Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

सावरकर अंग्रेज़ों के आगे झुके थे यह सच है, राहुल गांधी तो सिर्फ़ इस सच को दोहरा रहे हैं

भाजपा की चुनावी मज़बूती का मार्ग प्रशस्त करने वाले मुद्दों पर वर्षों तक नर्मी बरतने के बाद, अंतत: राहुल गांधी को लगा है कि उन्हें सावरकर को वही कहना चाहिए हो वह थे- अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगने वाले।
Rahul Gandhi
राहुल गांधी और विनायक दामोदर सावरकर की तस्वीर।

संसद से अयोग्य ठहराए जाने के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी की पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में, प्रेस ने उनसे इंग्लैंड यात्रा के दौरान भारत में लोकतंत्र को खोखला करने वाले बयान पर, भारतीय जनता पार्टी द्वारा माफी मांगने की मांग का जवाब देने को कहा।

उनका जवाब स्पष्ट रूप से सटीक और चुभने वाला था।

विनायक दामोदर सावरकर पर हमला करना एक बड़ा जोखिम वाला काम है। बमुश्किल चार महीने पहले, नवंबर 2022 में, जब भारत जोड़ो यात्रा ने पूरे भारत का ध्यान अपनी तरफ खींचना शुरू किया था, तो उन्होंने हिंदू महासभा के नेता सावरकार की आलोचना का एक महत्वाकांक्षी अभियान शुरू किया था।

उनके बयानों की न केवल भाजपा, बल्कि महाराष्ट्र में उनके साथ गठबंधन के सहयोगियों में से, खासकर शिवसेना ने भी चौतरफा आलोचना की थी। तथ्य यह है कि महाराष्ट्र में वीडी सावरकर की नायक के रूप पूजा संकीर्ण या अंधराष्ट्रवादी तर्ज पर की जाती है।

यह अन्य राज्यों या क्षेत्रीय समुदायों की तुलना में महाराष्ट्र में और भारत के अन्य हिस्सों में महाराष्ट्रीयनों के बीच ऐसा होता है। जबकि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय नेताओं के साथ ऐसा नहीं होता है।

नवंबर 2022 में बयान देने के बाद जब राहुल गांधी की आलोचना हुई तो कई धर्मनिरपेक्षतावादियों ने भी वीडी सावरकर की आलोचना की, वह भी महाराष्ट्र में, जो राजनीतिक रूप से विवेकपूर्ण नहीं था। तब यह तर्क दिया गया कि जब भाजपा ध्रुवीकरण की चाल चल रही हो, तो इसके माध्यम से वह न केवल "अपने पीछे बहुमत को मजबूत करने की कोशिश करेगी" बल्कि "इसे पूरक बनाने के साथ-साथ वह इससे पैदा हुए अंतराल को भरने में भी फुर्ती दिखाएगी।"

भाजपा की चुनावी मज्जबूती का मार्ग प्रशस्त करने वाले मुद्दों पर वर्षों तक नरमी बरतने के बाद, राहुल गांधी ने माना कि जो हक़ीक़त है उसे बयान करना चाहिए, या वीडी सावरकर को वह कहना चाहिए जो वे थे: एक कायरतावादी।

हम आज गोबेल्सियन युग में रह रहे हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ निज़ाम के नेता एक एक जुमले से दूसरे जुमले, अच्छे दिनों से लेकर अमृत काल तक के जुमलों में लोगों को उलझा रहे हैं।

इस किस्म के प्रचार के नियम का श्रेय अक्सर जोसेफ गोएबल्स को दिया जाता है, जो नाजी पार्टी के मुख्य प्रचारक थे और बाद में 1933 से 1945 तक प्रचार मंत्री रहे। एडॉल्फ हिटलर के इस अनुयायी ने अपने प्रचार के नियम के ज़रिए सच्चाई का भ्रम पैदा किया: एक झूठ को इतना दोहराओ ताकि वह सच बन जाए। 

राहुल गांधी ने वीडी सावरकर के बारे में सच्चाई को दोहराने का रास्ता चुना ताकि वर्तमान शासन के लिंचपिनों द्वारा लगातार फैलाए जा रहे असंख्य झूठों का सामना किया जा सके  और उसके बाद कई 'दोस्ताना' और सोशल मीडिया चैनलों पर प्रसारित किया जा सके। 

1966 में वीडी सावरकर की मृत्यु के बमुश्किल तीन साल बाद, महात्मा गांधी की हत्या की साजिश पर न्यायमूर्ति जीवन लाल कपूर जांच आयोग की रिपोर्ट जारी की गई थी। जज ने कहा, "ये तथ्य (आयोग द्वारा खोजे गए या स्थापित किए गए) जिनकी एक साथ जांच की गई, वे वीडी सावरकर और उनके समूह द्वारा हत्या की साजिश के अलावा किसी भी सिद्धांत के मामले में विनाशकारी थे।"

इस अस्पष्ट दावे के बावजूद, तत्कालीन प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी ने आगे कोई भी कार्रवाई शुरू न करने का फैसला किया, और उल्टे उन्होने राष्ट्रवादियों के देवता और महासभा के नेता के लिए एक जगह बनाई। वीडी सावरकर की स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया गया, और  फिल्म डिवीजन के माध्यम से वृत्तचित्र भी बनाया गया।

लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वीडी सावरकर को वीर या 'बहादुर' की उपाधि दी गई थी, और इस तरह अब उन्हें व्यापक रूप से वीर के नाम से याद किया जाने लगा, जबकि सच्चाई यह है कि वे कभी बहादुर नहीं थे।

वीडी सावरकर के नाम के आगे लगे इस उपसर्ग को केवल उनकी गिरफ्तारी से पहले के कार्यों और 1910-11 में बाद में दोषसिद्धि के मामले में उचित ठहराया जा सकता है। दोषी ठहराए जाने के बाद नायकवाद या वीरता कभी भी उनके गुण का हिस्सा नहीं बने थे।

वीडी सावरकर पर महात्मा गांधी हत्याकांड में साजिश रचने का आरोप लगाया गया था। मामले की सुनवाई मई 1948 में लाल किले में शुरू हुई, और वीडी सावरकर ने तुरंत अस्वस्थ होने का बहाना बनाकर कटघरे के बाहर एक अलग कुर्सी लगवा ली थी। इसने उनके और उनके शागिर्द नाथूराम गोडसे सहित अन्य अभियुक्तों के बीच एक शारीरिक दूरी सुनिश्चित की थी। जो हिंदुत्व के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का बड़ा इशारा था!

जिम्मेदारी से बचने और क्षमा मांगने की प्रवृत्ति वीडी सावरकर के जीवन में 1910 में लंदन में उनकी गिरफ्तारी से शुरू हुई थी। भारत में चले मुकदमे के बाद, उन्हें दो अलग-अलग आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी और अंडमान द्वीप की सेलुलर जेल में भेज दिया गया। उनके बड़े भाई जीडी सावरकर 1909 से ही जेल में बंद थे।

जेल में रहते हुए वीडी सावरकर के उन गुणों का पता चला जिसके माध्यम से वे माफीनामा लिखते थे।: उन्होंने कारावास शुरू होने के तुरंत बाद 1911 में पहला माफी का पत्र लिखा और इसके बाद 1913, 1914, 1916, 1918 में अन्य क्षमा-याचना याचिकाएं और अंत में 1920 में दो बार माफी मांगी।

वीडी सावरकर के अंग्रेजों को लिखे कई माफीनामों की कहानी, जिसमें उन्होंने आमतौर पर कि "वे किसी भी क्षमता में सरकार की सेवा करने को तैयार" हैं, जैसे वाक्यांशों का इस्तेमाल किया गया और अलंकारिक प्रश्न उठाया, "क्या यह विलक्षण पुत्र सरकार यानि अपने माई-बाप के दरवाजे पर नहीं लौट सकता है", उनके बयान के बारे में सार्वजनिक जानकारी तब मिली जब 1975 में शिक्षा मंत्रालय ने विशेष रूप से उनके सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के बारे में, विख्यात इतिहासकार आर॰सी॰ मजूमदार द्वारा लिखी, अंडमान में पेनल सेटलमेंट्स नामक एक पुस्तक प्रकाशित की थी।

लेकिन उन्हें उन दस्तावेजों के प्रति सच्चा होना था जिन्हे वे प्रकाश में लाए थे। इन दस्तावेजों के अनुसार, वीडी सावरकर ने सज़ा शुरू होने के बमुश्किल कुछ महीने बाद यानि 4 जुलाई, 1911 को ब्रिटिश अधिकारियों को अपना पहला माफी का पत्र लिख डाला था था।

सावरकर के समर्थकों का तर्क है कि उन्होने ये पत्र "दिल्ली दरबार के प्रति सद्भावना व्यक्त करने के लिए लिखे थे", जो भारतीय राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली में स्थानांतरित करने के साथ मेल खाता था। लेकिन इसमें किसी तरह की माफी मांगने की कोई बाध्यता तो नहीं नज़र आती थी।

इस याचिका की कोई प्रति उपलब्ध नहीं है, और उनके 'जेल इतिहास टिकट' और उनके अगले पत्र में इसका केवल एक संदर्भ मौजूद है। वायसराय की कार्यकारी परिषद में गृह सदस्य सर रेजिनाल्ड क्रैडॉक के साथ जेल में उनकी बैठक का रिकॉर्ड मौजूद है।

अवसर मिलते ही वीडी सावरकर ने क्रैडॉक को व्यक्तिगत रूप से अपनी याचिका सौंप दी थी। दरअसल, 14 नवंबर, 1913 की इस याचिका में, "सावरकर ने अपनी पहली 'क्षमादान याचिका' की बात की थी।"

इस पत्र में वीडी सावरकर संकल्प जताय कि वे 'किसी भी क्षमता में सरकार' की सेवा करेंगे और फिर अत्यंत गंभीरता से पूछा कि, " आपका यह विलक्षण पुत्र अंग्रेज़ सरकार या अपने माई-बाप के दरवाजे के अलावा और कहां लौट सकता है?"

तब क्रैडॉक ने एक आधिकारिक नोट में दर्ज किया कि वे अक्टूबर 1913 में वीडी सावरकर से मिले थे, जिस दौरान इस 'स्वतंत्र वीर' (जैसा की दर्ज़ है) ने दया याचिका दायर की थी। बैठक अधिकारी द्वारा बताए गए दिन में ही होगी, लेकिन बाद की तारीख में वीडी सावरकर की याचिका को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया गया था।

ये याचिकाएं निश्चित रूप से वीडी सावरकर के एक दृढ़ राष्ट्रवादी होने के दावे पर सवाल उठाती हैं। उन्होंने 1914 और 1917 में दो अन्य दलीलें प्रस्तुत कीं थीं, जिसमें "किसी भी क्षमता में युद्ध के दौरान सरकार को अपनी सेवाएं" देने की पेशकश की गई थी।

इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के एक सावरकरी सदस्य, जीएस खोरपड़े ने एक सवाल उठाया था कि क्या यह सच नहीं है कि जेल में बंद नेता ने प्रतिज्ञा की थी कि एक बार प्रस्तावित प्रशासनिक सुधार (जिसे बाद में मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधार या भारत सरकार अधिनियम, 1919 कहा गया था) अधिनियमित होने के बाद, वे "अधिनियम को सफल बनाने का प्रयास करेंगे और कानून और व्यवस्था के साथ खड़े होंगे। 

जबकि भारतीय राष्ट्रवादियों ने उक्त सुधारों का विरोध किया था, और यह तब था जब स्वतंत्रता संग्राम पहली बार एक जन-आंदोलन के रूप में विकसित हुआ था और जिसने दुनिया भर में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों की लहर को जन्म दिया था।

हाल के वर्षों में, हिंदू दक्षिणपंथियों ने यह कहानी गढ़ी कि वीडी सावरकर ने महात्मा गांधी की सलाह पर माफीनामे लिखे थे। इस दावे से ज्यादा अविश्वसनीय कुछ नहीं हो सकता है क्योंकि महात्मा गांधी के भारत लौटने से पहले ही वीडी सावरकर ने औपनिवेशिक अधिकारियों को  लिए कम से कम तीन माफीनामे लिखे थे।

अक्टूबर 2021 में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के दावे के ज़रिए ऊंचे स्तर फैलाए गए दुष्प्रचार का अंदाजा लगाया जा सकता है। उन्होंने आरोप लगाया कि ''वीडी सावरकर के बारे में बार-बार झूठ फैलाया गया। यह झूठ फैलाया गया की जेल से रिहा होने के लिए उन्होने कई माफीनामे लिखे... जबकि वे महात्मा गांधी थे जिन्होंने उन्हें दया याचिका दायर करने के लिए कहा था..."

क्योंकि राजनाथ सिंह का दावा विकृतियों से भरी हिंदुत्व की किताब से लिया गया था, तो महात्मा गांधी द्वारा वीडी सावरकर को दी गई तथाकथित 'सलाह' को 'जांचना' महत्वपूर्ण हो जाता है।

1919-22 के बीच के वर्षों के दौरान जब महात्मा गांधी राष्ट्रीय आंदोलन को खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे तो उसकी पृष्ठभूमि में, वीडी सावरकर के छोटे भाई नारायण सावरकर ने 8 जनवरी, 1920 को महात्मा गांधी को एक तार भेजा, जिसमें रिहाई का रास्ता सुझाने का आग्रह किया गया था। उनके दो भाई, गणेश और विनायक थे।

उन्होंने तार में यह कहकर महात्मा गांधी की भावनात्मक रगों को छूने की कोशिश की कि "उनका स्वास्थ्य पूरी तरह से चरमरा गया है" और उनका वजन काफी कम हो गया है।

नारायण सावरकर की अंतिम प्रस्तुति से पता चला कि भाई क्या चाहते थे - एक कम कठोर जेल में उनका स्थानांतरण।

"कम से कम बेहतर जलवायु वाली किसी भारतीय जेल में उनका जाना उनके लिए सबसे आवश्यक है।"

महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया एक उभरते राजनेता की तरह थी। उन्होंने 1909 में लंदन में अपनी पहली सार्वजनिक बैठक में वीडी सावरकर के असंयमित व्यवहार पर बिना किसी विद्वेष के लिखा, कि हालांकि नारायण को "सलाह देना मुश्किल" था, वे मामले से जुड़े तथ्यों को सामने रखते हुए एक संक्षिप्त याचिका का मसौदा तैयार कर सकते थे और उसे मेरे पास भेज सकते थे। स्पष्ट राहत सिर्फ इस तथ्य से मिल सकती है कि आपके भाई द्वारा किया गया अपराध विशुद्ध रूप से राजनीतिक था।"

वीडी सावरकर को अंडमान से रिहाई दिलाने में 'सहायता' करने के लिए महात्मा गांधी का अगला 'हस्तक्षेप' मई 1920 में हुआ जब उन्होंने यंग इंडिया में एक लेख लिखा था। उन्होने  इसके ज़रिए दिसंबर 1919 की उस रॉयल उद्घोषणा के बारे में याद दिलाया जिसने "राजनीतिक अपराधियों" को क्षमादान देने की बात की थी, खासकर जिन्होंने पहले कानून तोड़ा और अब वे यह प्रतिज्ञा लेने को तैयार थे कि वे "भविष्य में इसका सम्मान करेंगे।" महात्मा गांधी ने सरकार को याद दिलाया कि काफी समय बीत चुका है, लेकिन वीडी सावरकर अभी भी हिरासत में हैं।

यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि महात्मा गांधी ने जेल में बंद दोनों सावरकरों में से किसी को भी कानून का 'पालन' करने और राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा नहीं बनने का सुझाव कभी नहीं दिया था। सेल्यूलर जेल में रहने के दौरान दोनों भाइयों के पास यह विकल्प था कि वे इस किस्म का शपथ पत्र न लिखते कि वे कानूनों का उल्लंघन नहीं करेंगे और ब्रिटिश हुकूमत के वफादार रहेंगे।

राहुल गांधी, केवल इतिहास के इस विकृत टुकड़े को ही ठीक कर रहे हैं। वे समय-समय पर इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि वीडी सावरकर ने जो माफी मांगी वह उनके मन की बात थी, चाहे उनकी तथाकथित वीरता या बहादुरी कुछ भी हो।

यह आखिरी बार नहीं है जब कांग्रेस नेता देश को औपनिवेशिक प्रशासन के सामने वीडी सावरकर के उस विनम्र समर्पण की याद दिला रहे हैं, जिसके जरिए सावरकर ने उम्मीद जताई थी अब उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। महात्मा गांधी ने कभी भी वीडी सावरकर द्वारा चुने गए रास्ते का सुझाव नहीं दिया था।

अंग्रेजों के सामने झुकने का फैसला उनका निजी फैसला था। राहुल गांधी केवल इस सच्चाई पर रोशनी डाल रहे हैं!

लेखक, एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकंफिगर इंडिया है। उन्होंने द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स भी लिखी है। उन्हें  @NilanjanUdwin पर ट्वीट किया जा सकता हैं)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Savarkar Bowed Before the British, Rahul Gandhi is Merely Shedding Light on it

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest