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सावित्रीबाई फुले: रूढ़िवाद और पितृसत्ता के खिलाफ महिला अधिकारों की प्रबल आवाज़

सावित्रीबाई फुले की जयंती पर न्यूज़क्लिक उन्हें याद करते हुए उनके प्रगतिशील समाज में योगदान और जीवन संघर्ष पर ये लेख प्रकाशित कर रहा है।
Savitribai

"स्वाभिमान से जीने के लिए पढ़ाई करो, पाठशाला ही इंसानों का सच्चा गहना है।"


ये सीख देश की प्रथम महिला शिक्षक और समाज सुधारक सावित्री बाई फुले की है। सावित्री बाई ने महिलाओं की शिक्षा और साक्षरता के लिए कई क्रांतिकारी कदम उठाएं। उन्होंने रूढ़िवाद और पितृसत्ता की दिक्कतों का सामना करते हुए महिलाओं के हित में कई नए रास्ते बनाए। उनकी आज़ादी के नवीन द्वार खोलकर उनमें नई चेतना का सृजन किया। वो दलितों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए भी जानी जाती हैं।

छात्राओं और युवाओं के लिए हमेशा प्रेरणा की श्रोत रही सावित्रीबाई फुले का जन्म03जनवरी, 1831को नायगांव, महाराष्ट्र में हुआ था। आज उनकी जयंती पर न्यूज़क्लिक उन्हें याद करते हुए उनकी शिक्षा और जीवन संघर्ष पर ये लेख प्रकाशित कर रहा है।
मानवता को धर्म मानने वाली सावित्री बाई का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वो निंदा से डरे बिना काम करते रहने के सिद्धांत पर यकीन करती थीं। जिस समय महिलाओं तक पढ़ना-लिखना ही नहीं पहुंचा था उस वक्त सावित्रीबाई अपने पति को खत लिखा करती थीं। उन खतों में वह पारिवारिक बातों के बजाय सामाजिक कामों के बारे में लिखती थीं। ये इस बात को समझने के लिए काफी है कि सावित्री बाई समय से आगे चलने की एक मिसाल थी। वे उस समय के अंधविश्वासी समाज में एक तार्किक महिला थी।


ऐसा कहा जाता है कि एक बार बचपन में जब सावित्रीबाई अंग्रेजी की एक किताब के पन्ने पलट रही थी तब उनके पिताजी ने देख लिया। और क्योंकि तब शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही था सो पिता ने उनके हाथ से वह क़िताब हटा दी। और यही कारण रहा कि सावित्रीबाई का पूरा जीवन शिक्षा के अधिकार को हर उस व्यक्ति तक पहुंचाने के इर्द गिर्द रहा जिन्हें इससे वंचित रखा जाता। उन्हें भारत में नारीवाद की पहली मुखर आवाज़ भी माना जाता है। वे एक समाज सुधारिका और मराठी कवयित्री भी थीं। उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी ख्याति मिली।

वैवाहिक रिश्ते की साझेदारी ने सामाजिक बदलाव की कहानी लिखी

सावित्रीबाई और उनके जीवन साथी ज्योतिबा फुले आजीवन बाल विवाह की कुरीतियों से लड़ते रहे। लोगों को इसके प्रति जागरूक करते रहे। क्योंकि वे दोनों खुद इसके भुक्तभोगी थे। 1840 में सावित्रीबाई महज़10साल की थी जब उनका बाल विवाह ज्योतिबा फुले से हो गया। उस समय ज्योतिराव फुले तीसरी कक्षा में पढ़ रहे थे और उनकी उम्र13साल थी। विवाह के बाद सावित्रीबाई ने अपने पति ज्योतिबा फुले की मदद से तालीम हासिल की। दोनों के बीच की साझेदारी केवल वैवाहिक रिश्ते तक सीमित नहीं रही बल्कि सामाजिक बदलाव के रास्ते पर दोनों साथी बने रहे। महज़17साल की छोटी सी उम्र में ही सावित्रीबाई ने लड़कियों को शिक्षित करने का बीड़ा उठा लिया था।

साल1848में जब ज्योतिबा फुले ने पहला स्कूल शुरू किया तो दंपति की चुनौतियां बढ़ने लगी। बताया जाता है कि सावित्रीबाई फुले ने पुणे शहर के भिड़ेवाडी में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला था। जब भी सावित्रीबाई फुले स्कूल जाती थीं तो रूढ़िवादी लोग उनके इस कदम से नाराज़ होकर उनपर पत्थर और गोबर फेंका करते थे। लेकिन वह कभी पीछे नहीं हटी वह पढ़ाने जाते हुए अपने साथ एक और साड़ी लेकर जाने लगी। जब उन पर पत्थर और गोबर फेंके जाते तब सावित्रीबाई फुले कहती थी, “मैं अपनी बहनों को पढ़ाने का काम करती हूं। इसलिए जो पत्थर और गोबर मुझपर फेंके जाते हैं वे मुझे फूल की तरह लगते हैं।”

सावित्रीबाई हर उस जाति जिसे समाज पढ़ाई-लिखाई करने के क़ाबिल नहीं समझता था उन तबक़ों से आती लड़कियों की शिक्षा की बड़ी पक्षधर थी। सावित्रीबाई ने लड़कियों के लिए कुल18स्कूल खोले। उनके द्वारा स्थापित अठारहवां स्कूल भी पुणे में ही खोला गया था। सामाजिक मुश्किलों से फुले दंपति का रोज़ सामना होता था। उस समय ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था सावित्रीबाई से खासा खफ़ा थी। लेकिन उन्हें उनके मकसद से कोई बाधा डिगा नहीं पाई। सावित्री बाई अपनी कविताओं और लेखों में हमेशा सामाजिक चेतना की बात करती थी। उनकी बहुत सी कविताएं ऐसी हैं जिससे शिक्षा के प्रति जागरूकता की प्रेरणा मिलती है। उन्होंने जाति तोड़ने और ब्राह्मण ग्रंथों से दूर रहने की बात की तरफ़ इशारा अपनी कविताओं में किया है।

सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष और महिलाओं के अधिकारों की वकालत

सावित्रीबाई बाल विवाह के खिलाफ मुखर थीं और महिलाओं के अधिकारों की वकालत करती थीं। वह इंटरकास्ट मैरिज और विवाहपूर्व गर्भधारणा को गुनाह नहीं मानती थीं बल्कि वह ऐसी लड़कियों के साथ मजबूती से खड़ी रहती थीं। उन्होंने ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर अनाथ और बेसहारा बच्चों के लिए पुणे में एक अनाथालय की स्थापना भी की। यह संस्था अनाथ बच्चों को उनकी जाति या पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना घर और शिक्षा प्रदान करती थी। फुले दंपति कई आंदोलनों में शामिल हुआ जिसमें से एक सती प्रथा था। सावित्रीबाई ने विधवा होने पर महिलाओं के मुंडन के खिलाफ मुखर होकर नाइयों के खिलाफ भी एक ज़ोरदार आंदोलन किया था। दोनों पति-पत्नी आजीवन अछूत, सती प्रथा,बाल-विवाह, शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष करते रहे।

रूढ़ियों को नकारती सावित्रीबाई ने1890 में जब ज्योतिबा फुले ने अपनी आखिरी सांस ली तब उनका अंतिम संस्कार खुद किया था। ये प्रथा आम तौर पर हमारे समाज में पुरुष द्वारा ही की जाती है। ज्योतिबा के निधन के बाद भी सावित्रीबाई फुले ने समाज सुधारक की अपनी जिम्मेदारी बख़ूबी निभाई। 10मार्च 1897 में प्लेग से पीड़ित बच्चों की देखभाल करते समय खुद इस बीमारी के गिरफ्त में आकर उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। हालांकि आज भी उनके विचार हमारे बीच अमर हैं और सालों साल रहेंगे।

सावित्रीबाई कहती थीं “स्त्रियां सिर्फ रसोई और खेत पर काम करने के लिए नहीं बनी है, वह पुरुषों से बेहतर कार्य कर सकती हैं।"
 

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