न भारत की आबादी में भयंकर बढ़ोतरी हो रही है और न ही मुस्लिमों की आबादी में
एनसीईआरटी की सातवीं क्लास की किताब में एक लाइन लिखी है कि जनसंख्या एक ऐसा संदर्भ बिंदु है, जिसके सहारे दुनिया की हर परेशानी की व्याख्या की जा सकती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उस परेशानी की असली वजह जनसंख्या ही हो।
भारत में शोर मचाकर सच की हवा निकाल देने वाली भारतीय राजनीति भी यही खेल खेल रही है। बेरोजगारी क्यों है? जवाब मिलेगा की जनसंख्या बहुत अधिक है। गरीबी क्यों है? जवाब मिलेगा की जनसंख्या बहुत अधिक है। कोरोना से लड़ने में परेशानी क्यों हो रही है? जवाब मिलेगा की जनसंख्या बहुत अधिक है। अगर भाजपा जैसी पार्टी सरकार में हो तो इसके साथ एक लाइन और जुड़ जाएगी कि मुस्लिमों की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। यह हिंदुओं के सामने बहुत अधिक परेशानी खड़ा करेगी।
उत्तर प्रदेश से लेकर असम तक हर जगह जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने की बात की जा रही है। तो चलिए जरा ठोक पीटकर देखें कि क्या सच में जनसंख्या नियंत्रण कानून की जरूरत है?
सबसे पहला सवाल यही कि क्या सच में भारत की आबादी बढ़ रही है? इसका जवाब है बिल्कुल नहीं। आबादी की सालाना वृद्धि दर की गणना के फॉर्मूले के आाधार पर भारत में आबादी बढ़ने की दर अब केवल 1.3 फीसद (2011-16) रह गई है जो 1971 से 1981 के बीच में 2.5 फीसद थी। यह रफ्तार अब दक्षिण एशिया (1.2 फीसद) के प्रमुख देशों के आसपास है और निम्न मझोली आय वाले देशों की वृद्धि दर (1.5 फीसद) से कम है (विश्व बैंक)। यानी ऊंची आबादी वृद्धि दर (2 से 2.5 फीसद) के दिन पीछे छूट चुके हैं।
अगर इन आंकड़ों को खंगाल कर देखें तो पता चलता है कि दक्षिण भारत के राज्य की आबादी तो एक फ़ीसदी से कम के दर से बढ़ रही है। केवल दक्षिण भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण भारत समेत बंगाल उड़ीसा पंजाब असम हिमाचल महाराष्ट्र कुल 13 राज्यों की आबादी एक फ़ीसदी से कम की दर पर बढ़ रही है। यानी भारत की तकरीबन आधी आबादी 1 फ़ीसदी कम की दर से बढ़ रही है। यह स्थिति यूरोप की आबादी में हो रही बढ़ोतरी की तरह है। बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान बहुत अधिक आबादी बढ़ने वाले जगहों के तौर पर कुख्यात हैं। पिछले कुछ सालों में इनकी भी आबादी बढ़ने की दर में बहुत तेजी से गिरावट देखी गई है।
एक औरत की अपने प्रजनन काल में बच्चा पैदा करने की दर को टोटल फर्टिलिटी रेट कहा जाता है। सिंपल शब्द में समझे तो मातृत्व आयु के दौरान प्रति औरत बच्चा पैदा करने की संभावना। साल 1971 में यह दर करीबन 5.3 फीसद थी। साल 2016 में यह दर घटकर 2.3 फीसद हो गई। इसका नतीजा यह हुआ है कि 13 राज्यों में टोटल रिप्लेसमेंट दर 2.1 फीसद से भी कम हो चुकी है। जनसंख्या बढ़ोतरी के मामले में रिप्लेसमेंट दर का पैमाना बहुत महत्वपूर्ण होता है। अगर रिप्लेसमेंट दर्द 2.1 फीसद के नीचे है तो इसका मतलब यह है कि आने वाली पीढ़ी में पैदा होने वाले बच्चों से आबादी बढ़ेगी नहीं बल्कि नियंत्रित रहेगी। दक्षिण और पश्चिम के राज्य में तो यह दर 1.4 से 1.6 फीसद के आसपास आ चुकी है। मतलब दक्षिण भारत के राज्य मान चुके हैं कि दो से कम बच्चा पैदा करना ही सबसे अच्छा है।
फर्टिलिटी रेट में आने वाली कमी के पीछे कई सारे कारण मौजूद होते हैं। जैसे एक प्रमुख कारण है - इस समय सूचनाओं का प्रसार, आमदनी और परिवार की देखभाल को लेकर सजग चिंता। इन सभी प्रवृत्तियों के आधार पर अनुमान है कि साल 2031 तक भारत की जनसंख्या वृद्धि दर एक फ़ीसदी से नीचे आ सकती है और 2041 तक यह 0.5 फीसद से नीचे हो सकती है। अगर यह स्थिति होगी तो जनसंख्या वृद्धि दर के मामले में हम विकसित देशों के बराबर खड़े होंगे।
इन सभी आंकड़ों का इशारा इस तरफ है कि भारत की आबादी नियंत्रित है और आने वाले दौर में भी नियंत्रित रहेगी। लेकिन सवाल यही है कि सरकारें यह खेल क्यों खेलती हैं कि भारत की आबादी को नियंत्रित करने के लिए कानून लाया जाएगा?
इसका कोई निश्चित जवाब देना मुमकिन नहीं है। इस के ढेर सारे कारण हो सकते हैं। पहला कारण तो यही होता है कि किसी भी परेशानी के सामने जनसंख्या वृद्धि का पासा फेंक कर लोगों को गुमराह कर दिया जाए। लोक प्रशासन बेहतर न किया जाए और सारा ठीकरा भारत की जनसंख्या पर फोड़ दिया जाए। जबकि हकीकत यह है कि अगर जनसंख्या में नौजवानों की संख्या अधिक है, कार्यबल अधिक है तो वह किसी भी देश के लिए एक संपदा की तरह होता है। उसका भरपूर दोहन करने की जरूरत होती है। अगर इन्हें नौकरी मिलेगी तो इनकी भी तरक्की होगी और देश की भी तरक्की होगी। लेकिन डर बिल्कुल उलट है।
डर की असली कहानी शायद यह हो सकती है कि सरकार नौजवानों को नौकरी नहीं दे पा रही है। नौजवानों की बड़ी फौज बेरोजगारी में जी रही है। बेरोजगारी की परेशानी को विकराल बनने से बचाने के लिए हर साल तकरीबन एक करोड़ पचास लाख नौकरी मुहैया कराना जरूरी है। अब यह कैसे हो? इसका सीधा और सिंपल जवाब यह हो सकता है कि जनसंख्या को कंट्रोल करने का रास्ता अख्तियार करने का कानून लाया जाए।
अब आते हैं जनसंख्या वृद्धि और सांप्रदायिक मुद्दे पर। आप सबने अपने आसपास यह तर्क जरूर सुना होगा कि मुस्लिम लोग खूब बच्चे पैदा करते हैं। इस योजना के तहत करते हैं कि वह आबादी के मामले में इतने अधिक हो जाए पूरी दुनिया पर उनकी हुकूमत चले। अगर यह हो जाएगा तब तो हिंदू खतरे में पड़ जाएगा। जिस तरह से मुस्लिमों की जनसंख्या बढ़ रही है वह एक दिन पूरे भारत को अपने अंदर खा जाएंगे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थकों की तरफ से कहा जाता है कि भारत में आजादी के समय हिंदुओं की जनसंख्या कुल आबादी में 88 फ़ीसदी थी और मुस्लिम तकरीबन 9.3 फ़ीसदी थे। साल 2011 की जनगणना के बाद हिंदुओं की आबादी घटकर तकरीबन 83 फ़ीसदी हो गई और मुस्लिम की आबादी बढ़कर तकरीबन 15 फ़ीसदी हो गई। इस तरह से एक दिन ऐसा आएगा कि मुस्लिम लोग पूरे भारत की आबादी बन जाएंगे।
मुस्लिमों पर लगाए जाने वाले इन आरोपों में रत्ती भर भी सच्चाई नहीं है। है तो केवल सांप्रदायिकता की भावना। जिसके दम पर मुस्लिमों के खिलाफ नफरत ही हवा बहाई जाती है। हकीकत यह है कि साल 2011 की जनगणना के मुताबिक मुस्लिमों की आबादी साल 2001 में भारत की कुल आबादी की तकरीबन 13.4 फ़ीसदी थी जो साल 2011 में बढ़कर 14.2 फ़ीसदी हो गई। पिछले दशक के मुकाबले महज 0.8 फ़ीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। जबकि हर साल होने वाली बढ़ोतरी की दर में पिछले दशक से गिरावट दर्ज की गई। इस तरह से मुस्लिमों की जो जनसंख्या साल 2001 में तकरीबन 13.8 करोड़ थी वह बढ़कर साल 2011 में 17.22 करोड़ हो गई। जबकि साल 2011 में हिंदुओं की आबादी तकरीबन 96. 63 करोड़ थी।
यह आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिमों की जनसंख्या की प्रवृत्ति बढ़ने वाली नहीं बल्कि घटने वाली है। आजादी के बाद गिनती के मामले में मुस्लिम जनसंख्या भले बढ़ी हो लेकिन मुस्लिम लोगों ने कम बच्चे पैदा करने की चाह भी विकसित की है। यह भविष्य में और कम होती जाएगी। इसलिए आंकड़ों के मद्देनजर देखा जाए तो वह सारे आरोप बेबुनियाद हैं जो मुस्लिमों की भयंकर आबादी बढ़ने के तौर पर दिए जाते हैं।
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