केंद्र की पीएमजेवीके स्कीम अल्पसंख्यक-कल्याण के वादे पर खरी नहीं उतरी
भारत सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय द्वारा घोषित प्रधानमंत्री जन विकास कार्यक्रम (पीएमजेवीके), बहुक्षेत्रीय विकास कार्यक्रम (एमएसडीपी) का एक पुनर्गठित और संशोधित रूप है। इस केंद्र प्रायोजित संरचनागत सहायता स्कीम (पीएमजेवीके) का लक्ष्य अल्पसंख्यक समुदायों को शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास के क्षेत्र में बेहतर सामाजिक-आर्थिक आधारभूत सुविधाएं प्रदान करना है। यह प्रधानमंत्री के 15 सूत्री नये कार्यक्रमों के अंतर्गत अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए चलायी जा रहीं अनेक स्कीमों में से एक है, जो 2005 में लागू की गई थी।
यह अल्पसंख्यक सघन रिहायश वाले 90 जिलों में लागू की गई थी। चूंकि जिले भौगोलिक आकार में काफी बड़े हैं, इस वजह से इस योजना के लाभ जमीनी स्तर पर बहुत कम ही पहुंच पाते हैं। अत: 2012-14 में अल्पसंख्यक सघन रिहाइश वाले प्रखंडों, अल्पसंख्यक सघन रिहाइश के शहरों और अल्पसंख्यक सघन रिहाइश वाले गांवों के समूहों (कलस्टर्स) पर जोर दिया गया ताकि जमीनी स्तर पर समुदायों को स्कीम के सीधे लाभ पहुंचाये जा सके।
अल्पसंख्यक मंत्रालय ने वित्तीय वर्ष 2019-20 में लगभग 45,100.00 करोड़ रुपयों का आवंटन किया था। इनमें से 31.28 फ़ीसदी आवंटन पीएमजेवीके को किया गया था, जो मंत्रालय द्वारा ‘शिक्षा सशक्तिकरण’ मद के बाद किया गया दूसरा सबसे बड़ा आवंटन था।
झारखंड के गुमला जिले के एक मुस्लिम बहुल गांव सीसी में, जहां हम लोग काम करते हैं, अपने दौरे के दौरान हमने पाया कि इस गांव को बहुक्षेत्रीय विकास कार्यक्रम (एमएसडीपी) के अंतर्गत कलस्टर घोषित नहीं किया गया था। यही बात अन्य गांवों जैसे कोटम, कटरी, लुटो और पांसो के बारे में भी सच थी। अधिकतर गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) तक नहीं थे। जबकि कोटम में एक पीएचसी स्वीकृत था, लेकिन वह संसाधनविहिन था और वहां स्टाफ का घोर अभाव था। कोटा में निर्मित प्राथमिक विद्यालय का इस्तेमाल केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के एक कैंप के रूप में किया जा रहा था। इन गांवों की तरफ सरकार का पर्याप्त ध्यान दिलाए जाने का एक तरीका उन्हें अल्पसंख्यक कलस्टर्स घोषित करना भी हो सकता है।
इसके पहले, एमएसडीपी के अंतर्गत इन बुनियादी जरूरतों की पूर्ति उन्हीं जिलों या प्रखंडों में की जाती थी, जहां अल्पसंख्यकों की आबादी 50 फीसदी या इससे ऊपर हो। प्रधानमंत्री जन विकास कार्यक्रम के नाम से लागू इस नई स्कीम में अल्पसंख्यक आबादी की उस हद को घटाकर 25 फ़ीसदी कर दिया गया। यानी जिन जिले या गांवों में अल्पसंख्यकों की आबादी 25 फ़ीसदी होगी तो भी वहां बुनियादी जरूरतों या कल्याण की योजना लागू की जाएगी। इसके अलावा, 25 फ़ीसदी अल्पसंख्यक आबादी वाले सघन गांवों के समूहों को, जिसे अल्पसंख्यक सघन प्रखंडों (‘एमसीबी’) के अंतर्गत चिह्नित नहीं किया गया है, उन्हें अल्पसंख्यक सघन गांवों के समूह (‘क्लस्टर्स’) के रूप में घोषित किया जा सकता है। हालांकि, वास्तविकता में, इन गांवों को न तो एमसीबी के तहत घोषित किया गया है और न ही समूहों (क्लस्टर्स) के अंतर्गत।
यहां तक कि इस स्कीम के अंतर्गत यह घोषणा पूरी तरह से अपर्याप्त आधारभूत सर्वेक्षण के आधार पर की गई थी। गुमला जिले का हमारा अनुभव बताता है कि सर्वेक्षण में एक गांव में 70 से 80 फ़ीसदी आबादी ईसाइयों की बता दी गई थी, जबकि हमने पाया कि वहां एक-दो घर ही ईसाइयों का है बाकी अन्य समुदायों के। इसी तरह, एक अन्य गांव में अल्पसंख्यकों की आबादी 112 फ़ीसदी घोषित कर दी गई थी, जो गणितीय रूप से असंभव है।
नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया (एनएफआइ) और सेंटर फॉर सोशल जस्टिस (सीएसजे) ने 2017 में सात राज्यों में किये गये अपने एक अध्ययन को ‘रहनुमा’ शीर्षक से जारी किया था। इस रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए प्रधानमंत्री के 15 सूत्री नये कार्यक्रमों के क्रियान्वयन का अध्ययन किया था, जिसमें उसने एमएसडीपी को लेकर निम्नलिखित टिप्पणियां की थीं :-
“एमएसडीपी के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण चिंता उसकी निम्न स्तरीय भौतिक प्रगति के परिणामों को लेकर है, जो इस कार्यक्रम के तहत पूरा किए जाने वाले कामों के खराब स्तर को दिखाता है। इसलिए कि इस समय तक 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत प्रस्तावित 80 फ़ीसदी धन-राशि खर्च कर दी गई है, लेकिन धरातल पर उसकी प्रगति दयनीय है। यह बताती है कि मंत्रालय को इस कार्यक्रम के बेहतर क्रियान्वयन पर तत्काल ध्यान देने आवश्यकता है।”
यही वास्तविकता है, जैसी कि झारखंड की स्थिति में देखी जा सकती है। यह एक या दो राज्यों तक ही सीमित रहने वाली कोई अनोखी दिक्कत नहीं है। दिसंबर 2019 तक पीएमजेवीके की शुरुआत उन राज्यों में नहीं हो सकी थी, जहां ऐसा होना तय किया गया था क्योंकि उन राज्यों ने इसे स्वीकृति नहीं दी थी जबकि अन्य कुछ राज्यों में इस स्कीम में धन का आवंटन तो कर दिया गया था लेकिन प्रोजेक्ट ही स्वीकृत नहीं हुआ था। इसी तरह, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की सरकार ने प्रधानमंत्री जन विकास कार्यक्रम स्कीम 2019-20 के अंतर्गत आवंटित राशि का मात्र 10% ही उपयोग कर सकी थी।
संसद की स्थाई समिति ने अगस्त 2018 में सामाजिक न्याय सशक्तिकरण के बारे में एक रिपोर्ट पेश की थी। “बहु क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम/प्रधान मंत्री जन विकास कार्यक्रम स्कीम के क्रियान्वयन” शीर्षक से इस रिपोर्ट में स्कीम की अनेक त्रुटियों पर टिप्पणियां की गई थीं। रिपोर्ट में कहा गया था कि इस स्कीम के तहत लाभान्वित होने वाले समुदायों के बारे में अलग-अलग आंकड़ों की वजह से लक्षित समुदायों पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभावों का आकलन कर पाना संभव नहीं है। संसदीय समिति ने इस चिंता के साथ अपनी टिप्पणी की थी कि पेयजल आपूर्ति एवं पक्के मकान संबंधी परियोजनाओं को पीएमजेवीके में शामिल नहीं किया गया है। शिक्षा और स्वास्थ्य की स्वीकृत की गईं या शुरू की गईं परियोजनाओं को पूरी करने का सुझाव भी दिया गया है। इसके अलावा, कुछ बहुआयामी मसले थे जैसे, परियोजना के शुरू करने में लंबा समय लेना,कोष के आवंटन में देरी इत्यादि, इससे आवंटित राशि का कम उपयोग हो पाता है। रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया था,“कमेटी ने पाया कि परियोजना निगरानी के अनेक प्रबंधन के बावजूद अल्पसंख्यक सघन रियाइशी क्षेत्र में एमएसडीपी का प्रभाव मुश्किल से दिखाई देता था।”
कमजोर प्रक्रियाएं और प्रणालियां
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 की धारा दो (सी) के अंतर्गत अल्पसंख्यक समुदायों को मान्यता दी गई है और उन्हें अधिसूचित किया गया है। ये समुदाय हैं-मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, यहूदी और जैन। बाद में इस स्कीम का फोकस जमीनी स्तर पर अल्पसंख्यक सघन प्रखंडों (एमसीबी), अल्पसंख्यक सघन शहरों (एमसीटी) और अल्पसंख्यक सघन गांवों के समूहों के समुदायों को लक्षित करना हो गया। योजना पर इस तेज फोकस ने कड़े मानदंडों को शिथिल कर दिया है। यह उन समुदायों के लिए लाभकारी हो गया है, जिन्होंने वास्तविक धरातल पर ऐसे नतीजों की उम्मीदें छोड़ दी थीं।
शुरुआत से ही यह स्कीम अकुशल प्रक्रियाओं और प्रणालियों की शिकार रही है, जिसने इसके क्रियान्वयन में अड़ंगा लगाया है। हालांकि इस स्कीम की कोई एक नहीं विभिन्न प्रशासनिक स्तरों, जैसे राज्य स्तरीय कमेटी, जिला स्तरीय कमेटी, प्रखंड स्तरीय कमेटी इत्यादि द्वारा निगरानियां की गई हैं और उसका नियमन भी किया गया है। यद्यपि,यह देखा गया है कि इन कमेटियों के सदस्यों को अपेक्षित प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। इससे समस्याएं पैदा होती हैं क्योंकि उन्हें मालूम नहीं हो पाता कि इस काम को कैसे किया जाता है। इसके अलावा, स्पष्टता का अभाव भी इन कमेटियों को यह तय करने में मुश्किल पेश करता है कि कहां और किस ढांचे को विकसित किया जाना है। पीएमजेवीके स्कीम की क्षमता के विरुद्ध दूसरा फैक्टर वास्तविक धरातल पर उसके बारे जानकारी का अभाव होना है। राज्य की विफलता की ऐसी स्थितियों में, नागरिक समाज संगठनों और गैर सरकारी संगठनों पर दायित्व आ जाता है। ऐसे में उन्हें उब आगे आना है और समूहों एवं चिन्हित परियोजनाओं की घोषणा को लेकर सरकार पर दबाव डालना है।
अर्हता शिथिलता ने हालांकि चिंताएं बढ़ा दी हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट, जिसने अल्पसंख्यकों को लक्षित कर चलाई जाने वाली एमएसडीपी समेत कई योजनाओं के प्रारंभ का मार्ग प्रशस्त किया था-उसने इस तथ्य को जाहिर किया था कि देश-समाज के अन्य समुदायों की तुलना में मुस्लिम समुदाय सामाजिक-आर्थिक सूचकांकों में सबसे पिछड़े हुए हैं। आबादी प्रतिशत के पैमाने में घटाव ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि स्कीम के लिए भौगोलिक दायरा ज्यादा मायने रखता है लेकिन प्राथमिक लाभार्थियों में से एक (यानी मुसलमानों) को एक बार फिर कम संसाधनों के साथ छोड़ दिया गया है
(लेखकगण सेंटर फॉर सोशल जस्टिस की झारखंड इकाई से संबद्ध हैं और वे गुमला में हाशिए पर पड़े समुदायों को वैधानिक प्रतिनिधित्व प्रदान करने के काम में सक्रियता से संलग्न हैं। उनसे [email protected]पर संपर्क किया जा सकता है। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।
https://www.newsclick.in/centre-PMJVK-scheme-fails-live-promises-minorities
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