स्थानीय कलाकारों का दर्द : “...मरने पर लकड़ी भी 3500 की मिलती है, हज़ार का क्या करेंगे”
दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों की नज़र से देखिए तो स्टेज पर गाते-गुनगुनाते धुन बजाते कलाकार सितारे सरीखे ही नज़र आते हैं। बहुत से लोगों के मन में उस स्टेज पर परफॉर्म करने की तमन्ना होती है। कलाकारों को तालियों की गड़गड़ाहट की आदत होती है। उनकी अपनी पहचान होती है। कोरोना के समय में इस पहचान और उससे जुड़े सम्मान को बचाए रखने की खातिर ये कलाकार अपने लिए मदद भी नहीं मांग पाए। निशुल्क बांटे जा रहे राशन की कतार में खड़ा होना शर्मिंदगी का सबब था। घर में हारमोनियम था, ढोल था, संगीत के साजो-सामान थे, लेकिन लॉकडाउन के चलते काम नहीं था, तो राशन का इंतज़ाम नहीं था।
वे कलाकार जो सरकार की नीतियों-योजनाओं का प्रचार करने के लिए सुदूर गांवों तक नुक्कड़ नाटक के लिए जाते हैं। सरकारी मेलों में जनता को इन योजनाओं के बारे में समझाते हैं। कोरोना के मुश्किल समय में इन तक कोई सरकारी योजना नहीं पहुंची। ये किसी योजना के दायरे में नहीं आए।
कलाकारों के साथ राजनीति कर गई सरकार
उत्तराखंड के कलाकार-लोक कलाकार इस समय अपनी सरकार से नाराज़ हैं। 19 जून को लोक-कलाकारों के लिए मुख्यमंत्री राहत कोष से एक बार एक हज़ार रुपये की आर्थिक मदद का एलान किया गया। ये एक हजार रुपये भी जिलाधिकारियों के ज़रिये मिलेंगे। इसके लिए जिलाधिकारी कार्यालय में आवेदन करना होगा। इस घोषणा के बाद राज्य के अलग-अलग कलाकारों के समूहों-समितियों ने आहत होकर ज्ञापन भेजा। 25 जून को राज्य के अलग-अलग हिस्सों से लोक कलाकारों ने अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा कर विरोध दर्ज कराया।
लोक कलाकार गिरीश सनवाल पहाड़ी कहते हैं कि ये एक हजार रुपये भी घोषणा तक सीमित हैं। इस घोषणा के लिए सरकार ने चार महीने का समय लिया। इस रकम से ज्यादा तो संस्कृति विभाग और संस्कृति मंत्री के साथ बैठकों में खर्च हो गए। वह बताते हैं कि 23 मई को सतपाल महाराज के साथ बैठक हुई थी, जिसमें कहा गया था कि एक हज़ार रुपये मदद के तौर पर दिया जाएगा। ये मदद हर महीने दी जाएगी या छह महीने तक दी जाएगी, ये नहीं बताया गया। गिरीश कहते हैं कि कलाकारों के साथ भी राजनीति की गई है
यहां सिर्फ उन कलाकारों की बात की गई है जो संस्कृति विभाग में सूचीबद्ध हैं। पहाड़ों में ढोल बजाने वाले, औजी, लोकगायक, वादक सबको मदद की जरूरत है। गिरीश कहते हैं कि ये एक हजार रुपये संस्कृति विभाग के ज़रिये कलाकारों के अकाउंट में दिए जा सकते थे। लेकिन जिलाधिकारी के ज़रिये इसे बांटने की व्यवस्था की गई। इसके लिए कोई अपने गांव से तहसील तक आएगा। अपने कलाकार होने का सबूत देगा फिर उसे हजार रुपये का चेक मिलेगा। इतने में किसी मजदूर की दो दिन की दिहाड़ी चली जाती है।
पुरखों की संस्कृति सहेजने वालों के घर चूल्हा जलना हुआ मुश्किल
खोई हुई प्रतिभाओं, खोई हुई विधाओं, पारंपरिक गीत-संगीत, नृत्य, पुरखों की संस्कृति को सहेजने-संरक्षित करने के उद्देश्य से चल रहे संस्कृति विभाग में सूचीबद्ध प्रतिभाएं इस समय खुद को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। विभाग की निदेशक बीना भट्ट कहती हैं कि मुख्यमंत्री राहत कोष से ये मदद दी जा रही है। एक कार्यक्रम के लिए एक सांस्कृतिक दल को 25 हजार रुपये तक भुगतान किया जाता है। एक ग्रुप में औसतन 20 लोग होते हैं। संस्कृति विभाग से 274 सांस्कृतिक दल सूचीबद्ध हैं, जिसमें 6,675 लोक कलाकार हैं। बीना भट्ट बताती हैं कि इन कलाकारों को अभी दिसंबर 2019 तक का भुगतान हुआ है। जनवरी से मार्च तक का भुगतान मार्च में होना था। लेकिन लॉकडाउन के चलते नहीं हो सका। वह बताती हैं कि कलाकारों ने उन्हें ज्ञापन सौंप कर अपनी समस्या दर्ज करायी है। छह महीने तक प्रति माह हजार रुपये मदद की मांग है। इस ज्ञापन को आगे बढ़ाने की कार्रवाई चल रही है। बीना भट्ट कहती हैं कि इसके लिए नीति की जरूरत होगी। हमें सबके लिए सोचना होगा। सरकार तैयारी कर रही होगी।
कलाकार-लोक कलाकार में भेद क्यों
महज एक बार, एक हज़ार रुपये की मदद की घोषणा से तो नाराजगी है ही। गढ़वाल और कुमाऊं के कलाकार इस बात से भी नाराज़ हैं कि यहां कलाकार और लोक कलाकारों में भेद कर दिया। सूचना विभाग और केंद्र सरकार के आउट रीच ब्यूरो में सूचीबद्ध प्रयास जागरुकता मंच के विशाल सावन कहते हैं कि सरकार ने सिर्फ उन्हें ही कलाकार माना जो संस्कृति विभाग में सूचीबद्ध है। यानी हम सरकार की सूची में ही नहीं है। फिर हज़ार रुपये से आज के समय में क्या होता है। इस अहसान से अच्छा होता कि सरकार उन्हें कार्यक्रम के पैसे एडवांस दे देती
सूचना विभाग में ए ग्रेड के सांस्कृतिक दल को 9600 प्रति प्रोग्राम मिलता है। बी ग्रेड को 8400, सी ग्रेड को 7200 मिलते हैं। एक महीने में अधिकतम 3-4 प्रोग्राम मिलते हैं। एक दल में दस-बारह तक लोग होते हैं। विशाल बताते हैं कि कई बार दो-तीन महीने तक कोई प्रोग्राम नहीं मिलता। सूचना विभाग में सूचीबद्ध होने के नाते स्वजल, स्वास्थ्य विभाग या दूसरे विभागों के कार्यक्रम मिल जाते हैं। एक महीने में 10-12 प्रोग्राम मिल जाएं तो दल के हर व्यक्ति को दस हजार के आसपास मिल जाता है। मार्च के दूसरे हफ्ते तक इन सांस्कृतिक दलों को कार्यक्रम मिले। इसके बाद से सब ठप है।
स्टेज की रौनक और लॉकडाउन का दर्द
विशाल सावन कहते हैं कि कलाकार से स्टेज की रौनक होती है। उसे सजना-संवरना पड़ता है। लॉकडाउन में इन कलाकारों के पास राशन का इंतज़ाम नहीं था। वे इस स्थिति में भी नहीं थे कि पुलिस थाने में लगी राशन की कतार में खड़े हों। लोगों ने उन्हें स्टेज पर देखा था, इसलिए वे थाने जाने से कतरा रहे थे। कई कलाकार तो मदद मांगने में भी झिझक रहे थे। अब भी यही स्थिति है
फ्रीलांस आर्टिस्ट का हाल पूछोगे तो कहेगा सब बढ़िया है
संस्कृति और सूचना के अलावा बहुत से ऐसे कलाकार हैं जो कहीं सूचीबद्ध नहीं हैं लेकिन कोरोना से उपजी पीड़ा से सब गुज़रे। ये फ्रीलांस कलाकार होटलों में, कार्पोरेट घरानों के कार्यक्रमों में, ऑकेस्ट्रा, शादी-ब्याह, जागरण तक काम करते हैं। ये किसी गिनती में शामिल नहीं हुए। फ्रीलांस आर्टिस्ट के साथ काम करने वाले लॉरेंस कहते हैं सिर्फ देहरादून में ही लोक कलाकार को छोड़ दें तो 200 से अधिक फ्रीलांस आर्टिस्ट हैं। लॉकडाउन मार्च में शुरू हुआ लेकिन हमारा काम फरवरी में ही बंद होना शुरू हो गया। बहुत सारे प्री बुक शो कैंसिल होने लगे थे। अब तक हम बेरोज़गार हैं। हमारा 90 फीसदी काम होटल से जुड़ा हुआ है।
गढ़वाल-कुमाऊं से आए बहुत से आर्टिस्ट देहरादून में किराये पर रहते हैं। अपनी आजीविका के लिए इसी काम पर निर्भर हैं। लॉरेंस कहते हैं कि मार्च से जुलाई तक गर्मियों की छुट्टी और टूरिस्ट सीजन इनके काम के लिहाज से बहुत अच्छा होता है। इन दिनों एक आर्टिस्ट 40-50 हज़ार रुपये प्रति महीने तक कमा लेता है
अब भी किसी आर्टिस्ट का हालचाल पूछेंगे तो कहेगा सब बढ़िया है। लॉरेंस के मुताबिक स्टेज पर हाई-फाई नज़र आने वाला मुफ्त मिल रहे राशन की कतार में खड़ा नज़र आएगा तो तकलीफ होगी। लोग भी हमें पहचान ही लेते हैं। शो-बिज में दिखावा ज्यादा होता है। गाने के साथ कपड़ों और लुक का ध्यान रखना होता है। देहरादून के 25 कलाकारों के घर हमने राशन का सामान भिजवाया। इस दौरान संस्कृति विभाग और पर्यटन मंत्री को पत्र भी लिखे कि हम भी उत्तराखंड के नागरिक हैं, हमसे सरकार काम कराती है, लेकिन हमें सूचीबद्ध नहीं करती। टिहरी झील महोत्सव, हरेला के कार्यक्रम, नैनीताल के सरकारी आयोजनों में हम चार चांद लगाते हैं। ये बातचीत खत्म करते हुए लॉरेंस अपने साथी कलाकार की प्रतिक्रिया सुनाते हैं “लॉरेंस मरने पर लकड़ी भी 3500 की मिलती है, हज़ार का क्या करेंगे”।
(वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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