पश्चिम ने तालिबान का सहयोजन किया
23-25 जनवरी तक ओस्लो में तालिबान अधिकारियों के साथ पश्चिमी राजनयिकों के एक कोर ग्रुप का तीन दिवसीय सम्मेलन अफगानिस्तान में राजनीतिक स्थिति में एक नए चरण का प्रतीक है। पश्चिम का प्रतिनिधित्व अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ़्रांस और इटली सहित यूरोपीय संघ के द्वारा किया गया।
अलग-थलग पड़े पक्षों के बीच में सामंजस्य बिठाने के मामले में नॉर्वे की स्थिति बेहद विशिष्ट है। अफगानिस्तान में अपनी मजबूत ख़ुफ़िया व्यवस्था के अलावा, नॉर्वे ने मोजाम्बिक, वेनेजुएला, कोलंबिया, फिलीपींस, इजराइल और फिलिस्तीनी क्षेत्रों, सीरिया, म्यांमार, सोमालिया, श्रीलंका और दक्षिण सूडान जैसे विविध मंचों में अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में अपने लिए एक विशिष्ट स्थान बना रखा है।
अफगानिस्तान में एक सक्रिय ख़ुफ़िया स्टेशन के अभाव में, सीआईए और एमआई 6 नार्वेजियन रिफ्यूजी काउंसिल (एनआरसी) से प्राप्त होने वाली जानकारी पर निर्भर हैं, जिसके पास अपने हजारों जमीनी कार्यकर्ताओं का एक विशाल नेटवर्क मौजूद है। एनआरसी ने पिछले कुछ वर्षों में तालिबान के साथ एक महत्वपूर्ण कामकाजी संबंध स्थापित कर रखा है।
ओस्लो के बाहर जंगलों से घिरी एक बर्फीली पहाड़ी चोटी पर स्थित सोरिया मोरिया होटल के बंद दरवाजों के पीछे आयोजित सम्मेलन, जिसे घायल दिमाग और थके-मांदे शरीर को फिर से जीवंत करने के लिए एक सेहतगाह के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, के दौरान एनआरसी के महासचिव जान एगेलैंड मौजूद थे।
मीडिया को दी गई एगेलैंड की टिप्पणियों ने संभवतः सबसे बेहतरीन अंतर्दृष्टि देने का काम किया है कि बर्फ से ढके सोरिया मोरिया होटल में आखिर क्या हुआ, जहाँ तालिबान प्रतिनिधिमंडल और पश्चिमी राजनयिकों के द्वारा नितांत एकांत में तीन दिन एक साथ बिताये गए। एगेलैंड ने दृढ़तापूर्वक तर्कों को रखा:
“प्रतिबंधों ने हमें आगे बढ़ने से रोक रखा है। प्रतिबंधों को हटाए बिना हम लोगों के जीवन को नहीं बचा सकते हैं। वे उन्हीं लोगों को नुकसान पहुंचा रहे हैं जिन्हें बचाने के लये नाटो ने अगस्त तक अरबों डॉलर खर्च किये थे।”
“हमें निश्चित रूप से उन लोगों से बात करनी चाहिए जिनका इन देशों पर नियंत्रण है जहाँ लोगों को (मदद की) जरूरत है। वे के वास्तविक अधिकारी हैं। और वे देख रहे हैं कि कैसे अब अर्थव्यवस्था ढहने के कगार पर है और पश्चिमी देशों से सहायता लाने की अत्यधिक आवश्यकता है।”
एगेलैंड ने वार्ता को “एक सही दिशा में लिया गया कदम” करार दिया है। सभा का मुख्य उद्देश्य अफगानिस्तान में गंभीर मानवीय स्थिति और सामूहिक पश्चिमी प्रतिक्रिया को लेकर था। हालाँकि, इस प्रकार के की शाही मेजबानी, जिसमें तालिबान अधिकारियों को लाने के लिए एक प्राइवेट जेट विमान को काबुल भेजा गया था, जिसने निश्चित तौर पर पश्चिमी राजधानी में तालिबान को बातचीत में शामिल करने से रोष और विरोध उपजा होगा।
इसलिए, बातचीत के दौरान मानवाधिकार की स्थिति पर भी चर्चा हुई। आम बातचीत में कुछ समय तक इस मुद्दे पर चर्चा हुई कि 20 मार्च को नौरोज़ उत्सव के अवसर पर तालिबान की ओर से अफगानिस्तान में महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों के संबंध में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को समायोजित करने के लिए कुछ घोषणाएं की जाएँगी।
इसी प्रकार, अफगानिस्तान में एक “समावेशी सरकार” का भी विवादास्पद प्रश्न बना हुआ है, जिसका तालिबान ने वादा किया था। एक बार फिर से, नोर्वेगियाई मेजबानों की ओर से “अफगान नागरिक समाज के प्रतिनिधियों” के लिए एक अलग सत्र की व्यवस्था की गई थी।
चुने गये सात लोगों में सैयद इशाक गिलानी, हिलालुद्दीन हिलाल, अब्दुल करीब खुर्रम, जफ़र महदावी, अमीन अहमद, इस्माइल गज़नाफर और खान अका ज़िआर्मल थे। संक्षेप में कहें तो अनुभवी अफगान राजनीतिज्ञों और अशरफ गनी की सरकार के लोगों को नजरअंदाज करते हुए पश्चिम-समर्थक झुकाव रखने वाले चेहरों को वरीयता दी गई थी।
रोचक पहलू यह है कि, काबुल में मौजूद दो महत्वपूर्ण हस्तियों- पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई और पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने ओस्लो कार्यक्रम से अपनी दूरी बना रखी थी।
तालिबान और “चुने गए सात” के बीच की बातचीत एक संयुक्त बयान में समाप्त हुई जिसमें “देश में बेहतर राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा नतीजों के लिए एक साथ मिलकर काम करने के प्रति उम्मीद और इरादे” को व्यक्त किया गया था।
निःसंदेह तालिबान की प्राथमिकता अपने नेताओं के खिलाफ लगाये गए पश्चिमी प्रतिबंधों को हटाने और सरकार को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दिए जाने के दोहरे उद्देश्यों को साकार होते देखने पर टिकी हुई है। इस बात समझा जा सकता है कि कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी और पश्चिमी राजनयिकों (जिसमें अमेरिकी विशेष प्रतिनिधि थॉमस वेस्ट शामिल थे) के नेतृत्त्व में तालिबान प्रतिनिधिमंडल ने इस संबंध में विस्तृत विचारों का आदान-प्रदान किया होगा। मुत्ताकी ने जाहिरा तौर पर प्रसन्नता व्यक्त की: “नॉर्वे द्वारा हमें यह अवसर प्रदान किया जाना अपने आप में एक उपलब्धि है क्योंकि हम विश्व के साथ मंच को साझा कर रहे हैं।”
विदेश मंत्री हुइटफेल्ड बस इतना ही कह सकीं, “ओस्लो में हुई इन बैठकों ने पश्चिमी देशों के लिए अच्छा अवसर प्रदान किया है... यह स्पष्ट करने के लिए कि वे तालिबान से क्या उम्मीद रखते हैं।” यदि हम आबादी की मदद करना चाहते हैं और यदि इससे भी बदतर मानवीय संकट को रोकना चाहते हैं तो हमें देश में मौजूद वास्तविक प्राधिकारियों के साथ बातचीत करनी ही होगी।”
उन्होंने कहा, “तालिबान के मूल्य और नीतियां हमारे खुद के मूल्यों से बेहद भिन्न हैं। लेकिन हमें दुनिया जैसी है उसी में काम करना होगा। हमारा विश्वास है कि तालिबान के साथ इस प्रकार की बातचीत करना बेहद अहम है।”
लेकिन साथ ही हुइटफेल्ड ने जोर देकर यह भी कहा: “मैं जोर देकर कहना चाहूंगी कि इस प्रकार की बातचीत का यह अर्थ कत्तई नहीं है कि हम अफगानिस्तान में मौजूदा प्राधिकारियों के वैधीकरण का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं...। हम जानते हैं कि तालिबान सक्रियतापूर्वक अपने हितों की रक्षा करेगा – और वे वैधता की मांग कर रहे हैं..। हमने अपनी स्पष्ट मांगें जारी कर दी हैं और अब हमें इंतजार करना होगा और देखना होगा कि क्या वे अपनी बात पर खरे उतरते हैं।”
हुइटफेल्ड के शब्दों में, “एक सुरक्षित स्थान पर, आमने-सामने बैठकर उन्हें एक स्पष्ट संदेश दे दिया गया है: वैधता स्वंय अफगानों से आनी चाहिए, और इसके लिए सुलह और कहीं अधिक समावेशी स्वरुप वाली सरकार की आवश्यकता है... अफगानों के बीच में सुलह – और एक ढाँचे को तैयार करने का काम तालिबान के साथ पश्चिमी जुड़ाव में वृद्धि को निर्मित करने में समय लगेगा, और ओस्लो की बैठक कक्ष में मौजूद लोगों की तुलना में कहीं अधिक लोगों पर निर्भर करेगा। लेकिन इस वार्ता के तरंगीय प्रभाव होंगे... इनसे संपर्क के बिंदु स्थापित होते हैं।”
पश्चिमी राजनयिकों ने कथित तौर पर तालिबान के समक्ष कुछ “मूर्त मांगें” रखी हैं और वे “प्रगति पर नजर रखेंगे और देखेंगे कि उन्हें पूरा कर लिया गया है या नहीं।”
यहाँ पर बड़ी तस्वीर क्या नजर आती है? अपने सबसे स्पष्ट स्तर पर वाशिंगटन, रूस और चीन के साथ अपनी प्रतिद्वंदिता की पृष्ठभूमि में अफगानिस्तान के बारे में एक नए प्रकार की तात्कालिकता वाली भावना को महसूस कर रहा है। रूस और चीन की क्रमशः यूक्रेन और शीतकालीन ओलिंपिक में व्यस्तता ओस्लो में कार्यक्रम के आयोजन के लिए बेहद काम आई है।
असल में, हाल के दिनों में पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच में रिश्तों में आई गिरावट ने पश्चिम के लिए तालिबान के साथ पाकिस्तानी दखल से मुक्त वातावरण में बातचीत करने का सुअवसर प्रदान कर दिया है। अंततः, संवाद का एक प्रारूप तैयार हो गया है, जो क्षेत्रीय राज्यों को पूरी तरह से दरकिनार कर देता है।
लेकिन फिर इसके लिए क्षेत्रीय राज्यों को ही दोष को स्वीकार करना होगा। उनके पास तालिबान सरकार को अपने प्रभाव में लेने के लिए खुली छूट थी लेकिन वे लगातार गपशप करते रहे, और उनके पास एक एकीकृत उद्देश्य का अभाव था। सीधे शब्दों में कहें तो पश्चिमी ताकतों ने क्षेत्रीय राज्यों को विस्थापित करने के बजाय एक रिक्त स्थान को भरने का काम किया है।
इसके अपने दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे। जाहिर है कि अमेरिका किसी भी सूरत में नहीं चाहता कि तालिबान मास्को या बीजिंग की धुरी बने। इसके लिए, उसके द्वारा अफगानिस्तान में पश्चिमी गैर सरकारी संगठनों, मानवीय सहायता समूहों एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के जरिये अपनी प्रभावी उपस्थिति को स्थापित किया जायेगा।
आने वाले वक्त में तालिबान पर अपने प्रभाव को धीरे-धीरे घटाते हुए, वाशिंगटन अपनी नीतियों से लाभ उठाने की उम्मीद करेगा। वाशिंगटन के पास अब तालिबान सरकार को सिर्फ चलते रहने के लिए राजनीतिक, आर्थिक और अंतर्राष्ट्रीय साधनों का उपयोग करने के लिए खुली छूट मिल गई है। अफगानिस्तान में यदि कोई भी क्षेत्रीय राज्य हावी हो जाता है तो यह अमेरिका के हित में नहीं है।
इसे दूसरे शब्दों में कहें तो अफगानिस्तान को दी जाने वाली वित्तीय एवं मानवीय सहायता को इस प्रकार से इस्तेमाल में लिया जायेगा कि तालिबान सरकार अपने पड़ोसी देशों पर निर्भर रहे बिना भी सत्ता में बनी रह सके। निश्चित तौर पर तालिबान हमेशा से चाहता था कि अमेरिका के साथ उसके संबंध सामान्य बने रहे और ऐसा करना प्रबंधनीय होगा।
निःसंदेह इस प्रकार की रणनीति से पड़ोसी राज्यों के लिए यह तय कर पाना और भी कठिन हो जायेगा कि आगे क्या करना है। पड़ोसी देशों के लिए सबसे उचित तरीका तालिबान को मान्यता देना होगा, जिसके लिए उन्हें एक समन्वित दृष्टिकोण पर पहुंचना होगा। पाकिस्तान ने रूस और ईरान को समझाने की बहुत कोशिश की। लेकिन, जैसा कि ओस्लो सम्मेलन ने सिद्ध कर दिया है, आज यह एक विवादास्पद मुद्दा है।
एमके भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। आप उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारतीय राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त किये गये विचार व्यक्तिगत हैं।
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