संप्रदायों और दंगों के कारण गुजरात में हिंदुत्व का उदय हुआ : लेखक-कार्यकर्ता अच्युत याग्निक
गुजरात के लिए अपनी नई विधानसभा चुनने में 15 दिन से भी कम का समय रह गया है। जनमत के सर्वेक्षणों का इशारा है कि भाजपा एक बार फिर सत्ता में वापसी करेगी। यह उस संभावना की गवाही है कि पार्टी की हिंदुत्व की विचारधारा तेजी से गुजरात का सामान्य ज्ञान बनती हा रही है। इस सामान्य ज्ञान के खिलाफ चुनाव में दो अन्य दावेदार हैं - कांग्रेस और आम आदमी पार्टी- जो इस पर चर्चा या प्रचार नहीं कर रहे हैं। 2017 के चुनाव में, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपने अभियान के दौरान कई मंदिरों में माथा टेका, लोगों को उस सब की गलत तारीके से पेशकश की, जिसे हिंदुत्व का नरम संस्करण कहा जाता है। अबकी बार, ये आप नेता अरविंद केजरीवाल हैं, जो अपनी हिंदू पहचान प्रदर्शित करने के मामले में हद से आगे निकल गए हैं।
क्या यह कहना सही है कि हिंदुत्व अब गुजरात का सामान्य ज्ञान बन गया है? वे कौनसी प्रक्रियाएं हैं जिनके जरिए हिंदुत्व ने इस आधिपत्य को हासिल किया? इन सवालों के जवाब के लिए न्यूज़क्लिक ने अच्युत याग्निक से वार्ता की। याग्निक 1980 तक पत्रकार थे और गुजरात विश्वविद्यालय में पढ़ाते भी थे। इसके बाद, उन्होंने सेंटर फॉर सोशल नॉलेज एंड एक्शन की स्थापना की, जो वंचित समुदायों के लिए काम करता है। उन्होंने कई किताबें लिखी हैं, जिसमें द शेपिंग ऑफ मॉडर्न गुजरात: प्लुरलिटी, हिंदुत्व और बियॉन्ड जैसी महत्वपूर्ण, प्रासंगिक और पठनीय किताब कोई नहीं है, जिसे उन्होंने सुचित्रा शेठ के साथ मिलकर लिखा है। उनके साथ किए गए साक्षात्कार के कुछ अंश पेश हैं:
आपकी पुस्तक, द शेपिंग ऑफ मॉडर्न गुजरात, क्षत्रिय शासक सिद्धराज सोलंकी का जिक्र करती है, जिन्होंने 12वीं शताब्दी में कैम्बे (खंभात) में नष्ट की गई एक मस्जिद के पुनर्निर्माण का आदेश दिया था। क्या आप आज के गुजरात में ऐसे परिदृश्य की कल्पना करते हैं?
नहीं, नहीं, अब ऐसा नहीं हो सकता है। आज समुदायों के बीच बड़ी खाई है। मैं साबरमती नदी के दूसरी ओर शहर के आधुनिक क्वार्टर में रहता हूं। जिसके एक छोर पर आपको जुहापुरा का मुस्लिम इलाका मिलता है। फिर हिंदू क्षेत्र आता हैं। और दूसरी ओर, आपको दलित हाउसिंग सोसाइटीज़ मिलेंगी।
वैसे शासक सिद्धराज सोलंकी ने मस्जिद तोड़ने के जिम्मेदार अपराधी को सजा भी दी। यह आज अकल्पनीय सा लगता है। उदाहरण के लिए, बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार और उसके परिवार के चार सदस्यों की हत्या के दोषियों को आजीवन कारावास की सजा दी गई थी। फिर भी उनकी सजा माफ़ कर दी गई और वे अब जेल से बाहर हैं। आगामी विधानसभा चुनावों में नरोदा से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार पायल कुकरानी हैं, जिनके पिता मनोज उन 32 लोगों में शामिल थे, जिन्हे नरोदा पाटिया नरसंहार में उनकी भूमिका के लिए दोषी ठहराया गया था। राज्य सरकार का आचरण सिद्धराज के विपरीत है। गुजरात के लोग आज बिलकिस बानो और उसके साथ हुई यातनाओं के बारे में बात नहीं करते। 2002 की भीषण हिंसा पर गुजरात में कोई पछतावा नहीं है।
आपने अपनी किताब में 2002 में हुई हिंसा के भूगोल पर चर्चा की है। आप लिखते हैं कि 2002 में जिन इलाकों में सबसे ज्यादा हिंसा हुई, वे वो इलाके भी थे, जहां विधानसभा सीटों पर कांग्रेस का दबदबा था। ऐसा लगता है कि हिंसा और हिंदुत्व या बीजेपी लामबंदी के बीच एक स्पष्ट संबंध है।
इसमें कोई शक नहीं है। हिंसा ने एक हिंदू वोट-बैंक को जन्म दिया है। लेकिन जाहिर है, यह साबित करना मुश्किल है कि हिंसा बीजेपी प्रायोजित थी, या पार्टी के भीतर केवल कुछ तत्वों ने ऐसा किया था।
अपनी पुस्तक में, आप 19वीं शताब्दी के अंत से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तैयार हुई सीमाओं का जिक्र करते हैं।
आज़ादी के बाद के भारत में ये सीमाएं बनाई गईं और कठोर हो गईं थीं। इसके बाद, दोनों समुदायों के बीच लगातार यह दूरी बढ़ती गई। 1969 में एक बड़ा दंगा हुआ था। उस समय व्यापक भावना, जैसा कि मैंने अपनी किताब में बताया है, यह थी कि "मुसलमानों को सबक सिखाने का समय आ गया है।" पहली बार महिलाओं की जान बख्शने के अलिखित नियम को तोड़ा गया और महिलाओं पर हमलों की घटनाएं सामने आईं। 1986 तक, अतीत के ऐसे मानदंडों को भुला दिया गया था। बड़े पैमाने पर जलाने की पहली घटना 1992 में उत्तरी गुजरात के सूरत शहर और मनसा शहर में हुई थी। महिलाओं के खिलाफ लाठी और डंडों से यौन शोषण का रूप लेने वाली हिंसा की पहली घटना इसी दौरान सूरत से सामने आई थी। हर दंगे ने इस खाई को सख्त कर दिया, और 2002 में यह चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई थी।
क्या यह कहना सही होगा कि 2002 के दंगों ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों की गुणवत्ता को ही बदल दिया है?
यह प्रक्रिया पहले ही शुरू हो गई थी, लेकिन हां, 2002 के बाद यह कहा जा सकता है कि जुहापुरा की दूरी हर मायने में पूरी हो गई है। यह अब एक अलग जगह है।
क्या 2002 के दंगों ने दोनों समुदायों के बीच फिर से पुल बनाने की कोई संभावना नहीं छोड़ी है?
पहले, अहमदाबाद एक कपड़ा केंद्र था। कपड़ा मजदूर उन कपड़ा मिलों के निकट रहते थे जहां वे काम करते थे। श्रमिक वर्ग दोनों धार्मिक समुदायों से होते थे। वे एक साथ रहते थे। मिश्रित पड़ोस थे। लेकिन कपड़ा मिलें बंद हो गईं। और मिश्रित पड़ोस धीरे-धीरे अतीत की बात बन गए।
क्या हिंदुत्व गुजरात का सामान्य ज्ञान बन गया है और उसने अपना आधिपत्य जमा लिया है?
यह विशेष रूप से गुजराती मध्य वर्ग के मामले में सच है, जो हिंदुत्ववादी बन गया है। हिंदुत्ववाद से मेरा मतलब है कि मध्यम वर्ग हिंदू कट्टरपंथी बन गया है। उनके लिए यह भी अहम बात है कि उनके खुद एक दो नेता-नरेंद्र मोदी और अमित शाह-केंद्र की कमान संभाल रहे हैं.
स्वामीनारायण संप्रदाय के बोचासन उप-संप्रदाय, स्वाध्याय परिवार और आशाराम आश्रम जैसे विभिन्न आधुनिक संप्रदायों ने भी हिंदुत्व के वर्चस्व को गुजरात का सामान्य ज्ञान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पहले, जाति लोगों के जीवन में केंद्रीय थी। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों को 84 उपजातियों में बांटा गया है। ग्रामीण गुजरात में, पहले के दशकों में, जब सभी ब्राह्मणों को दावत के लिए बुलाया जाता था, तो वे कहते थे। "आज चौरासी है।" उप-जातियां अब महत्वपूर्ण नहीं हैं। लोग, विशेष रूप से मध्यम वर्ग, अब व्यापक हिंदुत्व पहचान के तहत काम करते हैं। तो, हाँ, हिंदुत्व हावी हो गया है।
क्या आपको लगता है कि हिंदुत्व का वर्चस्व आगामी चुनावों में फिर से दिखाई देगा?
निश्चित है। गुजराती बहुत खुश हैं कि दो गुज्जू देश के दो सर्वोच्च पदों पर आसीन हैं। वे नहीं चाहेंगे कि मोदी और शाह कमजोर हों।
अपनी किताब में आपने लिखा है कि गुजरात की तुलना हिंदुत्व से करना "गुजरात की राजनीति और समाज के जटिल जाल का अतिसरलीकरण" है। आपकी पुस्तक 2005 में प्रकाशित हुई थी। क्या आपको लगता है कि स्थिति 2005 की स्थिति से बदल गई है?
यह इस अर्थ में बदल गई है कि अधिक से अधिक मध्यम वर्ग हिंदुत्ववादी हो गया है। नए शहरीकृत लोग संप्रदायों में शामिल हो जाते हैं। यह डॉक्टरों को मरीज और मरीजों को डॉक्टर मिलने का मामला है।
गुजरात में हिंदुत्व के प्रसार में संप्रदायों की क्या भूमिका है?
गुजरात एक अत्यधिक शहरीकृत और औद्योगिक राज्य है। [2011 की जनगणना के अनुसार, गुजरात की शहरी आबादी राज्य की शहरी आबादी का लगभग 42.6 प्रतिशत थी।] ये दो प्रक्रियाएँ उनमें चिंताएँ पैदा करती हैं। शहरों में जीवन स्वाभाविक रूप से असुरक्षित है। लेकिन लोगों के पास भरोसा करने के लिए जातिगत नेटवर्क नहीं है। इसलिए वे संप्रदायों में शामिल हो गए हैं। वे अपने सदस्यों को एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समर्थन प्रदान करते हैं, और उन्हें एक समुदाय से संबंधित होने की भावना देते हैं, जो इन संप्रदायों की सामूहिक प्रार्थनाओं से दिखाई देती है। संप्रदाय नेटवर्क उन्हें रोजगार या वित्तीय सहायता हासिल करने में मदद करता है। ये संप्रदाय भी हिंदुत्ववादी हैं।
इन संप्रदायों को हिंदुत्ववादी कैसे बनाया गया है?
सबसे पहले, सबसे स्पष्ट कारणों में, आपको इन संप्रदायों में मुसलमान नहीं मिलेंगे। उनका दृष्टिकोण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समान ही है। उदाहरण के लिए, इनमें से एक पंथ अपनी वेबसाइट पर कहता है कि उनका लक्ष्य विभिन्न समुदायों में भारतीय संस्कृति और विश्वास, एकता और निःस्वार्थ सेवा के हिंदू आदर्शों को संरक्षित करना है। वे गौरवशाली हिंदू अतीत, उस अतीत को फिर से खोजने की जरूरत और हिंदू गौरव के बारे में बात करते हैं। वे हिंदू दावे की बात करते हैं। वे हिंदू दर्शन की विभिन्न प्रणालियों पर चर्चा नहीं करते हैं। लेकिन ये संप्रदाय मानवतावादी और दान सेवा भी करते हैं, ग्रामीण गुजरात में कार्यक्रम चलाते हैं, और शैक्षणिक संस्थान भी स्थापित किए हुए हैं।
आप उनके और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दृष्टिकोण के बीच घनिष्ठ ओवरलैप देख सकते हैं। कभी-कभी तो इन आधुनिक पंथों के सदस्यों से बात करना भी कठिन होता है।
मध्यम वर्ग के तरक्की किए सदस्य अपनी नई अधिग्रहीत स्थिति को मान्य करने और सामाजिक सुरक्षा और संरक्षण के नए नेटवर्क में प्रवेश पाने के लिए प्रभावशाली, आधुनिक हिंदू संप्रदायों में शामिल होते हैं। गुजराती डायस्पोरा भी इन नए संप्रदायों के लिए तैयार हो गया है क्योंकि कई अप्रवासी तेजी से इस सब के प्रति जागरूक हुए हैं कि अमेरिका में पैदा हुए बच्चे अपनी संस्कृति से संपर्क खो रहे हैं और संप्रदाय अपनी जड़ों की तलाश में सांस्कृतिक यात्रा का मार्ग बन गए हैं। संप्रदाय एक बिरादरी और अन्य जरूरतों जैसे कि अपने बच्चों के लिए दूल्हे और दुल्हन की तलाश या भारत में पढ़ने के लिए आने वाले बच्चों के लिए समर्थन की जरूरत को भी पूरा करते हैं। बोचासन के स्वामीनारायण संप्रदाय, जिसे बीएपीएस के नाम से जाना जाता है, ने संयुक्त राज्य अमेरिका में 30 से अधिक शानदार मंदिरों का निर्माण किया है।
तो क्या इन सम्प्रदायों को अपने पश्चिमी संबंध से लाभ हुआ है?
इन संप्रदायों के पश्चिमी संबंध ने उन्हें एक से अधिक तरीकों से समृद्ध बनाया है। वे गुजरात में शक्तिशाली और प्रतिष्ठित हो गए हैं और बड़ी संख्या में ओबीसी, दलित और आदिवासी मध्यवर्गीय परिवारों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। हालांकि संघ परिवार शुरू से ही 'हिंदू एकता' का उपदेश देता रहा है, लेकिन दिन-प्रतिदिन के व्यवहार में वे संप्रदाय और उप-संप्रदाय की पहचान का समर्थन करते हैं, और किसी भी तरह से इन अंतर्निहित पदानुक्रमों और विभाजनों को पार करने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। इस प्रकार संघ परिवार ने एक महाकुंभ का दर्जा हासिल किया जहां हर हिंदू, नए या पुराने सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों के साथ, पवित्र मण्डली में आत्म-मान्यता और स्थान पाता है।
क्या गुजरात में हिंदू वोट बैंक है? चुनाव के दौरान इसे कैसे लामबंद किया जाता है?
2002 के दंगों ने हिंदू वोट बैंक का विस्तार और एकीकरण किया, जो स्वतंत्रता के बाद के दंगों के माध्यम से पैदा और तैयार हुआ था। शहरी गुजरात में, हिंदू वोट बैंक को संप्रदाय एक साथ रखते हैं। लेकिन यह भी सच है कि बीजेपी संगठनात्मक रूप से कांग्रेस से कहीं ज्यादा मजबूत है। ऐसा राज्य में आरएसएस के व्यापक नेटवर्क के कारण है। कांग्रेस की युवा शाखा सेवादल, आरएसएस का मुकाबला कर सकती थी। लेकिन आपको राज्य में सेवादल की महत्वपूर्ण उपस्थिति शायद ही मिले। वे मुश्किल से दिखाई दे रहे हैं। इसलिए कांग्रेस और युवा पीढ़ी के बीच संबंध टूट गए हैं।
ऐसा क्यों है कि हिंदुत्व के खिलाफ लोगों को लामबंद करने की गांधी की परंपरा को कांग्रेस आगे नहीं बढ़ा सकी है?
ऐसा राज्य में कांग्रेस नेतृत्व के कारण हुआ है। उदाहरण के लिए इससे पहले कांग्रेस के पास माधवसिंह सोलंकी और जिनाभाई दारजी थे। वे हर निर्वाचन क्षेत्र को अच्छी तरह से जानते थे। ऐसे नेता अब नहीं हैं। वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व के पास कोई कल्पना नहीं है।
आपका मतलब राज्य में नेतृत्व से है या दिल्ली से?
दोनों। लेकिन विशेष रूप से गुजरात नेतृत्व के पास कोई कलपान या विचार नहीं है।
कांग्रेस सदस्यों की अपनी ही पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता कमजोर है। 2017 में जीते इसके कई सदस्य कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए हैं।
बीजेपी ने 2002 में 127, 2007 में 117, 2013 में 115 और 2017 में 99 सीटें जीती थीं। वहीं कांग्रेस को 2002 में 51, 2007 में 59, 2013 में 61 और 2017 में 77 सीटों पर जीत मिली थी। यदपि उनकी सीटें बढ़ रही हैं लेकिन प्रभाव कम हो रहा है। यह काफी हद तक संप्रदायों की बढ़ती ताकत के कारण है, जो अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा की विचारधारा का समर्थन करते हैं। हिंदू मध्यम वर्ग भाजपा से आसक्त है, मुख्यतः इस वर्ग पर इन संप्रदायों के प्रभाव के कारण ऐसा है।
क्या हिंदुत्व का आधिपत्य मोदी के बिना मजबूत हो सकता था?
गुजरात में मोदी और शाह का उदय हिंदुत्व के उदय के बिना नहीं हो सकता था। और शहरी गुजरात में संप्रदायों के उदय के बिना हिंदुत्व का उदय नहीं हो सकता था। 2002 के दंगों ने मोदी को भारी राजनीतिक लाभ पहुँचाया। आप कह सकते हैं कि हिंदुत्व का प्रभुत्व सबसे महत्वपूर्ण कारक है कि 2002 के दंगों के कारण लोगों में विद्रोह क्यों नहीं हुआ।
2002 के दंगों के दौरान देखी गई बेरुखी से ज्यादा परेशान करने वाली बात गुजरात में अधिकांश आधुनिक संप्रदायों के आध्यात्मिक नेताओं की चुप्पी थी, जिसमें जैन भी शामिल थे, जिनका अहिंसा एक मुख्य सिद्धांत है। महाकाव्यों में उठाए गए बड़े नैतिक प्रश्नों को उनके द्वारा आसानी से अनदेखा कर दिया गया। उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध उक्ति अहिंसा परमोधर्म-अहिंसा सर्वोच्च धर्म है- का उपदेश महाभारत के महान युद्ध में भीष्म ने दिया था।
हिंदू परंपरा के इस केंद्रीय सिद्धांत को प्रभावी ढंग से दरकिनार कर दिया गया और अहिंसा के प्रासंगिक प्रश्न का शायद ही उल्लेख किया गया। वास्तव में, जिस तरह राज्य और संघ परिवार के बीच की रेखाएँ धुंधली थीं, उसी तरह संघ परिवार और हिंदू संप्रदायों के बीच की रेखाएँ धुंधली थीं।
यह घटना दिसंबर 2002 में विधानसभा चुनाव के दिन एक समाचार पत्र की घोषणा में परिलक्षित होती है, जब सौराष्ट्र से व्यापक रूप से प्रसारित गुजराती दैनिक फुलचब में विश्व हिंदू परिषद के एक प्रमुख विज्ञापन को छापा था, जिसमें सभी हिंदुओं से हिंदू संस्कृति के "रक्षकों" को वोट करने का आह्वान किया गया था।” विज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वालों की सूची में, स्वामीनारायण संप्रदाय के स्थानीय स्वामी, सूची के सबसे ऊपर थे, जिसके बाद आशाराम आश्रम के स्थानीय प्रमुख थे।
मैं 77 साल का हूं। जिस हिंदू धर्म को हम समझते हैं, वह हिंदू धर्म को आज जिस तरह से समझा जाता है, उससे बहुत अलग है।
क्या आप इन दो प्रकार के हिंदू धर्म के बीच अंतर को चिह्नित कर सकते हैं?
उदाहरण के लिए, मैं हिंदू दर्शन से अधिक जुड़ा हुआ था। हमने वसुधैव कुटुम्बकम, या पूरी दुनिया एक परिवार है, जैसी हिंदू भावना को आत्मसात किया था। इस भावना को मैंने गुजरात विश्वविद्यालय में छात्रों तक पहुँचाया, जहाँ मैं पढ़ाता था। आज, लोग संप्रदायों के दर्शन से अधिक जुड़े हुए हैं, जो हिंदुओं की महानता पर जोर देते हैं और कि कैसे वे दुनिया पर राज करने के लिए पैदा हुए हैं।
आपकी पुस्तक से यह स्पष्ट है कि ऊंची जातियां-ब्राह्मण, बनिया और पाटीदार-हिंदुत्व के उदय में सहायक थे, मुख्यतः क्योंकि उन्होंने हिंदुओं को एकजुट करने के विचार को (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) द्वारा सत्ता पर उनके नियंत्रण की चुनौती को विफल करने के सामाजिक गठबंधन के तरीके के रूप में देखा था। दलितों और आदिवासियों जैसे सबाल्टर्न समूह कैसे भाजपा के खेल को समझने में असमर्थ रहे?
एक कारण यह है कि तीन सामाजिक समूहों- ब्राह्मणों, बनियों और पाटीदारों ने गुजरात के शहरीकरण में प्रमुख भूमिका निभाई है। जातियों के अंतर्विरोधों को संप्रदायों की मौजूदगी और गतिविधियों ने कागज पर उतार दिया था। सोलंकी एक निम्न क्षत्रिय थे, जो अनिवार्य रूप से बैरिया जाति से संबंधित थे, जो एक ओबीसी हैं। 1980 के दशक में ओबीसी को आरक्षण देने के कांग्रेस पार्टी के फैसले के ज़रिए, उन्होंने और दारजी ने वंचित समूहों को महत्व दिया था।
लेकिन हमें शिक्षा के कारक को भए नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। बड़ौदा के शासक सयाजीराव गायकवाड़ [1863-1939] ने अपने शासन वाले क्षेत्र में शिक्षा का प्रसार किया था। अंग्रेजों द्वारा शासित क्षेत्रों की तुलना में उनके राज्य में बेहतर शैक्षिक उपलब्धि थी। उन्होंने आदिवासी बेल्ट पर भी ध्यान दिया था। जब ब्राह्मणों ने आदिवासी क्षेत्र में पढ़ाने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने मुस्लिम शिक्षकों को नियुक्त किया था। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा पर भी ध्यान केंद्रित किया था। शिक्षा ने आदिवासियों के बीच एक मध्यम वर्ग को पैदा करने में भी मदद की थी। वे नौकरी की तलाश में शहरी गुजरात चले गए। और वे भी विभिन्न संप्रदायों में शामिल हो गए। उन्होंने भी हिंदुत्व की बात करना शुरू कर दिया, जैसा कि उनके नेता करते हैं।
इसलिए, अनिवार्य रूप से, गुजरात में लड़ाई हिंदुत्व को परिभाषित करने या फिर से परिभाषित करने को लेकर है। मान लें कि हमारे पास एक तरफ हिंदू धर्म के बारे में गांधी का विचार है और दूसरी तरफ हिंदू धर्म के बारे में संघ की अवधारणा है।
1947 के बाद से गुजरात में हुए कई दंगों के कारण संघ परिवार के विचारों को बढ़ावा मिला है। राज्य में उनके नेटवर्क का विस्तार हुआ है। इसके विपरीत, गांधीवादी विचारों में गिरावट आई है। गांधीवादी संस्थाएं, जैसे कि गुजरात विद्यापीठ, जिसकी स्थापना 1920 में गांधी द्वारा की गई थी, अब वह भूमिका नहीं निभा रही हैं जो उन्होंने निभाई थीं- या जैसा कि उन्हें अब निभानी चाहिए थी। वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व के पास इस लड़ाई को लड़ने की कोई कल्पना नहीं है। आरएसएस-प्रकार के संस्थान समृद्ध हुए हैं। इसने आरएसएस को बिना किसी मजबूत चुनौती के हिंदू धर्म के अपने विचार का प्रचार करने में सक्षम बनाया है।
(एजाज़ अशरफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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