भगवा ब्रिगेड की राजनीति
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार जब से सत्ता में आई है, तब से रोजाना ही सांप्रदायिक तनाव, हिंसा और भड़काऊ भाषण का सिलसिला चल पड़ा है। और प्रधान मंत्री मोदी, जिन्होंने “अच्छे दिनों” के वादे के साथ सरकार बनाई थी, ने इन मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है।न्यूज़क्लिक के नकुल सिंह साहनी ने सुभाष गाताड़े से, राजनीति के इस बदलते रूप पर चर्चा की। साथ ही सुभाष से बहुमत और अल्पसंख्यक समुदाय की साम्प्रदायिकता, और धर्मनिरपेक्ष ताकतों की इस पर लगाम लगाने में विफलता पर भी चर्चा की।
नकुल- 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद ख़बरें आती हैं उत्तर प्रदेश में 600 से ज़्यादा छोटे-बड़े दंगों की, पुणे में एक मुसलमान सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हिंदुत्व गुंडों द्वारा हत्या की, साक्षी महाराज जैसे भाजपा नेताओं की मदरसों को लेकर विवादित टिप्पणियों की, या आदित्यनाथ योगी और भाजपा के कई और नेताओं द्वारा लव-जिहाद के ख़िलाफ़ एक अभियान की। और अभी हाल में आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत द्वारा ये कहना कि हिन्दुस्तान एक हिन्दू राष्ट्र है। क्या यही वह विकास का मॉडल है जिसके वादे से भाजपा और मोदी की सरकार बनी थी। न्यूज़क्लिक में आपका स्वागत है। इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करने के लिए आज हमारे साथ सुभाष गडा ड़े जो कि कई सालों से मानव अधिकारों पर, जातीय हिंसा पर, साम्प्रदायिक हिंसा पर और अन्य ऐसे मुद्दों पर लगातार अध्ययन करते आ रहे हैं और लिखते भी आ रहें हैं। सुभाष जी न्यूज़क्लिक में आपका स्वागत है। सुभाष जी यह सारे जो उदाहरण अभी दिए और इसके अलावा भी कई सारे ऐसे उदाहरण, ख़ासकर 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद खोजे जा सकते हैं। ऐसा नहीं है कि यह पहले नहीं हो रहा था लेकिन जिस रफ़्तार के साथ होने लग गया है, और जो लगातार ऐसे किस्से सामने आ रहे हैं, अगर मैं बहुत सरल तरीके से आप से पूछूँ तो यह सरकार हिन्दुस्तान को किस दिशा में ले जाने की कोशिश कर रही है?
सुभाष- मेरे ख़याल से अगर हम इस सरकार को देखें तो गुजरात मॉडल को पूरे देश में लागू करना चाहते हैं। गुजरात मॉडल की जब भी हम लोग बात करते हैं, ज़्यादातर मीडिया में जो चर्चा होती आई है, जो उसके कथित आर्थिक विकास की बात ज़्यादा चलती है, लेकिन गुजरात मॉडल जब हम कहते हैं तो उसकी बुनियाद में 2002 के दंगे हैं और जिस तरह के जनसंहार को अंजाम वहाँ दिया गया था, और आज की तारीख़ में वहाँ पर अल्पसंख्यकों के जो हालात हैं तो गुजरात मॉडल में गुजरात मॉडल की ज़मीन 2002 एक तरह से तैयार की, मेरे ख़याल से पूरे देश के पैमाने पर इसी गुजरात मॉडल को मतलब जिसमें दो पैरों पर चलने वाला विकास, एक तरफ गुजरात मॉडल का मतलब है कि नव उदारवाद और आर्थिक विकास, साथ-साथ इस मुल्क़ में सांप्रदायिक हिंसा जो अल्पसांख्यिक समुदाय के साथ, जिस तरह का हिन्दू राष्ट्र के तहत उनकी जो स्थिति है, उनको अपनी हैसियत बता देना , इसी तरह का नक्शा वे पूरे मुल्क़ में कायम करना चाहते हैं। मुझे यही लग रहा है।
नकुल- लेकिन कहीं न कहीं भाजपा बार-बार यह कह रही है कि इस तरह के बयान जो आ रहे हैं और इस तरह की हरक़तें जो लोग कर रहे हैं तो यह भाजपा के एक फ़्रिंज तत्व हैं या भाजपा के हाशिये पर ये लोग हैं। क्या आप इस बात से सहमत हैं या आपको यह लगता है कि यह जो लोग हैं दरसल यही भाजपा का असली चेहरा है और यह कोई फ़्रिंज तत्व नहीं हैं?
सुभाष- मुझे लगता है कि ये जो मॉडरेट बनाम उग्र वाला जो डिबेट भाजपा को लेकर के, संघ को लेकर के अक्सर चलता रहता है, दृष्टि का भ्रम है हम लोगों का। बेसिकली हिंदुत्व का जो एजेंडा है, हिंदुत्व के एजेंडे को कौन कैसे सर्व करता है, मूल बात वही है। और मैं इसको देखता हूँ एक ऑर्केस्ट्रा की तरह, ऑर्केस्ट्रा में तमाम तरह के इंस्ट्रुमेंट्स बजते रहते हैं और किसको क्या करना है, हर इंस्ट्रुमेंट का एक रोल है। आप लोग देख सकते हैं अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधान मंत्री थे तो उनको मॉडरेट कहा जाता था और अडवाणी ज़्यादा उग्र समझे जाते थे, कुछ दिनों के बाद अडवाणी मॉडरेट हो गए और मोदी उग्र हो गए। और आज की तारीख़ में मोदी मॉडरेट माने जाते हैं और अब योगी आदित्यनाथ जैसे नए लोग उग्र हैं… लेकिन कुल मिलाकर के संघ का जो एजेंडा है, हिंदू राष्ट्र का जो एजेंडा है, उसको सभी लोग मिलकर के सर्व करते हैं, मतलब एक तबका हमको बार-बार दिखता है कि वह संसदीय भाषा बोलेगा, उसी की बात करेगा, संविधान की गरिमा की बात करेगा, एक तबका ऐसा है जो हेट स्पीचिज़, तोगड़िया है, तमाम सारे ऐसे लोग हैं जो अलग-अलग समुदायों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलेंगे और एक तीसरा तबका ऐसा है, ब्रॉडली अगर हम देखें स्टॉर्म ट्रूपर्स.. तूफ़ानी दस्तों का जो लोगों को सबक सिखाएंगे, किसी एम. ऍफ़. हुसैन की प्रदर्शनी पर हमला करेंगे, किसी को मारेंगे पीटेंगे, किसी प्रिंसिपल को जाकर , किसी उज्जैन यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर को पीट आएंगे क्योंकि साहब अपने कश्मीरियों की हिमायत में कैसे बयान दिया तो अगर तीनों स्तर का आप डिवीज़न देखते हैं और यह तीनों लेकिन सब एक दूसरे को बचाते भी हैं और वाइडर एजेंडा को सर्व भी करते हैं तो मुझे इसमें ज़्यादा फ़र्क दिखता नहीं है , बेसिकली एजेंडा वही है, हिंदू राष्ट्र का एजेंडा
नकुल- तो आप अगर यह कह रहे हैं कि इस हिन्दू राष्ट्र के एजेंडा में अलग-अलग लोग अलग-अलग एक भाग बना रहे हैं, कोई एक उग्र बात करेगा तो कोई थोड़ी मॉडरेट बात करेगा, लेकिन हाल ही में जो उप-चुनाव हुए हैं, उसके अगर हम परिणाम लें, ख़ासकर कि उत्तर प्रदेश में जहाँ पर योगी आदित्यनाथ पूरी कमान संभाल रहे थे भाजपा की और वही इस तरह के मुद्दे खासकर के उनके तो पहले भी इस तरह के बयान आ चुके हैं, वे ऐसे भाषण दे चुके हैं जो बहुत ही सांप्रदायिक स्वभाव के हैं, लेकिन इस सब के बावजूद उत्तर प्रदेश में अभी जो उप चुनाव के नतीजे आए हैं, ख़ासकर कि लव जिहाद के मुद्दे को जो उछालने की कोशिश थी इसके बावजूद भी यह जो नतीजे आये हैं, इससे भाजपा को भी कहीं न कहीं एक बहुत बड़ा झटका मिला है और उसी के बाद सुशील मोदी ने बिहार में भी ये बयान दिया कि हम इस सब के साथ नहीं हैं, लव जिहाद वगैरह के साथ नहीं हैं , डिसएसोसिएट करने की बात बोली। तो आपको क्या लगता है कि अब इस चुनाव के नतीजे के बाद क्या भाजपा यही आक्रामक, सांप्रदायिक रूप निभाती रहेगी या थोड़ा सा पीछे हटेंगे इस से, इनकी आगे की स्ट्रैटेजी आप के हिसाब से क्या रहेगी?
सुभाष- मुझे लगता है कि उनको थोड़ा मॉडुलेट करने की कोशिश करनी पड़ेगी ,उत्तर प्रदेश के जिस तरह से नतीजे आए हैं, जहाँ पर इतनी सारी सीटें लोक सभा चुनाव में लेकर गए थे और अगर झटका उनको लगा है तो एक हद तक उनको मॉडुलेट करना पड़ेगा और जिसकी वजह से मुझे लगता है कि उनके पास कई सारे चेहरे हैं, योगी आदित्यनाथ जो गोरखपुर के सांसद हैं, और अगर आप गौर करेंगे कि उनका भी भाजपा के साथ लव-हेट का रिश्ता रहा है, वहाँ हिंदू युवा वाहिनी चलाते हैं, कई बार उन्होंने भाजपा के ख़िलाफ़ भी कैंडिडेट्स खड़े किये हैं, हिंदू महासभा के नाम से, तो भाजपा के पास कई सारे ऑप्शंस हैं, उनके पास योगी आदित्यनाथ भी हैं, लक्ष्मीकांत वाजपेयी भी हैं, अलग-अलग चेहरे हैं, तो फ़ौरी तौर पर उनको थोड़ा मॉडुलेट करना पड़ेगा। लेकिन अगर सुशील मोदी के इंटरव्यू पर ग़ौर किया होगा आपने, जिसमें उन्होंने बेसिक जो बात कही, योगी आदित्यनाथ जो बात कर रहे हैं, लव जिहाद के नाम से जो कही जा रही है, जो कि बेसिकली हिंदुत्व का एजेंडा है, जिस पर वे सवाल नहीं उठा रहे, उन्होंने कहा प्रॉब्लम तो है, उन्होंने बस इतना ही कहा की योगी आदित्यनाथ को हम अपने आने नहीं देंगे या उनकी बातों को हम इतना उग्र स्पेस नहीं देंगे, और साथ-साथ यह भी थोड़ी सांत्वना मुसलमानों को दी कि हाँ अब कुछ सीटें आपको दे देंगे। बेसिकली उसमें कोई ख़ास फ़र्क पड़ने वाला नहीं लेकिन हाँ, थोड़ा भंगिमा के स्तर पर, ऑपरेशंस के स्तर पर उन्हें थोड़ा करना पड़ेगा। मेरे ख़याल से इस मामले में आरएसएस बहुत दूर-दूर की गोटी खेलता है, पिछले 90 साल से हमारे मुल्क़ में सक्रिय है, मतलब वही आरएसएस 1984 में हम आज यकीन नहीं करेंगे, नहीं कर पाएंगे ज़्यादातर लोग, कि उसने कांग्रेस को सपोर्ट किया था, तो उसको कैसे अपना एजेंडा आगे बढ़ाना है बी,आगे पीछे जाना है ,फ़ौरी तौर पर मॉडुलेट करना पड़ेगा उनको ।
नकुल- सुभाष जी अगर उत्तर प्रदेश की ही बात हम थोड़ी आगे लेकर जाएँ तो सिर्फ़ लोक सभा चुनाव के बाद ही नहीं उस से पहले भी जहाँ मुज़फ़्फ़रनगर और शामली ज़िलों में भी जो दंगे हुए थे, और काफ़ी बड़े दंगे हुए थे जिसका सीधा-सीधा फ़ायदा लोकसभा चुनाव में भाजपा को हुआ और उसके बाद इस तरह की घटनाएँ लगातार होती आ रही हैं और मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के पहले भी कई सारे दंगे हुए थे वहाँ पर 1-2 सालों में, लेकिन ग़ौर करने वाली बात यह है कि दरसल आज उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार नहीं है, सरकार समाजवादी पार्टी की है, जिसके ऊपर अक़्सर यह इल्ज़ाम भी लगाया जाता है कि वे एक मुस्लिम कट्टरपंती या मुस्लिम कट्टरपन्थ का अक़्सर समर्थन करती है आप के हिसाब से फिर ऐसा क्यों है आज कि उत्तर प्रदेश में भी यह सफल तरीके से राज नहीं कर पा रही है ?
सुभाष- मुझे दो बातें इसके संदर्भ में कहनी है , अगर आप उत्तर प्रदेश को देखें बसपा के शासन में, मायावती के बारे में हमारी अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन मायावती के राज में एक बात थी कि सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए थे, लॉ-एंड-ऑर्डर बहुत सख़्त थे। मायावती के हुकूमत से हटने के बाद ही अगर समाजवादी पार्टी के शासन में दंगे शुरू हुए हैं और उन इलाकों में भी दंगे हुए हैं जहाँ पर पिछले बीस साल से दंगे नहीं हुए थे, फैज़ाबाद का ही उदाहरण हमारे सामने है , और जो बात बार-बार रेखांकित की जा रही है कि राज्य प्रशासन की कहीं न कहीं शह है उसमें , मतलब ज़िला देश के स्तर पर जिस तरह की कार्यवाही होती रही है , मैं ये मानता हूँ कि समाजवादी पार्टी भी ध्रुवीकरण का गेम खेलती रही है हुकूमत में आने के बाद भी लगातार, कि मुसलमान तो हम से दूर भागने वाला नहीं है तो ध्रुवीकरण की राजनीति करो। तो ये एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य रहा है, क्योंकि मायावती के शासन में लोग वही थे, ब्यूरोक्रेसी भी वही थी, जनता भी वही थी, और अगर समाजवादी पार्टी आने के बाद जो कोट एंड कोट मुस्लिमों की ज़्यादा हिमायती मानी जाती है, वहाँ पर इतने बड़े पैमाने पर दंगे होना, यह राज्य प्रशासन की विफ़लता है और दूसरी बात जो मैं कहना चाह रहा हूँ कि जो सेक्युलर पार्टीयां कहतीं हैं अपने आपको , जैसे उत्तर प्रदेश का उदाहरण सामने है , कांग्रेस का उदाहरण मैं लेता हूँ, असम ,असम में तो भाजपा हुक़ूमत में नहीं है और पिछले कुछ सालों से वहाँ पर बोड़ो इलाकों में जिस तरह की स्थितियाँ बनी हैं, तो हमारी सोसाइटी के जो डायनमिक्स बदल गए हैं उस पर भी मुझे लगता है कि ग़ौर करना पड़ेगा, सेक्युलर लोग हुक़ूमत में रहेंगे भी तो भी ऐसी फोर्सिज़ हमारे समाज में, वजूद में आई हैं जो दंगे करा सकती हैं जिसके बारे में, इंस्टिट्यूशनलाइस्ड राइट सिस्टम जैसे बनी हैं हमारे मुल्क़ में तो एक सवाल मुझे ये लगता है कि है।
नकुल- सुभाष जी इसके साथ-साथ लेकिन अगर हम देखें तो ऐसा नहीं है कि सांप्रदायिकता का ठेका सिर्फ़ बहुमत में जो समुदाय है या हिंदुत्ववादी ताकतों ने ही उठा रखा है देश में और अगर कहीं पर भी हम देखें साम्प्रदायिकता दरसल अल्पसंख्यक समाजों से भी देखने को मिलती है , अब जैसे अगर लव जिहाद का उदाहरण हम ले लें तो एक तरफ लव जिहाद में वहाँ बात हो रही है और कोशिश यह की जा रही है कि हिन्दू लड़कियाँ मुस्लिम लड़कों से शादी न करें, लेकिन उस ही के साथ-साथ एक इस्लामिक मौलवी ने भी कुछ समय पहले एक फ़तवा जारी किया कि मुस्लिम लड़कियाँ भी हिन्दुओं से शादी न करें , और ये एक ही उदाहरण है इस तरह से इस्लामिक कट्टरपन्ती के भी कई रूप या अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता, सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं पर ईसाई, सिक्खों के बीच में भी इस तरह की साम्प्रदायिकता की आवाज़ बार बार देखने को मिली है। तो आपको लगता है कि इस की वजह से कहीं न कहीं बहुमत साम्प्रदायिकता जो है उसको भी मज़बूती मिलती है ?
सुभाष- हाँ निश्चित तौर पर, मतलब एक दुसरे को मज़बूती पहुँचाते रहते हैं। माइनॉरिटी कम्युनलिस्म की वजह से मेजॉरिटी कम्युनलिस्म मज़बूत होता है और दोनों एक दुसरे को डर दिखाते रहते हैं, तो मज़बूती तो मिलती है। मुझे ज़्यादा चिंता यह लगती है कि ऐसी घटनाएँ जब भी होती हैं जिस में सेक्युलर फ़ोर्सेज़ चुप रहती हैं जैसे आपको याद होगा केरल में पॉपुलर फ़्रंट नाम के संगठन ने एक क्रिस्चियन टीचर का हाथ काटा था और वह एक काफ़ी रैडिकल इस्लामिक संगठन है जो पूरा कोड ऑफ़ कंडक्ट जारी करता है, महिलाओँ को कैसे रहना चाहिए, अब ऐसे संगठनों को लेकर अगर हम बोलेंगे नहीं तो सैक्युलरिज़म के कॉज़ का भी नुक़्सान होता है और मेजॉरिटी कम्युनल फोर्सिज़ भी मज़बूत होती हैं । एक तो यह मुझे बहुत ज़रूरी लगता है और दूसरा मैं इसी से जुड़ा एक उदाहरण का उल्लेख करना चाहूँगा, हमारे पड़ोसी मुल्क़ में पिछले साल शाहबाग का एक आंदोलन हुआ था, ऐतिहासिक आंदोलन था। एक मुस्लिम बहुसंख्यंक मुल्क़ में सैक्युलरिज़म के सवाल पर एक आंदोलन चला और बड़ी तादाद में लोग उतरे , आप ग़ौर करेंगे कि उस सवाल पर यहाँ की जमात-ए-इस्लामी, क्योंकि वहाँ की जमात-ए- इस्लामी उन घटनाओं में शामिल थी तो , यहाँ की जो जमात-ए-इस्लामी है उसने उनका समर्थन दिया, बाकी इस्लामी संगठनों ने भी उनका समर्थन दिया लेकिन ज़्यादातर पार्टियाँ चुप रही। विडंबना है की चुप रहीं। बाकी छुट-पुट संगठन इसके बारे में बोलते रहे, लेफ़्ट पार्टियों ने भी ख़ामोशी बरती। तो जिसकी वजह से उनका फ़ायदा हुआ। तो मेरे ख़याल से हम को इस पर तो बोलना ही चाहिए।
नकुल-बिल्कुल, और जैसे आपने अभी बांग्लादेश के आंदोलन की बात कही इसको अगर हम थोड़ा और लार्जर पर्सपेक्टिव में देखें , दक्षिण एशिया के परिपेक्ष में देखने की कोशिश करें तो हिन्दुस्तान ही नहीं पर दक्षिण एशिया के कई सारे मुल्कों में चाहे पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथी की बढ़ोतरी हो या बर्मा में बौद्ध कट्टरपंथी की बढ़ोतरी हो या श्रीलंका में सिंहली कट्टरपंथी और एक मेजोरिटरियनिस्म का एजेंडा जो सफल रहा है और हिन्दुस्तान में उसी के साथ साथ हिंदुत्व कट्टरपंथी की जो बढ़ोतरी हुई है लगभग पिछले एक दो दशकों में , यह साइमल्टेनियस्ली हर जगह एकसाथ हो रहा है, इसके पीछे आप क्या कारण देखते हैं ? और हिन्दुस्तान की जो बढ़ती हुई हिंदुत्व कट्टरपंथी है, क्या इसको भी इस सन्दर्भ में समझने की ज़रुरत है?
सुभाष : मुझे लगता है की पिछले बीस साल से लगभग ये चीज़ें जो भारत में भी हम देखते हैं तो बीस पच्चीस साल पहले ही समाजवादी आंदोलन दुनियां के पैमानें पर , उसके कमजोर पड़ने के बाद , दुनियां के पैमानें पर ऐसी फोर्सेज जो इमर्ज हुईं हैं, वैकल्पिक सिस्टम जो उनके सामने कोई दिखता नहीं है तो मैं इसको इस चीज़ से रिलेट करता हूँ की एक फैक्टर वहां से आ रहा है की भाई अगर तीस और चालीस में कोई एंटीकोलोनियल मूवमेंट था , सम्राज्य्वाद के खिलाफ एक संघर्ष चल रहा था , एक दूसरे को ताकत पहुंचा रहे थे , तीस चालीस साल का सफर जहाँ पर भी हुकूमतें बनी , संकट है, वैश्वीकरण का दौर है , और ऐसे समय में समाजवादी हुकूमतों का टूटना , ऐसे में ऐसे फोर्सेज का पनपना काफी दिखता है , पूर्व यूरोप में भी में भी दिखता है , भारत इस मामले में अनोखा देश है , सेकुलरिज्म के सवाल पर जब, हमें आजादी मिली थी , अडिग ढंग से रहे , पाकिस्तान या बांग्लादेश ने जिस इस्लामाइज़ेशन का एजेंडा रखा भारत में भी, वहाँ पर तो ज़्यादा स्थितियाँ खराब हुई हैं और भारत में और भारत जैसे देश में जब ज़्यादा चीज़ें ख़राब होती हैं तो उसका असर भी दूसरी जगहों पर जाता है। तो मिला-जुला एक मामला मैं देखता हूँ।
नकुल- जब आज़ाद हिंदुस्तान स्थापित भी हुआ था तो तब सैक्युलरिज़म के मुद्दे पर या धर्म निरपेक्षता के मुद्दे पर कहीं न कहीं अडिग रहा था । लेकिन क्या आप मानते हैं कि आज जो एक बढ़ोतरी हुई है इस तरह की ताकतों की, और आज जो खुले तरीके से यह लोग जो ज़मीन पर अपना काम कर रहे हैं... क्या यहाँ पर धर्म निरपेक्ष ताकतें जो हैं ख़ास कर कि मैं सिर्फ़ राजनैतिक पार्टियों की बात नहीं कर रहा यहाँ, पर लेकिन अलग अलग लोग जो धर्म निरपेक्षता की लड़ाई को आगे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं... क्या कहीं न कहीं यह एक इनकी हार भी रही है ? क्या कहीं न कहीं कुछ ज़मीनी परिस्थितियों को समझने में यह लोग भी असफ़ल रहे हैं और आगे का रास्ता क्या होगा इन ताकतों से लड़ने का, सांप्रदायिक ताकतों से अगर विजय प्राप्त करनी है तो आगे का रास्ता आप क्या देखते हैं?
सुभाष- आपने बिलकुल सही कहा , ये जो सेक्युलर फोर्सिज़ की हार है निश्चित तौर पर हार है, और दक्षिण एशिया के इस पूरे इलाके में मेजोरिटरियनिस्म का जो उभार दिख रहा है उसको सिर्फ़ हम लोग समाजवाद की विफ़लता से नहीं जोड़ सकते हैं । हमारी सोसाइटी की इंटर्नल प्रॉब्लम्स रही हैं, मुझे लगता है कि जिसको डील करने में हम लोग असफ़ल हुए हैं, चाहे वे पॉलिटिकल पार्टीज़ हों या हम सभी लोग जो भी सेक्युलर अपने आप को कहते हैं क्योंकि नेहरू और गाँधी का जो सैक्युलरिज़म था उन्होंने जो मतलब इस मामले में एक और भूमिका अदा की थी लेकिन दो चीज़ों में फ़र्क करना पड़ेगा सैक्युलरिज़म, स्टेट का सैक्युलर बने रहना और समाज का सैक्युलर बने रहना , समाज का जो सैक्युलराइज़ेशन का सवाल है मुझे लगता है कि यह सवाल हमारे एजेंडा से लगातार छूट गया है। समाज का सैक्युलराइज़ेशन कैसे होगा वह चाहे पॉलिटिकल पार्टीज़ की तरफ से भी छूटा है लेफ़्ट पार्टीज़ की तरफ से भी छूटा है और बाकी जो छोटे-छोटे सेक्युलर संगठन हैं उन की तरफ़ से भी छूटा है और इस मामले में मुझे लगता है कि दक्षिणपंथी शक्तियाँ ज़्यादा सक्रिय थीं, मतलब हमारा समाज और सैक्युलरिज़म का सवाल... मतलब राज्य और धर्म के अलग होने का, सेपरेशन का सवाल है और तीसरी दुनिया के देशों में यह बहुत घुला-मिला मामला है और आपको एक बहुत कंसिस्टेंट पॉलिसी अपनानी चाहिए थी जो हमने अपनाई नहीं। इसके बरक्स हम दक्षिणपंथी की ताकतों को देखते हैं
वे सैक्युलरिज़म के बारे में क्लीयर थे, कि वे सैक्युलरिज़म से संतुष्ट नहीं थे , वे हिन्दू राष्ट्र लाना चाहते थे । उन्होंने स्कूलों के ज़रिए और तमाम सारी चीज़ों के ज़रिए अपने इस एजेंडा को आगे बढ़ाया तो , स्टेट में भले वे न थे , आरएसएस के लोग बड़े मार्जिनल थे ४७ में, लेकिन सोसाइटी को उन्होंने डीसैक्युलराइज़ और अधिक से अधिक किया है इस काम में वे सफ़ल रहे और दूसरा मुझे एक बात, जो मुझे आंदोलन से लगातार छूट रही है हमारी सोसाइटी बहुत बार्बरिक सोसाइटी है। हम भले अपने आप को सहिष्णु कहें लेकिन बहुत बर्बर समाज है हमारा और जब कि हम सब लोग ज़्यादातर सहिष्णुता की बात करते हैं। तो कहीं न कहीं हमारी सोसाइटी का जो माइन्डसेट है बनावट है वह भी हम से छूट रहा है, और जिसको हम लोगों लगता है मुझे लगता है एजेंडा पिलाना पड़ेगा। नए तरह के सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों की शुरुआत हमें करनी पड़ेगी या अगर चल रहे हैं तो उनको और तेज़ी से आगे बढ़ाना पड़ेगा तब ही हम थोड़ा सा, एक लड़ाई थोड़ी सी आगे बढ़ सकती है मॉडर्निटी का सवाल बहुत ज़ोरदार ढंग से लाना पड़ेगा, कुछ ऐसे सवाल हैं जो उनको लाना पड़ेगा। और सिर्फ़ अगर हम यह कहें कि सिर्फ़ पॉलिटिकल लेवल पर अगर हम कुछ करेंगे तो नाकाफ़ी रहेगा।
नकुल -जो आप कहे रहे हैं कि राजनैतिक लड़ाई तो एक लड़ाई है। वहीं पे समाज के सेक्युलराईज़ेशन का प्रोसेस बहुत जरुरी है। इसी सन्दर्भ में मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहुँगा, बार बार ऐसी धर्मनिरपेक्ष्ता,जो संगठन धर्मनिरपेक्ष्ता की लड़ाई लड़ रहे है और आंदोलन आगे ले जाने की कोशिश कर रहे है लेकिन अक्सर उनसे एक बात सुनने को मिल रही है,कांग्रेस या सपा जैसी पार्टिओं को फिर से मजबूत करो उनके पीछे अपनी ताकत लगा दो और वहीं से ही फिर से सेकुलरिज्म की जीत हो सकती है। लेकिन पिछले कई सालों में हमने देखा है कि ये पार्टियाँ सेकुलरिज्म के मुद्दे पर अवसरवादी पार्टियाँ रहीं हैं, जहाँ जब एक तरफ जरूरत पड़ी है जब एक तरफ दबाव रहा है हमेशा पीछे झुक गई हैं । चाहे वो राजीव गाँधी बावरी मस्ज़िद के स्थान पर शिलान्यास करवाना, तो क्या ये फिर से रणनिति को भी फिर से सोचने की जरूरत है। ऐसी पार्टियों को दरअसल सेकुलरिज्म बचाने के लिए बार बार और बिना उनके एजेंडा को क्वेश्चन करे इन ही पार्टियो को समर्थन क्यों ?
सुभाष -टेक्टिकली अगर ऐसी स्थिति अगर हम ताकतवर नहीं हैं । तो ऐसी पार्टियों को स्पोर्ट करना पड़ जाता है। मैं उनकी मजबूरियाँ समझ सकता हूँ और मैं अगर कम्युनल फासिस्म का झण्डा लेकर कोई पार्टी आगे बढ़ रही है, कोई आरएसएस और बीजेपी आगे बढ़ रही है, उसके बरक्स कांग्रेस या सपा जिसके बारे में बहुत सवाल हो सकते हैं लेकिन मुझे लगता है जो बात आप कह रहें हैं जो संकेत दे रहे है ज़्यादातर हम उन पर ही निर्भर हैं।
वैकल्पिक आन्दोलन जो दबाव का आन्दोलन, ताकि ये ताकतें जो सेकुलरिस्म के सवाल पर ढुलमुल रहतीं हैं । 2004 के बाद हिन्दू ट्रिस्ट का मसला रहा है। हमारे बीच हिन्दू टेरर का जो मसला रहा है, हिंदुत्व टेरर के खिलाफ पूरी लड़ाई रही है उनको लगता है की कांग्रेस यूपी हुकूमत ने पूरी लड़ाई लड़ी, बाकि फोर्सेज मतलब आरएसएस कार्यकर्ता अन्य सगठन के कार्यकर्ता जो आतंकी हमलों में शामिल पाये गए थे । जब पूरे हिन्दू डिफेंस में थे। तो ऎसे में एक मौका हमसे छूट गया । मैं उदाहरण देना चाहूंगा कि हम अपनी सारी बातें और सारी बन्दुकें उनके सिर पर रखते हैं ,तो आपने हिसाब से करेंगे तो ये करना पड़ेगा। वैकल्पिक अपना आधार मजबूत करना समाज के बारे में सोचना ये करना पड़ेगा।
नकुल -अगर हम समाज के सकुलजम के बारे में बात करे सकुलिजम की परिभाषा भी बहुत सीमित हो गई है। दरसल ऐसी पार्टियों की वजह से जो आपने आपको सेकुलरिज़्म कह रहीं हैं , सैक्युलरिज़म का मुद्दा यहाँ तक आ कर सीमित रहा गया है। हमारे शासन में दंगे नही हुए । लेकिन सैक्युलरिज़म की बात करते है सच्चे धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं माइनॉरिटी स्टेटस, जो अल्पसंख्यक समुदाय है उनका हमारे देश में क्या विकास हुआ है। क्योंकी आज तक इस देश में ज्यादातर कांग्रेस की सरकार रही है। केंद्र में तो मुसलमानो की स्थिति जो आज सामने नजर आ रही है , आर्थिक रूप से आज वो दलितों से भी पिछड़े हुए है । तो क्या सैक्युलरिज़म, दंगा न होना या स्टेट और धर्म को अगल रखने के अलावा माइनॉरिटी को सामने रखते हुए ये अपनी सैक्युलरिज़म की परिभाषा में जोड़ने की जरूत है।
सुभाष - ये आपने बिल्क्कुल सही बात कही, ज्यादा शाशन में तो सकुलर पार्टियां रहीं है। ये कहती हैं कि हमारी हुकूमत में दंगे नहीं हुए। लालू प्रसाद अपनी पीठ इसलिए थपथपाते हैं की मैंने दंगें नहीं होने दिये। लेकिन सेक्युलर पार्टी की निगाह में माइनॉरिटी कम्युनिटी के तौर पर है। माइनॉरिटी को सिटीज़न के तौर पर नही लेती। अगर देखा होता तो उसके विकास के लिए कोशिश की होती। और इस मामले में सच्चर कमिशन की रिपोर्ट आँख खोलने वाली है। पश्चिम बंगाल में जिसकी हुकूमत रही है। और वहा मुस्लमानो के जो हलात है। बाक़ी देश के और हिस्सों से ही बदतर हैं । उन्होंने देंगे तो नहीं होने दिए चलो मान लेते हैं । लेकिन उन्होंने भी मुस्लिम कम्युनिटी को कम्युनिटी के तौर पर देखा कि उनको हिफाज़द की जाये । ये निश्चित तौर पर सेक्युलर फोर्सेज के लिए परेशान करने वाला सवाल है जिसको हमे एड्रेस करना है ।
नकुल - न्यूज़क्लिक में आने के लिए धन्यवाद और आगे भी आप से इस मुद्दों बातचीत होती रहेगी शुक्रिया ।
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