यूपी चुनाव : पूर्वांचल में हर दांव रहा नाकाम, न गठबंधन-न गोलबंदी आया काम !
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में विपक्ष के पास मुद्दों की भरमार रहने के बावजूद समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव मोदी-योगी का जादू बेअसर नहीं कर सके। बार-बार टिकटों की अदला-बदली और लचर रणनीति ने सपा के दांव को कमजोर कर दिया। अखिलेश यादव के साथ जुटे चुनावी रणनीति के योद्धा ढुस्सी पटखा साबित हुए। सपा न तो अपने सहयोगी दलों को लामबंद कर पाई और न ही अपने घोषणा-पत्र के वादों को जनता तक पहुंचा सकी। पुरानी पेंशन बहाल करने और युवाओं के लिए सरकारी नौकरियों का दरवाजा खोलने की घोषणाओं पर वोटरों ने ज्यादा भरोसा नहीं किया। दल-बदलुओं को तरजीह देने, संगठन व प्रत्याशियों के बीच समन्वय के अभाव के चलते सपा को तमाम ऐसी सीटें खो देनी पड़ीं, जिसे सपा आसानी से जीत सकती थी। दूसरी ओर, मजबूत संगठन, गरीबों के लिए आवास मुफ्त राशन, बिजली और सुरक्षा के मंत्र ने भाजपा की राह आसान कर दी। योगी-मोदी के तिलिस्म के बीच भाजपा ने गोरखपुर मंडल की 57 में से 40 सीटों पर कब्जा किया, वहीं चुनाव के आखिरी दौर में भाजपा और सपा के बीच हुई सबसे रोचक लड़ाई बराबरी पर छूटी।
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को उम्मीद थी कि पूर्वाचल के मुकाबले पश्चिम में ज्यादा सीटें उसके खाते में आएंगी, लेकिन हुआ उल्टा। सपा को सबसे ज्यादा कामयाबी चुनाव के आखिरी चरण में मिली। सातवें चरण में कुल 54 सीटों के लिए चुनाव हुए, जिसमें सपा और भाजपा को 27-27 सीटें मिलीं। आजमगढ़ और गाजीपुर में तो भाजपा का खाता ही साफ हो गया। साल 2017 के चुनाव में भाजपा को दोनों जिलों में छह सीटें जीती थी। पिछली बार नौ जिलों में सपा को सिर्फ 11 सीटें मिली थीं और इस बार यह आंकड़ा बढ़कर 27 पर पहुंच गया। सपा गठबंधन को सीधे तौर पर 16 सीटों का फायदा हुआ।
जातीय गुणा-गणित पर केंद्रित चुनाव में भाजपा पिछड़ गई। सुभासपा को अपने साथ जोड़ना सपा के लिए कारगर साबित हुआ। हलांकि अपना दल (कमेरावादी) की मुखिया कृष्णा पटेल का साथ सपा के लिए ज्यादा कारगर साबित नहीं हुआ। पल्लवी पटेल की जीत को छोड़ दिया जाए तो अपना दल (कमेरावादी) के सभी प्रत्याशी बुरी तरह पराजित हुए। सातवें चरण में ही पीएम नरेंद्र मोदी का गढ़ बनारस भी शामिल था। अखिलेश के गलत फैसलों से जो सीटें भारी मतों से हारी उनमें बनारस की उत्तरी और कैंट सीटें रहीं। शिवपुर में समीकरण के विपरीत किसी दमदार ओवीसी चेहरे को उतारने के बजाए सुभासपा प्रमुख ओम प्रकाश राजभर के उस बेटे पर दांव खेला जिसका पहले से इस इलाके से कोई सरोकार नहीं था। मुगलसराय में पूर्व सांसद राम किशुन यादव की उपेक्षा करके अनुभवहीन नए चेहरे पर कुछ उसी तरह बाजी लगाई गई। सपा ने कुछ इसी तरह का खेल चंदौली लोकसभा के चुनाव में भी खेला था और अपनी जीत रही सीट गंवा दी थी। इसकी तरह चदौली की चकिया सीट पर दलबदलू प्रत्याशी जितेंद्र को उतार दिया, जिसके चलते दशकों से जमीन पर काम करने वाले तमाम चेहरे अखिलेश का मुंह देखते रह गए।
कितना चला मोदी का जादू?
बनारस में मोदी मौजिक तो चला, लेकिन जौनपुर, गाजीपुर, आजमगढ़, मऊ में उनके जादू का ज्यादा असर नहीं दिखा। जौनपुर में सपा को पांच सीटें मिलीं और भाजपा को सिर्फ चार सीटों पर संतोष करना पड़ा। गाजीपुर और आजमगढ़ में मोदी लहर पूरी तरह बेअसर रही। मऊ में चार में से तीन सीटों पर भाजपा को पटखनी खानी पड़ी। बाहुबली मुख्तार अंसारी के पुत्र ने अपने पिता की परंपरागत सीट पर जीत हासिल करके तमाम अटकलों को विराम दे दिया।
मिर्जापुर मंडल के तीन जिलों सोनभद्र, संत रविदासनगर और मिर्जापुर की 12 सीटों में सपा को सिर्फ एक भदोही सीट मिल पाई। ये तीनों जिले यूपी के सबसे पिछड़े हैं और वहां सबसे ज्यादा गरीब हैं। मिर्जापुर में जितने भी टिकट बांटे उनमें ज्यादतर अनुभहीन थे। क्षेत्र उनकी कोई अपनी पकड़ और पहुंच नहीं थी। अखिलेश ने समझौते में मड़िहान और चुनार की जो दो सीटें अपना दल (कमेरावादी) को दी, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। अद (के) की मुखिया कृष्णा पटेल अपने सभी सीटों पर दमदार प्रत्याशी नहीं उतार सकीं। यहां तक कि वह खुद भी प्रतापगढ़ सीट हार गईं।
सोनभद्र के पत्रकार शशिकांत चौबे कहते हैं, "आदिवासी और गरीबों के बीच भाजपा सरकार की मुफ्त राशन योजना सबसे ज्यादा असरदार साबित हुई। मिर्जापुर मंडल के तीनों जिलों में कोई मुद्दा चला ही नहीं। यहां तक कि भरी सभा में कान पकड़कर उठक-बैठक लगाने वाले राबर्टसगंज के भाजपा प्रत्याशी भूपेश चौबे भी चुनाव जीत गए। सोनभद्र, मिर्जापुर और भदोही में ज्यादातर लोग गरीब हैं और उन्हें मुफ्त में कुछ भी मिलता है तो लहालोट हो जाते हैं।"
छठे चरण का चुनाव योगी आदित्यनाथ के गढ़ में हुआ और 57 में से 40 सीटों पर भाजपा विजयी हुई। कांग्रेस और बसपा को क्रमशः एक-एक सीटें मिलीं। साल 2017 के मुकाबले दस जिलों में भाजपा गठबंधन के पांच सीटों का नुकसान हुआ, जबकि सपा को दस सीटों का फायदा हुआ। बनारस में जहां मोदी की चली, वहीं गोरखपुर में योगी की। दिग्गज नेता स्वामी प्रसाद मौर्य तक चुनाव हार गए। यहां सुशासन और मुफ्त राशन, दोनों ने भाजपा की जीत आसान की। पांचवें चरण में पूर्वांचल के 12 जिलों की 61 सीटों के लिए मतदान हुआ, जिसमें भाजपा को 37 और सपा को 21 व कांग्रेस को एक सीट मिली। पिछली बार सपा को सिर्फ पांच सीटें ही मिल पाई थीं। साल 2017 के चुनाव में भाजपा गठबंधन को 50 सीटें मिली थीं और इस बार उसे 13 सीटों का नुकसान हुआ। अयोध्या की पांच में से दो सीटों पर इस बार सपा ने कब्जा जमा लिया।
यूपी के परिदृश्य को देखें तो पहले चरण की 58 में से सपा-रालोद गठबंधन को सिर्फ 13 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा ने 45 सीटें जीती। दूसरे चरण में भाजपा को 31 और सपा के खाते में 24 सीटें आईं। तीसरे चरण में यादवों के गढ़ वाली 59 में से 44 सीट पर भाजपा ने कब्जा जमा लिया। सपा को सिर्फ 15 सीटों पर संतोष करना पड़ा। चौथे चरण की कुल 59 सीटों में भाजपा को 49 और सपा को दस सीटें मिलीं। सीधे तौर पर हिन्दू वोटों की गोलबंदी से भाजपा को फायदा हुआ। हालांकि पिछली दफा भाजपा को 51 सीटें मिली थीं।
टूट गया दलबदलुओं का दंभ
पूर्वांचल के वोटरों ने तमाम बड़े नेताओं और दलबदलुओं का दंभ दोड़ दिया। स्वामी प्रसाद मौर्य, अलका राय और दशकों से सत्ता में शामिल बाहुबली विजय मिश्र तक बुरी तरह चुनाव हार गए। साथ ही जौनपुर मल्हनी से चुनाव लड़ने वाले बाहुबली धनंजय सिंह को पराजय का सामना करना पड़ा। यूपी के चुनाव ने कई बड़ा सवाल खड़ा किया है। किसानों के गढ़ में किसान आंदोलन का असर बेअसर क्यों हो गया? वोटरों में गुस्से के बावजूद लखीमपुर की सभी सीटें भाजपा कैसे जीत गई? वो कौन सी परस्थितियां हैं जिसने कांशीराम, मुलायम जमीन और मायावती अखिलेश की राजनीति को ठंडे बस्ते में डाल दिया। बड़ा सवाल यह भी खड़ा हुआ है कि अब मुसलमान क्या करेगा और अब यादव क्या करेंगे? अगर मायावती ने जाटव वोटों को भाजपा की ओर ने स्थानांतरित किया है तो उनकी सियासत के मायने क्या हैं?
यूपी में 42 फीसदी वोट यानी तीन फीसदी का इजाफा बीजेपी के साथ जुड़ गया, जबकी बसपा और का सूपड़ा ही साफ हो गया। क्या यह मायावती की सियासत का यह अंत है? उनकी राजनीति के साथ जो दलित अपनी पहचान जोड़ते रहे उनका का क्या होगा? सपा ने पिछड़ों को जोड़ने की कोशिश तो बहुत की, लेकिन ओवीसी ने बीजेपी का साथ क्यों दिया? यादवों के साथ ओवीसी जातियां जुड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं? जिस सियासी समझ के साथ अखिलेश लड़ रहे थे और यादव बिरादरी सत्ता पाने के लिए कुलबुला रहा थी, अब उनका क्या होगा? क्या पिछड़े तबके के भीतर से आवाज आनी शुरू हुई है कि जातीय आधार पर सियासत अब बंद हो जाएगी? गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई से जूझ रही जनता की आंख का तारा भाजपा कैसे बन गई? पंजाब में जिस तरह से आप ने इंट्री मारी, उसी तरह के माडल पर अखिलेश का सिक्का यूपी में क्यों नहीं चला? आरएलडी किसानों के गढ़ में मौजूद थी तो चरण सिंह के पौत्र के साथ वोट बैंक क्यों नहीं जुड़ पाया? सिर्फ 19 लाख वोटर ही उनके साथ क्यों जुड़ पाए? योगी माडल की परीक्षा का जो जनादेश निकला वो सभी को पीछे कैसे छोड़ गया?
इन ढेर सारे सवालों का जवाब ढूंढने के लिए "न्यूजक्लिक" ने कई चुनाव विश्लेषकों और पत्रकारों से बात की तो कई चौकाने तथ्य निथरकर सामने आए। पत्रकार पवन कुमार सिंह कहते हैं, "सिर्फ किसान आंदोलन के भरोसे अब राजनीति नहीं की जा सकती। विपक्ष को जमीन पर काम करने की जरूरत थी, जो उसने नहीं किया। वातानुकूलित कमरों में बैठकर सियासत करने वालों के दिन अब लद गए हैं। दूसरी बात, अखिलेश के जो आधारभूत वोटर रहे हैं उनका तेवर ऐसा रहा है कि जिसे समाज के दूसरे तबके के लोग अपने गले से नीचे नहीं उतर पा रहे थे। सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने जातीय गणना, अति पिछड़ों को आरक्षण और सरकारी नौकरी देने का सपना तो दिखाया, फिर भी वोटरों ने उन पर यकीन नहीं किया। इसकी बड़ी वजह यह रही कि वो साढ़े चार साल तक राजनीतिक क्षितिज से पूरी तरह गायब रहे। वह तब सक्रिय हुए जब चुनाव का बिगुल बजा।"
अखिलेश ने क्यों लिखी नाकामी की दास्तां?
पवन यह भी कहते हैं, "सपा मुखिया अखिलेश ने जितनी घोर लापरवाही इस बार के चुनाव में बरती, वैसा आज तक किसी विपक्षी दल ने नहीं बरता था। उन्होंने टिकट के दावेदारों के ढेरों आवेदन लिए, लेकिन बाद में उन्हें रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। दावेदारों की स्क्रीनिंग तक नहीं कराई गई कि किस सीट पर मजबूत दावेदार कौन हो सकता है? यहीं से अखिलेश की नाकामी की दास्तां लिखी जाने लगी जो आखिर तक बनी रही। यह उनकी सबसे बड़ी चूक साबित हुई। आने वाला वक्त यह भी बताएगा कि इस चूक से उन्होंने सबक लिया भी या नहीं? तीसरी बड़ी बात यह रही कि यूपी के जिलों में सपा संगठन में खेमेबंदी और बूथ तक काम न करना उनकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुई। अखिलेश ने मुलायम के समय के पुराने रणनीतिकारों को अपने साथ नहीं जोड़ा। जमीनी रणनीतिकारों के न होने की वजह से सपा अपने वजूद को ताकत नहीं दे सकी।"
वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते है, "यूपी के चुनाव में कमेरा समाज में जातीय गोलबंदी के मामले में पूर्वांचल में अगर कोई तबका सियासी ताकत में सबसे निचले पायदान पर पहुंच गया तो वो हैं मौर्य-कुशवाहा और सैनी। इस बिरादरी के कद्दावर नेता केशव प्रसाद मौर्य और स्वामी प्रसाद मौर्य इसलिए चुनाव हार गए, क्योंकि क्योंकि वो अपने समाज के लिए न कभी खड़े रहे और न ही कमेरा समाज को प्रत्यक्ष रूप से अपने से जोड़ पाए थे। सबसे ज्यादा दुर्गति बाबू सिंह कुशवाहा की हुई, जिन्होंने ज्यादा सीटों की लालच और खुली हवा में सांस लेने के लिए हर जगह जन अधिकार पार्टी के कार्यकर्ताओं को मैदान में उतार दिया। इन पर भाजपा की बी टीम की तरह काम करने के आरोप लगे, जिससे उनकी पार्टी का वजूद मिट गया। पूर्वांचल में मौर्य-कुशवाहा समाज की आबादी करीब 14 फीसदी के आसपास है। इस बिरादरी के ज्यादातर नेता अपनी और अपने परिवार को आगे बढ़ाने में ही जुटे रहे, जिसका असर समूचे कमेरा समाज पर पड़ा। सबसे बड़ी बात यह है कि भाजपा के कद्दावर नेता केशव प्रसाद मौर्य के चुनाव हारने से योगी की राह का सियासी राह का कांटा भी दूर हो गया।"
पूर्वांचल में आए नतीजों का विश्लेषण करते हुए काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, "भाजपा साल 2017 में विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ही यूपी में पूरे दमखम और तेवर के साथ अगले चुनाव के लिए जुट गई थी। भाजपा ने पांच सालों में न सिर्फ अपना संगठन मजबूत किया, बल्कि वहां के सामाजिक समूहों से सीधा संवाद भी रखा, जिसका लाभ उन्हें इस चुनाव में मिला। मोदी के विकास के "बनारस माडल" को पूर्वांचल के हर तबके ने स्वीकारा। उनका यह माडल सिर्फ कागज पर नहीं था, बल्कि हकीकत में दिखाई दे रहा था। अखिलेश की कमजोरी की एक बड़ी वजह यह भी रही कि मुलायम सिंह यादव ने जो सांगठनिक ढांचा तैयार किया था उसे इन्होंने निष्प्रभावी कर दिया, जिसका सबसे बड़ा असर पड़ा पार्टी के स्थानीय नेतृत्व पर। वो नेतृत्व जो क्षेत्र और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के बीच सेतु का काम करता था जो खत्म हो गया है। इसका सबसे बुरा नतीजा यह हुआ कि अखिलेश जमीनी हकीकत से नावाकिफ होते चले गए। दूसरी बात, अखिलेश ने अपने ईर्द-गिर्द एक ऐसी जमात जुटा ली, जिसके पास राजनीतिक सोच, समझ और चेतना जैसी कोई चीज ही नहीं थी। यही वहज थी कि उनके ढेर सारे फैसले कदम-दर-कदम गलत साबित होते चले गए। उनके साथ हवा-हवाई लोगों फौज इकट्ठा होती चली गई। जिन पत्रकारों पर अखिलेश यादव ने भरोसा किया उनमें से ज्यादतर दोहरा चरित्र वाले थे। ज्यादातर गैर- विजनरी मीडियाकर ही सपा के साथ जुड़े थे। मीडिया में जिस तरह की मजबूती भाजपा में दिखती रही, वैसा दिखने के लिए अखिलेश ने कोई प्रयास ही नहीं किया। इनके पास न अच्छे मीडिया एडवाइजर रहे और न ही बेहतर रणनीतिकार।"
"अखिलेश ने नया नारा "नई सोच है-नई सपा" तो गढ़ा, लेकिन वह न तो नई सोच को दर्शा पाए और न ही नई सपा का चेहरा दिखा सके। ऐसी हालत में अब इन्हें सोची समझी योजना और रणनीति के साथ काफी मशक्कत करनी होगी। साथ ही उस घेरे को भी तोड़ना होगा जिससे वो लंबे समय से घिरे हुए हैं और उन्हीं की सलाह पर अपने कदम तय करते रहे हैं। अखिलेश ने अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव को पांच सालों में बुरी तरह से तोड़कर रख दिया, जबकि अखिलेश तुलना में शिवपाल के पास जमीनी समझ ज्यादा है। अखिलेश ने रामगोपाल यादव पर ज्यादा भरोसा किया, जिन्होंने आज तक जमीन पर उतरकर कभी सियासत ही नहीं की।"
ख़तरे में बसपा-कांग्रेस का जनाधार
प्रदीप कहते हैं, "पूर्वांचल में सबसे ज्यादा खतरे में बसपा और कांग्रेस के जनाधार को है। लगता है कि दोनों दलों का जनाधार अब पूरी तरह भाजपा की ओर शिफ्ट हो गया अथवा मायवाती के एक विवादित बयान ने उसे शिफ्ट करने पर विवश कर दिया। जिस समाज में कांशीराम सरीखे नेता ने लंबे संघर्ष के बाद बसपा को सत्ता दिलाई थी और दलित समाज में जबर्दस्त राजनीतिक चेतना पैदा की उस धार को मायावती के गलत फैसलों ने कुंद कर दिया है। दलित समाज खुद को अनाथ महसूस कर रहा है। साथ ही नए ठौर तलाशने की कोशिश में भी जुट गया है। दलित नेता चंद्रशेखर ने अपने राजनीतिक फैसलों में जल्दबाजी दिखा दी और धीरता का परिचय न देते हुए अकेले मैदान में उतर आए, यह उनकी पहली और बड़ी गलती थी। चंद्रशेखर किसी भी तरह सपा गठबंधन में शामिल होते तो उन्हें फायदा जरूर मिलता। दलित समाज के बीच उनकी इमेज मजबूत नेता की नहीं बन सकी, जबकि कमेरा समुदाय से जुड़ी अनुप्रिया पटेल ने ज्यादा लालच नहीं दिखाया और भाजपा के साथ तालमेल बैठाए रखा। पिछले आठ सालों में उनकी हैसियत तीसरे नंबर की पार्टी की हो गई।"
प्रदीप श्रीवास्तव कांग्रेस की मिट्टी पलीद होने की भी कई वजहें बताते हैं। वह कहते हैं, "यूपी में इस पार्टी के जो चेहरे थे जैसे जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह और ललितेशपति त्रिपाठी वो प्रियंका गांधी के कामकाज से नाराज़ थे। उन्होंने सोनिया गांधी को खत लिखा, राहुल गांधी के पास गए और उन्होंने कहा कि प्रियंका गांधी से बात करो, लेकिन उन्होंने मुलाक़ात ही नहीं की। कांग्रेस के तमाम दिग्गज पार्टी छोड़ कर गए या फिर उन्हें हटा दिया गया, लेकिन संगठन पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया, जो कमज़ोर हो रहा था। वहीं जिन महिलाओं को टिकट दिया गया उनमें कोई बढ़िया उम्मीदवार ही नहीं था और विक्टिम कार्ड खेलने की कोशिश की गई, जैसे कि रेप पीड़ित की मां को टिकट देना।"
चुनाव विश्लेषक एके लारी कहते हैं, "साल 2014 से भाजपा ने अपनी राजनीति का पैटर्न बदल दिया था, जिसे अखिलेश नहीं समझ पाए। भाजपा 365 दिन वाली राजनीति करने लगी और अखिलेश की सियासत सिर्फ चुनाव के हिसाब से चलती रही। भाजपा एक चुनाव खत्म होते ही दूसरे चुनाव में लग जाती है। अखिलेश अक्टूबर 2017 के बाद सियासी लड़ाई कूदे। इससे पहले वो क्या करते रहे, किसी को नहीं मालूम। साल 2017 में चुनाव हारने के बाद मैदान में डटे रहते तो बात और रहती। मुलायम ने अलग-अगल जातियों के नेताओं को पैदा किया था, उनकी अहमियत की नहीं समझा। जातीय समूहों के नेताओं को आगे नहीं बढ़ाया। यह बात उन्हें देर में समझ में आई। तब जोड़तोड़ मे जुटे। जिन जातियों के समूहों के नेताओं को लेकर आए वो अपनी अपनी सीट बचाने और विरासत में समेटने में रह गए। उन्हें अपनी बिरादरी में काम करने का मौका नहीं मिला। सिर्फ ओमप्रकाश राजभर ही ऐसे नेता थे जिन्होंने पांच साल अपने समुदाय में काम किया। यही वजह है कि सपा के पक्ष में वह रिजल्ट नहीं आया जिसकी अखिलेश को अपेक्षा थी। अखिलेश के माडल को बीजेपी ने गुंडाराज और महिला सुरक्षा को मुद्दा बनाया, जिसकी वह काट नहीं खड़ा कर सके। हारने के बाद से वह लगातार मैदान से गायब रहे। उन्होंने जितना समय दिया, उसके अनुरूप नतीजा बेहतर है। हालांकि यूपी में इस बार मजबूत विपक्ष दिखेगा।"
लारी यह भी कहते हैं, "यूपी में मोदी साल 2014 में गुजरात मॉडल लेकर आए जो अब यूपी मॉडल हो गया। अखिलेश के मॉडल की आचोलना करते हुए इस बार बीजेपी ने चुनाव लड़ा। यादव समुदाय के रिएक्शन को भाजपा ने उकेरा। हालांकि इस बार अखिलेश ने टिकटों के बंटवारे में यादवों का ज्यादा महत्व नहीं दिया। कभी मंच पर भी नहीं बैठाया। अपने परिवार को भी दूर रखा। पुरानी छवि को तोड़ने की कोशिश की। प्रतीकों में भाजपा पर हमले बोलते रहे। इनके फेल होने की बड़ी वजह बनी उनकी लेट इंट्री। अब संघर्षों का हिस्सा बनाना होगा। आवाज बुलंद करनी होगी। अच्छी बात यह है कि इस बार यूपी विधानसभा में मजबूत विपक्ष दिखेगा जो पिछली बार नहीं था। पूर्वांचल के सिर्फ उसी पाकेट में सपा मजबूती से उभरी जहां जातियों का समीकरण सटीक बैठा। हर क्षेत्र का वोटर चाहता है कि उसका नेता उसकी पहुंच में रहे और उनका दुखड़ा सुना सके। अगर सपा ऐसी रणनीति तैयार नहीं करती है तो वह साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भी कामयाब नहीं हो पाएगी।"
(लेखक विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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