नर्मदा के बरगी जलाशय में इतना क्यों घटा मछली उत्पादन कि मछुआरे पलायन को मजबूर
मध्य प्रदेश में सिवनी जिले का कुदवारी गांव नर्मदा के बरगी जलाशय के किनारे स्थित है, जहां रमेश बर्मन वर्ष 1994 से अभी तक मछलियां पकड़ने का काम कर रहे हैं। वह कहते हैं, "जब मैंने मछुआरे का काम शुरू किया तब मुझे अच्छी तरह से याद है कि एक दिन में मुझे चालीस-पचास किलो तक मछलियां मिल जाती थीं। अब हाल इतना बुरा है कि किसी दिन जलाशय से ढाई किलो मछलियां भी पकड़ में आ जाएं तो बड़ी बात मानी जाती है।"
कुदवारी करीब चालीस-पचास मछुआरा परिवारों का एक छोटा-सा गांव है, जहां रमेश बर्मन जैसे कुछ मछुआरे हैं जो मछली उत्पादन के दिनों में मछलियों को पकड़ने के लिए हर दिन शाम 4 बजे से अगली सुबह 7 बजे तक जलाशय के पानी में जाल डाले रखते हैं। रमेश बर्मन आगे बताते हैं, "यहां करने को कोई दूसरा काम नहीं है, इसलिए मछलियों को पकड़ने का काम ही कर रहे हैं। बरगी बांध बनने के कारण कोई तीस साल पहले यहां की जमीनें जलाशय के पानी में डूब गई थीं, नहीं तो थोड़ी-बहुत किसानी भी करके गुजारा चला लेते। मछलियां पकड़ना हमारा पुश्तैनी धंधा है, मगर रोजी-रोटी के लिए अपना घर-परिवार छोड़ अब चार-छह महीनों के लिए मीलों दूर भी जाना पड़ रहा है।"
बरगी जलाशय क्षेत्र के कई मछुआरे बताते हैं कि वे हर साल दिवाली के बाद चार से छह महीनों के लिए घर छोड़ देते हैं और बरगी से करीब छह सौ किलोमीटर दूर खंडवा जिले के इंदिरा-सागर बांध के जलाशय में मछलियां पकड़ने के लिए जाते हैं। वहीं, कई मछुआरे शहडोल जिले के बाण-सागर और इसी तरह कई मछुआरे उत्तर-प्रदेश के ललितपुर जिले के राजघाट जलाशय तक मछलियां पकड़ने के लिए जाते हैं।
दूसरी तरफ, नर्मदा नदी में मछलियों की कई प्रजातियों की संख्या कम होना भी मछुआरों के लिए चिंता का कारण बना हुआ है। इस बारे में मंडला में किला वार्ड के रमेश नंदा चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि बरगी जलाशय से पंद्रह किलो तक वजनी महाशीर मछलियां गायब होती जा रही हैं। उनके मुताबिक ऐसा इसलिए कि महाशीर मछलियां रेतीली जगहों पर रहती हैं, लेकिन नर्मदा नदी पर बांध बनाने के कारण जलाशय में रेत घटती जा रही है। रमेश नंदा गुस्से में आकर सवाल पूछते हैं, "गए बीस सालों में धान से लेकर साग-सब्जियों और फलों की पैदावार लगातार बढ़ रही है, दूसरी तरफ ताज्जुब की बात है कि बरगी जलाशय की मछलियां घट रही हैं, क्यों? जबकि वही नदी, वही जलाशय और वही पानी है?"
यदि मध्य-प्रदेश के मत्स्य-विभाग के पिछले 27 वर्षों के आंकड़े देखें तो प्रशासनिक स्तर पर भी इस बात की पुष्टि होती है कि बरगी जलाशय में मछली उत्पादन लगभग न के बराबर रह गया है। राज्य मत्स्य-विभाग के मुताबिक वर्ष 1994-95 में बरगी जलाशय से 432 टन मछली उत्पादन किया गया था। अगले वर्ष 1994-95 में यह उत्पादन बढ़कर 530 टन हो गया। इसके बाद वर्ष 1999-2000 तक प्रतिवर्ष औसतन 450 टन मछली उत्पादन होता रहा।
इसके बाद साल-दर-साल लगातार मछली उत्पादन घटता गया। जबलपुर स्थित मध्य-प्रदेश राज्य मत्स्य महासंघ के क्षेत्रीय प्रबंधक के मुताबिक वर्ष 2017-18 में यहां 55 टन मछली-उत्पादन हुआ था। हालांकि, वर्ष 2019-20 में यह मामूली बढ़कर 95 टन तक पहुंचा। वहीं, वर्ष 2020-21 में यहां 29 टन उत्पादन हुआ है।
आख़िर क्यों घट गया मछली उत्पादन
राज्य मत्स्य-विभाग के आंकड़ों और स्थानीय मछुआरों के तीन दशकों पुराने अनुभव बताते हैं कि बरगी जलाशय में मछली भंडार कम होने की प्रमुख वजह है मछुआरों को मछली पालन के प्रबंधन से दूर करना और मछुआरों से मछली पालन के संचालन का अधिकार छीनकर उसे ठेकेदारों को सौंप देना।
बता दें कि हर वर्ष 15 जून से 15 अगस्त तक मछलियों का प्रजनन-काल होता है और इस समय मछलियों के उत्पादन को देखते हुए शासन द्वारा मछलियां मारने पर प्रतिबंध लगाया जाता है। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में बरगी जलाशय के आसपास मत्स्य माफिया का तेजी उभार हुआ है जो मछलियों के प्रजनन-काल में भी अवैधानिक तरीके से मछलियों का शिकार कर रहे हैं। दूसरा, पिछले कुछ वर्षों से ही जलाशय में ठेका स्तर पर मछलियों के बीज छोड़ने की गतिविधियों में अनियमितता के कारण भी यहां मछलियां नहीं पनप पा रही हैं।
किंतु, बरगी जलाशय में मछली-उत्पादन में लगातार आ रही गिरावट को यदि हमें अच्छी तरह से समझना है तो इसकी पृष्ठभूमि में जाना पड़ेगा। हमें जानना पड़ेगा कि बरगी जलाशय में मछली पालन को कभी कॉपरेटिव के सफल मॉडल के तौर पर प्रस्तुत किया जाता था। दरअसल, नब्बे के दशक की शुरुआत में नर्मदा नदी पर पहले बांध बरगी के निर्माण के बाद इस पूरे क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ था। इसके बाद राज्य सरकार ने निजी ठेकेदारों को मछली-पालन का अधिकार दिया था। राज्य सरकार के इस निर्णय के विरोध में तब वर्ष 1992 में बरगी बांध विस्थापितों ने एक बड़ा आंदोलन किया था और राज्य से मछली-पालन का अधिकार मांगा था।
इसके दो साल बाद वर्ष 1994 में राज्य सरकार को आंदोलन के सामने झुकना पड़ा था। इसके साथ ही बरगी बांध से विस्थापित परिवारों को बरगी जलाशय की मछलियां पकड़ने का अधिकार दिया गया। इसके लिए मछली पालन का सहकारी मॉडल अपनाया गया। इस तरह, जलाशय के तटीय क्षेत्र के 54 गांवों में मछुआरा सहकारी समितियां पंजीकृत हुईं। हर एक गांव की ग्राम मछुआरा समिति में एक दर्जन से सौ तक सदस्य जुड़े।
( बरगी जलाशय से जबलपुर, मंडला और सिवनी जिले के 54 गांवों में करीब तीन हजार मछुआरा परिवारों का गुजारा होता रहा है। (फोटो: जितेंद्र बर्मन))
इन सहकारी समितियां के काम-काज को सुविधाजनक बनाने, समितियों के साथ अच्छा समन्वय करने और उन्हें सहयोग देने के उद्देश्य से तब राज्य सरकार ने मध्य-प्रदेश मत्स्य पालन बोर्ड की जगह मध्य-प्रदेश राज्य मत्स्य महासंघ की स्थापना की। इस प्रकार, राज्य सरकार द्वारा सहकारी समिति अधिनियम के तहत मध्य-प्रदेश मत्स्य महासंघ अस्तित्व में आया।
दूसरी तरफ, सभी 54 ग्राम मछुआरा सहकारी समितियों के बैनर तले मछुआरों ने एक विपणन की व्यवस्था तैयार की, जिसका नाम रखा गया- बरगी बांध विस्थापित मत्स्य उत्पादन व विपणन सहकारी संघ। इस संघ ने अक्टूबर, 1994 से आधिकारिक रुप से कार्य प्रारंभ किया। राज्य सरकार के मत्स्य महासंघ के साथ हुए अनुबंध के अनुसार मछुआरों को उनके उपभोग के लिए पकड़ी गई कुल मछलियों में से 20 प्रतिशत हिस्सा अपने पास ही रखने की छूट दी गई। इसके साथ ही सभी 54 ग्राम मछुआरा समितियों ने 6 रुपये प्रति किलो मछलियों के हिसाब से राज्य सरकार को रॉयल्टी देना शुरू कर दी। वहीं, मछुआरों को भी प्रति किलो मछलियों पर 8 से 10 रुपये का मेहनताना मिलने लगा।
बरगी बांध विस्थापित मत्स्य उत्पादन व विपणन संघ के अध्यक्ष मुन्ना बर्मन बातचीत में कुछ जानकारियां साझा करते हैं। वह बताते हैं कि संघ ने पहले वर्ष 1994-95 में रॉयल्टी के तौर पर राज्य सरकार के खजाने में 22 लाख रुपये जमा किए थे। इसी वर्ष मछली उत्पादन सौ टन से ज्यादा बढ़ गया था। वहीं, इस एक साल में मछुआरों की कुल कमाई 25 लाख रुपये से बढ़कर 47 लाख रुपये तक हो गई। इसके बाद वर्ष 1999 को संघ ने मछुआरों का मेहनताना बढ़ाकर साढ़े 14 रुपये प्रति किलोग्राम मछलियां कर दिया।
कामयाबी की यह कहानी ज्यादा दिनों तक नहीं चली
वर्ष 2001 में मध्य-प्रदेश राज्य मत्स्य महासंघ ने राज्य सरकार द्वारा बरगी जलाशय में ग्राम मछुआरा सहकारी समितियों को दिए गए मछली-पालन के निर्णय के विरुद्ध जबलपुर उच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की। याचिका में दलील दी गई कि ग्राम मछुआरा समितियों द्वारा किए जाने वाला मछली उत्पादन राज्य के सालाना औसत मछली उत्पादन से कम होता है।
इस बारे में बरगी बांध विस्थापित संघ के नेता राजकुमार सिन्हा बताते हैं, "तब उच्च-न्यायालय ने राज्य सरकार के निर्णय पर स्टे लगा दिया। इसके बाद उसी वर्ष राज्य मत्स्य महासंघ ने बरगी जलाशय में मछली उत्पादन का अधिकार निजी ठेकेदारों को दे दिया। हालांकि, तब राज्य मत्स्य उत्पादन आयुक्त की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई थी।"
राजकुमार सिन्हा के मुताबिक इस समिति की जिम्मेदारी थी कि वह ठेकेदारों द्वारा किए गए उत्पादन का आंकलन करें और यदि ठेकेदारों के प्रबंधन के कारण मछली उत्पादन घटता या बढ़ता है तो उसकी रिपोर्ट बनाए। लेकिन, पिछले 20 वर्षों में मछली उत्पादन लगातार घटने के बावजूद मत्स्य उत्पादन आयुक्त की अध्यक्षता वाली समिति ने इस संबंध में कोई रिपोर्ट नहीं बनाई। इस तरह, बरगी बांध विस्थापित मत्स्य उत्पादन व विपणन संघ से मछली पालन का अधिकार छीने जाने के बाद दोबारा उन्हें मछली पालन का काम देने के बारे में नहीं सोचा गया, बल्कि इसके विपरीत राज्य मत्स्य संघ ने इस सेक्टर को निजी ठेकेदारों के अनुकूल बनाने की दीर्घकालिक नीति पर कार्य किया।
इस तरह, बरगी जलाशय में मछली पालन के प्रबंधन का सहकारी मॉडल ढह गया और पांच-छह वर्षों के अंतराल के बाद नौकरशाह व ठेकेदारों का आधिपत्य स्थापित हो गया। इसका एक नतीजा यह हुआ कि मछुआरों से उनके अपने उपभोग के लिए कुल मछली उत्पादन का 20 प्रतिशत हिस्सा रखने का अधिकार भी छिन गया और वे मालिक से एक बार फिर मजदूर बन गए।
वहीं, बरगी बांध विस्थापित मत्स्य उत्पादन व विपणन संघ के अध्यक्ष मुन्ना बर्मन के मुताबिक पिछले वर्षों में इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि निजी ठेका प्रणाली ने राज्य के मत्स्य क्षेत्र को लाभ पहुंचाया हो।
मुन्ना बर्मन कहते हैं, "स्थानीय जनप्रतिनिधि से लेकर राज्य सरकार तक न तो किसी को बरगी जलाशय में मछली उत्पादन की चिंता है और न ही मछुआरों की स्थिति को लेकर ही कोई संवेदनशील है। इसलिए इस हालत से बाहर निकलने की बात तो दूर, कोई इस हालत की जवाबदेही लेने तक को तैयार नहीं है, जबकि सभी को पता है कि बरगी में मछली भंडार बढ़ाने का एक ही उपाय है और यह है ग्राम मछुआरा सहकारी समितियों को फिर से मछली पालन का जिम्मा देना।
इसलिए बढ़ गया था मछली उत्पादन
मुन्ना बर्मन बताते हैं कि जब ग्राम मछुआरा सहकारी समितियों के पास जलाशय की मछलियों की उत्पादकता की जिम्मेदारी होती थी तब स्थानीय मछुआरे हर वर्ष 15 जून से 15 अगस्त यानी मछलियों के प्रजनन-काल के दौरान जलाशय की सुरक्षा करते थे और इस मौसम में अवैधानिक तरीके से होने वाली मछलियों के शिकार को रोकते थे। लेकिन, ठेका पद्धति आने के बाद कुछ वर्षों में चोरी-छिपे मछली मारने वालों का एक संगठित गिरोह तैयार हुआ है जिसे जलाशय और उसमें रहने वाली मछलियों के अस्तित्व से कोई मतलब नहीं है।
इस बारे में रमेश बर्मन कहते हैं, "जब जलाशय का जिम्मा हमारे हाथों में था तब जलाशय में खूब मछलियां होती थीं, क्योंकि हम मछलियों की ब्रीडिंग के टाइम पूरी सख्ती के साथ मछलियों के शिकार को रोकते थे। यदि आज भी जलाशय की अच्छी तरह से सुरक्षा की जाए तो बरगी में मछलियों की कमी कभी हो ही नहीं सकती है।"
दूसरी तरफ, राज्य मत्स्य महासंघ स्टॉफ और संसाधनों की कमी से जूझ रहा है। यही वजह है कि अधिकारियों के भरोसे इस विशाल जलाशय की सुरक्षा व्यवस्था कर पाना बहुत बड़ी चुनौती बन गया है। हालांकि, महासंघ के क्षेत्रीय प्रबंधक सीबी मोहने मछुआरों के आरोपों को खारिज करते हुए कहते हैं, "जलाशय की सुरक्षा का ध्यान रखा जा रहा है। इसके अलावा हमारे निर्देश पर जलाशय में पर्याप्त मछलियों के बीज डाले जा रहे हैं।"
वहीं, मंडला जिले में खमहरिया गांव के मछुआरे रामकुमार बर्मन विभागीय अधिकारी और ठेकेदारों पर यह आरोप लगाते हुए कहते हैं कि मछलियों के बीज डालने को लेकर भी कहीं किसी तरह की पारदर्शिता नहीं बरती जा रही है। इसलिए कई बार बताई गई मात्रा से काफी कम मछलियों के बीज जलाशय में डाले जाते हैं। इसी तरह, आमतौर पर मछलियों के बीजों की गुणवत्ता भी अच्छी नहीं होती है। रामकुमार बर्मन के मुताबिक कायदे से जलाशय में 60 प्रतिशत कतला और 40 प्रतिशत रोहू तथा मृगल प्रजातियों की मछलियों के बीज डाले जाने चाहिए, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है।
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