बोल्शेविक क्रांति की शुरूआती विरासत
अक्टूबर 1917 में, जब लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने रूस की सत्ता पर कब्जा कर लिया था, तो संदेश काफी सरल था: कि निरहंकार भी दुनिया को अपने अधीन कर सकते हैं। फ्रांसीसी और अंग्रेजी क्रांतियों के विपरीत, बोल्शेविक क्रांति गरीब किसानों के समर्थन से संगठित मजदूर वर्ग द्वारा सत्ता हथियाने का एक सुनियोजित और सचेत प्रयास था।
यह 20वीं सदी की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना थी, खासतौर पर इसलिए कि इसने शोषण के सभी पहलुओं से टक्कर ली थी। फिर चाहे वह वर्ग, नस्ल, लिंग या पूंजीवादी साम्राज्यवाद ही क्यों न हो। इतिहास में बोल्शेविक क्रांति के अलावा किसी घटना से इतना लंबा प्रभाव नहीं देखा गया है।
उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी क्रांति ने मनुष्य के अधिकारों की बात की, लेकिन महिलाओं को मतदान का अधिकार देने में विफल रही। इसने सभी पुरुषों की समानता की बात की, फिर भी नेपोलियन फ्रांस के कैरिबियन में गुलाम उपनिवेश थे। दासता को बरकरार रखने की फ्रांसीसी जिद्द, हैती में दास विद्रोह के नेता, टूसेंट लौवर्चर की भीषण हत्या में परिलक्षित हुई।
दूसरी ओर, बोल्शेविक क्रांति अपने वादों पर कायम रही। हालांकि गुलामी नहीं थी, फिर भी ज़ारिस्ट निज़ाम के यहूदी सबसे बुरे शिकार थे। ज़ारों ने लंबे समय तक यहूदी विरोधी भावनाओं को बढ़ावा दिया और गरीबों के गुस्से को यहूदियों के खिलाफ नर-हिंसा में बदलने को प्रोत्साहित किया। लेनिन और बोल्शेविकों ने इसे अच्छी तरह से समझ लिया था।
ज्यूरिख में 1905 की क्रांति पर दिए गए एक व्याख्यान में, लेनिन ने कहा था: "ज़ारवादी इस बात को अच्छी तरह से जानते थे यहूदियों के खिलाफ आबादी के सबसे अज्ञानी तबके को घृणित पूर्वाग्रहों के ज़रिए कैसे संगठित किया जाए, वे सीधे नेतृत्व न करके भी, वे जानते थी कि कैसे शांतिपूर्ण यहूदियों, उनकी पत्नियों और बच्चों का नृशंस नरसंहार किया जाए, जिन्होंने सभ्य दुनिया में इस तरह की घृणा पैदा की है।'
हर एक समाजवादी और कम्युनिस्ट व्यक्ति को बड़े गर्व के साथ इसे याद रखना चाहिए, खासकर तब-जब नकली यहूदी-विरोधी दुनिया में वामपंथ पर हमला करना एक नया हथियार बन गया है, कि 1914 में, ज़ारिस्ट ड्यूमा में बोल्शेविक पार्टी ने एक विधेयक का प्रस्ताव रखा जिसका उद्देश्य यहूदियों को दिए सभी अधिकारों की सभी सीमाओं, और किसी विशेष राष्ट्रीयता के वंश या सदस्यता से जुड़ी सभी सीमाओं को हटाना था।”
यह बोल्शेविकों का क्रांतिकारी प्रगतिवाद था, जिसके कारण यहूदी क्रांतिकारी देश की कमान में दूसरा स्तंभ बन गए थे। उस मार्क्सवादी यहूदी से आहत और चिंतित, अमेरिकी रेमंड रॉबिन्स ने उन्हें ''कुतिया के बेटे, लेकिन ईसा मसीह के बाद सबसे महान यहूदी'' के रूप में चित्रित किया था। वह लियोन ट्रॉट्स्की थे जिन्होंने अक्टूबर 1917 में क्रांतिकारी अधिग्रहण की योजना बनाई और लाल सेना के कमांडर-इन-चीफ बने।
ट्रॉट्स्की के अलावा, यहूदियों ने ज़िनोविएव, कामेनेव, याकोव स्वेर्दलोव, मैक्सिम लिटविनोव और मोइसी उरित्स्की जैसे वरिष्ठ बोल्शेविक पार्टी के सदस्यों की एक अच्छी संख्या का गठन किया। इसकी तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका से करें जहाँ एक अश्वेत अमेरिकी को संयुक्त राज्य का राष्ट्रपति बनने में 232 साल लगे।
लिंग प्रश्न
लिंग के सवाल पर 1903 में लिखे गए बोल्शेविक पार्टी के कार्यक्रम में 'पुरुषों और महिलाओं के अधिकारों की पूर्ण समानता' की मांग शामिल थी। लेनिन की पत्नी और लंबे समय से बोल्शेविक पार्टी की सदस्य नादिया क्रुपस्काया ने 1902 में द वूमन वर्कर शीर्षक से एक पैम्फलेट लिखा था। इसने अकाल की स्थिति में महिलाओं द्वारा झेले जाने वाले घोर कष्टों को दर्ज किया था और जिन्हे बेहद कम मजदूरी मिलती थी और दिन में साढ़े ग्यारह घंटे काम करने के बावजूद पुरुष मजदूरी का लगभग चार-पांचवां हिस्सा मिलता था।
पैम्फलेट ने मजदूर वर्ग की मुक्ति को पूरी तरह से महिलाओं की मुक्ति से जोड़ा। सेकंड इंटेरनेशनल के प्रसिद्ध 1907 के अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन के दौरान, लेनिन ने ऑस्ट्रियाई सोशल-डेमोक्रेट्स के अवसरवादी रुख की निंदा की, जिसमें पुरुषों के चुनावी अधिकारों के प्रति अभियान चलाते हुए, महिलाओं के चुनावी अधिकारों के संघर्ष को 'बाद की तारीख' के लिए टाल दिया था।
बोल्शेविक क्रांति की पूर्व संध्या पर, एलेक्जेंड्रा कोल्लोंताई ने 15,000 महिलाओं के एक मार्च का नेतृत्व किया था, इसमें मुख्य रूप से प्रथम विश्व युद्ध से लड़ने वाले रूसी सैनिकों की पत्नियां शामिल थीं। जब पुरुष मोर्चे पर लड़ रहे थे, महिलाएं बड़ी संख्या में कारखानों में काम कर रही थीं।
लेनिन ने आधिकारिक तौर पर बोल्शेविक पार्टी को लड़कियों के लिए मुफ्त शिक्षा, और उनकी आर्थिक मांगों, जैसे कि कार्यस्थल में शिशुगृह, स्तनपान का समय और मातृत्व अवकाश के लिए भुगतान करने की प्रतिबद्धता दोहराई थी। जूडी कॉक्स ने अपने निबंध, ‘आउट ऑफ द शैडो: फीमेल लेनिनिस्ट्स एंड रशियन सोशलिज्म’ में लिखा है कि "बोल्शेविक पार्टी कामकाजी महिलाओं का राजनीतिक घर बन रहा था, जो तेजी से समझ रही थीं कि युद्ध के विरोध में पूंजीवाद का विरोध भी शामिल है"।
क्रांति के कुछ ही हफ्तों के भीतर, सभी महिलाओं के लिए चिकित्सा सेवाएं मुफ्त कर दी गईं थी, डॉक्टरों को सरकारी खजाने से वेतन दिया गया और सभी चाइल्डकैअर संस्थानों को सरकारी नियंत्रण में ले लाया गया था। पहली बार, महिलाओं के लिए समान वेतन के अधिकार के साथ-साथ आठ घंटे के कार्यदिवस को कानून के रूप में विधिवत पारित किया गया था। मातृत्व अवकाश और स्तनपान के समय के लिए वेतन भुगतान की बोल्शेविक प्रतिज्ञाओं को भी लागू किया गया। दिसंबर 1917 के एक कानून ने तलाक की सभी बाधाओं को दूर कर दिया। अक्टूबर 1918 के नए परिवार कानून ने सभी विवाहों को धर्मनिरपेक्ष घोषित कर दिया था। इस प्रकार, अब रूढ़िवादी चर्च विवाह की मध्यस्थता करने वाला स्थान नहीं रह गया था। यह आर्थिक स्वतंत्रता और विवाह में महिलाओं को समानता भी प्रदान करता था, और सभी बच्चों के लिए पितृ जिम्मेदारी लागू करता है, चाहे वे विवाह में पैदा हुए हों या नहीं।
बोल्शेविक रूस भी 1917 की शुरुआत में समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करने वाला पहला देश बना था।
नवंबर 1920 में गर्भपात को वैध कर दिया गया था जिससे सोवियत संघ ऐसा करने वाला पहला देश बन गया था। विडंबना यह है कि उसी वर्ष, पूंजीवादी-साम्राज्यवादी फ्रांस ने एक ऐसा कानून बनाया जो सभी प्रकार के गर्भनिरोधकों पर रोक लगता था। 1922 के भूमि कानून ने महिलाओं को उनके परिवार के खेत का स्वामित्व दिया और उन्हें तलाक पर भी संपत्ति का अपना हिस्सा हासिल करने की अनुमति दी।
यह ऐसे समय में हो रहा था जब ब्रिटेन और फ्रांस जैसी यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों के यहां महिलाओं के पास सार्वभौमिक मताधिकार नहीं था। सोवियत संघ में, यह 1928 में आ गया था और ब्रिटेन और फ्रांस में 1944 तक की देरी में आया था। स्विट्जरलैंड ने 1971-1972 में महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया, और विडंबना यह है कि एपेंज़ेल के स्विस कैंटन ने 1991 के अंत में महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया था – यह वह वर्ष था जब सोवियत संघ टूट गया था!
नादिया क्रुपस्काया ने लिखा कि सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में महिला सदस्यों की संख्या 1922 में 40,000 से बढ़कर अक्टूबर 1932 तक 5,00,000 हो गई थी। और यह उस समय हुआ जब अक्टूबर क्रांति की 15 वीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी, 20-25 प्रतिशत महिलाएं ग्राम सोवियत, जिला कार्यकारिणी समितियों और शहर सोवियतों में प्रतिनिधि महिलाएं थीं।
उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएं
उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के प्रश्न पर बोल्शेविक क्रांति की विरासत बेजोड़ है। उपनिवेशवाद के खिलाफ लेनिन और बोल्शेविकों की दृढ़ता का पता 1907 के अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन से चलता है। कम्युनिस्ट विरोधी विद्वानों ने उपनिवेशों की राजनीतिक मुक्ति पर लेनिन की क्रांतिकारी समझ को दो तरह से समझाने की कोशिश की है।
सबसे पहले, अलेक्जेंडर कोल्चक और एंटोन डेनिकिन की अंतिम हार थी, जिसने श्वेत प्रति-क्रांति के दो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त नेताओं ने लेनिन और बोल्शेविकों को पूर्वी सीमावर्ती क्षेत्रों को नियंत्रण में लाने की अनुमति दी थी, और जिन्होंने 1917 के ठीक बाद स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। तर्क यह है कि इसने सोवियत को इजाजत दी कि वे एशिया के साथ बहुत ही जरूरी नज़दिकी रिश्ता कायम करें जिससे आंदोलनकारी जनता को बोल्शेविक क्रांति की राह पर चलना आसान हो जाए।
दूसरा, एशिया के उपनिवेशित राष्ट्रों में उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद के बढ़ते ज्वार ने लेनिन को उपनिवेशों के खिलाफ और कौमी मुक्ति आंदलनों की वकालत करने के लिए प्रेरित किया। यदि इतिहास को थोड़ा गहराई से देखा जाए तो दोनों तर्कों को अकादमिक स्वीकृति के उनके दायरे से हटा दिया जा सकता है।
जर्मनी के स्टटगार्ट में 1907 के अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन के दौरान, उपनिवेशों का प्रश्न बड़ा प्रश्न था। इसी सम्मेलन में एक भारतीय राष्ट्रवादी भीकाजी कामा ने वंदे मातरम के साथ 'भारतीय स्वतंत्रता का झंडा' फहराया था। फिर भी, उपनिवेशों के सवाल पर सबसे कम समर्थन मिला और अवसरवादी उतार-चढ़ाव का सबसे खराब रूप देखने को मिला।
डच संसद के एक प्रमुख समाजवादी सदस्य हेनरी ह्यूबर्ट वान कोल, जिन्होंने अतीत में तर्क दिया था कि (इंपीरियल) सरकार की नैतिक जरूरत सबसे पहले स्वदेशी लोगों की जरूरतों की देखभाल करना है, और केवल बाद में पूंजीवादी शोषण को बढ़ावा देना होना चाहिए, यह मुद्दा कांग्रेस के औपनिवेशिक आयोग पर हावी रहा। उन्होंने इस आशय का एक मसौदा प्रस्ताव तैयार किया कि स्टटगार्ट कांग्रेस सैद्धांतिक रूप से उपनिवेशवाद का विरोध नहीं करती थी, क्योंकि 'समाजवाद के तहत भी, उपनिवेशवाद को एक सभ्य भूमिका निभानी होगी।' यह लेनिन थे, जिन्होंने रोजा लक्जमबर्ग और अन्य जर्मनों लेफ्ट सोशल डेमोक्रेट्स के साथ मिलकर वैन कोल के अवसरवादी और सिद्धांतहीन प्रस्ताव को हरा दिया था।
अगले ही वर्ष, लेनिन ने विश्व राजनीति में ‘इनफ्लेमबल मटीरियल’ शीर्षक से एक पैम्फलेट लिखा जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि "इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि अंग्रेजों ने भारत में सदियों पुरानी अपनी लूट को जारी रखा हुआ है, और सभी 'उन्नत' यूरोपीय लोगों का फारसी और भारतीय लोकतंत्र के खिलाफ समकालीन संघर्ष, एशिया के लाखों-करोड़ों सर्वहाराओं को उनके उत्पीड़कों के खिलाफ संघर्ष छेड़ने के लिए प्रोत्साहित करेगा।''
क्रांति के बाद, बोल्शेविक पहली और एकमात्र सरकार थी जिसने पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियों के चंगुल से सभी उपनिवेशों की बिना शर्त मुक्ति की मांग की थी। 1919 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (COMINTERN) की स्थापना ठीक इसी उद्देश्य के लिए की गई थी। विश्व इतिहास में अब तक, ऐसा कोई अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठन नहीं बना, जिसका लक्ष्य, दृष्टि और क्रांतिकारी अंतर्राष्ट्रीयता हो।
एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू जिस पर अक्सर चर्चा नहीं की जाती है, वह है मध्य एशिया की मुस्लिम जातीय राष्ट्रीयताएं। सोवियत रूस की लगभग 13 प्रतिशत आबादी वाले मध्य एशियाई गणराज्य दुनिया के सबसे पिछड़े इलाकों में से थे। परजीवी खानों और ज़ारों के दोहरे उत्पीड़न की विरासत के कारण, मुस्लिम आबादी को भयानक इम्तिहानों का सामना करना पड़ता था। जिनमें से अंतिम 1916 के विद्रोह का हिंसक दमन था, जिसमें प्रथम विश्व युद्ध के लिए जबरदस्ती भरती की गई थी, जिसमें लगभग 83,000 मुसलमानों ने अपनी जान गंवाई थी। इसने कट्टरपंथी और जदेदी मुसलमानों को बोल्शेविकों के पाले में ला दिया था। 24 नवंबर, 1917 को सोवियत सरकार ने रूस और पूर्व के सभी मुस्लिम श्रमिकों के लिए एक घोषणा में कहा था कि: ''रूस के मुसलमान ... आप सभी जिनकी मस्जिदें और इबादत घर नष्ट कर दिए गए हैं, जिनकी मान्यताएँ और रीति-रिवाजों को रूस के राजाओं और उत्पीड़कों ने कुचल दिया गया था: आपकी मान्यताएं और प्रथाएं, आपकी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक संस्थाएं हमेशा के लिए स्वतंत्र हैं। जान लें कि आपके अधिकार, रूस के सभी लोगों की तरह, क्रांति के शक्तिशाली संरक्षण में हैं ...''।
डेविड क्राउच ने अपने शानदार निबंध, ‘द बोल्शेविक एंड इस्लाम’ में, उस समय के दृष्टिकोण की एक झलक दी है, जो जापान में एक प्रोफेसर और बाद में अफ़गानिस्तान के राजा के सलाहकार, मोहम्मद बरकतुल्लाह के पैम्फलेट बोल्शेविज्म और इस्लामिक बॉडी पॉलिटिक्स में पाया जा सकता है, जिसे वे तुर्किस्तान में बांट रहे थे। उसकी एक प्रति भारत में ब्रिटिश गुप्त सेवा के हाथों में पड़ गई, जिन्होंने इसका फारसी से अनुवाद किया था।
यह बात कुछ हद तक उद्धृत की जा सकती है कि: "ज़ारवादी निरंकुशता की अंधेरी लंबी रातों के बाद, रूसी क्षितिज पर मानव स्वतंत्रता की सुबह दिखाई दी, लेनिन जैसे चमकते सूरज के रूप में मानव खुशी दिन का उजाला देख पा रही थी। रूस और तुर्किस्तान के व्यापक इलाकों का प्रशासन मजदूरों, किसानों और सैनिकों के हाथों में चला गया था। जाति, धर्म और वर्ग का भेद मिट चुका था... लेकिन इस शुद्ध, अद्वितीय गणराज्य का दुश्मन ब्रिटिश साम्राज्यवाद है, जो एशियाई राष्ट्रों को शाश्वत गुलामी में रखना चाहता था... लेकिन दुनिया के मुसलमानों और एशियाई लोगों का समय आ गया था। राष्ट्रों को रूसी समाजवाद के महान सिद्धांतों को समझने और इसे गंभीरता और उत्साह से अपनाने में... बिना समय गंवाए अपने बच्चों को आधुनिक विज्ञान, महान कला, व्यावहारिक भौतिकी, रसायन विज्ञान, यांत्रिकी आदि सीखने के लिए रूसी स्कूलों में भेजना चाहिए था। ओह, मुसलमान! इस दिव्य पुकार को सुनें। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के उस आह्वान को माने जो लेनिन और रूस की सोवियत सरकार आपको दे रही है।''
ट्रॉट्स्की ने अपनी 1923 की पुस्तक, ‘प्रोब्लम्स ऑफ़ एवरीडे लाइफ: क्रिएटिंग द फ़ाउंडेशन फ़ॉर ए न्यू सोसाइटी इन रिवोल्यूशनरी रशिया’ में उल्लेख किया है कि तुर्केस्तान और कुछ अन्य राष्ट्रीय गणराज्यों में, कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों का एक उल्लेखनीय प्रतिशत, लगभग 15 प्रतिशत इस्लाम में विश्वास करने वालों का था।
बोल्शेविक नेतृत्व के धर्म के प्रति दृष्टिकोण को सारांशित करते हुए उन्होंने लिखा: "बेशक, यह बेहतर होगा यदि हमारे पास वहां (मध्य एशिया में) एक सर्वहारा हो, जिसे पहले से ही चर्च के हमलों और मुकाबलों का अनुभव था, जिसने पुराने पूर्वाग्रह को खारिज कर दिया था जिसके बाद ही साम्यवाद में आता है। यूरोप में ऐसा ही है, और कुछ हद तक, यह हमारे देश के केंद्र में ऐसा ही रहा है और जारी रहेगा। लेकिन पूरब में शिक्षा का अभाव है। वहां, हमारी पार्टी प्राथमिक विद्यालय है, और उसे उसी के अनुसार अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। हम उन कामरेडों को अपनी श्रेणी में शामिल करेंगे, जिन्होंने अभी तक इस्लाम के साथ मार्क्सवाद के मेल-मिलाप के लिए नहीं, बल्कि चतुराई से, बल्कि लगातार पिछड़े सदस्यों की अंधविश्वास की चेतना को मुक्त करने के लिए धर्म को तोड़ा है, जो मूल रूप से साम्यवाद का नश्वर दुश्मन है।''
जल्द ही, जिसे अब तक की सकारात्मक कार्रवाई कहा जाएगा, का एक विशाल कार्यक्रम पेश किया गया, जिसे 'कोरेनिज़त्सिया' या 'स्वदेशीकरण' के रूप में जाना जाता है। इसकी शुरुआत रूसी रूढ़िवादी चर्च में रूसी और कोसैक उपनिवेशवादियों और उनके विचारकों को बाहर निकालने के साथ हुई थी। रूसी भाषा का हावी होना बंद हो गया, और मूल भाषाएँ स्कूलों, सरकार और प्रकाशन में लौट आईं थीं। स्वदेशी लोगों को राज्य और कम्युनिस्ट पार्टियों में प्रमुख पदों पर पदोन्नत किया गया और रोजगार में रूसियों पर वरीयता दी गई। गृहयुद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद प्राथमिक शिक्षा संस्थान और विश्वविद्यालय दोनों ही अस्तित्व में आ गए थे।
ताजिकिस्तान का ही उदाहरण लेते हैं। जो बोखरा के अमीर द्वारा शासित था, ताजिकिस्तान 1925 में एक स्वायत्त गणराज्य बन गया और 1929 में यह एक स्वतंत्र संघीय गणराज्य के रूप में सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (USSR) में प्रवेश कर गया था। औपनिवेशिक भारत में, 1911 में, लगभग 6 प्रतिशत लोगों के साक्षर होने की सूचना थी। ताजिकिस्तान में, क्रांति से पहले, केवल एक या डेढ़ प्रतिशत आबादी ही पढ़-लिख सकती थी। 1931 में, साक्षरता का भारतीय आंकड़ा 2 प्रतिशत से बढ़कर केवल 8 प्रतिशत पर पहुंचा था। जबकि 1933 तक ताजिकिस्तान में 63 प्रतिशत आबादी साक्षर थी। 1914 में स्कूल में केवल सौ ताजिक छात्र थे। 1939 में यह आंकड़ा 328,000 था। 1936 तक, गणतंत्र में प्रति 500 जनसंख्या पर एक स्कूल, पाँच उच्च शिक्षण संस्थान और 30 से अधिक तकनीकी स्कूल थे।
सार्वजनिक स्वास्थ्य में प्रगति भी अभूतपूर्व थी। 1914 में, ताजिकिस्तान में सिर्फ 13 डॉक्टर थे जिन्हें केवल सामंती अभिजात वर्ग की जरूरतों को पूरा करने के लिए बुलाया जाता था। 1939 में 440 डॉक्टर थे, जो हर घर में सेवा के लिए तैयार थे। 1914 में, बेहद खराब सुविधाओं वाले अस्पतालों में प्रसूति बिस्तर नहीं थे। 1937 में, 240 बिस्तर हो गए थे। 1914 में, मातृत्व और शिशु कल्याण केंद्र जैसी कोई चीज नहीं थी। तेईस साल बाद ऐसे 36 केंद्र थे।
कामकाजी महिलाओं के बीच आंदोलन पर बने केंद्रीय आयोग और प्रचार (जेनोटडेल) के कामों का भी जिक्र किया जाना चाहिए। गृहयुद्ध समाप्त होने के बाद ज़ेनोटडेल कार्यकर्ताओं ने मुस्लिम महिलाओं तक पहुंचने के लिए "लाल टेंट" और "लाल नौकाओं" का आयोजन करते हुए मध्य एशिया की यात्रा की। 1918 की शरद ऋतु में, पहली अखिल रूसी महिला कांग्रेस के लिए 1,000 से अधिक महिलाएं एकत्रित हुईं। लंबी बहस के बाद, कांग्रेस ने आठ घंटे के कार्य दिवस के लिए मतदान किया, निजी भूमि संपत्ति का उन्मूलन, बड़ी संपत्तियों की क्षतिपूर्ति के बिना जब्ती, महिलाओं के लिए राजनीतिक अधिकारों की समानता, और बहुविवाह और पर्दा प्रथा के अंत पर मतदान किया। कांग्रेस का मतलब था कि रूस के मुसलमान दुनिया में सबसे पहले महिलाओं को उस दौर के इस्लामी समाजों के प्रतिबंधों से मुक्त करने वाले थे।
अंत में, निबंध ने बोल्शेविक क्रांति कुछ मुक्तिदायक पहलुओं को भी दिखाने का प्रयास किया है। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है, और क्रांति की गौरवशाली विरासत के बारे में लिखा जा सकता है। हालांकि, समय और स्थान के अभाव में, क्रांति का जश्न मनाने का सबसे अच्छा तरीका भारत में क्रान्ति की एक योजना बनाना बेहतर तरीका होगा!
लेखक अमेरिका के कनेटिकट विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग में शोधार्थी हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित साक्षात्कार को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः
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