श्रमिकों के ख़िलाफ़ चल रही जंग से अर्थव्यवस्था बेहाल होगी
लाखों प्रवासी कामगारों के पास पैसे, भोजन और आश्रय कुछ भी नहीं है, इसलिए वे थके हुए मन और भारी क़दमों से अपने-अपने गांव का रुख़ कर रहे हैं, या रास्ते में ही उन्हें जैसे-तैसे बने क्वारंटाइन शिविरों में ठूंसा जा रहा है, लॉकडाउन की आड़ में मज़दूरों के हक़ के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी गयी है। भारतीय जनता पार्टी या बीजेपी हमेशा की तरह राज्य सरकारों के ज़रिये इस वर्ग युद्ध का नेतृत्व कर रही है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश के ज़रिए तीन साल की अवधि के लिए सभी श्रम क़ानूनों (सिर्फ चार को छोड़कर) को निलंबित कर दिया है। मध्य प्रदेश सरकार ने नयी इकाइयों के लिए एक हज़ार दिनों की अवधि के लिए इन श्रम क़ानूनों को ग़ैर-मुनासिब क़रार दिया है। गुजरात सरकार ने इसी तरह के फ़ैसले लिए हैं; और कर्नाटक सरकार भी इसी तरह की योजना बना रही है। पंजाब और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों ने हालांकि अभी तक तो ऐसा नहीं किया है, लेकिन कार्य दिवस को इन्होंने भी बढ़ाकर 8 से 12 घंटे तक कर दिया है।
श्रम क़ानूनों के निलंबन का मतलब है, सबसे पहले नियोक्ता श्रमिकों को अपनी इच्छा के मुताबिक़ जब चाहे निकालने के लिए स्वतंत्र हैं और न्यूनतम मज़दूरी देने की ज़िम्मेदारी से भी मुक्त हैं; लेकिन इसका मतलब यह भी है कि नियोक्ता श्रमिकों को "ताज़ी हवा, प्रकाश व्यवस्था, शौचालय, बैठने की सुविधा, प्राथमिक चिकित्सा बॉक्स, सुरक्षात्मक उपकरण, कैंटीन, क्रेच और काम के बीच सुस्ताने के लिए इंटरवल" का इंतज़ाम कराने के लिए बाध्य नहीं हैं (हिंदू, 8 मई)।
दूसरे शब्दों में, इसका मतलब तो यह हुआ कि न सिर्फ़ छोटे-छोटे उद्यमों में, जहां पहले से ही काम करने के हालात बहुत बुरे हैं,बल्कि बड़े-बड़े उद्यमों में भी श्रमिक उसी तरह के हालात में फिर से धकेल दिये जायेंगे, जिस तरह के हालात का वर्णन मार्क्स और एंगेल्स ने 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन के बारे में किया था। यह एक तरह से दो शताब्दी के संघर्ष के बाद मज़दूर वर्ग द्वारा हासिल किये गये अधिकारों के छिन जाने की तरह है।
श्रमिकों के ख़िलाफ़ इस जंग को लेकर जो तर्क दिया जा रहा है, वह यह है कि इससे राज्य में बड़े पैमाने पर निवेश और रोज़गार बढ़ेंगे और ख़ास तौर पर अमेरिका और चीन के बीच पैदा होते गतिरोध को देखते हुए इस बात की संभावना और बढ़ जाती है, क्योंकि कहा जा रहा है कि विदेशी कंपनियां अपने कारखानों को कहीं और ले जाने के लिए किसी ठिकाने की तलाश में हैं। हालांकि कई कारणों से यह तर्क पूरी तरह से दोषपूर्ण है।
पहली बात तो यह कि काम के अनुकूल हालात श्रमिकों के अधिकार से जुड़े मामले हैं। संविधान में सूचीबद्ध मौलिक अधिकारों में ये महज नाम के लिए शामिल नहीं है, बल्कि वास्तव में ऐसा बिल्कुल नहीं है कि ये अन्य अधिकारों के बनिस्पत कम बाध्यकारी या दमदार है। सिर्फ़ विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए इन अधिकारों को जैसे-तैसे नहीं बदला जा सकता है। संभव है कि ऐसा करने के पीछे चीन को दरकिनार करने की इच्छा हो, मगर ज़्यादा से ज़्यादा विदेशी पूंजी निवेश को महज आकर्षित करने के ख़्याल से मतदान के अधिकार या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को तो सीमित नहीं किया जा सकता है।
दूसरे शब्दों में, श्रम क़ानूनों का निर्धारण इस बात से होता है कि हम देश में पूंजी को आकर्षित करने के अवसर का लाभ उठाने के लिहाज से काम का माहौल किस तरह बनाना चाहते हैं। उसे अपनी इच्छा के मुताबिक़ नहीं बदला जा सकता है। वास्तव में, उद्देश्य तो यह होना चाहिए कि सिर्फ़ एक हिस्से के बजाय पूरे कामकाजी वर्ग को इसमें शामिल किया जाये, क्योंकि इस हिस्से के पास तो अब भी सीमित अधिकार हैं।
दूसरी बात कि यह तर्क पूरी तरह से भ्रामक है कि श्रम क़ानून बड़े निवेश के रास्ते में बाधा बनकर खड़ा है। इसके समर्थन में ऐसा एक भी सुबूत नहीं मिलता है, जिसका कोई व्यवहारिक आधार हो; वास्तव में कुछ साल पहले, जब नवउपनिवेशवाद का प्रभाव बढ़ रहा था, तो कुछ "विद्वानों" ने यह "दिखाना" शुरू कर दिया था कि भारत के औद्योगिक विकास को उसके श्रम कानूनों से रुकावट पैदा हो रही है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर उनके उस "दिखावे" की ऐसी हवा निकली कि तब से इस प्रकार के “दिखावे" को फिर कभी हवा ही नहीं मिली।
कुछ समय के लिए विदेशी निवेश को छोड़ दें, तो यह सैद्धांतिक तर्क भी उतना ही भ्रामक है। संक्षेप में कहा जाय, तो वह क्षेत्र, जिससे श्रम क़ानूनों को रेखांकित किया जाता है, वह कॉर्पोरेट क्षेत्र है और इस कॉर्पोरेट क्षेत्र की ख़ासियत उसका अल्पाधिकार और एकाधिकार वाला होना है, जहां कंपनियों के बाज़ार शेयर में लंबे समय के दरम्यान ही बदलाव आते हैं, ताकि किसी भी कंपनी के लिए मांग में अपेक्षित वृद्धि, उनके हित के मुताबिक़ समग्र मांग की अपेक्षित वृद्धि के समान हो।
किसी भी कंपनी द्वारा किया जाने वाला निवेश बाज़ार की अपेक्षित वृद्धि से निर्धारित होता है; और लाभ-मार्जिन में किसी भी तरह के होने वाले बदलाव का उस पर कोई असर नहीं पड़ता है। इसलिए, श्रम क़ानूनों के ख़ात्मे के बाद श्रम की सौदेबाज़ी की ताकत कम कर दिये जाने से भले ही मज़दूरी में कटौती हो जाय और जिससे भले ही लाभ मार्जिन बढ़ जाय, लेकिन किसी भी हिस्से में निवेश का स्तर नहीं नहीं बढ़ने जा रहा है, और इस तरह,कुल मिलाकर कॉर्पोरेट क्षेत्र में भी निवेश नहीं बढ़ने जा रहा है।
कॉर्पोरेट सेक्टर में मज़दूरी में कटौती से होने वाले मुनाफ़े में बढ़ोत्तरी इन्हीं श्रम क़ानूनों के ख़ात्मे का नतीजा होगी, हालांकि इससे पूरी तरह से अर्थव्यवस्था में मांग कम हो जायेगी, ऐसा इसलिए होगा,क्योंकि प्रति यूनिट मुनाफ़े की खपत, मज़दूरी की प्रति यूनिट खपत की राशि से कम होती है। इसलिए, इसका नतीजा अर्थव्यवस्था के लिए रोज़गार और उत्पादन,दोनों में कमी के रूप में आ सकता है।
मुमकिन है कि यह तर्क दिया जाय कि इससे विशेष रूप से वह राज्य प्रभावित नहीं हो, जहां श्रम क़ानूनों को निरस्त किया जा रहा है, क्योंकि किसी भी राज्य में मज़दूरी में कटौती से लेकर मुनाफ़े में होने वाली बढ़ोत्तरी के चलते मांग में होने वाली कमी उस राज्य के सिर्फ़ उत्पादों में ही नहीं होगी, बल्कि उस राज्य में रोजगार के बढ़ने की उम्मीद करने का कोई कारण भी नहीं होगा। अन्य राज्यों के उत्पादों की मांग नहीं होने पर मुमकिन है कि यह उतना नहीं गिरे, जितना कि गिरने की आशंका हो; लेकिन रोज़गार में कुछ गिरावट तो आयेगी।
सवाल यह है कि क्या वैश्विक बाज़ार के लिए पैदा होने वाले विदेशी निवेश को आकर्षित करके इसकी भरपाई की जा सकती है और चीन से ये निवेश दूर छिटक सकते हैं? यहां इस बात को याद रखना अहम है कि मज़दूरी की लागत केवल उन तत्वों में से केवल एक तत्व है, जिसका ख़्याल विदेशी पूंजी को निवेश करते हुए तय किया जाता है कि कोई कारखाना कहां लगाया जाये। श्रम बल की गुणवत्ता, काम के माहौल और श्रमिकों की शिक्षा के स्तर पर निर्भर करती है, और यह गुणवत्ता भी इस लिहाज से एक अहम कारक होती है। बिना शौचालय, बिना कैंटीन, लंबे समय तक काम करने के लिए मामूली मज़दूरी वाला कार्यबल, संक्षेप में अगर कहा जाये तो एक नाराज़, असंतुष्ट और दुखी कार्यबल, शायद ही चीन से छिटकने वाली विदेशी पूंजी को आकर्षित करने वाला कार्यबल साबित हो।
और इसके अलावे, इस समय की सच्चाई यही है कि विश्व अर्थव्यवस्था में वैसे भी बहुत अधिक निवेश नहीं हो रहा है: कोरोनोवायरस महामारी से पहले भी विश्व अर्थव्यवस्था की रफ़्तार साफ़ तौर पर धीमी हो गयी थी। आख़िरकार श्रम क़ानूनों को निरस्त किये जाने से पहले भी भारतीय श्रम, चीनी श्रम के बनिस्पत बहुत सस्ता था; तो ऐसे में सवाल उठता है कि उस समय विदेशी पूंजी ने चीन और अन्य एशियाई देशों के मुक़ाबले भारत का रुख़ क्यों नहीं किया? फिर, ऐसा क्यों है कि नरेंद्र मोदी सरकार अपने "मेक इन इंडिया" अभियान के साथ आगे बढ़ रही है, हमारी निर्माण विकास दर काफ़ी समय से,बल्कि सच कहा जाय,तो महामारी के पैदा होने वाले ख़तरे के पहले से ही शून्य या नकारात्मक रही है ?
जो सच्चाई विदेशी निवेश को लेकर है, वही सच्चाई दूसरे देशों से भारतीय निवेश को आकर्षित करने की भी है। ज़्यादा निवेश तो वैसे भी नहीं हो रहा है; अकेले श्रम अधिकारों के ख़ात्मे के बूते दूसरे देशों से बहुत अधिक पूंजी निवेश को आकर्षित नहीं किया जा सकता है। और अगर ऐसा होता है, तो यह राज्यों के बीच “लागत को कम करने की ख़ातिर मज़दूरी में कटौती” किये जाने को लेकर प्रतिस्पर्धा तेज़ हो जायेगी, जो कि ख़तरनाक है।
कम मज़दूरी से अधिकतम मुनाफे के नीतिगत बदलाव से निवेश के स्तर में वृद्धि नहीं होगी, ऐसा क्यों होगा, इस सवाल के कारणों पर हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं, लेकिन इससे कुल मांग कम होगी और इसलिए उत्पादन और रोज़गार, दोनों पर असर पड़ेगा; यह लाभ के उस समग्र स्तर को भी नहीं बढ़ा पायेगा, जो कि निवेश के स्तर से नज़दीक से जुड़ा हुआ है। लेकिन,मुनाफे के इस समग्र स्तर के भीतर, इससे निश्चित रूप से छोटे पूंजीपतियों और छोटे-मोटे उत्पादकों के मुनाफे का बहाव कॉर्पोरेट क्षेत्र की ओर होगा। ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि श्रम क़ानूनों के निरस्त होने के बाद मज़दूरी में कमी के चलते छोटे पूंजीपतियों और छोटे-मोटे उत्पादकों के उत्पादों की मांग घट जायेगी और ऐसे में लाभ-मार्जिन नहीं बढ़ पायेगा।
दूसरे शब्दों में, इस तरह का निरस्तीकरण महज श्रमिकों पर ही हमला नहीं है,बल्कि छोटे पूंजीपतियों और छोटे-मोटे उत्पादकों पर भी एक अनचाहा हमला है। इस तरह,यह सिर्फ़ श्रमिक ही नहीं,बल्कि छोटे पूंजीपतियों और छोटे-मोटे उत्पादकों सहित समाज के बाक़ी हिस्सों की क़ीमत पर कॉरपोरेट क्षेत्र के हितों को बढ़ावा देता है।
हालांकि, यह बदलाव केंद्र और राज्य, दोनों में ठेठ भाजपा सरकारों की ओर से किया जा रहा है। वे कॉरपोरेट नेतृत्व से निकले आर्थिक जगत को लेकर ख़तरनाक रूप से घिसी-पिटी समझ को लोकतांत्रिक अधिकारों के साथ एक प्रवृत्ति से जोड़ देते हैं। यह समझ पाना बहुत आसान है कि जितना ज़्यादा कॉर्पोरेट्स को संतुष्ट रखा जायेगा, उतना ही ज़्यादा निवेश, उत्पादन और रोजगार के लिए बेहतर होगा, असल में इस विचार को लगभग एक सदी पहले ही पूरी तरह से खारिज किया जा चुका है।
भाजपा कामगारों के अधिकारों को पैरों तले रौंदते हुए इसी समझ को चरम तक पहुंचाने में लगी हुई है, भाजपा का यह क़दम लोकतंत्र को दबाने वाला ठीक उसी तरह का क़दम है, जिस तरह धार्मिक अल्पसंख्यकों या दलितों पर होने वाले हमले हैं। श्रमिकों के ख़िलाफ़ यह जंग उन्हीं हमलों के सिलसिले की एक कड़ी है, जिन्हें भाजपा धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों पर करती रही है; इसके आर्थिक नतीजे विनाशकारी होंगे।
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