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फिर क्यों बढ़ रहा है 'महाराष्ट्र-तेलंगाना' सीमा विवाद?

सबसे पहले आंध्र प्रदेश सरकार ने महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले की तत्कालीन राजुरा और अब जिवती तहसील में 12 गांवों सहित कुल 14 गांवों पर दावा किया और वहां सस्ते अनाज की दुकानें और स्कूल खोले ग्राम पंचायतें शुरू कीं। 
Maharashtra Telangana

तेलंगाना में सत्तारूढ़ दल 'भारत राष्ट्र समिति' (बीआरएस) एक तरफ महाराष्ट्र में राजनीतिक पैठ बना रही है तो दूसरी तरफ उसके नेतृत्व वाली सरकार महाराष्ट्र की सीमा के भीतर चंद्रपुर जिले के 14 गांवों पर दावा कर रही है जिसके चलते न सिर्फ क्षेत्रीय बल्कि सियासी हलचल सतह पर आ गई है।

हाल ही में तेलंगाना सरकार ने इन गांवों में 617 किसानों को वन अधिकार बेल्ट आवंटित किए हैं। ऐसे में एक बार फिर महाराष्ट्र-तेलंगाना सीमा विवाद सामने आने के बाद यह मुद्दा गर्मा रहा है। लेकिन, महाराष्ट्र राज्य सरकार की इस मामले पर चुप्पी से महाराष्ट्र के नागरिकों ने अपनी नाराजगी भी जाहिर की है।

क्या है दो राज्यों के बीच का सीमा-विवाद?

महाराष्ट्र और तत्कालीन आंध्र प्रदेश और अब तेलंगाना राज्य की सीमा से लगे 14 गांवों का मुद्दा 17 दिसंबर, 1989 से चर्चा में है। सबसे पहले, आंध्र प्रदेश सरकार ने महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले की तत्कालीन राजुरा और अब जिवती तहसील में 12 गांवों सहित कुल 14 गांवों पर दावा किया और वहां सस्ते अनाज की दुकानें, स्कूल और ग्राम पंचायतें शुरू कीं। इस पर तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने आपत्ति जताई थी। लेकिन, तत्कालीन आंध्र प्रदेश सरकार ने अपना दावा बरकरार रखा और सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश सरकार के दावे को खारिज कर दिया और फैसला सुनाया कि 14 गांव महाराष्ट्र में ही रहेंगे। तब से ये गांव महाराष्ट्र में हैं। लेकिन, इस बीच सियासत चलती रही और कभी भाषा तो कभी ग्राम-विकास तो कभी दस्तावेजों के आधार पर दोनों राज्यों के बीच विवाद कायम रहा।

पहले आंध्र प्रदेश और फिर वर्तमान तेलंगाना राज्य सरकार द्वारा इन गांवों में सभी सरकारी योजनाएं, स्कूल, सस्ता अनाज और अन्य सुविधाएं मुहैया करायी जाती रहीं। यहां तक कि इस गांव के लोग दो वोटर आईडी कार्ड से दोनों राज्यों की विभिन्न योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं। लेकिन, विवाद ने तूल तब पकड़ा जब हाल ही में उपरोक्त कुछ गांवों में आसिफाबाद (तेलंगाना) जिला वन अधिकारी ने 617 आदिवासी किसानों को व्यक्तिगत वन अधिकार आवंटित कर दिए। इसे महाराष्ट्र में तेलंगाना सरकार का सीधा हस्तक्षेप माना गया। लेकिन, यह पहला मामला नहीं है क्योंकि इससे पहले भी 2009 में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी द्वारा 96 किसानों को भूमि भूखंड आवंटित किए गए थे।

देखा जाए तो दो राज्यों के सीमा क्षेत्र के 14 गांवों में विवाद की इस कड़ी में महाराष्ट्र सरकार ने 15 सितंबर, 2022 को 2,387 हेक्टेयर जमीन की गणना शुरू हुई थी। लेकिन, 19 मई 2023 तक इस दिशा में महज 429 हेक्टेयर भूमि की गणना का कार्य पूरा किया गया। महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के जिवती तहसील में कुल 83 राजस्व गांव हैं। इनमें से केवल 73 गांवों के रिकॉर्ड ही राजस्व विभाग के साथ-साथ भू-अभिलेख कार्यालय के पास उपलब्ध हैं। लेकिन, पिछले 40 वर्षों से 9 राजस्व गांव सहित कुल 14 गांवों का रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। रिकार्ड उपलब्ध न होने की वजह से तेलंगाना राज्य सरकार इन गांवों पर एक बार फिर अपना दावा कर रही है और चाहती है कि इन्हें तेलंगाना राज्य में शामिल किए जाएं।

क्या केंद्र, राज्य सरकारों ने उलझा दिया?

फजल अली कमेटी द्वारा तय किए गए परिसीमन के मुताबिक और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद तेलंगाना सरकार महाराष्ट्र के 14 गांवों पर अपना हक जता रही है। इस विवाद को सुलझाने के लिए इस क्षेत्र के जन प्रतिनिधियों ने क्रमश: लोकसभा और विधानसभा में मांग उठाई थी कि विवादित गांव के नागरिकों के नाम तेलंगाना की मतदाता सूची से हटा दिए जाएं। इसके लिए पूर्व विधायक एडवोकेट वामनराव चटप और मौजूदा विधायक सुभाष धोटे ने विधानसभा में यह सवाल उठाया था। लेकिन, महाराष्ट्र राज्य और केंद्र सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने इस मुद्दे को नजरअंदाज किया है। इसलिए यह विवाद इस समय एक बार फिर सुर्खियों में है।

महाराष्ट्र सरकार की भूमिका से नाराजगी

महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकार ने कर्नाटक सीमा पर मराठी भाषी गांवों के मुद्दे को हल करने के लिए एक समन्वय समिति का गठन किया था। ऐसा ही एक सवाल महाराष्ट्र में तेलंगाना की सीमा पर विदर्भ के चंद्रपुर जिले की जीवती तहसील के 14 गांवों का है। लेकिन, महाराष्ट्र सरकार इस पर चुप्पी साधे हुए है जिसे लेकर मराठी भाषी लोग नाराज बताए जा रहे हैं। इन 14 गांवों और इसके अलावा आसपास के कई गांवों में बड़ी संख्या तक नागरिकों को लगता है कि महाराष्ट्र सरकार अपने ही नागरिकों के प्रति उदासीन रवैया दिखा रही है।

महाराष्ट्र की सीमाओं को लेकर इस राज्य सरकार के सामने यह एकमात्र चुनौती नहीं है क्योंकि कर्नाटक की तत्कालीन भाजपा सरकार ने भी महाराष्ट्र के कुछ गांवों को लेकर अपना दावा जताया था जिसके बाद दोनों राज्यों की राजनीति गर्मा गई थी। इस दौरान भी केंद्र सरकार की चुप्पी को लेकर महाराष्ट्र राज्य के विरोधी दलों ने कड़ी निंदा की थी। इस विवाद ने ऐसे समय सिर उठाया था जब राज्य के नांदेड़ जिले के कुछ गांवों ने भी ग्राम-सभाओं के जरिए तेलंगाना में जाने की इच्छा जतायी थी। इसी कड़ी में सांगली जिले के कई गांवों ने भी कर्नाटक में जाने की धमकी दे दी थी।

वहीं, महाराष्ट्र समर्थक नेता और नागरिक समूह यह दावा कर रहे हैं कि पड़ोसी राज्यों के कुल 865 गांव हैं जो कि पिछले छह दशक से महाराष्ट्र में शामिल होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इन विवादों के पीछे सवाल सिर्फ भौगोलिक सीमाओं का नहीं होता है, बल्कि सवाल भाषाई पहचान का भी होता है। इस प्रश्न में कुछ प्रशासनिक और विकासात्मक पहलू जुड़े हुए हैं जबकि केंद्र में भाषाई पहचान प्रमुख कारक है।

सियासत भी पसार रही पांव

दावा किया जाता है कि कर्नाटक राज्य के बेलगाम-निपानी सीमा क्षेत्र में 54 प्रतिशत मराठी भाषी और 46 प्रतिशत कन्नड़ भाषी हैं। सीमावर्ती जिलों में यह संघर्ष समय समय पर सतह पर आ जाता है। 'महाराष्ट्र एकीकरण समिति' सीमा मुद्दे पर मराठी भाषियों का प्रतिनिधित्व करती रही है। इस भाषाई संघर्ष की प्रकृति को संसदीय बनाए रखने के लिए, समिति ने चुनाव भी लड़ा और इस क्षेत्र से कर्नाटक विधानसभा के लिए विधायक चुने गए। इसी तरह, तेलंगाना के सत्तारुढ दल भी महाराष्ट्र के सीमावर्ती क्षेत्रों में राजनीतिक फायदा उठाने के लिए पूरे विवाद में अपना हित देख रहा है।

दूसरी तरफ, कुछ नागरिक समूह इस तरह के विवाद को खतरनाक मानते हैं कि इसके चलते कई बार दोनों राज्यों में हिंसक आंदोलन तक हो चुके हैं। यह मानते हैं कि अदालती कार्यवाही धीमी गति से चलती है जो जारी रहेगी। लेकिन, सवाल है कि न्यायालय के अलावा व्यावहारिक समाधान खोजने के लिए जो विकल्प सुझाए जा सकते हैं, उन पर चर्चा के लिए माहौल क्यों नहीं बन पा रहा है। इसे यदि राजनीतिक चश्मे से देखा गया तो डर है कि यह मामला ऐसा न उलझ जाए कि सुलझाना और भी ज्यादा मुश्किल हो जाए और ऐसा हुआ तो हिंसा होने की आशंका बढ़ जाएगी।
 

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