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सामाजिक मसलों पर ‘महान’ सेलिब्रिटीज़ का ‘मौन’ बहुत कुछ ‘कहता’ है!

यह कोई पहली बार की बात नहीं है जब भारतीय सेलिब्रिटीज़ ने उस वक़्त ‘मौन’ को चुना है जिस वक़्त उन्हें वास्तव में बोलना चाहिए था।
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फ़ोटो साभार: PTI

‘खामोश अदालत जारी है’, ‘गिद्ध’ और ‘घासीराम कोतवाल’ जैसे अपने तमाम नाटकों से भारत के थिएटर जगत में एक नई ज़मीन तोड़ने वाले नाटककार विजय तेंदुलकर (1928-2008) अपनी असहमति की आवाज़ के लिए भी चर्चित थे। यह हकीकत है कि धारा के ख़िलाफ़ जाकर बोलने वाले विजय तेंदुलकर को अपने इस रूख के लिए काफी कुछ झेलना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपनी ज़ुबां पर ताला नहीं लगाया। वर्ष 2002 गुजरात में जो सांप्रदायिक दावानल भड़का, इसे लेकर अपनी पीड़ा और गुस्से को बेबाकी के साथ प्रकट करने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। बताया जाता है कि पीड़ितों को इंसाफ़ दिलाने की तड़प उनके दिल में आखिर तक बनी रही।

पिछले दिनों अचानक इस महान नाटककार और उसूलों के साहस की उनकी बात याद आई जब विनेश फोगाट, महिला पहलवान, जिसने देश को कई अंतरराष्टीय मैचों में पदक दिलाए है, उसने अपने साक्षात्कार में ‘खेल जगत के कामयाबों के मौन’ की बात की, जिन्होंने अभी तक यौन अत्याचार के ख़िलाफ़ महिला पहलवानो के संघर्ष पर अभी भी अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी थी।

मालूम हो तीन महीने से अधिक वक़्त बीत गया और विनेश फोगाट, साक्षी मल्लिक, बजरंग पुनिया और कुश्ती जगत के कई अन्य ने कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ आज भी बुलंद किए हुए हैं और डटे हुए हैं। उनकी मांग है कि कुश्ती जगत में प्रशिक्षण के दौरान और बाद में भी यौन अत्याचार का जो सिलसिला चल रहा है, जिसका शिकार नाबालिग उम्र की लड़कियां भी हुई हैं, उसकी जांच की जाए और आरोपी को गिरफ़्तार किया जाए। एक ऐसे समय में जब एशियन गेम्स का साल है, अगले साल के ओलम्पिक खेलों के लिए क्वालिफाइंग प्रक्रिया चल रही है, कई अन्य विश्व चैम्पियनशिप के मैच होने हैं, ऐसे में अपनी इस मांग के लिए उन्होंने एक तरह से अपना पूरी कैरियर दांव पर लगा दिया है।

गनीमत है कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया के एक हिस्से द्वारा लगातार इस मसले को उजागर करते रहने के चलते और सर्वोच्च न्यायालय के थोड़ा विलंब के बाद ही हुए हस्तक्षेप के चलते अभियुक्त के ख़िलाफ़ दो एफआईआर दर्ज हो चुकी हैं, जिसमें एक एफआईआर ‘पोस्को’ कानून के तहत भी है, लेकिन अभी तक आरोपी की गिरफ़्तारी नहीं हुई।

अपवाद नहीं है यह चुप्पी!

क्या खेल जगत के उन तमाम बड़े और कामयाब सेलिब्रिटीज़ से इतनी उम्मीद करना गलत है कि वे महिला पहलवानों के इस संघर्ष को नैतिक समर्थन प्रदान करते। वे सभी खेल जगत में 'प्रताडना' के माहौल से पहले से वाकिफ होंगे। वे इस बात को भी जानते और समझते होंगे कि भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाज में यौन अत्याचार के ख़िलाफ़ बोलना किसी लड़की या महिला के लिए कितने साहस की मांग करता है।

अगर हम कपिल देव, नीरज चोपड़ा, निकहत ज़रीन, सानिया मिर्ज़ा, अभिनव बिंद्रा, नवजोत सिंह सिद्धू, हरभजन सिंह जैसे कुछ गिने-चुने खिलाड़ियों को छोड़ दें - जिन्होंने महिला पहलवानों को नैतिक समर्थन दिया है और न्याय की मांग की है - तो यह कहना मासूमियत की पराकाष्ठा होगी कि खेल जगत के जो अन्य रथी-महारथी हैं वे इस संघर्ष के बारे में जानते ही नहीं हैं।

वैसे जिन्होंने भी भारत के खेल जगत को नज़दीक से देखा है वे इस बात से वाकिफ हैं कि विभिन्न सामाजिक मसलों पर या अपने अन्य सह-खिलाड़ियों के साथ उजागर होती भेदभाव की घटनाओं पर तमाम ‘महानों’ का स्टैंड अक्सर ‘कमज़ोर’ ही होता है।

कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो खेल जगत के इन तमाम महानुभावों, सेलिब्रिटीज़ की जुबां जब खुली है, तब सरकार की हिमायत में ही खुली है। फिर चाहे सालभर चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन - जिसमें 500 से अधिक किसान शहीद हुए - के बारे में उनकी चुप्पी हो, या देश में बढ़ती झुुंड हत्याओं के बारे में या सरकार के आलोचकों को देशद्राही साबित कर कर दमनकारी कानूनों के तहत जेल में डालने की सरकारी कारगुजारियां हो या सबसे बढ़कर दलित-आदिवासियों के साथ बढ़ते अत्याचारों के मामले हों सब पर अक्सर उनकी मौन प्रतिक्रिया ही रही है। गौरतलब है कि जब किसान आंदोलन के बारे में दुनिया के बड़े सेलिब्रिटीज़ ने अपना समर्थन प्रकट किया तो हमारे ही देश के बड़े खिलाड़ियों और कई सेलिब्रिटीज़ ने इसे ‘भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने वाला’ बताया।

डैरेन सैमी प्रसंग

डैरेन सैमी मामले में भी बड़े खिलाड़ियों की 'चुप्पी' देखी गई थी जब क्रिकेट जगत के लीजेंड कहे जाने वाले खिलाड़ी को नस्लीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ा था।

याद रहे सेंट लुसिया, वेस्ट इंडीज़ के निवासी डैरेन समी (Darren Sammy) प्रख्यात ऑलराउंडर हैं जिन्होंने कई साल वेस्ट इंडीज़ टीम की अगुवाई की। उनकी अगुवाई में खेलने वाली टीम ने टी-20 के दो वर्ल्ड कप जीते (2012 व 2016), क्रिकेट जगत की उनकी उपलब्धियां महज़ अपने मुल्क की सीमाओं पर खत्म नहीं होती। उन्हें यहां नस्लीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ा, तब शुरुआत में लोगों को इस पर यकीन तक नहीं हुआ। यह प्रसंग वर्ष 2013-14 में आईपीएल खेलों के दौरान भारत में घटित हुआ था।

लगभग डेढ़ साल पहले की बात है, पाकिस्तान के साथ टी-20 के क्रिकेट मैच में भारतीय टीम की हार हुई, यह निश्चित ही समूची टीम की हार थी। इसमें किसी एक व्यक्ति को निश्चित ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता था। हार के तत्काल बाद भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली पाकिस्तान टीम के साथ गर्मजोशी से मिले, फोटो भी खींचे गए।

लेकिन मैच ख़त्म होने के बाद भारतीय क्रिकेट टीम के शानदार गेंदबाज़ मोहम्मद शमी को नफरत भरे कमेंट्स का सामना करना पड़ा। उन्हें 'देशद्रोही' तक बोला गया। हालांकि विराट कोहली समेत कुछ पूर्व व वर्तमान क्रिकेटर्स ने शमी की हौसला अफज़ाई की, उनका समर्थन किया लेकिन एक बड़ा हिस्सा तब भी मौन रहा। हालांकि तब तक ऑनलाइन नफ़रत और ट्रोलिंग का एक कारवां गुज़र चुका था।

शमी के समर्थन में कुछ बड़े खिलाड़ियों ने ज़रूर जुबां खोली, मगर उनके वक्तव्य की भी एक सीमा साफ़ थी। किसी ने भी इस बात पर मुंह नहीं खोला कि पूरे मुल्क में एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ किस तरह ज़हर फैलाया जा रहा है, जिसके निशाने पर अब कोई भी आ सकता है.

वसीम जाफर भी निशाने पर लिए गए। वही वसीम जाफर, जो मोहम्मद अज़हरुद्दीन की तरह ओपनिंग बैटर की तरह खेलते थे और भरोसेमंद खिलाड़ी समझे जाते थे। तीस से अधिक टेस्ट मैच खेले वसीम जाफर आज भी रणजी क्रिकेट के इतिहास के अग्रणी बने हैं। उन्होंने 150 के क़रीब मैच खेले हैं। उन्हें चंद महीने पहले ही (फरवरी 2021 में) उत्तराखंड क्रिकेट एसोसिएशन के कोच पद से बेहद अप्रिय स्थितियों में इस्तीफा देना पड़ा था।

जून 2020 में वसीम जाफर को उत्तराखंड क्रिकेट एसोसिएशन का कोच बनाया गया और जब उन्होंने स्थानीय हितसंबंधों की परवाह किए बगैर अधिक पेशेवर रुख अपनाया तो उन पर 'खिलाड़ियों के चयन' को लेकर आरोप लगाए गए। जब उन्होंने इस्तीफा दिया तब अनिल कुंबले जैसे उनके सहयोगी को छोड़ दें तोे किसी 'बड़े' ने जुबां नहीं खोली।

साफ़ है कि भारतीय क्रिकेट के इन तमाम सेलिब्रिटीज़ को किसी तरह का नैतिक द्वंद परेशान नहीं करता होगा। वे निश्चित ही चैन की नींद सोते होंगे।

क्योंकि वह जानते होंगे कि अगर वे 'मौन' रहेंगे तो कभी वे अलग-अलग क्षेत्रों में एंबेसेडर बन जाएंगे, तो कभी विज्ञापनों में मशगूल रहेंगे और उनपर सरकारी कृपा बनी रहेगी।

ऐसे में पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश के क्रिकेट के पूर्व कप्तान मशरफे मुर्तजा की कहानी बेहद महत्वपूर्व है, जिन्होंने जब बांगलादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हमले हो रहे थे तब बयान दिया कि ‘मैंने पिछले दिनों दो पराभव देखे। पहली हार बांग्लादेश के क्रिकेटरों की हुई, जो मैच में हार गए और दूसरी हार समूचे बांग्लादेश की हुई जिसने मेरा दिल तोड़ दिया’...अपने आफिशियल फेसबुक पेज पर उन्होंने यह बात बांग्लादेश में जारी सांप्रदायिक हिंसा के बारे में लिखी, जिसके तहत वहां हिंदू हमलों का शिकार हो रहे हैं।

यहां इस बात पर ज़ोर देना ज़रूरी है कि चाहे सामाजिक मसलों पर जुबां खोलनी हो या खेल जगत के भेदभाव के ख़िलाफ़ बोलना हो, संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाड़ी मुखर होकर बोलते हैं।

वर्ष 2016 में अमेरिका के अग्रणी फुटबॉल खिलाड़ी कॉलिन केपरनिकColin Kaepernick सुर्ख़ियों में आए, जब उन्होंने मैच के शुरू में चल रहे अमेरिकी राष्ट्रगीत के दौरान खड़े होने के बजाय मैदान में अपने घुटने टिकाकर बैठना जारी रखा। अमेरिका में अश्वेतों पर जारी अत्याचारों को उजागर करने को लेकर उन्होंने इस अनोखे तरीके को अपनाया था। उनके इस व्यवहार से उन्हें फुटबॉल जगत से बाहर करने की पूरी कोशिश हुई, मगर वह डिगे नहीं। गौरतलब है कि उनके इस रूख ने बहुतों तो को प्रेरित किया कि वे भी इस मसले पर बोलें।

कुछ महान लोग जो ‘मौन’ नहीं रहे

बता दें कि अमेरिका में जैकी रॉबिन्सन (1919 -1972) जो बेसबॉल के पहले अश्वेत पेशवर खिलाड़ी थेे, उन्होंने खेल जगत की अपनी प्रचंड शोहरत का इस्तेमाल नागरिक अधिकारों के पक्ष में आवाज़ बुलंद करने के लिए किया और इसके अलावा वे एक अग्रणी नागरिक अधिकार कार्यकर्ता के तौर पर भी जाने जाते हैं।

हम महान बॉक्सर मुहम्मद अली को भी याद कर सकते हैं जो न केवल अपने खेल के लिए बल्कि अपने नागरिक अधिकार कामों के लिए भी जाने जाते थे। वियतनाम युद्ध का विरोध करने से लेकर (जिसके लिए उन्हें पांच साल कैद की भी सज़ा हुई, जिसे बाद में स्थगित किया गया) उनका यह संघर्ष निरंतर जारी रहा।

अपने दिवंगत खिलाड़ी के नाम एक देश का 'माफ़ीनामा'

हम चाहें तो 20वीं सदी की उस कालजयी फोटोग्राफ को देख सकते हैं, जिसमें 1968 के मेक्सिको सिटी ओलिंपिक्स की 200 मीटर दौड़ के मेडल प्रदान किए जा रहे थे और तीनों विजेताओं- टॉमी स्मिथ, जॉन कार्लाेस और पीटर नोर्मान- ने मिलकर अमेरिका में अश्वेतों के हालात पर अपने विरोध की आवाज़ को पोडियम से ही अनूठे ढंग से संप्रेषित किया था।

अफ्रीकी-अमेरिकी टॉमी स्मिथ (स्वर्ण विजेता) व जॉन कार्लाेस (कांस्य विजेता) ने पोडियम पर खड़े होकर अपनी मुठ्ठियां ताने चर्चित ब्लैक पावर का सैल्यूट दिया था और तीसरे विजेता पीटर नोर्मान (ऑस्ट्रेलिया) ने उन दोनों के साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए अपने सीने पर ओलम्पिक फॉर ह्यूमन राइट्स का बैज लगाया था।

यह बात भले ही अब इतिहास हो चुकी हो, मगर यह एक कड़वी सच्चाई है कि इतनी बड़ी 'गुस्ताखी' के लिए तीनों खिलाड़ियों को अपनी वतन वापसी पर काफी कुछ झेलना पड़ा था, अमेरिका जैसी वैश्विक महाशक्ति की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई इस ‘बदनामी’ का खामियाज़ा उनके परिवार वालों को भी भुगतना पड़ा था। लेकिन किसी ने भी अपने इस अनोखे विरोध के लिए माफ़ी नहीं मांगी। पीटर नोर्मान को तो इतना भी संकेत दिया गया कि वह अगर 1968 के अपने इस व्यवहार के लिए वे खेद प्रकट कर दें तो ही उन्हें 1972 के ऑलिम्पिक के लिए भेजा जाएगा, लेकिन पीटर नोर्मान अडिग रहे।

पीटर नोर्मान (1942-2006) का जब इंतकाल हुआ तब उनकी अंतिम यात्रा में कंधा देने के लिए टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस पहुंचे थे। कार्लोस ने पत्रकारों को कहा कि ‘‘ हम दोनों अमेरिका में हमले का शिकार हो रहे थे, लेकिन पीटर नोर्मान समूचे मुल्क का अकेले सामना कर रहे थे और बिल्कुल तनहा सब यातनाएं झेल रहे थे।’’

ऑस्ट्रेलिया की संसद ने वर्ष 2012 में अपने एक ऐतिहासिक सत्र में पीटर नोर्मान के साथ किए गए व्यवहार के लिए माफ़ी मांगी।

एक देश द्वारा अपने एक दिवंगत खिलाड़ी के लिए - जो अंत तक उसूलों पर अड़ा रहा - माफ़ी मांगने का यह शायद पहला उदाहरण इतिहास में दर्ज हुआ।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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