्रुप एक हो गए और विधिवत रूप से भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। इस सम्मेलन के आयोजक सत्यभक्त और राधामोहन गोकुल भूमिगत क्रांतिकारियों के संपर्क में भी थे और भगत सिंह और साथियों के तो राजनैतिक गुरु के समान थे। इन्हीं से भगत सिंह ने मार्क्सवाद का पहला पाठ सीखा। भगत सिंह के अन्य गुरु प्रिंसिपल छबीलदास और सोहन सिंह जोश थे। हाल ही में छबीलदास के नाम पर चमनलाल जी के प्रयासों से पंजाबी यूनिवर्सिटी ने एक सालाना इनाम कि घोषणा भी की है।
भगत सिंह। फोटो साभार: फर्स्टपोस्ट
इस प्रकार रूसी क्रांति के प्रभाव से भारत में समाजवाद और मार्क्सवाद का प्रचार-प्रसार हुआ और क्रांतिकारी किसान, मजदूर और छात्र आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ जिसने न केवल ब्रिटिश सरकार की जड़ें हिला दी बल्कि देश के अंदर के शोषक वर्गों जैसे जमींदारो और पूंजीपतियों की रातों की नींद भी हराम कर दी। कांग्रेस के अंदर भी 1934 में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। इसी क्रांतिकारी राजनीति का परिणाम 1942 और 1946 का भीषण जनांदोलन, आज़ाद हिंद फौज के सिपाहियों की रिहाई के लिए संग्राम, नौसेना विद्रोह, किसान एवं मजदूर संघर्ष था जिसने अंत में अंग्रेज़ों को ये देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
रूसी क्रांति: 103 साल बाद
आज एक शताब्दी के बाद रूसी क्रांति के क्या मायने हैं जबकि रूस में समाजवाद का महल ढह चुका है? हमारा मानना है कि रूसी क्रांति का सबसे बड़ा योगदान है एक सपना – बराबरी का सपना! एक ऐसा समाज जहां गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, जातिगत उत्पीड़न, धार्मिक, लैंगिक तथा नस्लीय भेदभाव न हो। एक ऐसा समाज जहाँ मनुष्य को इज्जत से जीने का अधिकार मिले, भरपेट खाना मिले, स्वास्थ्य व शिक्षा की सुविधाएं मिलें। रूस की क्रांति ने यह सब हासिल करके दिखाया इसलिए भारत के क्रांतिकारी उससे इतना अधिक प्रभावित हुए। भले ही 1956 के बाद से सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं की लगातार गद्दारी के कारण अंत में सोवियत संघ का विघटन हो गया लेकिन रूस का समाजवादी विकास मॉडल आज भी भारत जैसे गरीब और पिछड़े हुए देश के लिए एक आदर्श है। अगर हम अपने महान क्रांतिकारियों की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए मेहनतकश जनता की रोटी, कपड़ा, मकान और समाजवादी सत्ता के लिए संघर्ष में कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में भी शतप्रतिशत साक्षरता दर होगी एवं सबके पास रोज़गार होगा तथा यहां की गरीब जनता अपनी विषम परिस्थितियों से बाहर निकलकर एक इज्जतदार नागरिक और सामान्य मनुष्य-सा जीवन व्यतीत कर पाएगी। यही रूसी क्रांति की सच्ची विरासत है!
लेखक प्रबल सरन अग्रवाल, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के शोधार्थी और अनु पंचाल दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) की शोधार्थी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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