सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर, मस्जिद और पूजा स्थल अधिनियम का जो पिटारा खोला है वह बंद हो
25 नवंबर, 2024 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करने को बरकरार रखा है।
अदालत ने अपने सात पन्नों के आदेश में कई याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि, “1949 में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को अस्पष्ट माना जाता था, क्योंकि कुछ विद्वानों और न्यायविदों ने इसकी व्याख्या धर्म के खिलाफ होने के रूप में की थी।
"वक़्त के साथ, भारत ने धर्मनिरपेक्षता की अपनी व्याख्या विकसित की है, राज्य न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और न ही किसी धर्म के पालन और आचरण को दंडित करता है। यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित है..."
ठीक उसी दिन जिस दिन उक्त व्याख्या सुनाई जा रही थी, दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट से लगभग 160 किलोमीटर दूर, उत्तर प्रदेश के संभल जिले में स्थानीय मुस्लिम निवासियों और पुलिस के बीच हिंसा भड़क उठी, जिसमें चार लोग- नईम गाजी, बिलाल अंसारी, मोहम्मद अयान और मोहम्मद कैफ-मारे गए।
यह हिंसक झड़प एक मस्जिद को ध्वस्त किये जाने की आशंका के कारण शुरू हुई थी, क्योंकि निचली अदालत ने धार्मिक ढांचे के सर्वेक्षण करने का आदेश दिया था, ताकि यह पता लगाया जा सके कि 500 साल पहले वहां कोई हिंदू मंदिर था या नहीं।
ये दोनों घटनाएँ 26 नवंबर, 2024 से ठीक एक दिन पहले हुईं - जो भारतीय संविधान की 75वीं वर्षगांठ थी। ये विरोधाभासी दो घटनाएँ-एक संवैधानिक सिद्धांतों की न्यायिक पुष्टि करती है, दूसरी सांप्रदायिक कलह की हिंसक अभिव्यक्ति को दर्शाती है जो समकालीन भारत की बहुत ही जटिल तस्वीर पेश करती हैं।
हालांकि विभिन्न पक्षों के पास इस बात की अलग-अलग कहानी होगी कि क्या हुआ और इसके लिए कौन जिम्मेदार है, लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि आज के भारत में इबादत और सद्भाव की जगहें किस प्रकार टकराव और मतभेद की जगहें बन गई हैं।
प्राचीन विद्वेष के विरुद्ध कानून?
धार्मिक या इबादत स्थलों के विवादों से बचने के लिए और राम मंदिर आंदोलन के चरम पर बाबरी मस्जिद को लेकर हुई हिंसा के एक वर्ष बाद, संसद ने 1991 में इबादत स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम पारित किया था, जो एक ऐतिहासिक कानून था, जिसका उद्देश्य पूजा/इबादत स्थलों के धार्मिक चरित्र को 15 अगस्त, 1947 के समय के अनुसार स्थिर रखना था।
यह अधिनियम स्पष्ट रूप से किसी भी पूजा स्थल को किसी अन्य धार्मिक संप्रदाय में बदलने पर रोक लगाता है, तथा भविष्य में धार्मिक स्थलों पर होने वाले सांप्रदायिक विवादों को रोकने का प्रयास करता है।
इस अधिनियम को पेश करते हुए तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री एस.बी. चव्हाण ने इसका मूल उद्देश्य स्पष्ट किया था: कहा था कि इसका मक़सद धार्मिक स्थल विवादों से बार-बार पैदा होने वाले सांप्रदायिक तनाव को रोकना है। इस कानून को स्पष्ट रूप से “नए विवाद पैदा करने और पुराने विवादों को फिर से उठाने के लिए नहीं बनाया गया था, जिन्हें लोग लंबे समय से भूल चुके हैं,” बल्कि सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने के लिए बनाया गया था।
इसके पीछे संसद का तर्क काफी स्पष्ट था कि: ये “पूजा स्थलों के बदलाव के संबंध में समय-समय पर उठने वाले विवाद” लगातार देश में “सांप्रदायिक माहौल को खराब करने” की धमकी देते रहते हैं। यह अधिनियम ऐतिहासिक धार्मिक टकरावों के मद्देनजर एक रेखा खींचने का विधायी प्रयास है, जो समकालीन राजनीतिक और सामाजिक नेरेटिव में उनके निरंतर पुन: सक्रिय होने को रोकता है।
इस अधिनियम ने बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद को इस कानून के दायरे से बाहर रखा। फिर भी, इस अधिनियम के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2019 के ऐतिहासिक अयोध्या फैसले ने पूजा स्थल अधिनियम के संवैधानिक महत्व की फिर से पुष्टि की थी।
बेंच के अनुसार, यह अधिनियम एक महत्वपूर्ण “विधायी जरिया था जिसे भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं की रक्षा के लिए बनाया गया था”, जो एक मौलिक संवैधानिक सिद्धांत है। न्यायालय ने ऐतिहासिक संशोधनवाद को कड़ी फटकार लगाई और कहा कि पिछले शासकों ने कई ऐतिहासिक गलतियां की लेकिन उन्हे सुधारने के लिए कानूनी सहारा नहीं लिया जा सकता है।
फैसले में कहा गया कि, "हमारा इतिहास ऐसे कृत्यों से भरा पड़ा है जिन्हें नैतिक रूप से गलत माना गया है।" साथ ही इस बात पर जोर दिया गया कि समकालीन कानूनी तंत्र को प्राचीन विवादों को निपटाने का साधन नहीं बनना चाहिए।
अधिनियम को बरकरार रखते हुए, न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण संवैधानिक सिद्धांत पर रोशनी डाली कि: कानून को ऐतिहासिक घावों को फिर से हरा होने से रोकना चाहिए और भारत के विविध सामाजिक और धार्मिक ताने-बाने को जोड़ने वाले धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की रक्षा करनी चाहिए। न्यायालय के विचार में, अधिनियम केवल कानून नहीं था, बल्कि सांप्रदायिक द्वेष के खिलाफ एक सुरक्षा कवच था।
हालांकि विभिन्न पक्षों के पास इस बात की अलग-अलग कहानी होगी कि क्या हुआ और इसके लिए कौन जिम्मेदार है, लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि आज के भारत में पूजा और सद्भाव के स्थान किस प्रकार टकराव और मतभेद के स्थान बन गए हैं।
गलत मिसाल कायम करना
संभल में हुई यह दुखद घटना कोर्ट द्वारा दिए गए सर्वेक्षण के आदेश के कारण हुई थी। भारत की सामान्य रूप से सुस्त न्यायिक प्रणाली से अलग हटकर न्यायालय ने इस मामले में उल्लेखनीय गति से काम किया।
याचिका दायर होने के कुछ ही घंटों के भीतर एक एडवोकेट कमिश्नर नियुक्त कर दिया गया और मस्जिद का सर्वेक्षण करने का निर्देश दिया गया-यह सब दूसरे पक्ष को सुने बिना किया गया। सिविल जज ने 29 नवंबर तक रिपोर्ट दाखिल करने का भी आदेश दिया था।
लेकिन शायद घटनाओं की कानूनी प्रक्रिया पर सवाल उठाना गलत होगा, क्योंकि निचली अदालत केवल सुप्रीम कोर्ट के नक्शेकदम पर चल रही थी। हालांकि सांप्रदायिक झड़पें, भारतीय उपमहाद्वीप के लिए ऐसी घटनाएँ नहीं हैं जो ‘कभी न घटतीं हों’, लेकिन इस बार मामला अलग है; यह सुप्रीम कोर्ट ही है जिसने अयोध्या फैसले के बाद ऐसे मामलों का भानुमती का पिटारा खोल दिया है।
साधारण शब्दों में कहें तो इबादत/उपासना/पूजा स्थल अधिनियम हमें बताता है कि किसी स्थान के धार्मिक चरित्र से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए और ऐसे संपत्ति विवाद सामान्य दीवानी मामलों के दायरे से बाहर हैं, क्योंकि वे अपवाद हैं।
मूल रूप से, जब पूजा स्थल की बात आती है, तो अधिनियम के तहत दीवानी मुकदमा दायर करने पर रोक लग जाती है। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम और अपने पिछले निर्णयों के मूल तर्क को कमज़ोर कर दिया है।
इबादत/पूजा स्थल अधिनियम को चुनौती देने वाली लंबित याचिकाओं के बावजूद, न्यायालय ने काशी के ज्ञानवापी और मथुरा के ईदगाह में ‘गैर-आक्रामक’ सर्वेक्षण करने की अनुमति दे दी है, जहां मामले की दिशा अयोध्या के समान है।
ज्ञानवापी मस्जिद और पहले के मामलों में मस्जिद समितियों ने उपासना स्थल अधिनियम, 1991 का हवाला देते हुए चुनौतियों का सामना किया है। हालाँकि, अदालतों ने लगातार इन आपत्तियों के खिलाफ फैसला सुनाया है, जिससे मुकदमों को आगे बढ़ने की अनुमति मिल गई है।
ज्ञानवापी मामले में, न्यायालय ने बताया कि यह मुकदमा हिंदू देवी-देवताओं की पूजा करने के अधिकार का है, मस्जिद को मंदिर में ‘बदलने’ का नहीं है। इसी तरह, पहले के मामलों में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अधिनियम की व्याख्या करते हुए कहा था कि इसमें “धार्मिक चरित्र” शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
ज्ञानवापी मामले में, अदालत ने स्पष्ट किया कि यह मुकदमा हिंदू देवी-देवताओं की पूजा के अधिकार का का है, न कि मस्जिद को मंदिर में ‘बदलने’ का है।
न्यायालय का तर्क है कि, कोई भी धार्मिक ढांचा एक साथ हिंदू और मुस्लिम दोनों नहीं हो सकता है, और इसका वास्तविक धार्मिक चरित्र केवल सबूतो के ज़रिए ही तय किया जा सकता है। इसलिए, अधिनियम इस चरित्र को सुनिश्चित करने की कार्यवाही पर पूरी तरह से रोक नहीं लगाता है।
सितंबर 2022 में, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) यूयू ललित की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने सरकार को दो सप्ताह के भीतर जवाब देने को कहा था, लेकिन केंद्र ने अभी तक अपना हलफनामा दाखिल नहीं किया है।
पिछले साल, पूर्व सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ ने ज्ञानवापी मस्जिद मामले के बारे में मौखिक टिप्पणियां की थीं। उन्होंने कहा कि 1991 का अधिनियम 15 अगस्त, 1947 को पूजा स्थल की स्थिति की जांच पर रोक नहीं लगाता है, जब तक कि इसकी प्रकृति को रूपांतरित या बदलने का कोई इरादा न हो। यह व्याख्या अयोध्या फैसले में लिए गए रुख से अलग है, जिसे कथित तौर पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने ही लिखा था।
ऐसा लगता है कि निचली अदालतों ने सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियों की व्याख्या इस प्रकार की है कि पूजा स्थल की मूल प्रकृति को निर्धारित करने के लिए किए जाने वाले ऐसे मामले, भले ही उसमें बदलाव न किया जा सके, 1991 के अधिनियम द्वारा वर्जित नहीं हैं।
इबादत/उपासना स्थल अधिनियम का विधायी उद्देश्य इससे अधिक स्पष्ट नहीं हो सकता था - धार्मिक ढांचे को उसका स्वरूप वैसा ही बनाए रखने देना जैसा कि वह स्वतंत्रता की सहमत तारीख को था।
सबसे पहले, कानून बनाने का पूरा उद्देश्य यह था कि कुछ पूजा स्थलों के वास्तविक चरित्र के बारे में निर्णायक रूप से निर्णय करना कठिन है और सबसे अच्छी बात यह है कि उन स्थानों को वैसे ही रहने दिया जाए जैसे वे हैं।
इसका उद्देश्य, अतीत के वैध दावों को चुनौती देने के नाम पर भविष्य में होने वाली झड़पों से बचना है। इस अधिनियम ने सांप्रदायिक हिंसा की संभावित आग के खिलाफ एक कानूनी सुरक्षा कवच तैयार किया था और यहां तक कि इसकी एक स्पष्ट तारीख भी बताई गई थी।
किसी धार्मिक स्थल की ‘मूल’ स्थिति को निश्चित रूप से तय करने का हर एक प्रयास ऐतिहासिक घावों को फिर से खोलने, निष्क्रिय सांप्रदायिक तनावों को फिर से भड़काने और शैक्षणिक या कानूनी जांच को सामाजिक संघर्ष के स्रोतों में बदलने का जोखिम उठाता है। अधिनियम की धारा 3 अंतर- और अंतर-धार्मिक दोनों तरह के धर्मांतरण पर रोक लगाती है, क्योंकि इसमें लिखा है, “कोई भी व्यक्ति किसी भी धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भी वर्ग के पूजा स्थल को उसी धार्मिक संप्रदाय के किसी अन्य वर्ग या किसी अन्य धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भी वर्ग के पूजा स्थल में नहीं बदलेगा।”
सदियों पुराने धार्मिक स्थल के दावों की जांच के लिए न्यायिक तंत्र बनाकर, न्यायालय ने ऐतिहासिक अस्पष्टताओं को समकालीन संघर्ष क्षेत्रों में बदलने की मुसीबतों को आमंत्रित किया है।
केवल सात प्रावधानों वाले तीन पन्नों के कानून की भाषा इससे अधिक स्पष्ट, सरल और निश्चित नहीं हो सकती। अधिनियम की प्रस्तावना उतनी ही सीधी और स्पष्ट है जितनी कि एक प्रस्तावना हो सकती है, जिसमें कहा गया है, "किसी भी पूजा स्थल को बदलने को प्रतिबंधित करने और किसी भी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र को बनाए रखने के लिए प्रावधान, जैसा कि 15 अगस्त, 1947 को वह मौजूद था, और उससे संबंधित या उसके आकस्मिक मामलों में के लिए एक कानून बना था।"
सदियों पुराने धार्मिक स्थल के दावों की जांच के लिए न्यायिक तंत्र बनाकर, न्यायालय ने ऐतिहासिक अस्पष्टताओं को समकालीन संघर्ष क्षेत्रों में बदलने की मुसीबतों को आमंत्रित किया है।
आधुनिक भारत में जो एक तटस्थ कानूनी प्रक्रिया लगती है, वह एक विशेष विचारधारा वाले पक्ष के लिए ऐतिहासिक व्याख्याओं को हथियार बनाने का साधन बन गई है, जिससे संविधान द्वारा संरक्षित किए जाने वाले धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को खतरा पैदा हो रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय को अपने द्वारा खोले गए भानुमती के पिटारे को उतनी ही तेजी से बंद कर देना चाहिए, जितनी तेजी से सम्भल कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई की और सर्वेक्षण का आदेश दिया।
सौजन्य: द लीफ़लेट
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