अरे, 15 अगस्त इस बार भी 15 अगस्त को ही मनाया गया!
इस बार भी स्वतंत्रता दिवस हर बार की तरह 15 अगस्त को ही मनाया गया, पंडितों ने इसके लिए कोई नया दिन नहीं सुझाया। और वैसे मोदी जी जब हर काम ‘नया’ और ‘पहली बार’ करने के लिए मशहूर हैं। तो 15 अगस्त और 26 जनवरी क्यों पुराने दिन के हिसाब से मनाई जाए। इसलिए स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस भी हिन्दू तिथियों के हिसाब से मनाया जाए तो मज़ा आ जाये। और मोदी हैं तो मुमकिन भी है!
इस तरह स्वतंत्रता दिवस कभी बारह अगस्त को मनाया जाएगा तो कभी अट्ठारह अगस्त को। हो सकता है कभी कभार पंद्रह अगस्त को भी मनाया जा सके। और प्रधानमंत्री जी के झंडा फहराने का महूर्त तो और भी मजेदार हो सकता है। कभी प्रातः चार बजे तो कभी रात दस बजे। मोदी जी को तो कोई तकलीफ नहीं होगी वे तो सिर्फ दो घंटे ही सोते हैं (तीन घंटे तो पिछले टर्म में सोते थे) पर जो भाषण सुनने आना चाहेंगे उन्हें जरूर कठिनाई होगी। वैसे भक्त लोग तो कभी भी पहुंच ही जायेंगे। लेकिन मोदी जी के जाने के बाद क्या होगा। हमें न तो सिर्फ दो घंटे सोने वाला प्रधानमंत्री मिलेगा और न ही इतने सारे भक्त।
गणतंत्र दिवस के बारे में तो और भी दिक्कत हो जायेगी जो इस समय छब्बीस जनवरी को मनाया जाता है। तब हो सकता है कि गणतंत्र दिवस तो कभी कभी फरवरी में भी मनाया जाये। और परेड, वह भी महूर्त देख कर निकले तो रात में भी निकल सकती है। आखिर पंडित पंचांग देखकर ही तो तिथि और महूर्त निकालेंगे। मजा तो तब आयेगा जब स्वतंत्रता दिवस या फिर गणतंत्र दिवस एक दिन नहीं दो दो दिन पड़ें। जैसे स्वतंत्रता दिवस तेरह और चौदह अगस्त को या फिर गणतंत्र दिवस इकतीस जनवरी और एक फरवरी को। आज कल सभी बड़े त्योहार इसी तरह मनाये जाते हैं। कुछ पंडित त्योहार की तिथि एक दिन निकालते हैं और दूसरे कुछ पंडित अगले दिन।
दिल्ली-एनसीआर में इन सभी राष्ट्रीय त्योहारों को एक दिन पहले सभी विद्यालयों में मनाया जाता हैं। सबसे पहले प्रधानाचार्य द्वारा ध्वजारोहण एवं राष्ट्रगान होता है और फिर भाषण दिये जाते हैं। बहुत सारे स्कूलों में छोटे छोटे बच्चे विभिन्न नेताओं का रूप धारण कर आते हैं। इस बार भी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मनाये जाने वाले कार्यक्रमों में भी अमूमन ऐसा ही हुआ।
छोटी छोटी बच्चियां भारत माता का रूप धारण कर आयीं। तिरंगे की साड़ी, सिर पर मुकुट और हाथ में त्रिशूल। कुछ बच्चियां रानी लक्ष्मीबाई का रूप धारण कर के भी आयीं। बच्चे महात्मा गांधी बन कर आये। सफेद धोती, चेहरे पर गांधी जी जैसा चश्मा और हाथ में लाठी। सिर पर गांधी टोपी और अचकन में गुलाब का फूल लगाये बच्चे नेहरू बन कर आये। सिर पर हैट लगा कर भगत सिंह बने। नुकीली मूंछों के साथ कमर में पिस्तौल लटकाये चंद्रशेखर आजाद का रूप धारण कर आये। बच्चे बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपतराय भी बने। पर कोई भी बच्चा हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी या दीनदयाल उपाध्याय बन कर नहीं आया। बच्चों, शिक्षकों और अभिभावकों, सभी को पता है कि इन सब लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं किया है। अब इनका भी योगदान दिखाना है तो झूठ बोलना ही पड़ेगा, इतिहास बदलना ही पड़ेगा।
अब इतिहास किताबें बदल देने से तो नहीं बदल जाता है। हिटलर के मंत्री गोयबल्स ने यह तो समझा दिया है कि झूठ बार बार बोलने से सच लगने लगता है पर इससे झूठ सच नहीं बन जाता है। बार बार बोलने से झूठ अगर सच बन जाये तो दुनिया का सबसे झूठा व्यक्ति सबसे सच्चा माना जाये। फिर तो ट्रम्प जी और मोदी जी भी सच्चे ही माने जायें। वैसे इस बात से भक्तों को बुरा मानने की आवश्यकता नहीं है, उन्हें तो खुश ही होना चाहिए कि मैंने मोदी जी को ट्रम्प जी के साथ रखा है। मुझे आज भी याद है कि ट्रम्प जी के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद मोदी जी के भक्तों ने ट्रम्प जी का जन्मदिन किस धूमधाम से मनाया था। किस तरह से ट्रम्प जी के पुतले को केक खिलाया था।
लेकिन बात तो हम झूठ की कर रहे थे। कहते हैं झूठ के पैर नहीं होते हैं। गोयबल्स के जमाने में झूठ हवा पे सवार हो फैलता था और अब मोदी काल में व्हाट्सएप पर सवार होकर। अब अपने झूठ को सच बनाने के लिए बच्चों को बतायें, झूठ ही सही, कि हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी या दीनदयाल उपाध्याय का देश की आजादी में क्या योगदान था। यह भी बतायें कि ये लोग कैसे दिखाई देते थे, क्या कपड़े पहनते थे, जिससे बच्चे फैंसी ड्रेस में इन जैसे बन कर भी आ सकें।
(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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