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दलितों का संघर्षरत जीवन: समानता को केवल सांकेतिक समर्थन

दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा अचानक भड़के गुस्से के चलते नहीं हो रही है। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के युग में भारी नाराज़गी पनप रही है।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: IndiaToday

1850 के दशक में सामाजिक कार्यकर्ता सावित्रीबाई फुले अपने और अपने पति द्वारा स्थापित किए गए स्कूल की तरफ लड़कियों और निचली जाति के छात्रों के लिए जब भी घर से जाती थीं तो कुलीन जाति के लोग उन पर गाय का गोबर और कीचड़ फेंकते थे। इस तरह की हरकत इतनी बार उनके साथ की जाती थी कि उन्होंने अपने साथ एक जोड़ी कपड़ा ले जाना शुरू किया जिसे वे स्कूल पहुंचने पर बदल लेती थीं। वर्ष 1923 में बॉम्बे (अब मुंबई) विधान परिषद ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें तथाकथित निचली जातियों को सरकार के अधीन संचालित सरकारी संस्थानों का इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई।

इस ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद 1924 में महाड नगर परिषद ने (पूर्व) अछूतों के लिए सरकार द्वारा संचालित पानी की टंकी बनाने का प्रस्ताव पारित किया। लेकिन कुलीन जातियों को यह मंज़ूर नहीं था। उन्होंने प्रस्ताव के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू किया। लगभग तीन वर्षों के बाद 1927 में डॉ. बीआर अंबेडकर को इस प्रस्ताव को व्यवहार में लाने के लिए महाड सत्याग्रह करने के लिए मजबूर किया गया। जब उन्होंने और उनके साथियों ने सरकारी टंकी से पानी लेने की कोशिश की तो कुलीन जाति ने अपने लोगों को लामबंद किया जिन्होंने सत्याग्रहियों पर पथराव किया।

जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता स्पष्ट तौर पर मौजूद है। हमें इसकी गंभीरता को जानने के लिए फेसबुक पेज या प्रमुख समाचार पोर्टलों के ट्विटर हैंडल को स्क्रॉल करना होगा या 'दलित', 'हिंसा', 'जाति' आदि की खोज करने की ज़रूरत है। अब भी पूरा देश जो ख़ासकर उच्च जाति मध्य वर्ग को लेकर मुखर है वह जाति-आधारित हिंसा और भेदभाव को लेकर पूरी तरह से भूलने की बीमारी से पीड़ित है। इसलिए हमें यह पूछना चाहिए कि दलित संगठनों पर क्रूर हिंसा क्यों की जाती है और पिछले कुछ वर्षों से ऐसी घटना क्यों बढ़ रही है?

मार्च महीने में सूरज सिंह ने जितेंद्रपाल मेघवाल को चाकू मारने के लिए सूरत से अपने गृह जिले पाली जाने में 800 किमी से ज़्यादा दूरी तक अपनी मोटरसाइकिल चलाई। सिंह की इस लंबे और कठिन सफर को किस मामले ने उकसाया? सिंह एक दलित व्यक्ति मेघवाल से नाराज़ थे क्योंकि उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीर पोस्ट की थी जिसमें वह अपनी मूंछें घुमा रहे थे और तस्वीर के कैप्शन में लिखा था, 'मैं अमीर नहीं हूं, लेकिन मैं दिल से राजा हूं'। छुरा मारने की ये घटना कोई अकेली नहीं है। देश भर में मूंछ रखने के लिए दलितों पर हमला किया जाता है, छुरा घोंपा जाता है और पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी जाती है। दलितों के विवाह समारोह जिसमें दूल्हा घोड़ा चढ़ता है उस पर तथाकथित उच्च जातियों के लोगों द्वारा पथराव करना अपने तरह की एक एक खास घटना है। फरवरी महीने में एक दलित आईपीएस अधिकारी की बारात के लिए पुलिस की सुरक्षा की जरूरत पड़ी क्योंकि कुलीन जातियों के लोगों ने उन्हें घोड़े की सवारी करने के ख़िलाफ़ चेतावनी दी थी!

हाल ही में राजस्थान के जालोर ज़िले में नौ वर्षीय दलित इंद्र मेघवाल को कुलीन जाति के शिक्षक ने कथित तौर पर शिक्षकों के लिए रखे गए मटके से पानी पीने को लेकर बेरहमी से पीटा था। मेघवाल की मौत के बाद पुलिस अभी भी घटना की जांच कर रही है लेकिन उसने दावा किया कि पिटाई का पानी के बर्तन (और जाति) से कोई लेना-देना नहीं था। अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो किस बात ने उस व्यक्ति को एक बच्चे पर इतना क्रूर हमला करने के लिए प्रेरित किया या मजबूर किया कि वह मर गया?

इंद्र पर की गई हिंसा अचानक हुए गुस्सा का परिणाम नहीं था। यह गहरे बैठे घृणा, क्रोध और आक्रोश का परिणाम था। इस तरह की नफ़रत का कारण "समानता" की उस अवधारणा में निहित है, जो हर कोई यहां तक कि जो कुलीन जातियों के लोग कहते हैं कि वे चाहते हैं लेकिन विकसित करने के लिए काम करने को तैयार नहीं हैं। एक असमान समाज में जहां एक सामाजिक समूह के पास अपनी सापेक्ष शक्ति और विशेषाधिकार से धन या सांस्कृतिक पूंजी होती है ऐसे में समानता तलाशने का मतलब है सत्ता और विशेषाधिकार को छोड़ना। ऐतिहासिक रूप से इस लाभ का आनंद लेने वालों ने उसे सद्भावना या न्याय की भावना से कभी नहीं छोड़ा। वंचितों और उत्पीड़ितों को अपने अधिकारों और समानता के लिए संघर्ष करना पड़ा है। हर समय, प्रभुत्व वाला समूह अपने अधिकार के मामले में हर तरह के ख़तरे का विरोध करते हैं।

पूर्व-आधुनिक युग में असमानता को प्राकृतिक और ईश्वर प्रदत्त माना जाता था विशेष रूप से प्रमुख समूहों द्वारा। उन्हें यह मानने की ज़रूरत नहीं थी कि विचारों के दायरे में भी समानता मौजूद है। लेकिन चीजें बदल गई हैं। आज समानता, मानवाधिकार और सामाजिक न्याय इतनी ताक़तवर शक्तियां हैं कि उनका विरोध करने वालों को भी कम से कम बोलना तो पड़ेगा ही। लेकिन आंतरिक रूप से वे सत्ता और सामाजिक श्रेष्ठता खोने के मद्देनज़र नाराज़गी से देखते हैं। समानता और सामाजिक न्याय की संवैधानिक-क़ानूनी गारंटी उन्हें असहाय महसूस कराती है और हताशा पैदा करती है। जालोर के शिक्षक को मासूम इंद्र को पीटने के लिए उकसाने वाली किसी भी बात से यह कहीं बेहतर व्याख्या है।

आरक्षण के विरोध में लंबे समय से चली आ रही इस निराशा की एक और अभिव्यक्ति हम इस तरह शुरू होने वाले अनगिनत वर्णन में देखते हैं जो कुछ इस तरह से शुरू होता है कि 'मैं एक दलित परिवार को जानता हूं जो अमीर है, लेकिन वे अभी भी आरक्षण का लाभ लेते हैं...'। या, 'मेरी बेटी ने प्रवेश परीक्षा में 90% अंक प्राप्त किए, लेकिन उसे सीट नहीं मिली क्योंकि उसकी जगह पर आरक्षण वाले किसी व्यक्ति ने 50% अंक प्राप्त करने के सीट हासिल कर ली…।'

ये जाति-केंद्रित कहानी और कुछ नहीं बल्कि अंतर्निहित दुश्मनी और शिकायतों की झूठी भावना की नाराज़गी है जहां कुलीन वर्ग खुद को समतावाद के शिकार के रूप में देखते हैं। तथाकथित योग्यता के पैरोकार और आरक्षण के शिकार कभी ये सवाल नहीं करते कि बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए शैक्षणिक संस्थानों में सीटों का विस्तार क्यों नहीं हो रहा है, नौकरियां क्यों कम हो रही हैं, या अवसर बहुत कम क्यों हैं। सरकार या आर्थिक व्यवस्था के बजाय विफलता या निराशा का दोष ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े लोगों पर डाल दिया जाता है जिन पर जातिगत अभिजात वर्ग की संभावनाओं को छीनने का आरोप लगाया जाता है।

19 वीं शताब्दी के जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे ने असंतोष का एक विचार पेश किया जो "किसी चीज़ की ओर निर्देशित शत्रुता की भावना को दिखाता है जहां लोग किसी व्यक्ति की हताशा के कारण के रूप में पहचान करते हैं..."। भारत में उच्च जाति की चेतना और संयुक्त राज्य अमेरिका में श्वेत जातिवादी खुद को सकारात्मक कार्रवाई (वंचितों को शामिल करने की व्यवस्था) के शिकार के रूप में समझते हैं। वे क्रमशः दलित-आदिवासी और अफ़्रीक़ी-अमेरिकियों के प्रति शत्रुता रखते हैं। सकारात्मक कार्रवाई को लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका में कई बार अफ़्रीक़ी-अमेरिकियों पर हमले हुए हैं।

प्रोफेसर जॉन फोबनजोंग ने वर्ष 2001में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'अंडरस्टैंडिंग द बैकलैश अगेंस्ट अफर्मेटिव एक्शन में’ 1970 और 1980 के दशक की मंदी के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्लवादी 'स्किन-हेड' समूहों के उदय की व्याख्या की है। जब दोहरे अंकों में बेरोज़गारी और नियंत्रण से बाहर मुद्रास्फीति ने बड़ी संख्या में लोगों को हाशिये पर धकेल दिया तो मध्यम से निम्न-वर्ग के श्वेत परिवारों में आक्रोश और तनाव बढ़ गया। उनका गुस्सा उन समूहों पर निकला जो सकारात्मक कार्रवाई से लाभान्वित हो रहे थे। कई श्वेतों के लिए अश्वेत बलि का बकरा बन गए जो उनकी नाराज़गी का कारण थे। नतीजतन, हाशिए पर मौजूद अश्वेत समुदायों को शत्रुता का शिकार होना पड़ा जो 'स्किन-हेड' में सामने आया जिन्होंने सभी सकारात्मक कार्यों को रद्द करने के लिए हिंसा को बढ़ावा दिया।

भारत में, आरक्षण नीति के ख़िलाफ़ हिंसा अप्रत्यक्ष रूप से होती है, क्योंकि दलितों पर मूंछें रखने या घोड़े की सवारी करने यानी सांस्कृतिक प्रतीकों पर हमला किया जाता है। लेकिन इन हमलों का एक आर्थिक दृष्टिकोण है। दूसरे शब्दों में वे आर्थिक आरक्षण और समतावादी राजनीति के तात्कालिक सवालों से अलग नहीं हैं। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों ने गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सम्मानजनक रोज़गार को कठिन बनाकर कई उच्च-जाति के मध्यम वर्गीय परिवारों की सुरक्षा छीन ली है। एक जातिगत अभिजात वर्ग के किसी सदस्य की कल्पना करें जो अपनी मौलिक पहचान पर गर्व की भावना रखता है। जब वे दलित, आदिवासी या पिछड़े वर्ग के लोगों को बेहतर सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में देखते हैं, तो वे इसे "चोरी" के रूप में देखते हैं, जिसे वे अपना मानते हैं। वे इसे राज्य या आर्थिक व्यवस्था की विफलता के रूप में देखने में विफल रहते हैं।

इस नाराज़गी ने जाति की संरचना से प्रेरित एक कहानी को गढ़ा है। यह इस तरह है: 'ये लोग हमारे बगल में बैठे हैं, जो हमारा होना चाहिए था उसे चुरा रहे हैं…'।

जाति आधारित हिंसा में वृद्धि दलितों के प्रति उच्च जातियों की नाराज़गी का परिणाम है। यह समतावादी सामाजिक बराबरी की खोज के कारण शक्ति के नुक़सान की उनकी भावना को दर्शाता है। यह कड़ी उन सवर्ण जातियों की ओर इशारा करता है जिन्होंने सावित्रीबाई फुले पर कीचड़ फेंका, अंबेडकर पर पथराव किया, या एक अज्ञात दलित को चाकू मारने के लिए बाइक पर 800 किमी की दूरी तय की और एक परिपक्व शिक्षक ने नौ साल के मासूम इंद्र को पीटा।

बिजयानी मिश्रा दिल्ली विश्वविद्यालय के मैत्रेयी कॉलेज में समाजशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं और हर्षवर्धन नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम में पीएचडी स्कॉलर हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Why Dalit Lives Struggle While Equality Gets Token Support

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