अध्ययन: जेंडर के मुद्दे पर पुरुषों और लड़कों के साथ काम करना ज़रूरी है
“दीदी, आपने पुरुषों के साथ जो कार्यक्रम शुरू किया है, उससे मेरा जीवन सुखी हो गया है। मेरी शादी नौ साल पहले हुई थी लेकिन हमारे बच्चे नहीं हुए। घर में सभी मेरे पति को दूसरी शादी करने के लिए कह कर रहे थे। इस कार्यक्रम का हिस्सा बनने के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि वह दोबारा शादी नहीं करेंगे। पहले वे मुझे गाली देते थे और मुझे 'रे' ‘रे’ कह बुलाते थे। अब वह मुझे गाली नहीं देते हैं और वह मुझे इज़्ज़त से बुलाते हैं।”
-एक महिला संगठनकर्ता को एक आम महिला
“पहले जब मैं छुट्टी पर घर जाता था तो मुझे इस बात का बहुत दुख होता था कि मेरी पत्नी मुझे ज्यादा वक्त नहीं देती। एक बार 15 दिन बाद वापस आया। इस कार्यक्रम का हिस्सा बनने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मेरी पत्नी घर के सभी कामों में और बच्चों और बड़ों की देखभाल में बहुत व्यस्त रहती है। इस बार जब मैं घर गया, तो मैंने रसोई में उसकी मदद करनी शुरू कर दी। मैंने अपने पिता के लिए नाश्ता तैयार करने में मदद की। इसी तरह और काम भी किये। नतीजा यह हुआ कि इस बार उसने मेरे साथ ज्यादा समय बिताया।”
-एक पुलिसकर्मी का बयान
ये दोनों किस कार्यक्रम की बात कर रहे हैं?
ऐसा कौन सा कार्यक्रम इस देश में होने लगा जिससे स्त्रियों की ज़िंदगी तो बेहतर हुई ही, पुरुषों में भी बदलाव आया?
और पुरुषों में बदलाव भी ऐसा-वैसा नहीं आया। वे बदलाव आये जो प्रचलित सामाजिक मानदंडों से मेल नहीं खाते हैं।
इन बदलावों के पीछे पुरुषों और लड़कों के साथ जेंडर समानता और जेंडर आधारित हिंसा रोकने के लिए तमाम संगठनों द्वारा किये जा रहे काम हैं। ये काम देश के अलग-अलग कोनों में अलग-अलग संगठन कर रहे हैं। ऐसे बदले हुए पुरुष और लड़के देश के अलग-अलग कोनों में देखे जा सकते हैं।
ये बातें पिछले दिनों दिल्ली की एक संस्था ‘सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस’ (सीएचएसजे) के अध्ययन में सामने आयीं। सीएचएसजे के इस अध्ययन का नाम है- ‘जेंडर आधारित हिंसा की रोकथाम में पुरुषों और लड़कों के साथ काम क्या असर डालते हैं: भारत में होने वाले काम के अनुभवों से निकली सीख’।
इस अध्ययन का मक़सद था, पुरुषों और लड़कों के साथ हुए उन कामों की पहचान करना जो जेंडर आधारित हिंसा रोकने में कारगर हुए हैं।
कोविड महामारी के दरम्यान यह अध्ययन दो चरणों में हुआ। पहले चरण में 15 राज्यों के 66 संगठनों का ऑनलाइन सर्वे हुआ। दूसरे चरण में इनमें से 16 संगठनों के साथ लम्बे इंटरव्यू किये गये। उनकी रिपोर्ट और दस्तावेज़ों का भी अध्ययन किया गया। इनमें से अनेक ऐसे संगठन हैं जो लम्बे अर्से से जेंडर आधारित हिंसा (जीबीवी) रोकेने या जेंडर समानता के मुद्दे पर काम कर रहे हैं। इनमें ग्रामीण और शहरी दोनों समुदायों के साथ काम करने वाले संगठन हैं।
कोविड और महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा
ऐसे कई अध्ययन आए हैं, जो बताते हैं कि कोविड के दौरान महिलाओं की हालत बदतर हुई थी। उनके साथ घरेलू हिंसा में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई थी। राष्ट्रीय महिला आयोग के आँकड़े भी बताते है कि कोविड की वजह से हुए लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामले में काफ़ी तेज़ी देखने को मिली। उनके पास काफ़ी शिकायतें आईं। लॉकडाउन से एक साल पहले सन् 2019 में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की 19,730 शिकायतें आई थीं। वहीं लॉकडाउन वाले साल यानी 2020 में 23,722 शिकायतें आईं। जहाँ 2019 में घरेलू हिंसा की शिकायतों की संख्या 2,960 थी, वहीं 2020 में यह बढ़कर 5,297 हो गई। यानी घरेलू हिंसा कोविड के दौरान बढ़ी थी। इस परिप्रेक्ष्य में यह अध्ययन और महत्वपूर्ण हो जाता है। पुरुषों के साथ काम करने की अहमियत और बढ़ जाती है।
बदलाव की निशानियाँ पुरुषों और लड़कों में देखे गये बदलाव
घर के अंदर बदलाव: सीएचएसजे के अध्ययन ने पाया कि जेंडर आधारित कार्यक्रम से सबसे ज़्यादा बदलाव घर-परिवार के अंदर आया है। घर के अंदर जेंडर आधारित हिंसा और भेदभाव कम हुए हैं। पुरुष और लड़के पहले से ज़्यादा मददगार की भूमिका में आये हैं। दूसरी ओर, घर की महिलाएँ और लड़कियाँ, अब ज़्यादा खुलकर अपनी बात कहने लगी हैं। अपने फ़ैसले लेने लगी हैं। संगठनों के एक छोटे समूह ने समुदाय के स्तर पर भी जेंडर आधारित हिंसा और भेदभाव में बदलाव पाया है।
पुरुषों और लड़के में सबसे आम बदलाव घर के अंदर के काम में दिखा। पुरुष और लड़के घरेलू कामों में मदद करने लगे।
अध्ययन में एक व्यक्ति ने बताया कि पहले पुरुष काम से लौटता था और चारपाई पर आराम करने लगता। दूसरी ओर, महिला भी काम से लौटती लेकिन वह खाना पकाने में जुट जाती थी। अब एक तरफ़ महिला अगर रोटी बनाने के लिए आटा गूँथ रही है तो दूसरी ओर पुरुष सब्जियाँ काटने में लगा है। जब महिलाएँ रसोई के काम में लगी रहती हैं तो पुरुष पानी भर कर लाता है या छोटे बच्चे-बच्चियों को नहलाता है। एक और उत्तरदाता ने बताया कि खाना पकाना या बर्तन साफ़ करना महिलाओं का काम है, इस नज़रिये में बदलाव आ रहा है। पुरुष घरेलू कामों में मदद कर रहे हैं। वे बच्चों के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी लेने लगे हैं। लड़के भी घरेलू कामों की ज़िम्मेदारी लेते देखे गये।
स्वभाव और भाषा में बदलाव
पुरुषों और लड़कों के साथ काम करने का नतीजा है कि अब इनकी बातचीत में गालीगलौज की भाषा में काफ़ी कमी आयी है। पुरुषों में गुस्से और आक्रामकता में भी कमी देखने को मिली। पहले वे महिलाओं से आदेश के स्वर में बात करते थे। अब उनकी भाषा महिलाओं के प्रति सम्मानजनक हुई है। घर में लड़ाई-झगड़े में कमी आयी है। बच्चे-बच्चियों का अपने पिता से डर कम हुआ है और वे अपने पिता के साथ पहले से ज़्यादा खुलकर बात कर रहे हैं।
शराब और हिंसा में कमी
अध्ययन में शामिल कई उत्तरदाताओं ने यह बात बताया कि पुरुषों में शराब पीकर गालीगलौज और नशे में हिंसा करने की घटनाओं में कमी आयी है। कुछ जगहों पर तो लड़के अपने पिता से शराब पीकर गालीगलौज करने के मुद्दे पर बात करने में भी कामयाब हुए।
महिलाओं के साथ हिंसा और पुरुष
जिन पुरुषों के साथ जेंडर के मु्द्दे पर काम हुआ है, वे महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के मामले में हस्तक्षेप करने लगे हैं। अध्ययन से पता चलता है कि पहले हिंसा के मामले में संगठन के लोगों को हस्तक्षेप करना पड़ता था। अब हिंसा के केस में संगठनों के प्रोजेक्ट क्षेत्र के पुरुष जेंडर चैम्पियन के रूप में हस्तक्षेप करते हैं। वे सार्वजनिक मंचों पर उत्पीड़न और हिंसा के मामले उठाते हैं। लड़कों के साथ काम करने वाले संगठनों ने बताया कि इसकी वजह से समुदाय में लड़कियों के लिए सुरक्षित माहौल बना। यही नहीं, समुदाय में किसी भी तरह की हिंसा की आशंका में कमी देखने को मिली।
बहनों की शिक्षा के लिए चिंतित भाई
जिन लोगों ने लड़कों के साथ काम किया है, वे बताते हैं उनके कार्यक्रमों का हिस्सा रहे लड़के अब अपनी बहनों की शिक्षा के लिए चिंतित रहते हैं। वे अपनी बहनों को घर के अंदर अपनी बात कहने में भी मदद करते हैं। कुछ जगहों पर लड़कों में बेहतर अनुशासन देखने को मिला। वे इम्तेहान में भी अच्छा करने लगे।
नज़रिये में बदलाव
ज्यादातर उत्तदाताओं की राय थी कि महिलाओं और हिंसा के प्रति पुरुषों और लड़कों के नज़रिये में निश्चित बदलाव आया। महिलाओं के साथ हिंसा अब स्वीकार्य नहीं है। यही नहीं, यह नज़रिया भी बदल रहा है कि घरेलू काम सिर्फ़ महिलाओं का काम है। महिलाओं के घर से बाहर जाने के मुद्दे पर पुरुष अब कम चिंतित होते हैं। घर के अंदर के फ़ैसलों में वे महिलाओं की राय लेने में बुरा नहीं मानते। यहाँ तक कि उन मामलों में भी जो पहले सिर्फ़ पुरुषों के एकाधिकार के क्षेत्र माने जाते थे, जैसे- बेटे या बेटी की शादियों के मामले में अब महिलाओं की राय भी ली जाती है। लड़कों में महिलाओं के शरीर और माहवारी के बारे में ज्यादा जानकारी आयी है। बेटी के लिए सैनिटरी पैड लाने में पिताओं की झिझक पहले से काफ़ी कम हुई है।
इन बदलावों ने महिलाओं और लड़कियों पर क्या असर डाला
अध्ययन के मुताबिक, लगभग सभी संगठनों ने महसूस किया कि महिलाओं की गतिशीलता में बढ़ोतरी हुई है। कुछ मामलों इसका मतलब यह भी है कि महिलाएँ आजीविका के लिए घर से बाहर निकलीं। घर की कुल आय में बढ़ोतरी हुई है। महिलाएँ अपनी आय पर नियंत्रण पाने में कामयाब हुई हैं। लड़कियों को स्कूल जाने या पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रोत्साहन मिल रहा है। लड़कियाँ अपने अधिकारों के लिए पहले से ज्यादा ज़ोर लगा रही हैं। वे अपनी शादी से जुड़े मुद्दों पर बात करने लगी हैं और कहने लगी हैं कि वे काम करना चाहती हैं। लड़कियाँ अपने पसंद के कपड़े पहनने लगी हैं। वे जींस या पैंट पहनने के लिए आज़ाद हैं। आदिवासी समाज में जहाँ महिलाओं पर ‘शैतानी आत्मा’ पकड़ लेने का आरोप लगाने की परम्परा रही है, वहाँ अब यह नहीं हो रहा है। कई जगहों पर पुरुष, महिलाओं को स्थानीय निकाय से लेकर पंचायत चुनाव तक में हिस्सेदारी करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। महिलाओं और लड़कियों को अब लगता है कि पुरुष और लड़के उनके मददगार हैं। पहले यह भावना उनमें नहीं थी।
रिश्ते में बेहतरी
अध्ययन में शामिल ज्यादातर उत्तरदाताओं ने देखा कि घर के दूसरे लोगों के साथ पुरुषों और लड़कों के रिश्तों में बड़ा बदलाव आया है। पति-पत्नी के बीच ज्यादा खुलापन और लगाव देखने को मिलता है। भाइयों और बहनों के बीच रिश्ते अच्छे हुए हैं। माँओं ने महसूस किया कि उनके बेटे अब ज़्यादा मदद करते हैं। पिता अपने बच्चे-बच्चियों का अब ज़्यादा ख़्याल रखते हैं। उनसे ज़्यादा प्यार करते हैं। अब ज़्यादा पुरुष अपनी संतानों को पढ़ाने में वक़्त देने लगे हैं। एक उत्तरदाता ने बताया कि उनके क्षेत्र में एक परिवार ऐसा भी है, जहाँ सभी एक साथ बैठते हैं तब सामूहिक तौर पर कोई फ़ैसला लेते हैं।
भेदभाव वाले सामाजिक रीति-रिवाजों या परम्पराओं में बदलाव
अध्ययन से पता चलता है कि पुरुष और लड़के महिलाओं और लड़कियों के पक्ष में आवाज़ उठाने के लिए पहल करने लगे हैं। वे महिलाओं और लड़कियों के साथ भेदभाव करने वाली सामाजिक मान्यताओं, रीति-रिवाज़ों या परम्पराओं का विरोध करने लगे हैं। एक आम चिंता का मुद्दा लड़कियों की जल्दी शादी और लड़कियों की पढ़ाई जारी रखने का था। संतान न होने या बेटा न होने की वजह से स्त्रियों को कलंकित करने के सवाल पर भी पुरुष पहल करने लगे हैं।
अध्ययन के मुताबिक, महिलाओं और लड़कियों में आत्मविश्वास बढ़ा है और वे परिवार के फ़ैसलों में अपनी भागीदारी बढ़ा सकती हैं। अब उनके पास अपनी मर्जी से सामान खरीदने की पहले से ज़्यादा आज़ादी है। लड़कियाँ अगर काम करना चाहती हैं या शादी नहीं करना चाहती तो वे अब पहले से ज़्यादा खुलकर अपने मन की बात कह पाती हैं। घर हो या समुदाय, महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा अब कम स्वीकार्य है।
यह अध्ययन कहता है कि पुरुषों और लड़कों के साथ काम करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि यह महिला सशक्तिकरण पर चल रहे काम का पूरक है। उसे बढ़ाता है। मजबूत बनाता है। सत्ता जिस तरह से आमतौर पर इस्तेमाल की जाती है, यह उसमें बदलाव लाता है
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