हिंदुत्व सपाट है और बुलडोज़र इसका प्रतीक है
अपने विचारक जॉन बर्जर की तरह मैं भी अपने समय की कला और विचारधारा को समझने के लिए एक आलंकारिक बिंब की तलाश में रहता हूं। पिछले कुछ समय से मैं हिंदुत्व और इसके अपरिभाषित क्षेत्र की एक जटिल परिभाषा की तलाश करता रहा हूं। इसके छुपे हुए मायने हैं। किसी बुलडोजर की तरह इसके दांत इसके जीभ और पेट में छिपे हुए हैं। मैं एक ऐसे लाक्षणिक बिंब की तलाश में था, जो इसकी ध्वंसात्मक शक्ति को स्पष्ट कर दे। इसकी बेलगाम भावनाओं को सामने रख दे। अपने आप चलने वाली इसकी ख़ासियत को बेपर्दा कर दे। मैंने एक ऐसी जिस्म और मशीन की तलाश की, जिसने इसकी मांसपेशियों और गति को देख लिया। इसकी मांसल सियासत को बेपर्दा कर दिया।
मैं हिंदुत्व की उस विद्युतीय शक्ति को समझने की कोशिश कर रहा था, जो शब्दों को वायरल कर देती है और शरीर को एक भाव समाधि में डाल देती है। मैं एक कलाकृति की तलाश में था। एक ऐसी वस्तु की तलाश में था, जिसमें सांस्कृतिक और प्रदर्शनी मूल्य तो हैं, लेकिन वह राम नवमी के जुलूस की तलवारों की तरह शरीर को काट भी सकते हैं। मैं एक ऐसे बिंब की तलाश में था, जो तोपखाने और कलाकृतियों को एक साथ ले आये। संगीत और आतंक को एक साथ खड़ा कर दे। नारे और मौन को एक साथ मिला दे। मस्ती और हिंसा को एक साथ ले आये। मैं हिंदुत्व का एक ऐसा खिलौना ढूंढ रहा था, जो अमेरिकी साम्राज्य की टॉय गन संस्कृति की तरह चोरी-चोरी प्यार भी पैदा करता है और बच्चों के मन में हिंसा भी पैदा कर देता है। मैं उस वस्तु की तलाश में था, जो बुलडोज़र की तरह ही इन सभी चीज़ों को एक साथ एक ही बंडल में लपेट लेती हो।
हिंदुत्व का जो लाक्षणिक बिंब मुझे मिला है, वह एक बुलडोज़र का है, जो चलता जाता है, ध्वस्त करता जाता है। यह असहमति में था, शरीर और आत्मा में था, राजनीति और जुलूस में था, संकेत और सनसनी में था, भीड़ और ख़ुद से चलने वाली शक्ति में था, मनुष्यता और मशीनीपन में था। यह एक ऐसा उपकरण है, जो अपने वर्चस्व में जैव-राजनीतिक के साथ-साथ भू-राजनीतिक भी हो जाता है। यह ध्वस्त करने के लिए चलता है; यह विस्थापित करने के लिए चलता है; यह हावी होने के लिए चलता है। यह तबाह करने के लिए चलता है। यह संवाद की किसी भी संभावना को खारिज करने के लिए आगे बढ़ता है। यह उस ज़मीन को खिसकाने के लिए चलता है, जहां कोई खड़ा होता है। यह दूसरों की आजीविका की क़ीमत पर प्रहार करने के लिए एक नये मकाम बनाने के लिए आगे बढ़ता है।
भारत में बुलडोज़र महज़ मशीन नहीं रह गया है। यह अब एक कलाकृति बन गया है। यह लोकप्रिय मानस में प्रवेश कर गया है। बुलडोजर की भारी मांग है। लोग इसे शादी और बर्थडे गिफ़्ट के तौर पर दे रहे हैं। बुलडोजर वाले खिलौनों की भारी मांग है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बनारस में होली के दौरान बुलडोज़र पिचकारी हर दूसरी दुकान पर बिक रही है। इस उपकरण को समर्पित लोकप्रिय गाने और संगीत ट्रैक हैं। मीडिया इसकी ख़बरों और विचारों से भरा पड़ा है। नेता इसके नाम पर अपना नाम रखने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे कि बुलडोज़र बाबा, बुलडोज़र मामा, भाई बुलडोज़र, इत्यादि। बुलडोजर भारतीय राजनीति की नयी ताक़त है। बिहार में एक दवा की दुकान में एक युवक बुलडोज़र (कंडोम) मांग रहा था। मैं यह देखकर सन्न रह गया। दरअसल, यह एक जेसीबी कंडोम है। इसके प्रचार में कहा गया है, "यह आत्मविश्वास को बहाल करता है और आपको हीन भावना से छुटकारा दिलाता है।" ज़ाहिर है, बुलडोज़र हिंदुत्व की मर्दानगी की असुरक्षा की निशानी है।
हिंदुत्व का सपाटपन
मुझे जल्द ही एहसास हो गया कि हिंदुत्व में जटिलता नहीं है। यह बस जटिल नहीं हो सकता। इसे जटिल दिखने में कोई दिलचस्पी नहीं है। शायद हमें हिंदुत्व की जटिल परिभाषा की ज़रूरत भी नहीं है। बुलडोजर हिंदुत्व के सपाट होने की निशानी है। यह सब कुछ खोद देना चाहता है; यह उस मिट्टी को खोद देना चाहता है, जो आत्मा का पोषण करती है; यह उस खाद्य पदार्थ को रौंद देना चाहता है, जो शरीर को पोषण देता है; और यह उस घर को तबाह कर देना चाहता है, जो हमें अपनेपन का एहसास देता है। यह सब कुछ खोद देना चाहता है। यह इतिहास को सुगम बनाने की योजना बना रहा है। यह उठे हुए हाथों को काट देना चाहता है। यह उठे हुए सिरों को कुचल देना चाहता है। यह नवउदारवादी राजनीति के एजेंडे के साथ चलते हुए सब कुछ सपाट और पारदर्शी बना देना चाहता है। हिंदुत्व के लिए आस्था और धर्म से लेकर राष्ट्रवाद तक, यानी सब कुछ एक नुमाइश है। यह एक शानदार स्तर पर राजनीति का एक उल्लेखनीय प्रदर्शन है। जब तक आप नुमाइश नहीं करेंगे, हम कैसे जान पायेंगे? यह विनाशकारी रूप में हिंदू धर्म का नव-उदारवादी विन्यास है। कुछ लोग कहते हैं कि बुलडोजर विकास लाता है।
बेशक, हिंदू धर्म और हिंदुत्व में फ़र्क़ है। लेकिन, उस तरह का फ़र्क़ नहीं है, जिस तरह उदारवादी हमें दिखाना चाहते हैं; यही कि हिंदुत्व अच्छा है, हिंदुत्व बुरा है। यह फ़र्क़ तो उनके ख़ुद को सामने रखने के तरीक़ों में निहित है। हिंदू ढोंग बनाये रखता है, हिंदुत्व सपाट है। एक तरफ़ यह रस्मी है, दूसरी तरफ़ दिखावा है। जब जाति पदानुक्रम की बात आती है, तो हमें बेझिझक हो कर कहना होगा कि अगर हिंदू धर्म शातिर है, तो हिंदुत्व भौंडा है। हिंदुत्व अपनी 'समायोज्य विचारधारा' के साथ जो कुछ करता है, उससे अलग हिंदुत्व दूसरों के प्रति गैर और हीन की भावना पैदा कर के करता है! हिंदू धर्म के लिए जो निचली जातियां हैं, हिंदुत्व के लिए वही मुसलमान हैं। एक आधिपत्य के ज़रिये अपनी विचारधारा को बनाये रखता है; तो दूसरा पाशविक बल के प्रतीक बन चुके बुलडोज़र से इसे बनाये रखना चाहता है। इन दोनों में नफ़रत आम बात है, और इसीलिए यहां इस तरह का वर्गीकरण भी बहुत आम है।
हिंदू धर्म के लिए ख़तरनाक़ क़रार देते हुए हिंदुत्व को कोई छिपा नहीं सकता। ससच्चाई तो यही है कि हिंदुत्व ने उस हिंदू धर्म को एक नया जीवन दे दिया है, जो अपनी निचली जातियों से संकट का सामना कर रहा था। इसके विस्तार पर नज़र डालिए। आप पायेंगे कि हिंदू धर्म ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया है। यह विस्तार हिंदुत्व की विचारधारा से ही संभव हो पाया है। आज का हिंदुत्व कल का हिंदू धर्म है। हम जिस चीज़ का इस समय सामना कर रहे हैं, वह हिंदू के रूप में हिंदुत्व की विचारधारा का सामान्यीकरण है। हिंदुत्व नव-उदारवादी शासन में हिंदू धर्म की एक सामान्य अभिव्यक्ति है। हम कह सकते हैं कि हिंदुत्व कोई भटकाव नहीं है। यह अपने वास्तविक सनातन अर्थ में धर्म ही है।
यह कहकर छुपाया नहीं जा सकता कि हिंदुत्व पश्चिमी विचारधारा से प्रेरित है; इसकी भारतीय जड़ें भी हैं। क्या हम इसका इतिहास भूल गये: विरोध करने वालों को कैसे दंडित किया जाता था, महिलाओं को जलाया जाता था, और बौद्ध धर्म को अपनी ही भूमि में कुचल दिया गया था? हम जो कुछ इस समय देख रहे हैं, वह नया तो है, लेकिन इतना भी नया नहीं है। क्या हम ऐसा मानते हैं कि आज हम जो नफ़रत देख रहे हैं, वह सात या दस साल में बनी है? यह सालों से संचित होती रही है और अब जाकर बाहर निकल रही है। इसने अपना उपयुक्त समय और पल पा लिया है।
बुलडोज़र इस बात की निशानी है कि हिंदुत्व सपाट है! लोहे का बना हुआ इसका हृदय चपटा है, और इसकी आंखें चपटी हैं। यह कुछ नहीं देखता। यह कुछ नहीं सुनता। यह सब कुछ सपाट कर देना चाहता है। यह सभी को एक तरह के बना देने में यक़ीन रखता है। हिंदुत्व जीवन और संस्कृति के साथ जो सबसे कपटपूर्ण काम करता है, वह यह है कि वह सब कुछ सपाट कर देता है। यह चीज़ों को काले और सफेद रंग में देखता है, यानी कि आप या तो हिंदू हैं या मुसलमान हैं। आप या तो राष्ट्रभक्त हैं या देशद्रोही हैं। आप या तो हमारे साथ हैं या हमारे ख़िलाफ़ हैं। इसकी कला, अलंकारशास्त्र, महाकाव्य और मूर्तियां आमतौर पर इसी लीक पर चलते हैं और चोट करते हैं। यह सब कुछ सपाट कर देता है। क्या आपने वह बॉलीवुड फ़िल्म देखी है? द कश्मीर फ़ाइल्स? इस फ़िल्म में राजनीति सपाट हो जाती है, और इसी तरह खाई को समझे बिना ही भिन्नता को आगे कर देती है। नर्मदा के सामने खड़े दुनिया के सबसे ऊंचे स्मारक, यानी स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के निरा सपाटपन पर नज़र डालें; यह शानदार है । यह टकटकी लगाकर देखने की मांग करती है, लेकिन खुलकर दिखायी नहीं पड़ती। यह अपना मुंह नहीं खोलती। यह सीधा रहती है। हिंदुत्व की इस कला का प्रतिनिधित्व करने वाले बुलडोजर से बेहतर कुछ नहीं है। एकदम सपाट। बेरहम। एक शानदार मशीन। यह कुछ भी नहीं छुपाता। यह अपने अंदर कोई राज़ नहीं रखता। सपाट होना इसकी स्पष्ट पुकार बन गया है। बुलडोजर की कला में सौन्दर्यशास्त्र का एक सपाटपन है। यह हमें भविष्यवाद की याद दिलाता है जो फ़ासीवादियों की कला है।
अगर हिंदुत्व चोटी बांधे किसी ब्राह्मण की छवि का प्रतिनिधित्व करता है, तो हिंदुत्व मुझे ब्रह्मराक्षस की आकृति की याद दिला देता है। कई लोक कथाओं में इस आकृति को एक विशाल, लेकिन नीच व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है। यह एक डरावनी आकृति होती है, जिसके सिर पर सींग और बिखरे हुए बाल और चोटी होते हैं। वह एक पेड़ पर उल्टा लटका हुआ होता है। वह अपनी आकृति में बुलडोजर की तरह एक घुमावदार पूंछ, मांसाहारी दांत और तेज़ नाखून वाला होता है। अपने मतभेदों के बावजूद, ब्राह्मण, ब्रह्मराक्षस और बुलडोजर बलि की तलाश में ही रहते हैं। कभी-कभी वे दिमाग़ पर कब्ज़ा कर लेते हैं। कभी-कभी वे शरीर को चीर देते हैं; कभी-कभी वे ज़मीन को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं।
बुलडोज़र का भी एक इतिहास है
अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ इस बुलडोज़र की तैनाती भारत में भले ही नयी हो, लेकिन इसका नरसंहार का लंबा इतिहास रहा है। दुनिया में इस बुलडोज़र के आने से पहले संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ हिस्सों में अश्वेत लोगों को डराने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द 'बुलडोज़र' ही था। बुलडोज़िंग शब्द का इस्तेमाल हिंसक और ग़ैर-क़ानूनी तरीक़ों से डराने-धमकाने का वर्णन करने के लिए किया जाता था। बुलडोज़र का अंधेर कोई नयी बात नहीं है और न ही इस शब्द में गुंथी हुई हिंसा ही नयी बात है। संयुक्त राज्य अमेरिका में 1870 के दशक में "बुलडोज़" शब्द का इस्तेमाल किसी भी दवा या सज़ा की एक बड़ी और काम करने वाली खुराक को प्रबंधित करने के लिए किया जाता था।
इस शब्द का पहला दर्ज इस्तेमाल का इतिहास 1876 में मिलता है, जब इसके मायने और कंपा देने वाला असर तो था, लेकिन तबतक यह मशीन नहीं आ पायी थी। 1876 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से पहले अश्वेत अमेरिकी मतदाताओं को "बुलडोज़" होने का सामना करना होता था, यानी उन्हें अपने अधिकारों में भागीदारी को लेकर गंभीर मार-पीट का उसी तरह सामना करना होता था, जैसे "किसी बैल के सामने किसी को एक चारे" की तरह फेंक दिया जाता हो। उनकी पिटाई की जाती थी, कोड़े मारे जाते थे और अक्सर पीट-पीट कर उन्हें मार डाला जाता था। एंडी हॉलैंडबेक अपनी किताब, इन ए वर्ड: द रेसिस्ट ओरिजिन्स ऑफ़ 'बुलडोज़र' में लिखते हैं, "कई लोगों को ख़ामोशी से बुलडोज़ कर दिया जाता था।" वह यह भी लिखते हैं कि बुलडोज़िंग का एक स्पष्ट मतलब था और वह था- 'ताक़त के इस्तेमला से ज़ोर-ज़बरदस्ती करना या वंचित कर देना'। इस विशाल मशीन के आविष्कार ने इस शब्द को और भी ज़्यादा मूर्त बना दिया। बुलडोज़र अपने शक्तिशाली अर्थ का जो आलंकारिक बिंब लेकर आया, वह था: पाशविक शक्ति का इस्तेमाल करना।
भारत में बुलडोज़र का आना महज़ संयोग नहीं है; यह इस वक़्त की विचारधारा का प्रतीक है। बुलडोज़र ज़्यादा हिलता-डुलता नहीं, बल्कि यह भौगोलिक सीमाओं के परे सभी नरसंहार की प्रवृतियों को जोड़ने वाला प्रतीक है। यह कभी संयुक्त राज्य अमेरिका में अश्वेतों के ख़िलाफ़ था। यह आज चीन में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ है। इसका इस्तेमाल फ़िलिस्तीन में इज़रायली अधिकारियों की ओर से किया जाता रहा है। यह दुनिया भर में स्वदेशी और जातीय विस्थापन के केंद्र में रहा है। इस सिलसिले में प्रणय समाजुला लिखते हैं, "सच्चाई यह है कि भारत और इज़राइल, दोनों ही देशों में बुलडोज़र सरकारी दमन के एक ख़ौफ़नाक़ प्रतीक के रूप में उभरा है। दोनों ही देशों के मामलों में यह बात आम है कि भारत और इज़राइल दोनों ही देशों में शासन करने वाले एक दूसरे से भौगोलिक दूरी पर तो हैं, लेकिन,दोनों ही देशों का एक जातीय-बहुसंख्यक रंगभेदी सरकार वाला एक साझा नज़रिया है और उस नज़रिये को साकार करने के लिए ये दोनों देश चरम सीमा तक जाने के इच्छुक भी नज़र आते हैं।”
दिल्ली और मध्य प्रदेश में तबाही और विस्थापन को अंजाम देने से बहुत पहले इज़रायली अधिकारियों ने इसे फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया था। यह मशीन अपनी विरासत और अर्थ, दोनों लेकर आयी है और इसी तरह भीतर तक झकझोर देने वाली यादें और असर लेकर भी आयी हैं। इन नामालूम क्षेत्रों के बीच का यह रिश्ता क्या है? हम यक़ीन के साथ नहीं कह सकते कि भारतीय अधिकारियों ने श्वेत या यहूदी वर्चस्ववादियों से सीखा है या नहीं, लेकिन, उनका नरसंहार वाला यह रिश्ता तो स्पष्ट है। उनके बीच का बुलडोज़र कनेक्शन भी स्पष्ट है। इसलिए, सत्ता की बेरहमी और इसके सौंदर्यशास्त्र का सपाटपन भी उतना ही स्पष्ट है।
ब्रह्म प्रकाश नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ आर्ट्स एंड अस्थेटिक्स में थिएटर एंड परफ़ॉर्मेंस स्टडिज़ के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।
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