तमिलनाडु के चाय बागान श्रमिकों को अच्छी चाय का एक प्याला भी मयस्सर नहीं
चाय, विश्व स्तर और भारत में सबसे व्यापक रूप से पिया जाने वाला पेय है, लेकिन जो लोग इसका उत्पादन करते हैं उन्हें एक प्याला चाय पीने से भी वंचित कर दिया जाता है।
न्यूज़क्लिक ने हाल ही में तमिलनाडु के कोयंबटूर जिले में वालपराई हिल स्टेशन और उसके आसपास के चाय बागानों का दौरा किया और वहां के श्रमिकों से बातचीत की। पता यह चला है कि उनकी काम की स्थिति बहुत ही दयनीय है और मजदूर अपना काम छोड़ कर मैदानी इलाकों की ओर पलायन कर रहे हैं।
60 किमी के दायरे के भीतर मौजूद चाय बागानों में 20,000 से अधिक श्रमिक काम करते हैं। ये अधिकतर दूसरी और तीसरी पीढ़ी के बागान श्रमिक हैं जिनका जन्म और पालन-पोषण इन बगानों के भीतर हुआ है। वे सुबह से शाम तक चाय की पत्ती तोड़ने, कीटनाशकों का छिड़काव करने, खाद डालने और शाखाओं को काटने का काम करते हैं।
मजदूर पूरे दिन ढलान वाले बागानों में खड़े रहते हैं और जोंक के डंक को झेलते हुए काम करते हैं, जो उनका खून चूसती है। महिला श्रमिक चाय की पत्ती काटने के लिए कई घंटों तक कैंची चलाती हैं, जिससे उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा, उन्हें शौचालय और सुरक्षा उपकरण जैसी आवश्यक सुविधाओं से भी वंचित किया जाता है।
कई बागानों में तो न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती है, जिसके बारे में श्रमिकों का कहना है कि वह पहले से ही अपर्याप्त है। महामारी के दौरान, चीन से आयात बंद होने के कारण, चाय की बिक्री अच्छी ख़ासी हुई थी।
'एक प्याला अच्छी चाय भी मयस्सर नहीं’
प्रोटोकॉल के अनुसार, प्रत्येक चाय बागान श्रमिक को दिन में एक प्याला चाय दी जानी चाहिए। एक व्यक्ति, जो आमतौर पर एक बागान श्रमिक के परिवार का ही सदस्य होता है, को उनके आवास में चाय बनाने के लिए नियुक्त किया जाता है। एक श्रमिक का काम हर दोपहर चाय वितरित करने का होता है।
न्यूज़क्लिक ने एक बागान में चाय बनाने वाले से बात की, जिसने गुमनाम रहना पसंद किया। उसने कहा, “चाहे 20 लोग हों या 100 लोग, मुझे चाय बनाने के लिए समान मात्रा में राशन दिया जाता है; आप समझ सकती हैं कि फिर चाय कैसी होगी।”
“प्रशासन मुझे बर्तन साफ करने के लिए साबुन भी नहीं देता है। मुझे उन्हें अपनी आय से खरीदना पड़ता है,” उक्त बात चाय बनाने वाले ने बताई जो प्रति माह मात्र 2,500 रुपये कमाता है।
मजदूरों की शिकायत है कि चाय बेहद पानी वाली होती है जिसे सादे रंग का चीनी का पानी भी कहा जा सकता है।
बागान श्रमिक मारीमुथु ने बताया कि, "हम जो चाय पीते हैं वह यहां से 2 किमी दूर बनती है, और बारिश में इसे हमारे पास लाया जाता है, तब तक यह गर्म नहीं रह पाती है।"
प्रशासन ने चाय ले जाने के लिए फ्लास्क भी उपलब्ध नहीं कराया है। चाय ले जाने वाला व्यक्ति यह सुनिश्चित करने के लिए तेजी से दौड़ लगाता है ताकि चाय ठंडी होने से पहले श्रमिकों तक पहुंच जाए।
एक श्रमिक पत्ते के प्याले से चाय की चुस्की लेते हुए।
साथ ही मजदूरों की शिकायत है कि प्रशासन चाय पीने के लिए गिलास या प्याला भी नहीं देता है। वे बड़े पत्तों को मोड़ते हैं, उसमें अपनी चाय डालते हैं और पीते हैं। यह पूछे जाने पर कि प्रशासन ऐसा क्यों करता है, श्रमिकों में से एक, मूर्ति ने बताया कि, “यदि वे हमें ये चीजें देंगे तो हम थोड़ा इज्जतदार बन जाएंगे; लेकिन वे ऐसा नहीं चाहते हैं।"
'बेहतर दिहाड़ी का न मिलना'
चाय बागान के मजदूर प्रतिदिन लगभग 300 रुपये दिहाड़ी कमाते हैं। अधिकांश परिवारों में, पति और पत्नी दोनों बागानों में काम करते हैं, और उनका कहना है कि कमाई गई आय घर चलाने के लिए काफी नहीं है।
एक चाय बागान श्रमिक सुबह जल्दी काम पर जाते हुए।
मूर्ति कहते हैं कि "मेरे तीन बच्चे है; वे कॉलेज में पढ़ रहे हैं। कम से उन्हें शिक्षित करना कठिन है। हम बैंक से कर्ज लेते हैं, आभूषणों को गिरवी रखते हैं और उन्हें शिक्षित करने के लिए पैसे उधार लेते हैं।”
उन्होंने आगे कहा, "चाय उत्पादन में बहुत लाभ है क्योंकि यह एक नकदी फसल है। चाय रोज पैदा होती है और मुनाफा देती है। महामारी के दौरान चाय का आयात रुका हुआ था, इसलिए यहां से चाय अच्छी कीमत पर बिकती थी। लेकिन हमारे वेतन में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई और न ही बोनस मिला, लेकिन पड़ोसी केरल में श्रमिकों को त्योहार का अच्छा बोनस मिलता है।
क्षेत्र में अधिकांश निजी चाय बागानों को तीसरी पार्टी को पट्टे पर दिया हुआ हैं; बहुत कम बागान हैं जिन्हे मालिक सीधे चलाते हैं। प्रबंधन, मालिक को उनके हिस्से का भुगतान करता है, और बाकी मुनाफा बिचौलिए रखते हैं।
मूर्ति कहते हैं कि, "आदर्श रूप से आरएफओ फंड का इस्तेमाल श्रमिकों को जूते और दस्ताने उपलब्ध कराने के लिए करना चाहिए, लेकिन यह हम पर खर्च नहीं किया जाता है। अगर हम इसके लिए कहते हैं, तो वे हमसे बदला लेते हैं। वे नोटिस भेजते हैं, और हमें ट्रेड यूनियन के माध्यम से अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए मजबूर किया जाता है।”
वलपराई में सीटू नेता परमशिवन ने बताया कि “प्रशासन का विरोध करने वालों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज किए जाते हैं। ऐसे श्रमिकों को अक्सर काम से निकाल दिया जाता है और उनके मूल स्थानों पर भेज दिया जाता है।”
मारीमुथु ने बताया कि, “महामारी के दौरान सरकार ने चाय को खाद्य फसल घोषित कर दिया था, इसलिए हमने लॉकडाउन के दौरान भी काम जारी रखा। तहसीलदार और वीएओ ने 'वन टच' की घोषणा की, जिसमें दोपहर 1 बजे तक काम करने का आदेश दिया गया था, लेकिन हमें दोपहर 3 और शाम 4 बजे तक काम करने के लिए कहा जाता था। हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। हमने काम किया क्योंकि हमें आय की जरूरत थी।”
इसके अलावा, श्रमिकों पर पेशेवर कर लगाया जाता है। प्रत्येक श्रमिक को एक हजार रुपये प्रति वर्ष भुगतान करना होता है।
मदासामी ने बताया कि, 'संसदीय चुनाव के दौरान हमने डीएमके के उम्मीदवार से इस टैक्स को वापस लेने की अपील की थी। हमने कहा कि हम दिहाड़ी मजदूर हैं और हमारा वेतन पर्याप्त नहीं है। उन्होंने कर वापस लेने का वादा किया था, लेकिन तब से वे दिखाई नहीं दिए हैं।
ख़राब स्वास्थ्य देखभाल और सुरक्षा
सभी बड़े चाय के बड़े बागानों में स्वास्थ्य केन्द्रों का होना अनिवार्य है। श्रमिकों की शिकायत है कि इन केंद्रों की हालत वर्षों से खराब चल रही है।
दूसरी पीढ़ी के बागान श्रमिक मदासामी, जो 15 साल की उम्र से काम कर रह हैं, ने बताया कि, “उस समय, हम अपने हाथों से पत्ते तोड़ते थे। जब फसल बहुत होती थी तभी हम कैंची का इस्तेमाल कर पाते थे। इन दिनों हम हर दिन कैंची का इस्तेमाल करते हैं। इससे जोड़ में खराबी आ गई हैं और हड्डियां पतली हो गई हैं।"
चाय बागान में काम करने वाली मदासामी, कीटनाशकों का छिड़काव करते हुए
उन्होंने आगे कहा, 'कंपनी का अस्पताल समस्या की अनदेखी करता है। वे हमें केवल एक इंजेक्शन और दर्द निवारक बाम देते हैं और हमें दो दिन आराम करने के लिए कहते हैं। यदि दर्द बना रहता है, तो हम अपनी जेब से खर्च करते हैं, कोयंबटूर जाते हैं और पता चलता है कि बीमारी गंभीर है।”
मदासामी कहते हैं कि, “जब मैं लगभग 25-30 वर्ष का था, तब अस्पताल में एक पुरुष डॉक्टर, एक महिला डॉक्टर, पाँच वार्ड बॉय और दस नर्स हुआ करती थी। अब यह स्टाफ कम हो गया है। हाल ही में एक शख्स सीने में दर्द के लिए अस्पताल गया था। इकलौता डॉक्टर छुट्टी पर था। जब तक वे उसे नीचे ले जा पाते, तब तक वह मर चुका था।”
मारीमुथु ने बताया कि, 'परदेसी फिल्म में चाय मजदूरों की नसें फट गई थीं। उन्हें केवल पानी और कॉफी पिलाई जाती थी। हमारी स्थिति बहुत अलग नहीं है; केवल हमारी नसें नहीं फटी हैं, बाकी सब कुछ वैसा ही है। जो वे हमें देते हैं हम रख लेते हैं और काम करना जारी रखते हैं।“
ब्रिटिश शासन के दौरान चाय बागान श्रमिकों की दुर्दशा पर विदेशी फिल्म का एक चित्र।
एक और बड़ी समस्या जो चाय बागान श्रमिकों को परेशान करती है, वह है वन्यजीवों के हमले।
मारीमुथु ने बतया कि, “तेंदुए हमारे घर के दरवाज़े तक आ जाते हैं, और वे बच्चों को भी खींच ले जाते हैं। हाथी शाम को भी दिखाई देते हैं और पूरी रात वहीं भटकते रहते हैं।”
खराब सुरक्षा और सीमित सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए, बागान मजदूर पहाड़ियों को छोड़कर मैदानी इलाकों में चले जा रहे हैं।
परमशिवन ने बताते हैं कि, "स्वास्थ्य सेवा खराब है, वन्यजीव संघर्ष बढ़ गया है, आवासीय सुविधाएं सीमित हैं, वॉशरूम उपलब्ध नहीं हैं, पीने के पानी का कनेक्शन भी नहीं है ... कुछ भी नहीं है। खुद को बचाने के लिए मजदूर दिहाड़ी मजदूरी का काम खोजने के लिए कोवई, तिरुपुर, इरोड, सलेम जैसे आसपास के शहरों में जा रहे हैं।
उन्होंने आगे कहा कि, “चाहे वह श्रम कल्याण बोर्ड हो या कर्मचारी भविष्य निधि, वे केवल नाम के लिए मौजूद हैं। काम छोड़ कर जाने वाले श्रमिकों के लिए कल्याण बोर्ड जिम्मेदार है। यदि बोर्ड के सदस्यों ने सम्पदा का उचित अध्ययन किया होता और उचित लाभ प्रदान किया होता, तो श्रमिक काम नहीं छोड़ते। उन्हें सब कुछ के लिए मना कर दिया जाता है। इसलिए वे चले गए हैं।"
महामारी के बाद से, देश के अन्य हिस्सों से श्रमिकों की संख्या में तेजी आई है। असम, उड़ीसा और बिहार के श्रमिक काम छोड़ कर चले गए श्रमिकों की जगह ले रहे हैं।
अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
A Cup of Tea, Luxury for Tea Plantation Workers in Tamil Nadu
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