SKA का अभियान: महिलाओं और लड़कियों पर हिंसा ख़त्म करने का आह्वान
''आज हम महिलाओं और बालिकाओं पर हिंसा की घटनाएं पढ़ते-सुनते हैं तो इसके मूल में पित़ृसत्ता होती है। पितृसत्ता के पीछे होती है - मनुस्मृति। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने सबसे पहले इसी मनुस्मृति को जलाकर हमें जागरूक किया था। हमारे देश में संविधान लागू किया था जिसमें देश के हर नागरिक को बराबरी का हक दिया था। किसी भी जाति या धर्म, लिंग या क्षेत्र या भाषा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया था। हर पुरुष या स्त्री नागरिक को बराबर का दर्जा दिया था। लेकिन आज हालात बदल गए हैं। आज संविधान की बजाय मनुस्मृति को लागू करने का प्रयास किया जा रहा है।''
ये विचार जानी-मानी कवि-कहानीकार शोभा सिंह ने सफाई कर्मचारी आंदोलन (SKA) द्वारा आयोजित नेशनल कॉन्फ्रेंस ''महिलाओं और बालिकाओं पर होने वाली हिंसा को ख़त्म करने का अभियान'' में वक्ता के रूप में रखे।
उन्होंने कहा कि आज महिलाओं और बालिकाओं को पितृसत्ता के पिंजरे में बंद कर दिया गया है। लेकिन अगर हम संकल्प करें तो ये पिंजरा तोड़ा जा सकता है। लेकिन हमारी कमी या कमजोरी यह हो रही है कि हमने बोलना बंद कर दिया है। इस हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज उठाना बंद कर दिया है। आज के दौर की सरकार ने पूंजीपतियों के साथ सांठगांठ बना ली है। और सरकार चाहती है कि उनकी साठगांठ बनी रहे। महिलाओं, मजदूरों और गरीबों की तकलीफों से उसका कोई सरोकार नहीं है। आज इस सरकार ने महिलाओं और वंचित वर्ग को एक अंधेरी सुरंग में डाल दिया है। जिससे बाहर निकलने के लिए संघर्ष जरूरी है। पर हमें सकारात्मक सोच रखते हुए मुक्ति का संघर्ष करना है तभी हमारा भविष्य उज्ज्वल होगा। स्वर्णिम होगा।”
इस अवसर पर उन्होंने अपनी एक कविता पढ़ी- - 'डर से मुक्ति' :
''जब तक हम चुप हैं
हमें डर लगेगा
सुरक्षा की याद दिला
हमें चुप कराया जाएगा
हम कमज़ोर हैं
हमें विरोध में नहीं आना
राजनीति और किसी विचारधारा के पचड़े में
न- बिल्कुल नहीं
वरना अनाप-शनाप अफ़वाहें
धमकी-बलात्कार हिंसा की
ख़ामोश करने के कारगर उपकरण
ढेरों हैं।''
बता दें कि महिलाओं और लड़कियों पर हिंसा को ख़त्म करने का अभियान मेगसेसे अवार्डी सामाजिक कार्यकर्ता और सफाई कर्मचारी आंदोलन के नेता बेजवाड़ा विल्सन के नेतृत्व में चलाया जा रहा है।
सफाई कर्मचारी आंदोलन की चंडीगढ़ कन्वीनर और सामाजिक कार्यकता रविता खैरवाल ने इस अवसर पर कहा— '' हिंसा को ख़त्म करने की शुरुआत तो हमें अपने घर से ही करनी चाहिए। हमारे घर में ही हमारे साथ मार-पिटाई हो रही है। हमें जलाया जा रहा है। दहेज के लिए प्रताडि़त किया जा रहा है। इसके ख़िलाफ़ हमें आवाज उठानी चाहिए।”
उन्होंने कहा कि “आगे लोकसभा चुनाव आने वाले हैं। हमें सरकारों से सवाल पूछने चाहिए। वे हम महिलाओं के लिए क्या कर रहे हैं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए, उनकी शिक्षा के लिए, उनके स्वास्थ्य के लिए वे क्या कर रहे हैं। हम उन्हें अपना कीमती वोट क्यों दें।
'बेटी पढ़ाओं, बेटी बचाओ' का नारा देने वाली सरकार महिलाओं की नेकेड परेड पर क्यों मौन धारण कर लेती है। जानबूझ कर क्यों आंख मूंद लेती है। ये सरकार हम महिलाओं के लिए क्या कर रही है, क्या ये सिर्फ जुमलेबाजी करने के लिए है?''
किसी भी रूप में हमें हिंसा बर्दाश्त नहीं है
वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने इस अवसर कहा कि “25 नवंबर से 10 दिसंबर तक 16 ऐसे दिन होते हैं जब महिलाओं और बालिकाओं की हिंसा पर चर्चा होती है। 10 दिसंबर अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस होता है। वैसे तो हिंसा और मानवाधिकारों पर चर्चा इतने दिनों ही क्यों साल के पूरे 365 दिन होनी चाहिए।
हमारा संविधान हमें बराबरी का हक देता है। पर लड़का लड़की बराबरी और गरिमा के साथ कैसे जी सकते हैं ये हमें सोचना चाहिए और उन उपायों को अमल में लाना चाहिए।
आज की तारीख में सरकार महिलाओं के अधिकारों पर गंभीर नहीं है। दिखावा करती है। सरकार ने महिलाओं को संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण का अधिकार दिया लेकिन ये कब लागू होगा ये कोई नहीं जानता। यहां नारी वंदन कानून बनते हैं जिनका मतलब होता है कि हम नारियों की पूजा तो करेंगे पर उन्हें अधिकार नहीं देंगे। दूसरी ओर इस देश में कथित बाबा, महिलाओं को लड़के पैदा करने को कहते हैं। उनका कहना है लड़को से वंश चलेगा, देश चलेगा।
सबसे ज्यादा अत्याचार दलित महिलाओं पर होते हैं। हाथरस कांड में दलित लड़की को इंसाफ नहीं मिला। दूसरी ओर ओलंपिक में देश का नाम रोशन करने वाली महिलाओं के यौन उत्पीड़न के आरोपी बृजभूषण को सरकार कोई सजा नहीं देती। क्योंकि उसे अपनी राजनीति चलानी है।
पर किसी भी रूप में हिंसा हमें बर्दाश्त नहीं है। उसके ख़िलाफ़ हम बोलेंगे। सावित्री बाई फुले, ज्योतिबा फूले और अंबेडकर के विचारों पर चलते हुए हमें प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि हम हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज उठाएंगे।''
सामाजिक कार्यकर्ता बोरसा चक्रवर्ती ने कहा कि महिलाओं और बालिकाओं पर हिंसा को रोकने के लिए हमें सरकार पर तो दबाब बनाना ही चाहिए साथ ही हमें अपने घर-परिवार में लड़के-लडकियों में भेदभाव नहीं करना चाहिए।
सामाजिक कार्यकर्ता आईस मल्होत्रा ने इस मौके पर कहा, “सिर्फ 22% महिलाओं के पास ही घर हैं। वे घर में काम करने वाली अनपेड वर्कर हैं। बाल विवाह भी उन पर हिंसा है। डायन बताकर उन्हें मारना हिंसा है। इस तरह हिंसा के कई रूप हैं। महिलाओं और बालिकाओं पर हिंसा न हो ये हम सब की जिम्मेदारी है।”
SKA में कार्यरत कल्पना ने कहा, '' बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर कहते थे कि उनके लिए किसी समाज की उन्नति का पैमाना ये है कि उस समाज की महिलाओं ने कितनी उन्नति की है। हिंसा को खत्म करने के लिए कितनी बार हम बोलेंगे। हमें पुरुषों की मानसिकता बदलनी है। पुरुषों को यह समझाना जरूरी है कि स्त्री-पुरुष बराबर हैं। हमें भी गरिमा के साथ जीने का पूरा अधिकार है।'’
देहरादून की तन्नू ने कार्यक्रम में कविता पाठ किया और महिलाओं के मुद्दे पर पर्चा पढ़ा। आरती ने महिलाओं की पीड़ा पर एक कविता सुनाई। दस वर्षीय कबीर जिंगाला ने भी कविता सुनाई।
SKA की सृष्टि मेहरोलिया, कल्पना, अंजू वाल्मीकि की टीम ने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए। इसके अलावा विभिन्न राज्यों जैसे हरियाणा से राजकुमार बोहत, पंजाब से सुभाष दिसावर, राजस्थान से प्रकाश हडाले, उत्तराखंड से अमर सिंह भैनवाल, चंडीगढ़ से रविता खैरवाल की टीम ने भी सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये।
SKA की निर्मला कुमार ने सभी का स्वागत किया। शेफाली ने व्यवस्था संभाली और सचिता ने धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में महिलाएं व अन्य लोग उपस्थित रहे।
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