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इतिहास के मिथकों का सच भाग- IV : वैदिक समाज में महिलाएं

इस श्रृंखला का चौथा भाग उस गलत नेरेटिव पर रोशनी डालता है जिसमें दावा किया गया है कि वैदिक काल महिलाओं के अधिकारों, स्थिति और समाज में उनकी भूमिका का एक 'स्वर्ण युग' था और मुगल शासन से पहले महिलाओं को अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में "समान या उससे भी अधिक दर्जा" हासिल था।
history
प्रतीकात्मक तस्वीर।

पिछले कुछ सालों में, इतिहास के बारे में कई बहसें और विवाद अकादमिक दायरे से निकलकर व्यापक सार्वजनिक मंच पर आ गए हैं। इससे एक युद्ध का मैदान उभर कर सामने आया है जहां विशेष संस्कृतियों, नेरेटिवों और विचारधाराओं को दूसरों के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है ताकि एक को दूसरों पर हावी और श्रेष्ठ साबित किया जा सके। हिंदू दक्षिणपंथ ऐसे कई झूठे नेरेटिवों का एक प्रमुख समर्थक है, जिनका उद्देश्य भारत के विविध इतिहास और संस्कृति के एकमात्र और असली उत्तराधिकारी के रूप में हिंदू संस्कृति और विचारधारा के एक विशेष संस्करण को स्थापित करना है। इस तरह के झूठे नेरेटिव, अकादमिक जगत ने सबूतों के माध्यम जिन्हे स्थापित किया है उसे त्याग देते हैं, और वे सोशल मीडिया सहित लोकप्रिय मीडिया के माध्यम से लोकप्रियता हासिल करने पर भरोसा करते हैं। न्यूज़क्लिक साक्ष्य-आधारित स्कोलर्स के शोध के आधार पर संक्षिप्त व्याख्याताओं की एक श्रृंखला प्रकाशित कर रहा है जो हिंदुत्व ताकतों द्वारा प्रचारित कुछ प्रमुख मिथकों का खंडन करता है। इस शृंखला के भाग 1, 2, और 3 को क्रमशः यहाँ, यहाँ और यहाँ पढ़ा जा सकता है।

आज कुछ ऐसी कहानियां प्रचारित की जा रही हैं जो दावा करती हैं कि वैदिक काल में महिलाओं को बहुत ऊंचा दर्जा हासिल था। वे अक्सर इस युग को महिलाओं के अधिकारों, स्थिति और समाज में भूमिका के संदर्भ में 'स्वर्ण युग' के रूप में पेश करते हैं। आरएसएस के वरिष्ठ नेता कृष्ण गोपाल ने तो यहां तक कह डाला कि "वैदिक काल में महिलाओं को समान दर्जा हासिल था, इस्लामी आक्रमण के बाद ही उनकी स्थिति ख़राब हुई है"। यह हमें इस नेरेटिव के दूसरे भाग में लाता है। जब कि वैदिक युग को महिलाओं के लिए स्वर्ण युग कहा जाता है, अगला कदम महिलाओं के जीवन की गिरावट की व्याख्या करना है जैसा कि आज देखा जाता है। महिलाओं की खराब स्थिति के लिए अक्सर मुगलों जैसे बाद के 'आक्रमणकारियों' को दोषी ठहरा दिया जाता है। इन दावों का आकलन करने के लिए वैदिक और उसके बाद के काल के दौरान महिलाओं के वास्तविक अनुभवों का अध्ययन करना जरूरी हो जाता है।

प्राचीन काल में महिलाओं की स्थिति को समझने के लिए जिन मुख्य स्रोतों का उल्लेख किया जाता है, वे विभिन्न ब्राह्मण ग्रंथ हैं, जिनमें ऋग्वेद से लेकर महाभारत जैसे महाकाव्य और मनुस्मृति जैसी स्मृतियां शामिल हैं। सबसे पहले, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि उनसे जो इतिहास हासिल किया जा सकता है वह सीमित है। अधिक उपदेशात्मक और निर्देशात्मक ग्रंथों के मामले में, इतिहासकारों को इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि ये ग्रंथ पुरुष ब्राह्मण लेखकों द्वारा लिखे गए थे। इस प्रकार, ग्रंथों की सामग्री ज्यादातर पुरुष ब्राह्मणों के हितों से संबंधित है और यह उनका मत था जो तय करता था कि समाज के विभिन्न वर्गों/तत्वों को कैसे कार्य करना चाहिए। यह महिलाओं के उस प्रकार के इतिहास को सीमित करता है जो इन स्रोतों से हासिल किया जा सकता है। यहां तक कि अगर कोई ऐसा खास मिलता भी है, तो भी किसी को यह सवाल जरूर पुछना चाहिए कि क्या यह पूरी तरह से महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता है या महिलाओं के एक खास वर्ग का? महाभारत जैसे महाकाव्यों में दर्ज़ कहानियों के बारे में यह समझना होगा कि ये असाधारण पात्रों की असाधारण कहानियां हैं। इस प्रकार, यदि किसी एक प्रमुख महिला चरित्र को महत्वपूर्ण निर्णय लेने वाली भूमिका में दिखाया जाता है, तो हम इसे सभी महिलाओं के लिए सामान्य मामला नहीं मान सकते हैं। ये पात्र आदर्श के बजाय अपवाद हैं और यही बात उन्हें कहानी में सम्मोहक बनाती है।

इन स्रोतों में महिलाओं की अवधारणा विशेष रूप से उनके परिवार के संदर्भ में की गई है। इसका मतलब यह है कि उन्हें केवल बेटियाँ, माँ और पत्नी ही माना जाता है। आरएसएस का तर्क है कि इन भूमिकाओं में महिलाओं को बहुत सम्मान और दर्जा मिला था। कुछ लोग यह भी दावा करते हैं कि पत्नियों को अपने पतियों की तुलना में अधिक अधिकार हासिल थे। जबकि अन्य का कहना है कि एक पुरुष को सिखाया गया था कि वह सभी महिलाओं (अपनी पत्नी को छोड़कर) के साथ अपनी माँ के समान व्यवहार करे और प्रत्येक लड़की के साथ ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिए जैसे कि वह उनकी अपनी बेटी हो। इन स्रोतों के आधार पर आप समझ सकते हैं कि समाज बेटियों, माताओं और पत्नियों के साथ कैसा व्यवहार करता था। 

वैदिक समाज में बेटियों के मामले में, हम लगातार ऐसे विषयों को देखते हैं जिन्हे कि अवांछनीय माना जाता है, उन्हें बोझ के रूप में देखा जाता है, और बेटों को बेटियों से अधिक प्राथमिकता दी जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण का एक अंश, "सखा हा जया कृपाणं हा दुहित ज्योति हा पुत्र परम व्योमन" का अनुवाद इस प्रकार किया गया है "पत्नी एक साथी है, और बेटी दुख है, और एक बेटा उच्चतम स्वर्ग में का प्रकाश है"। यह स्पष्ट रूप से बेटी को के दुख या बोझ के स्रोत के रूप में दिखाता है, जबकि बेटा संभवतः पूरे परिवार का रक्षक है। अथर्ववेद के भीतर कहा गया है कि, गर्भवती महिला को उन राक्षसों से बचाने की जरूरत है जो लड़के को लड़की बनने पर मजबूर करते हैं। एक उदाहरण है "मा पुमसं स्त्रीं क्रं" अभिव्यक्ति, दूसरे शब्दों में "उन्हें पुरुष को महिला न बनाने देंना"। बेटियों को भी वस्तु समझा जा सकता है। प्रख्यात इतिहासकार उमा चक्रवर्ती अपने लेख में इस बात की ओर इशारा करती हैं, जब वे कहती हैं कि “यहां तक कि राजकुमारियों को भी उनके शाही पिता किसी संपत्ति के रूप में पेश करते थे। राजा जानश्रुति पौत्रायण ने अपने वांछित ज्ञान के बदले में अपनी खूबसूरत बेटी को निम्न जाति के गरीब रायकव को दे दिया था।

बेटियों, पत्नियों और माताओं पर महिलाओं होने के नाते जीवन के विभिन्न चरणों में प्रतिबंध लगाए जाते रहे हैं। मनुस्मृति के अनुसार, महिलाओं को स्वतंत्र रूप से कुछ भी करने की आज़ादी नहीं होनी चाहिए, यहां तक कि अपने घर के भीतर भी इसकी इज़ाजत नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा, मनुस्मृति यह भी निर्देश देती है कि महिला जीवन भर किसके अधीन रहेगी: “बचपन में, एक महिला को अपने पिता के अधीन रहना होगा, युवावस्था में अपने पति के अधीन, जब उसका स्वामी मर जाए तो उसके पुत्रों के अधीन; इसलिए कोई महिला कभी भी आज़ाद नहीं होनी चाहिए”। एक महिला के पास संपत्ति का प्रकार और मात्रा भी सीमित थी। ग्रंथों में अविवाहित महिलाओं के लिए उपलब्ध संपत्ति रखने की क्षमता का उल्लेख नहीं है। इसके बजाय, केवल विवाहित महिलाएं ही स्त्रीधन नामक सीमित संपत्ति रख सकती थीं, जो उन्हें विवाह के समय दी जाती थी। हालाँकि, इस संपत्ति पर भी उसका पूर्ण नियंत्रण नहीं था क्योंकि यह अंततः उसके पति की होती थी।

महिलाओं द्वारा किए जाने अनुष्ठान करने की भूमिकाओं के संदर्भ में, बेटियों, बहनों या माताओं को कोई भूमिका नहीं सौंपी गई थी। जबकि पत्नी को उसकी प्रजनन क्षमताओं के कारण एक महत्वपूर्ण संसाधन माना जाता था, बच्चों के जन्म को सुनिश्चित करने के लिए उसे एक अनुष्ठान की वस्तु के रूप में अधिक इस्तेमाल किया जाता था। महिला साधुओं का उल्लेख भी कम ही मिलता है। एक महिला ऋषि का एक लोकप्रिय उदाहरण गार्गी वाचक्कनई का है, जिन्होंने एक बहस के दौरान याज्ञवल्क्य से सवाल किया था। इसे अपवाद को अक्सर  महिलाओं के शिक्षित होने साथ-साथ ब्राह्मणों से सक्रिय रूप से सवाल पूछने और सीखने की क्षमता के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जाता है। हालाँकि, कहानी में ही, याज्ञवल्क्य, गार्गी की आवाज़ को तब दबा देते हैं जब उनके उसके सवालों का जवाब देना मुश्किल हो जाता है। वे कहते हैं कि “हे गार्गी, अपनी पूछताछ को इतना आगे मत बढ़ाओ, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा सिर फट जाए।” इस धमकी से गार्गी चुप हो जाती है। जाहिर है, उनका सवाल कुछ ऐसा था जो पूरी तरह से स्वागतयोग्य नहीं था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप याज्ञवल्क्य के बयान की व्याख्या कैसे करते हैं, इसकी कृपालु और यहां तक कि धमकी देने वाली प्रकृति काफी स्पष्ट है।

यहां ध्यान देने वाली एक बात यह है कि महिलाओं के अनुभवों से संबंधित हमारे पास मौजूद अधिकांश ग्रंथ उच्च जाति और उच्च वर्ग की महिलाओं जैसे कि गार्गी या राजा जनश्रुति पौत्र्याण की बेटी के बारे में कहानियां बताने तक ही सीमित हैं। विभिन्न जातियों और वर्गों की महिलाओं ने जिस तरह का उत्पीड़न सहा, उसमें बहुत बड़ा अंतर होगा। निचली जाति की महिलाओं के मामले में उनका उत्पीड़न दोगुना होता है। जाति, वर्ग और लिंग की इस अंतर्संबंधता को ध्यान में रखना होगा। उत्पीड़न के सभी प्रकार विभिन्न जातियों और वर्गों में एक समान नहीं रहे होंगे, कुछ एक निश्चित समूह तक ही सीमित रहे होंगे।

समय के उस काल में महिलाओं ने क्या अनुभव किया और महसूस किया, इसकी बेहतर समझ हासिल करने के लिए, हम इतिहासकार थेरीगाथा जैसे वैकल्पिक स्रोतों को देखते हैं। यह बौद्ध थेरियों या वरिष्ठ भिक्षुणी द्वारा रचित गीतों का एक संग्रह है और लगभग 80 ईसा पूर्व लिखा गया था। उमा चक्रवर्ती और कुमकुम रॉय ने भारत में महिला लेखन के पहले खंड में इनमें से कुछ गीतों का अनुवाद प्रदान किया है। मुत्ता, एक बौद्ध भिक्षुणी गाती है:

"मैं कितनी स्वतंत्र हूं, इतना गौरवशाली रूप से स्वतंत्र हूं,

तीन तुच्छ चीजों से मुक्त हूं-

ओखली से, मूसल से और कुटिल प्रभु से,

मैं पुनर्जन्म और मृत्यु से मुक्त हो गई हूँ,

और जिस सबने मुझे जकड़ रखा था

उसे मैंने उतार फेंक दिया है।”

एक अन्य भिक्षुणी, सुमंगलामाता, भी ऐसी ही धुन गाती हैं:

“ए औरत अच्छी तरह आज़ाद हो जाओ! मैं कितनी आज़ाद हूँ,


रसोई के कठिन परिश्रम से कितनी आश्चर्यजनक मुक्ति।

भूख की कठोर जकड़ से और खाना पकाने के खाली बर्तनों से मुक्ति,

उस बेईमान आदमी से भी मुक्ति,

धूपछाइयों से मुक्ति”।

ये उत्सव के गीत हैं, जिसमें भिक्षुणी इस तथ्य पर खुशी मना रही हैं कि बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने और समाज द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों से बचने के कारण अब उनका जीवन बेहतर हो गया है।

आरएसएस नेरेटिव का एक अंतिम तत्व जिसे संबोधित किया जाना चाहिए वह समाज में महिलाओं की स्थिति और भूमिकाओं, उनके अपमान के लिए, बाद के "आक्रमणकारियों" को दोषी ठहराना है। इस मामले में मुगल उनके पसंदीदा बलि के बकरे हैं। यह पहले ही स्थापित हो चुका है कि मुगल शासन से पहले का काल महिलाओं की समानता और उच्च स्थिति का नहीं था। उन्हें अनगिनत अन्यायों और भेदभाव का सामना करना पड़ा जो मुगल काल में भी जारी रहा। हम जानते हैं मुगल निज़ाम के दौरान प्रथा जारी रही और पर्दा प्रथा भी प्रचलित हो गई थी, खासकर उच्च वर्गों और जातियों के बीच यह प्रचलित था। हालाँकि, कोई इस बात को नज़रअंदाज नहीं कर सकता कि मुगलों ने अपने राज्यों में जबरन सती प्रथा को रोकने के लिए कानून लाकर महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास किया था। अकबर ने जबरन सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी किया और उन्होंने हर शहर में अधिकारियों को भी नियुक्त किया जो सती प्रथा के विभिन्न मामलों की समीक्षा करते थे। कई बार अकबर ने कुछ मामलों में व्यक्तिगत रूप से भी हस्तक्षेप किया। जहाँगीर ने सती प्रथा और शिशु हत्या पर भी रोक लगा दी थी। उन्होंने इसके लिए दंड भी निर्धारित किया था। हालाँकि सती अंततः एक प्रथा के रूप में जारी रही, लेकिन इसकी आवृत्ति और संख्या में गिरावट आई होगी। जैसा कि हम देख सकते हैं, पूरे भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित रही है। केवल समकालीन समय में ही हम यह दावा करने के करीब पहुंच सकते हैं कि महिलाओं की समाज में बेहतर स्थिति है।

बहुत पहले महिलाओं के लिए 'बेहतर' जीवन साबित करने का यह प्रयास, एक ऐसा समय का  था जब माना जाता था कि उन्हें अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में बराबर या उससे भी अधिक दर्जा हासिल था, जो पूरी तरह से नारीवादी आंदोलन की उपेक्षा करता है। इस तरह के दावे करके, महिलाओं द्वारा अपनी आवाज उठाने के प्रयासों और सदियों से झेली गई कठिनाइयों को नजरअंदाज कर देता है। महिला तरक्की में अब तक जो प्रगति हुई है उसे कुछ ऐसा माना जाता है जो प्राचीन समय से चली आ रही थी लेकिन स्पष्ट रूप से, ऐसा नहीं था। आधुनिक समाज में महिलाओं के अधिकारों, स्थिति और भूमिकाओं के मामले में अभी भी प्रगति की जरूरत है। यदि हम ठोस प्रगति की दिशा में काम करने के बजाय झूठी कहानियों का सहारा लेंगे तो निश्चित रूप से स्थित ऐसी ही नहीं बनेगी

लेखक न्यूज़क्लिक में इंटर्न है। विचार निजी हैं। 

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

History Myth Busting Series - IV: Women in Vedic Society

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