एक ‘अंतर्राष्ट्रीय’ मध्यवर्ग के उदय की प्रवृत्ति
ब्रिटेन के चांसलर ऑफ एक्सचैकर, जिनका सरकारी आवास ब्रिटिश प्रधानमंत्री के बिल्कुल बगल में ही है, ऋषि सुनाक हैं; जो एक भारतीय मूल के व्यक्ति हैं। ब्रिटेन की गृह सचिव (मंत्री), प्रीति पटेल भी भारतीय मूल की हैं। अमरीका की उपराष्ट्रपति, कमला हैरिस एक मिश्रित परिवार से हैं, जिनकी माता भारतीय मूल की थीं तो पिता जमैका के। ऐसे और कितने ही नाम गिनाए जा सकते हैं और अंतर्राष्ट्रीय कारोबारी दुनिया में ऐसी ‘सफलता की कथाओं’ के बहुत सारे ध्यान खींचने वाले उदाहरण मौजूद हैं। ये लोग अपने मूल देशों से कटे हुए हों, यह भी कोई जरूरी नहीं है। मिसाल के तौर पर ऋषि सुनाक की पत्नी अब भी अपनी भारतीय नागरिकता बनाए हुए हैं। और मेंडलिन अलब्राइट को, जो अमरीकी विदेश सचिव हैं तथा चैक मूल (तीसरी दुनिया से भिन्न) की हैं, एक समय पर चैक गणराज्य के राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार माना जा रहा था।
एक नयी परिघटना और उसके निहितार्थ
यह एक अभूतपूर्व स्थिति है। बेशक, मेजबान देशों में अल्पसंख्यक समूहों से जुड़ी राजनीतिक हस्तियों के अपने-अपने देश में महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचने के उदाहरण पहले ही अनेक हैं। बैंजमिन डिजराइली इसके सबसे स्वत:स्पष्ट उदाहरणों में से एक हैं। लेकिन, तीसरी दुनिया से निकले राजनीतिज्ञों तथा कारोबारियों का, विकसित देशों में बड़ा नाम बनकर उभरना, पूरी तरह से एक नयी परिघटना है। यह परिघटना, मेजबान देश की ‘न्यायपूर्णता’ को रेखांकित करने का काम तो करती ही है, इस तरह की ‘न्यायपूर्णता’ का असर यह भी होता है कि तीसरी दुनिया के देशों के मध्य वर्ग के बीच इसका भरोसा जमता है कि उन्हें विकसित देश/ दुनिया में ‘न्यायपूर्ण स्थान’ मिल जाएगा और यह भी कि इस सब के नतीजे में एक नयी तथा न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था उभर कर आ रही है, जिसमें कामयाबी हासिल होने में इससे फर्क नहीं पड़ता है कि कोई किस देश से आया है। पहले के जमाने में उपनिवेशों में मध्य वर्ग की एक शिकायत यही हुआ करती थी कि औपनिवेशिक शासन में उन्हें खुद अपने देश में भेदभाव का सामना करना पड़ता था और सरकारी पदों की शृंखला में उन्हें कभी एक हद से आगे निकलने ही नहीं दिया जाता था। इस अनुभव से, औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फैंकने की जरूरत उनकी समझ में आयी थी। इसके विपरीत, तीसरी दुनिया के मध्य वर्ग का आज का अनुभव उससे यह मनवाता है कि इस तरह का भेदभाव अब रह ही नहीं गया है और इसलिए, साम्राज्यवाद की परिघटना की अब कोई वैधता ही नहीं रह गयी है।
लेकिन, यह एक और धारणा को भी पालता-पोसता है। आज के पूंजीवाद के अंतर्गत आप की सामाजिक-आर्थिक तरक्की में अगर कोई बाधा है तो, यह बाधा आप के मूल स्थान या रंग से जुड़ी नहीं हो सकती है बल्कि यह बाधा आपके ‘पुरानी चाल’ के वामपंथी विचारधारात्मक विश्वासों से चिपके होने की ही ही सकती है, जो सिर्फ ‘परेशानी पैदा’ करते हैं। इससे यह अर्थ निकलता है कि अपने कैरियर में आगे बढऩे के लिए, हमें इन विश्वासों को त्याग ही देना चाहिए, जिनमें कथित रूप से वैसे भी कोई तत्व नहीं रह गया है, क्योंकि नस्ल या इथनिक मूल पर आधारित भेदभाव तो खत्म ही हो चुका है। यह परिप्रेक्ष्य उस विचारधारात्मक अनुमोदनवाद (कन्फर्मिज्म) के पीछे निहित लगता है, जो हमें हर जगह मध्यवर्ग के बीच दिखाई देता है, जो कि समकालीन नवउदारवादी पूंजीवाद की निशानी है। इसे इसलिए अपनाया जाता है कि विचारधारात्मक गैर-अनुमोदनवाद, इस धारणा के अनुसार तत्वहीन तो होता ही है, इसके अलावा व्यक्ति के कैरियर के लिए नुकसानदेह भी होता है। इसके अनेक निहितार्थ हैं।
परिवर्तन के आवेग को कुंद करता अनुमोदनवाद
जाहिर है कि पहला तो यही कि यह खुद मध्य वर्ग में, गैर-क्रांतिकारी दिशा में भी, समाज को बदलने की उत्सुकता को कुंद करता है। दूसरे शब्दों में, मध्य वर्ग की पहचान जिस विचारधारात्मक एकरूपता से होती है, उसकी धुरी नवउदारवाद में विश्वास है। और तो और उस तरह के ‘नये-उदारवाद’ तक की ओर उनका झुकाव नहीं है, जिसकी वकालत जॉन मेनार्ड केन्स जैसे लोग करते थे और जो पूंजीवादी व्यवस्था को मजदूरों के लिए ज्यादा स्वीकार्य बनाने के लिए, राजकीय हस्तक्षेप की जरूरत पर जोर देता है। लेकिन, अब उभरते हुए मध्य वर्ग को इतनी सी ‘सामाजिक इंजीनियरिंग’ तक गैर-जरूरी लगती है। दूसरी बात यह है कि यह विचारधारात्मक अनुमोदनवाद, एक अंतर्राष्ट्रीय मध्य वर्ग के उभरने को बढ़ावा देता है, जिसमें इस वर्ग द्वारा अपनाए जाने वाले विचारधारात्मक रुखों की एकरूपता में इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता है कि संबंधित व्यक्ति किस देश से या किस जगह से आता है।
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यह उत्पीड़ित वर्गों तक के बीच अभूतपूर्व निश्चलता में योग देता है। मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो में कहा था कि पूंजीपति वर्ग तथा छोटे पूंजीपति वर्ग के ऐसे तत्व, जिन्हें शिक्षा का विशेषाधिकार मिला होता है और जो ‘ऐतिहासिक प्रक्रिया को समग्रता में’ देखते हैं, खुद को ‘वर्ग-अंतरित’ करते हैं और मजदूरों तथा किसानों को संगठित करने में अगुआओं की भूमिका अदा करते हैं। इसी विचार पर चलते हुए, लेनिन ने इस पर जोर दिया था कि ‘वर्गांतरित’ बुद्घिजीवियों का यही तबका है जो ट्रेड यूनियन चेतना से भिन्न, समाजवादी चेतना मजदूर वर्ग तक पहुंचाता है। बहरहाल, ये बुद्घिजीवी किस हद तक अपना वर्गांतरण करते हैं, यह सिर्फ उनके बौद्घिक विश्वासों पर ही निर्भर नहीं करता है बल्कि बुद्घिजीवियों के रूप में उनके अपने अनुभव पर भी निर्भर करता है; इस पर भी निर्भर करता है कि किस हद तक व्यवस्था का ‘अन्यायीपन’ उनके निजी कैरियरों के लिए भी एक साफ नजर आने वाली बाधा दिखाई देता है। इसलिए, निजी तरक्की की बाधाओं का हटना, वर्गांतरित बुद्घिजीवियों के समूह के सापेक्ष आकार पर और इसलिए क्रांतिकारी सिद्घांत किस हद तक मजदूर वर्ग तक ले जाना संभव हो रहा है इस पर, एक सीमितकारी प्रभाव डालता है। आज ठीक यही हो रहा है। वर्तमान व्यवस्था में, जो प्रकटत: रंग के आधार पर भेदभाव नहीं करती है, ‘न्यायपूर्णता’ का देखा जाना, एक परावर्तित प्रभाव के रूप में उत्पीडि़तों के बीच निष्क्रियता को बढ़ावा देता है, जिसे बहुतों ने समकालीन नवउदारवादी पूंजीवाद की एक पहचान के तौर पर दर्ज किया है।
मध्य वर्ग के उपरले हिस्से की ही खुशहाली
यह हमें समस्या के केंद्र बिंदु पर ले आता है। नवउदारवाद अपरिहार्य रूप से तीसरी दुनिया में किसानों तथा लघु उत्पादकों के लिए बदहाली लाता है, उनके जीवन स्तर में शुद्घ गिरावट करता है। वह मजदूरों का भी शुद्घ दारिद्रीकरण करता है। लघु उत्पादन पर उसके हमले से श्रम की सुरक्षित सेना बढ़ती है, जिसकी मार श्रम की सक्रिय सेना पर भी पड़ती है और श्रम की सुरक्षित सेना पर भी। पूंजी का वैश्वीकरण, किसी भी देश विशेष के मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत को घटाता है और ऐसा ही असर, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण का होता है। इस तरह, समग्रता में मेहनतकशों की हालत, नवउदारवाद के अंतर्गत शुद्घ रूप से बदतर कर दी जाती है। लेकिन, अंतर्राष्ट्रीय बन गया मध्य वर्ग, भेदभाव के डर के बिना देश से बाहर पलायन करने की अपनी सामर्थ्य के चलते और विकसित दुनिया से आर्थिक गतिविधियों के स्थानांतरण के जरिए, जो इन देशों में रोजगार के अवसर मुहैया कराता है, पहले के मुकाबले अपनी आर्थिक हैसियत में सुधार कर लेता है। इसलिए, तीसरी दुनिया के अंदर दरार चौड़ी हो जाती है, जहां नवउदारवाद के चलते सिर्फ पूंजीपति वर्ग ही नहीं बल्कि मध्य वर्ग भी खुशहाल हो रहा होता है और दूसरी ओर मेहनतकश जनता पर मार पड़ रही होती है और यह तथ्य अपने आप में उत्पीडि़तों के बीच निश्चलता को बढ़ा रहा होता है।
यहां तीन स्पष्टीकरण जोड़ना उपयुक्त होगा। यहां मैंने ‘मध्य वर्ग’ की संज्ञा का उपयोग, एक सर्व-समेटू श्रेणी के तौर पर किया है, जो कि जाहिर है कि वांछित नहीं है। आम तौर पर ‘मध्य वर्ग’ का हिस्सा समझे जाने वाले तबकों में से भी विशाल हिस्से ऐसे हैं, जो नवउदारवाद में पिस रहे होते हैं। बहरहाल, यहां असली नुक्ता यह है कि मध्य वर्ग में आने वाले लोगों में से खासी बड़ी संख्या में और खासतौर पर इसके उपरले संस्तरों के लोगों को, नवउदारवादी निजाम में उल्लेखनीय तरीके से फायदा हो रहा होता है। और हालांकि यह संस्तर, एक कहीं व्यापकतर मध्य वर्ग का एक हिस्सा मात्र है, सुविधा के लिए मैंने उसी के लिए ‘मध्य वर्ग’ की संज्ञा का उपयोग किया है। दूसरे, इस उपरले संस्तर के बीच भी विचारधारात्मक एकरूपीकरण की जिस प्रवृत्ति को हम पीछे दर्ज कर आए हैं, वह भी एक प्रवृत्ति भर है; इस संस्तर के सभी लोग इससे प्रभावित होते ही हों, ऐसा नहीं है। ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या होती है, जो प्रगतिशील सामाजिक बदलाव के विचार के प्रति प्रतिबद्घ बने रहते हैं। फिर भी, उनका वजन पहले की तुलना में घट जाता है। तीसरे, बाकी के बीच भी विचारधारात्मक एकरूपीकरण लाए जाने की प्रवृत्ति अनिवार्य रूप से कोई स्थायी परिघटना नहीं है। नवउदारवाद का संकट का गहराने के साथ, इस संस्तर तक के अपना रुख बदल लेने की संभावना है। माक्र्स की शब्दावली का सहारा लें तो गहराता संकट उनके दिमागों में ‘द्वंद्वात्मकता ठोक-ठोक कर भर देगा।’ लेकिन, अब तक तो नवउदारवाद के लिए उनका उत्साह कमजोर हुआ हो ऐसा नहीं लगता है।
कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया मध्य वर्ग और सांप्रदायिक जहर
एक खास क्षेत्र जिसमें ‘मध्य वर्ग’ और मेहनतकशों के बीच की खाई को अभिव्यक्ति मिली है, वह है तीसरी दुनिया के देशों में मीडिया का रुख। बेशक, बड़े पूंजीपतियों के स्वामित्व में तथा उनके द्वारा नियंत्रित मीडिया उल्लेखनीय हद तक अपने मालिकान के रुख को ही प्रतिबिंबित करता है और उनका रुख नवउदारवाद परस्त तथा मेहनतकश विरोधी होता है। लेकिन, इसके पूरक के तौर पर मध्य वर्ग का नवउदारवादपरस्त रुख भी काम कर रहा होता है। इसी वर्ग से मीडिया को चलाने वाले लोग आते हैं। इस तरह मीडिया, मजदूर वर्ग के हर प्रकार के प्रतिरोध के प्रति असहानुभूतिपूर्ण हो जाता है और आम तौर पर तो ऐसा प्रतिरोध जब होता है तो मीडिया उसका उल्लेख तक नहीं करता है। इतना ही नहीं, बहुत नरमी से कहें तो यह मीडिया इथनिक या धार्मिक अल्पसंख्यकों के सताए जाने की ओर से आंखें तक मूंद लेता है। वे ‘बहुसंख्यक श्रेष्ठतावाद तथा अल्पसंख्यकों के विरुद्घ नफरत के खिलाफ नहीं लड़ते हैं और इस तरह की ‘‘नफरत’’ संकटग्रस्त नवउदारवाद की सहयोगी बन जाती है।
भारत में ‘बहुसंख्यक श्रेष्ठतावाद और नवउदारवादी व्यवस्था के बीच का यह गठजोड़, कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ का रूप ले लेता है और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलाने को अपना आधार बनाता है। इस सब का मकसद यही है कि बड़े पूंजीपति वर्ग को मेहनतकश जनता के हमलों का निशाना बनने से बचाया जाए और इसका तरीका यही है कि मेहनतकश जनता को ‘सांप्रदायिक’ आधार पर विभाजित किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि पूरा का पूरा सामाजिक विमर्श ही भौतिक अस्तित्व के, रोजी-रोटी के मुद्दों से कटा रहे। इस समय जब रुपया गिरते-गिरते अभूतपूर्व रूप से नीचे खिसक गया है, जब थोक दामों में मुद्रास्फीति 15 फीसद से ऊपर निकल गयी है, जब उपभोक्ता दामों में मुद्रास्फीति 8 फीसद के करीब चल रही है और बेरोजगारी उस स्तर पर पहुंच गयी है, जिस स्तर पर आजादी के बाद इससे पहले कभी नहीं पहुंची थी, मीडिया इसकी रिपोर्टों से पटा पड़ा है कि वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद में कोई शिवलिंग मिल गया है। यह देश में सार्वजनिक विमर्श में सांप्रदायिक-फासीवादी जहर फैलाए जाने को दिखाता है। इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है कि मध्य वर्ग के उक्त हिस्से की मौन चुप्पी और यहां तक कि मौन मिलीभगत तक, इस सांप्रदायिक जहर के फैलाए जाने में मददगार है।
इस सांप्रदायिक-फासीवादी जहर का इस्तेमाल कर रहे कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के खिलाफ संघर्ष इसका तकाजा करता है कि मध्य वर्ग के वे तत्व तो ‘वर्गांतरित’ बने हुए हैं, नवउदारवादी एजेंडे से आगे तक जाएं और मेहनतकश जनता के सामने एक वैकल्पिक एजेंडा रखें, जो उसे उत्साहित करता हो।
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